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नवदेवता पूजन
श्री उपाध्याय पूजा
--स्थापना-गीता छन्द--
जो अंग ग्यारह पूर्व चैदह, धारते निज बुद्धि में।
पढ़ते पढ़ाते या उन्हें, जो शास्त्र हैं तत्काल में।।
वे गुरू पाठक मोक्षपथ, दर्शक उन्हीं की वंदना।
आह्वानन विधि करके यहां पर, मैं करूं नित अर्चना।।1।।
ऊँ ह्रीं णमोउवज्झायाणं श्री उपाध्यायपरमेष्ठिसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट।
ऊँ ह्रीं णमोउवज्झायाणं श्री उपाध्यायपरमेष्ठिसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ऊँ ह्रीं णमोउवज्झायाणं श्री उपाध्यायपरमेष्ठिसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथाष्टकं अडिल्ल छंद-
रेवानदि को नीर, कनकझारी भरूं।
मुनिपद धारा देय, सकल व्याधी हरूं।।
उपाध्याय गुरूदेव, जजूं मन लायके।
परमभेद विज्ञान लहूं, गुण गायके।।1।।
ऊँ ह्रीं णमोउवज्झायाणं श्री उपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं.......।
अष्टगंध सौगंध, घिसाकर ले लिया।
मुनिचरणाम्बुज पूजत, ताप शमन किया।।
उपाध्याय गुरूदेव, जजूं मन लायके।
परमभेद विज्ञान लहूं, गुण गायके।।2।।
ऊँ ह्रीं णमोउवज्झायाणं श्री उपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः संसारतापविनाशनाय चंदनं.......।
मुक्ताफल सम अक्षत, धोकर लाइया।
पाठक मुनि के सम्मुख, पुंज चढ़ाइया।।
उपाध्याय गुरूदेव, जजूं मन लायके।
परमभेद विज्ञान लहूं, गुण गायके।।3।।
ऊँ ह्रीं णमोउवज्झायाणं श्री उपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं.......।
मौलसिरी मचकुंद, चमेली आदि ले।
मदनजयी ऋषिराज, जजूं कुसुमादि ले।।
उपाध्याय गुरूदेव, जजूं मन लायके।
परमभेद विज्ञान लहूं, गुण गायके।।4।।
ऊँ ह्रीं णमोउवज्झायाणं श्री उपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं.....।
बरफी पेड़ा पूरणपोली चरू लिये।
मुनि पद पंकज पूजा कर निज सुख लिये।।
उपाध्याय गुरूदेव, जजूं मन लायके।
परमभेद विज्ञान लहूं, गुण गायके।।5।।
ऊँ ह्रीं णमोउवज्झायाणं श्री उपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं...........।
मणि दीपक में घृत भर, दीप जलाइया।
मोह तिमिर को नाश, ज्ञान प्रगटाइया।।
उपाध्याय गुरूदेव, जजूं मन लायके।
परमभेद विज्ञान लहूं, गुण गायके।।6।।
ऊँ ह्रीं णमोउवज्झायाणं श्री उपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः मोहान्धकारविनाशनाय दीपं..........।
कृष्णागरू वरधूप, अग्नि में खेइया।
कम्र अष्ट कर दग्ध, निजातम सेइया।।
उपाध्याय गुरूदेव, जजूं मन लायके।
परमभेद विज्ञान लहूं, गुण गायके।।7।।
ऊँ ह्रीं णमोउवज्झायाणं श्री उपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः अष्टकर्मदहनाय धूपं...........।
एला केला काजू किसमिस थाल में।
तुम पद अर्चूं नित्य नमाकर भाल मैं।।
उपाध्याय गुरूदेव, जजूं मन लायके।
परमभेद विज्ञान लहूं, गुण गायके।।8।।
ऊँ ह्रीं णमोउवज्झायाणं श्री उपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः मोक्षफलप्राप्तये फलं.......।
अष्ट द्रव्य से अर्घ, बनाकर ले लिया।
क्षायिक समकित हेतु, चरण अर्पण किया।।
उपाध्याय गुरूदेव, जजूं मन लायके।
परमभेद विज्ञान लहूं, गुण गायके।।9।।
ऊँ ह्रीं णमोउवज्झायाणं श्री उपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं....।
--दोहा--
गुरू पद में धारा करूं, चउसंघ शांती हेत।
शांतीधारा जगत में, आत्यंतिक सुख हेत।।10।।
शांन्तये शांतिधारा।
चंपक हर सिंगार बहु, पुष्प सुगन्धित सार।
पुष्पांजलि से पूजते, होवे सौख्य अपार।।1।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
अथ प्रत्येक अर्घ
--सोरठा--
स्वानुभूति से आप, निज आतम अनुभव करें।
निश्चय समकित हेतु, मैं तुम पद पूजा करूं।।1।।
इति मंडलस्योपरिचतुर्थदले पुष्पांजलिं क्षिपते्।
--शंभु छंद--
ग्यारह अंगों में प्रथम कहा है, आचारांग साधुओं का।
कैसे आचरण करे कैसे, बैठें इत्यादिक प्रश्नों का।।
तुम यत्नाचार प्रवृत्ति करो, इस विधि मुनिचर्या जो वर्णे।
इस अंगज्ञान युत उपध्याय को अर्घ चढ़ाऊं नत चर्णे।।1।।
ऊँ ह्रीं आचारांगज्ञानधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं.........।
व्यवहार धर्म को क्रिया कहे, स्वसमय परसमय निरूपे हैं।
वह अंग सूत्रकृत नाम धरे, उसको जो पढ़े प्ररूपें हैं।।
उन उपाध्याय को नित्य जजूं, वे भ्रमतम हरने वाले हैं।
शुद्धात्मरूप आतम अनुभव, को प्रगतिटत करने वाले हैं।।2।।
ऊँ ह्रीं सूत्रकृतांगज्ञानधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं.........।
एक जीव एक चैतन्यरूप, दो रूप ज्ञान दर्शन युत है।
एकेक अधिक स्थानों से, स्थान अंग नित वर्णत है।।
इस अंग ज्ञान को उपदेशों, वे उपाध्याय शिव पथ दाता।
मैं उनको पूजूं भक्ती से, वे होवें भव दुख से त्राता।।3।।
ऊँ ह्रीं स्थाानांगज्ञानधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं.........।
जो द्रव्य क्षेत्र औ काल भाव, इनकी सदृशता कहता है।
वह समवायांग कहा निजका, अज्ञान मोह सब हरता है।।
जो पढ़े इसे फिर निज आतम, अनुभव अमृत रस पीते हैं।
उन उपाध्याय को नित्य जजूं, वे कर्म अरी को जीते हैं।।4।।
ऊँ ह्रीं समवायांगज्ञानधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं.........।
है जीव नहीं या इत्यादिक, सो साठ हजार सुप्रश्नों का।
उत्तर देता है वह व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग पंचम रहता।।
इस अंगज्ञान को जो धारें, वे उपाध्याय गुरू होते हैं।
मैं पूजूं अर्घ चढ़ा करके, वे कर्म कालिमा धोते हैं।।5।।
ऊँ ह्रीं व्याख्याप्रज्ञप्तिअंगज्ञानधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं.........।
धर्मोंपदेश तीर्थंकर का, जिसमें हैं बहुत कथाायें भी।
गणधर देवों का संशय को, जो दूर करें मनभायें भी।।
वह ज्ञातृधर्मकथनांग श्रेष्ठ, उसको जो पढ़ें पढ़ावें भी।
उन गुरू को शीश नमा करके, हम नितप्रति अर्घ चढ़ावें भी।।6।।
ऊँ ह्रीं ज्ञातृधर्मकथांगज्ञानधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं.........।
है उपासकाध्ययनांग कहा, जिसमें दर्शन आदिक प्रतिमा।
वरणी है ग्यारह भेदरूप, वह कहता श्रावक गुण गरिमा।।
इसके ज्ञाता मुनिवर नित ही, श्रावक का धर्म बताते हैं।
उनको हम अर्घ चढ़ा करके, भव भव दुख दूर भगाते हैं।।7।।
ऊँ ह्रीं उपासकाध्ययनांगधारकोेपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं.........।
एकेक तीर्थंकर के तीरथ में, नानाविध उपसर्गों को।
सहकर करते निर्वाण प्राप्त, दश दश मुनि मैं वंदूं उनको।।
उन अंतकृती केवलियों का, जो विस्तृत वर्णन करता है।
उस अंगज्ञान धारी गुरू का, अर्चन ही सब दुख हरता है।।8।।
ऊँ ह्रीं अंतकृद्दशांगज्ञानधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं.........।
प्रतयेक तीर्थंकर के तीरथ में, दारूण उपसर्गों को सहकर।
जन्में हैं पांच अनुत्तर में, दश दश मुनि अतिशय पा पाकर।।
वह अनुत्तरोपपादिक दशांग, जिनमें इन सबका वर्णन है।
इस अंगज्ञानधारी ऋषि को, मेमरा भी शत शत वंदन है।।9।।
ऊँ ह्रीं अनुत्तरोपपादिकदशांगज्ञानधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं.........।
आक्षेपिणि विक्षेपणी कथा, संवेदिनि और निर्वेदिनि का।
जिसमें वर्णन है किय गया, इन चार प्रकार कथाओं का।।
वह अंग प्रश्न व्याकरण नाम, उसका जो नित अभ्यास करें।
उस मुनि को अर्घ चढ़ा करके, हम क्रम से यम का त्रास हरें।।10।।
ऊँ ह्रीं प्रश्नव्याकरणांगज्ञानधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं.........।
जो कर्म प्रकृतियां पुण्य पाप, उनका फल कैसे क्या मिलता?
इन सबका वर्णन जिसमें हो, वह अंग विपाक सूत्र रहता।।
इस अंग ज्ञान को जो धारें, वे ग्यारह अंग ज्ञानधर हैं।
उन उपाध्याय को मैं अर्चूं, वे तारा तरण ऋषीश्वर हैं।।11।।
ऊँ ह्रीं विपाकसूत्रांगज्ञानधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं.........।
--कुसुमलता छंद--
चैदह पूर्वों में पहला है, उत्पादपूर्व जग मान्य महान।
जो उत्पाद और व्यय ध्रुव का, छह द्रव्यों में करे बखान।।
इस पूर्व ज्ञानी पाठक को, अर्घ चढ़ाऊं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधारस आस्वादी वे, हमको करें भवोदधि पार।।12।।
ऊँ ह्रीं उत्पादपूर्वज्ञानधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं.........।
जो अग्रायणीय पूरब है, नय दुर्नय का करे विचार।
तत्त्व द्रव्य के परीमाण, का वर्णन करे सकल सुखकार।।
इस पूर्व ज्ञानी पाठक को, अर्घ चढ़ाऊं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधारस आस्वादी वे, हमको करें भवोदधि पार।।13।।
ऊँ ह्रीं अग्रायणीयपूर्वज्ञानधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं.........।
आत्मवीर्य परवीर्य आदि का, वर्णन करे बहुत विधसारा।
वीर्याप्रवाद पूरव सो, श्री सर्वज्ञ कथिन सुखकार।।
इस पूर्व ज्ञानी पाठक को, अर्घ चढ़ाऊं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधारस आस्वादी वे, हमको करें भवोदधि पार।।14।।
ऊँ ह्रीं वीर्यापुनप्रवादपूर्वज्ञानधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं.........।
अस्ति नास्त इत्यादि सप्त, भंगी का वर्णन करे महान।
सभी वस्तु हैं स्वपर चतुष्टय, से अस्ती नास्ती गुणवान।।
इस पूर्व ज्ञानी पाठक को, अर्घ चढ़ाऊं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधारस आस्वादी वे, हमको करें भवोदधि पार।।15।।
ऊँ ह्रीं अस्तिनास्तिप्रवादज्ञानधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं.........।
जीवादिक हैं अनादि अनिधन, द्रव्यार्थिकनय करे बखान।
ज्ञानवाद में सारि सांत भी, पर्यायार्थिक कहे सुजान।।
इस पूर्व ज्ञानी पाठक को, अर्घ चढ़ाऊं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधारस आस्वादी वे, हमको करें भवोदधि पार।।16।।
ऊँ ह्रीं ज्ञानप्रवादपूर्वज्ञानधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं.........।
वचनगुप्ति औ द्वादशभाषा, वचन प्रयोग वचन संस्कार।
सत्य प्रवाद पूर्व कहता है, सत्य असत्य वचन परकार।।
इस पूर्व ज्ञानी पाठक को, अर्घ चढ़ाऊं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधारस आस्वादी वे, हमको करें भवोदधि पार।।7।।
ऊँ ह्रीं सत्यप्रवादपूर्वज्ञानधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं.........।
जीव विज्ञ विषणु भोक्ता है, शुद्ध बुद्ध चिद्रूप महान।
कर्मों का कत्र्ता अशुद्ध भी, आत्मवाद नित करे बखान।
इस पूर्व ज्ञानी पाठक को, अर्घ चढ़ाऊं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधारस आस्वादी वे, हमको करें भवोदधि पार।।18।।
ऊँ ह्रीं आत्मप्रवादपूर्वज्ञानधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं.........।
कर्मों का संबंध जीव के, साथ अनादि से दुखखन।
बंध उदय सत्ता आदि का, कर्मप्रवाद करे व्याख्यान।।
इस पूर्व ज्ञानी पाठक को, अर्घ चढ़ाऊं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधारस आस्वादी वे, हमको करें भवोदधि पार।।19।।
ऊँ ह्रीं कर्मप्रवादपूर्वज्ञानधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं.........।
नियत समय अनियत समयों तक, उपवासादी प्रत्याख्यान।
इनकी विधि आदि को वरणें, प्रत्याखन पूर्व अमलान।।
इस पूर्व ज्ञानी पाठक को, अर्घ चढ़ाऊं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधारस आस्वादी वे, हमको करें भवोदधि पार।।20।।
ऊँ ह्रीं प्रत्याख्यानपूर्वज्ञानधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं.........।
रेहिणि आदि विद्याओं, अष्टांग निमित्तों का व्याख्यान।
विद्यानुप्रवाद पूवर में, इको पढ़े अचल गुणवान।।
इस पूर्व ज्ञानी पाठक को, अर्घ चढ़ाऊं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधारस आस्वादी वे, हमको करें भवोदधि पार।।21।।
ऊँ ह्रीं विद्यानुवादपूर्वज्ञानधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं.........।
तीर्थं के पंचकल्याणक, पुरूष शलाका चरित प्रधान।
सूर्यादिक गति ग्रह आदिक फल, कहे कल्याणवाद सुखदान।।
इस पूर्व ज्ञानी पाठक को, अर्घ चढ़ाऊं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधारस आस्वादी वे, हमको करें भवोदधि पार।।22।।
ऊँ ह्रीं कल्याणवादपूर्वज्ञानधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं.........।
देह चिकित्सा आठ अंग युत, आयुर्वेद व प्राणायाम।
प्राणावाय पूर्व वर्णे नित, तनु रत्नत्रय साधन मान।।
इस पूर्व ज्ञानी पाठक को, अर्घ चढ़ाऊं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधारस आस्वादी वे, हमको करें भवोदधि पार।।23।।
ऊँ ह्रीं प्राणावायपूर्वज्ञानधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं.........।
कला बहत्तर नर की चैंसठ, गुण नारी के शिल्पकलादि।
क्रिया विशाल पूर्व वर्णें नित, काव्यों की निर्माण कलादि।।
इस पूर्व ज्ञानी पाठक को, अर्घ चढ़ाऊं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधारस आस्वादी वे, हमको करें भवोदधि पार।।24।।
ऊँ ह्रीं क्रियाविशालपूर्वज्ञानधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं.........।
आठ भेद व्यवहार चारविध, बीज मोक्ष गमनादि क्रिया।
लोकविंदुसार कहता है, शिवसुख और उसकी चर्या।।
इस पूर्व ज्ञानी पाठक को, अर्घ चढ़ाऊं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधारस आस्वादी वे, हमको करें भवोदधि पार।।25।।
ऊँ ह्रीं लोकविंदुसारपूर्वज्ञानधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं.........।
--पूर्णाघ्र्य-शंभु छंद--
इन ग्यारह अंग पूर्व चैदह, को पढ़ें पढ़ावें शिष्यों कों।
या द्वादशांग को भी जाने या, सब तात्कालिक शास्त्रों को।।
वे उपाध्याय गुरू पथ दर्शक, उनकी भक्ती जो करते हैं।
वे स्वात्मसुधारस पीकर के, जिन परमानंद सुख भरते हैं।।26।।
ऊँ ह्रीं पंचविंशतिगुणसहितापाध्यायपरमेष्ठिभ्यः पूर्णाघ्र्यं.........।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
जाप्य-- ऊँ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योंपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः.........।
जयमाला
--दोहा--
आगम नेत्र तृतीय है, जिस साधू के पास।
वे शिव पथ परकाशते, नमूं नमूं सुखराशि।।
--रोला छंद--
जय जय श्री गुरूदेव, उपाध्याय पदधारी।
जय जय तुम पदसेव, करते भवि नर नारी।।
जय जय मुनिगण वंद्य, धर्मामृत बरसाते।
जय जय तुम मुनिचंद्र, भव्य कुमुद विकसाते।।1।।
इंद्रफणीन्द्र नरेंद्र, तुम पद भक्ति करे हैं।
सुर किन्नर गंध्र्व, तुम गुणगान करे हैं।।
तुम दर्शन से भव्य,सम्यग्दर्श लहे हैं।
पद पंकज आराध्य, सम्यग्ज्ञान लहे हैं।।2।।
मैं हूं चिच्चैतन्य, परमानंद स्वरूपी।
शुद्ध बुद्ध अविरूद्ध, अमल अकल चिद्रूपी।।
दर्श ज्ञान सुख वीर्य, सहज अनंत हमारे।
गुण अनंत चित्पिंड चिन्मय ज्योति संभारे।।3।।
रूपगध रस फास, पुद्गल के गुण जानों।
पुद्गलनिर्मित देह, उसमें ही ये मानों।।
इंद्रिय मन औ वाक्, पुद्गल रूप कहे हैं।
निज आतम से भिन्न, सम्यग्ज्ञान लहे हैं।।4।।
पुण्य पाप द्वय कर्म, पुद्गल की रचना है।
इनमें हर्ष विषाद, कर भव दुख भरना है।।
निश्चय नय से शुद्ध, ज्ञान स्वरूपी आत्मा।
परमाल्हाद अखंड सौख्य सहित परमात्मा।।5।।
फिर भी यह व्यवहार, नय से कर्म सहित है।
चतुर्गती में नित्य, भ्रमता भ्रांति सहित है।।
अब निज को निज जान, पर को पर श्रद्धाने।
तब चरित्र को धार, सर्व कर्म मल हाने।।6।।
गुरू प्रसाद से आज, सम्यक् रत्न मिला है।
निज पर को प्रतिभास, सम्यग्ज्ञान खिला है।।
सम्यक् चारितपूर्ण, धारण शक्ति नहीं है।
जितना कुछ मुझ पास, उसमें दोष सही है।।7।।
करो कृपा गुरूदेव, शक्ती ऐसी पाऊं।
पूर्ण चरित्र विकास, करके कर्म नशाऊं।।
निज को निज के हेतु, निज में ही पा जाऊं।
’’ज्ञानमती’’ कर पूर्ण, फेर न भव में आऊं।।8।।
--दोहा--
ज्ञान ध्यान तप में मगन, धारें गुण पच्चीस।
उपाध्याय गुरूवर्य को, नमूं नमूं नत शीश।।9।।
ऊँ ह्रीं णमो उवज्झायाणं उपघ्यायपरमेष्ठिभ्यः जयमाल अघ्र्यं.........।
शान्तये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
--गीता छंद--
अर्हंत सिद्धाचार्य पाठक साधु को जो पूजते।
वे मोह को कर दूर मृत्यु मल्ल को भी चूरते।।
अद्भुत सुखों को भोग क्रम से मुक्ति लक्ष्मी वश करें।
कैवल्य अर्हत ज्ञानमति पा पूर्ण सुख शाश्वत भरें।।
।।इत्याशीर्वादः।।