णवमो मोक्खाधियारो
The Liberation

बंध के ज्ञानमात्र से मोक्ष नहीं -

जह णाम को वि पुरिसो बंध्णयम्हि चिरकालपडिबद्धो।
तिव्वं मंदसहायवं कालं च यिाणदे तस्स।।
(9-1-288)

जदि ण वि कुव्वदि छेदं ण मुच्चदे तेण बंधणवसो सं।
कालेण दु बहुगेण वि ण सो णरो पावदि विमोक्खं।।
(9-2-289)

इय कम्मबंधणाणं पदेसपयडिट्ठिदी य अणुभागं।
जाणंतो वि ण मुच्चदि मुच्चदि सव्वे जदि विसुद्धो।।
(9-3-290)

जैसे बंधन में बहुत समय से बँधा हुआ कोई पुरूष उस बन्धन के तीव्र-मंद स्वभाव केा औरउसके काल को जानता है, यदि वह उस बन्धन को नहीं काटता है तो वह उस बन्धन से नहीं छूटता और बन्धन के वश हुआ वह मनुष्य बहुत काल में भी छुटकारा नहीं पाता।
इसी प्रकार जीव कर्म-बन्धनों के प्रदेश, प्रकृति, स्थिति और अनुभाग को जानता हुआ भी कर्म-बन्ध से नहीं छूटता। यदि वह रागादि को दूरकर शुद्ध होता है तो सम्पूर्ण कर्म बन्ध से छूट जाता है।
A man, bound in shackles for a long time, knows the nature of his bondage, intense or feeble, and also it duration. He cannot get rid of the bondage till the time he is able to break the shackles. Without such an effort, he cannot get freedom for a very long time.
In the same way, the Self, while knowing the nature of the karmic bondages – quantity of space-points, species, duration, and fruition – does not get rid of these bondages (till he makes an effort). If he attains purity by abandoning attachment etc., he can get rid of all karmic bondages.

बन्ध की चिन्तामात्र से मोक्ष नहीं -

जह बंधें चिंतंतो बंधणबद्धो ण पावदि विमोक्खं।
तह बंधे चिंतंतो जीवो वि ण पावदि विमोक्खं।।
(9-4-291)

जिस प्रकार बन्धन में पड़ा हुआ कोई पुरूष उस बन्धन की चिन्ता करता हुआ (चिन्ता करने मात्र से) छुटकारा नहीं पाता, उसी प्रकार जीव भी कर्म-बन्ध की चिन्ता करता हुआ (चिन्ता करने मात्र से) मुक्ति नहीं पाता।
Just as a man, bound in shackles, cannot get rid of the bondage merely by worrying about it, similarly, a man cannot get liberated from karmic bondage merely by worrying about it.

कर्म बन्ध के क्षय से मोक्ष होता है -

जह बंधे छेंत्तूण य बंधणबद्धो दु पावदि विमोक्खं।
वह बंधे छेत्तूण य जीवो संपावदि विर्मोक्खं।।
(9-5-292)

जिस प्रकार बन्धन में पडा हुआ कोई पुरूष बन्धनों को काटकर अवश्य ही मुक्ति प्राप्त करता है, उसी प्रकर जीव कर्म-बन्ध को काटकर मोक्ष प्राप्त करता है।
Just as a man, bound in shackles, can surely get rid of the bondage by breaking the shackles, similarly, a man can get liberated if he makes efforts to get rid of the karmic bondage.

भेद-विज्ञान से मोक्ष होता है -

बंधाणं च सहावं वियाणिदुं अप्पणो सहावं च।
बंधेसु जो विरज्जदि सो कम्मविमोक्खणं कुणदि।।
(9-6-293)

बन्धों के स्वभाव को और आत्मा के स्वभाव को जानकर जो पुरूष बन्धों के प्रति विरक्त होता है, वह कर्मों से मुक्त होता है।
After knowing the nature of the karmic bondages and also the nature of the Self, the man who keeps at bay all karmic bondages, gets liberated.

प्रज्ञा से भेद-विज्ञान होता है -

जीवो बंधो य तहा छिज्जंति सलक्खणेहि णियदेहिं।
पण्णाछेदणएण दु छिण्णा णाणत्तमावण्णा।।
(9-7-294)

जीव तथा बन्ध ये दोनों अपने-अपने निश्चित लक्षणों के द्वारा प्रथक् किये जाते हैं। प्रज्ञा रूपी छुरी के द्वारा छेदे हुए (पृथक् किये हुए) ये नानारूप हो जाते हैं (प्रथक् हो जाते हैं)।
The Self and the karmic bondage are differentiated on the basis of their own intrinsic nature. These two are chiselled (separated) with the help of the instrument of self-discrimination.

भेद-विज्ञान होने पर जीव का कर्तव्य -

जीवो बंधो य तहा छिज्जंति सलक्खणेहि णियदेहिं। बंधो छेदेदव्वो सुद्धो अप्पा य र्घेत्तव्वो।। (9-8-295)

जीव तथा बन्ध अपने-अपने निश्चित लक्षणों के द्वारा पृथक् किये जाते हैं। वहां बन्ध को तो (आत्मा से) पृथक कर देना चाहिए और शुद्ध आत्मा को ग्रहण करना चाहिए।
The Self and the karmic bondage are differentiated (and separated) on the basis of their own intrinsic nature. The karmic bondage should be discarded and the pure soul ought to be realized.

प्रज्ञा के द्वारा ही आत्मा को ग्रहण करना चाहिए -

किह सो घेप्पदि अप्पा पण्णाए सो दु घेप्पदे अप्पा।
जह पण्णाह विहत्तो तह पण्णाए व र्घेत्तव्वो।।
(9-9-296)

(शिष्य गुरू से पूछता है) वह शुद्ध आत्मा कैसे ग्रहण किया जा सकता है? (आचार्य उत्तर देते हैं) वह शुद्ध आत्मा प्रज्ञा के द्वारा ग्रहण किया जाता है। जैसे (पहले) प्रज्ञा के द्वारा विभक्त किया था, उसी प्रकार प्रज्ञा के द्वारा ही ग्रहण करना चाहिए।
(The disciple asks-) “How can one realize that pure soul?” (The Acharya replies-) “That pure soul can be realized through self-discrimination. As earlier the pure soul was separated from the karmic bondage through self-discrimination, in the same way, the pure soul is realized through self-discrimination.”

मैं चिदात्मा हूँ -

पण्णाए घेत्तव्वो जो चेदा सो अहं तु णिच्छयदो।
अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्ति णादव्वा।।
(9-10-297)

प्रज्ञा के द्वारा इस प्रकार ग्रहण करना चाहिए कि जो चिदात्मा है, निश्चय से वह मैं हूँ; शेष जो भाव हैं, वे मुझसे पर हैं, यह जानना चाहिए।
Through self-discrimination, one must realize that ‘I’ is really the ‘pure consciousness’; and, further, that all other dispositions are not part of oneself.

मैं दृष्टा मात्र हूँ -

पण्णाए घेत्तव्वो जो दट्ठा सो अहं तु णिच्छयदो।
अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्ति णादव्वा।।
(9-11-298)

प्रज्ञा के द्वारा इस प्रकार ग्रहण करना चाहिए कि जो देखने वाला दृष्टा है, निश्चय से वह मैं हूं; शेष जो भाव हैं, वे मुझसे पर हैं, यह जानना चाहिए।
Through self-discrimination, one must realize that ‘I’ is really the ‘seer’ who sees; and, further, that all other dispositions are not part of oneself.

मैं ज्ञातामात्र हूँ -

पण्णाए घेत्तव्वो जो णादा सो अहं तु णिच्छयदो।
अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्ति णादव्वा।।
(9-12-299)

प्रज्ञा के द्वारा इस प्रकार ग्रहण करना चाहिए कि जो जानने वाला ज्ञाता है, निश्चय से वह मैं हूँ; शेष जो भाव हैं, वे मुझसे पर हैं, यह जानना चाहिए।
Through self-discrimination, one must realize that ‘I’ is really the ‘knower’ who knows’ and, further, that all other dispositions are not part of oneself.

चिन्मात्र भाव ही अपने हैं -

को णाम भर्णेज्ज बुहो णादुं सव्वे पराइए भावे।
मज्झमिणं ति य वयणं जाणंतो अप्पयं सुद्धं।।
(9-13-300)

आत्मा को शुद्ध जानता हुआ, शेष सब भावों को पर जानकर कौन बुद्धिमान ’ये भाव मेरे हैं’ ऐसे वचन कहेगा।
Knowing the Self to be pure, and all dispositions to be alien, which knowledgeable person will utter these words, “these dispositions belong to me.’?

सापराध और निरपराध आत्मा -

थेयादी अवराहे कुव्वदि जो सो ससंकिदो होदि।
मा बज्झे हं केण वि चोरो त्ति जणम्हि वियरंतो।।
(9-14-301)

जे ण कुणदि अवराहे सो णिस्संको दु जणवदे भमदि।
ण वि तस्स बज्झिदुं जे चिंता उप्पज्जदि कया वि।।
(9-15-302)

एवं हि सावराहो बज्झामि अहं तु संकिदो चेदा।
जो पुण णिरावराहो णिस्संको हं ण बज्झामि।।
(9-16-303)

जो पुरूष चोरी आदि अपराधों को करता है, वह पुरूष सशंकित रहता है कि मनुष्यों के बीच घूमते हुए ’चोर है’ ऐसा जानकर किसी के द्वारा मैं बांध न लिया जाऊँ। जो पुरूष अपराध नहीं करता, वह तो देश में निःशंक घूमता है क्योंकि उसके मन में बंधने की चिन्ता कभी उत्पन्न नहीं होती।
इसी प्रकार अपराधी आत्मा शंकित रहता है कि मैं (ज्ञानावरणादि कर्मों से) बन्ध को प्राप्त होऊँगा। यदि वह निरापराध हो तो निःशंक रहता है कि मैं नहीं बँधूँगा।
A man who commits crimes, like theft, is afraid of getting caught and arrested as he moves around. But the man, who does not commit crimes, roams around in the midst of people without fear of getting caught and arrested.
In the same way, a guilty soul is afraid of getting bondage of karmas (like knowledge-obscuring karma). If the soul is not guilty, it remains unafraid of getting any karmic bondage.

निरपराध आत्मा निःशंका होता है -

संसिद्धिराधसिद्धं सादमाराधिदं च एयट्ठं।
अवगदराधो जो खलु चेदा सो होदि अवराधो।।
(9-17-304)

जो पुण णिरावराधो चेदा णिस्संकिदो दु सो होदि।
आराहणाइ णिच्चं वट्टदि अहमिदि वियाणंतो।।
(9-18-305)

संसिद्धि, राध, सिद्ध, साधित और आराधित ये सब एकार्थक हैं। जो आत्मा राधरहित है (निज शुद्धात्मा की आराधना से रहित है), वह आत्मा अपराध होता है; और जो आत्मा निरपरध होता है, वह निःशंक होता है। ऐसा आत्मा ’मैं (उपयोग -स्वरूप एक शुद्ध आत्मा) हूँ’ इस प्रकार जानता हुआ (शुद्धात्मसिद्धिरूप) आराधना से सदा ही वर्तता है।
Attainment, self-devotion, fulfillment, achievement, and adoration are synonymous. The soul which is devoid of self-devotion is a guilty soul. Only that soul which is not guilty is free from fear. Such a soul, knowing its true nature (pure consciousness), is always engrossed in the accomplishment of its pure nature.

विषकुम्भ और अमृतकुम्भ -

पडिकमणं पडिसरणं पडिहरणं धारणा णियत्तीय।
णिंदा गरूहा सोही अट्ठविहो होदि विसकुंभो।।
(9-19-306)

अपडिकमणमडिसरणमप्पडिहारो अधारणा चेव।
अणियत्ती य अणिंदागरूहासोही अमयकुंभो।।
(9-20-307)

प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारण निवृत्ति, निन्दा, गर्हा और शुद्धि - यह आठ प्रकार का विषकुम्भ है (क्योंकि इसमें कर्तृव्य बुद्धि होती है)।
अप्रतिक्रमण, अप्रतिसरण, अपरिहार, अधारणा, अनिवृत्ति, अनिन्दा, अगर्हा और अशुद्धि - ये आठ अमृतकुम्भ हैं (क्योंकि इसमें कर्तृव्य का निषेध है)।
Repentance (of past sins), pursuit (of virtue), abandonment (of attachment etc.), concentration, abstinence, self-censure, confession, and purification (by expiation), these eight constitute the poison-pot (because in these the soul is comprehended to be a doer).
Non-repentance, non-pursuit, non-abandonment, non-concentration, non-abstinence, non-self-censure, non-confession, and non-purification, these eight constitute the nectar-pot (because these forbid the soul to be a doer).