श्री पंचपरमेष्ठीसमुच्चय पूजा
--अडिल्ल छन्द--

अर्हत्सिद्धाचार्य, उपाध्याय साधु हैं।
कहे पंचपरमेष्ठी, गुणमणि साधु हैं।।
भक्ति भाव से करूं, यहां पर थापना।
पूजूं श्रद्धा धार, करूं हित आपना।।1।।

ऊँ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट।
ऊँ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ऊँ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।

अथाष्टकं (चाल-नन्दीश्वर श्री जिनधाम.......)
सुर सरिता का जल स्वच्छ, कंचन भृंग भरूं।
भव तृषा बुझावन हेतु, तु पद धार करूं।।
श्री पंचपरमगुरूदेव, पंचमगति दाता।
भव भ्रमण पंच हर लेव, पूजूं, पद त्राता।।1।।
ऊँ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं...........

मलयज चंदन कर्पूर, गंध सुगंध करूं।
भव दाह करो सब दूर, चरणन चर्च करूं।।
श्री पंचपरमगुरूदेव, पंचमगति दाता।
भव भ्रमण पंच हर लेव, पूजूं, पद त्राता।।2।।
ऊँ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो संसारतापविनाशनाय चंदनं.........।

पयसागर फेन समान, अक्षत धोय लिया।
अक्षय गुण पाने हेतु, पुंज चढ़ाय दिया।।
श्री पंचपरमगुरूदेव, पंचमगति दाता।
भव भ्रमण पंच हर लेव, पूजूं, पद त्राता।।3।।
ऊँ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं...............।

मचकुंद कमल वकुलादि, सुरभित पुष्प लिया।
मदनारिजयी पदकंज, पूजत सौख्य लिया।।
श्री पंचपरमगुरूदेव, पंचमगति दाता।
भव भ्रमण पंच हर लेव, पूजूं, पद त्राता।।4।।
ऊँ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं...........।

घेवर फेनी रस पूर्ण, मोदक शुद्ध लिया।
मम क्षुधा रोग कर चूर्ण, तुम पद्पूज किया।।
श्री पंचपरमगुरूदेव, पंचमगति दाता।
भव भ्रमण पंच हर लेव, पूजूं, पद त्राता।।5।।
ऊँ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो निवारणाय नैवेद्यं................।

दीपक की ज्योति प्रकाश, दशदिश ध्वांत हरे।
तुम पूजत मन को मोह, हर विज्ञान भरे।।
श्री पंचपरमगुरूदेव, पंचमगति दाता।
भव भ्रमण पंच हर लेव, पूजूं, पद त्राता।।6।।
ऊँ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो मोहांधकारविनाशनाय दीपं........।

दशगंध सुगंधित धूप, खेवत कर्म जरें।
सब कर्म कलंक विदूर, आतम शुद्ध करें।।
श्री पंचपरमगुरूदेव, पंचमगति दाता।
भव भ्रमण पंच हर लेव, पूजूं, पद त्राता।।7।।
ऊँ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं......।

अंगूर अनार खजूर, फल के थाल भरे।
तुम पद अर्चज भव दूर, शिवफल प्राप्त करे।।
श्री पंचपरमगुरूदेव, पंचमगति दाता।
भव भ्रमण पंच हर लेव, पूजूं, पद त्राता।।8।।
ऊँ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं..........।

जल चंदन अक्षत पुष्प, नेवज दीप लिया।
वर धूप फलों से पूर्ण, तुम पद अघ्र्य किया।।
श्री पंचपरमगुरूदेव, पंचमगति दाता।
भव भ्रमण पंच हर लेव, पूजूं, पद त्राता।।9।।
ऊँ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं..........।

--दोहा--

पंचपरमगुरू के चरण, जल की धारा देत।
निज मन शीतल हेतु अर, तिहुं जग शांति हेत।।10।।
शांतये शांतिधारा।

वकुल मल्लिका सित कमल, पुष्प सुगंधित लाय।
पुष्पांजलि कर जिन चरण, पूजूं मन हरषाय।।11।।
दिव्य पुष्पांजलिः।

जाप्य - ऊँ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यो नमः
(108 सुगंधित पुष्प या लवंग से जाप्य करना।)

जयमाला

--सोरठा--

भवजलनिधी जिहाज, पंचपरम गुरू जगत में।
तिनकी गुणमणिमाल, गाऊं भक्ति वश सहीं।।1।।

(चाल-हे दीनबन्धु.......।)
जैवंत अरिहंत देव, सिद्ध अनंता।
जैवंत सूरि उपाध्याय साधु महंता।।
जैवंत तीन लोक में ये पंचगुरू हैं।
जैवंत तीन काल के भी पंचगुरू हैं।।1।।

अर्हत देव के हैं छियालीस गुण कहे।
जिन नाम मात्र से ही पाप शेष न रहे।।
दशजन्म के अतिशय हैं चमत्कार से भरे।
कैवल्यज्ञान होत ही अतिशय जु दश धरें।।2।।

चैदह कहे अतिशय हैं देव रचित बताये।
तीर्थंकरों के ये सभी चैंतीस हैं गये।।
हैं आठ प्रातिहार्य जो वैभव विशेष हैं।
आनंत चतुष्टय सुचार सर्व श्रेष्ठ हैं।।3।।

जो जन्म मरण आदि दोष आठदश कहे।
अर्हंत में न हों, अतः निर्दोष वे रहें।।
सर्वज्ञ वीतराग हित के शास्ता हैं जो।
है बार बार वंदना अरिहंत देव को।।4।।

सिद्धों के आठ गुण प्रधान रूप से गाये।
जो आठ कर्म के विनाश से हैं बताये।
यों तो अनंत गुण समुद्र सर्व सिद्ध हैं।
उनको है वंदना जो सिद्धि में निमित्त हैं।।5।।

आचार्य देव के प्रमुख छत्तीस गुण कहे।
दीक्षादि दे चउसंघ के नायक गुरू रहें।।
पच्चीस गुणों से युक्त उपाध्याय गुरू हैं।
जो मात्र पठन पाठनादि में ही निरत हैं।।6।।
जो आत्मा की साधना में लीन रहे हैं।
वे मूलगुण अट्ठाइसों से साधु कहे हैं।।
आराधना सुचार की आराधना करें।
हम इन त्रिभेद साधु की उपासना करें।।7।।

अरिहंत सिद्ध दो सदा आराध्य गुरू कहे
त्रयविधि मुनी आराधकों की कोटि में रहें।।
अर्हंत सिद्ध देव हैं शुद्धातमा कहे।
शुद्धात्म आराधक हैं सूरि स्वात्मा लहें।।8।।

गुरूदेव उपाध्याय प्रतिपादकों में हैं।
शुद्धातमा के साधकों को साधु कहे हैं।।
पांचों ये परम पद में सदा तिष्ठ रहे हैं।
इस हेतु से परमेष्ठी ये नाम लहे हैं।।9।।

इन पांच के हैं इक सौ तितालीस गुण कहे।
इन मूलगुणों से भी संख्यातीत गुण रहें।।
उत्तर गुणों से युक्त पांच सुगुरू हमारे।
जिनका सुनाम मंत्र भवोदधि से उबारे।।10।।

हे नाथ! इसी हेतु से तुम पास में आया।
सम्यक्त्व निधी पाय के तुम कीर्ति को गाया।।
बस एक विनती पे मेरी ध्यान दीजिये।
कैवल्य ’ज्ञानमती’ का ही दान दीजिए।।11।।

--दोहा--

त्रिभुवन के चूड़ामणि, अर्हंत सिद्ध महान।
सूरी पाठक साधु को, नमूं नमूं गुणखान।।12।।
ऊँ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो जयमाला पूर्णाघ्र्यंनिर्वपामीति स्वाहा
शांतये शांतिधारा। परिपुष्पांजलिः।

--दोहा--

पंचपरमगुरू की शरण जो लेते भविजीव।
रत्नत्रय निधि पाय के भोगें सौख्य सदीव।।13।।

।।इत्याशीर्वादः।।