श्री पंचपरमेष्ठी विधान
-मंगल स्तोत्र-

-दोहा-

सौ इंद्रों से वंद्य नित, पंचपरम गुरूदेव।
तिनके पद अरविंद की, करूं सदा मैं सेव।।1।।

त्रिभुवन में त्रयकाल में, जनज न के हितकार।
नमूं नमूं मैं भक्तिवश, होवें मम सुखकार।।2।।

--कुसुमलता छंद--

सुरपति नरपति नाग इंद्र मिल, तीन छत्र धारें प्रभु पर।
पंच महाकल्याणक सुख के, स्वामी मंगलमय जिनवर।।
अनंत दर्शन ज्ञान र्वीय सुख, चार चतुष्टय के धारी।
ऐसे श्री अर्हंत परम गुरू, हमें सदा मंगलकारी।।3।।

ध्यान अग्निमय बाण चलाकर, कर्म शुत्र को भस्म किये।
जन्म जरा अरू मरण रूप, त्रयनगर जला त्रिपुरारि हुए।।
प्राप्त किये शाश्वत शिवपुर को, नित्य निरंजन सिद्ध बनें।
ऐसे सिद्ध समूह हमें नित, उत्तम ज्ञान प्रदान करें।।4।।

पंचाचारमयी पंचाग्नी में, जो तप तपते रहते।
द्वादश अंगमयी श्रुतसागर में, नित अवगाहन करते।।
मुक्ति श्री के उत्तम वर हैं, ऐसे श्री आचार्य प्रवर।
महाशील व्रत ज्ञान ध्यानरत, देवें हमें मुक्ति सुखकर।।5।।

यह संसार भयंकर दुखकर, घोर महावन है विकराल।
दुखमय सिंह व्याघ्र अतितीक्षण, नख अरू डाढ़ सहित विकराल।।
ऐसे वन में मार्ग भ्रष्ट, जीवों को मोक्ष मार्ग दर्शक।
हित उपदेशी उपाध्याय गुरू, का मैं नमन करूं संतत।6।।

उग्र उग्र तप करें त्रयोदश, क्रिया चरित में सदा कुशल।
क्षीण शरीरी धर्म ध्यान अरू, शुक्ल ध्यान में नित तत्पर।।
अतिशय तप लक्ष्मी के धारी, महा साधुगण इस जग में।
महा मोक्षपथगामी गुरूवर, हमको रत्नत्रय निधि दें।।7।।

इस संस्तव में जो जन पंच-परम गुरू का वंदन करते।
वे गुरूतर भव लता काट कर, सिद्ध सौख्य संपत लभते।।
कर्मेधन के पुंज जलाकर, जग में मान्य पुरूष बनते।
पूर्ण ज्ञानमय परमाल्हादक, स्वात्म सुधारस को चखते।।8।।

-दोहा-

अर्हत् सिद्धाचार्य औ, पाठक साधु महान।
पंच परम गुरू हों मुझे, भव-भव में सुखदान।।9।।

- छंद-

अर्हन् के छ्यालिस गुण सिद्धों, के आठ सूरि के छत्तिस हैं।
श्री उपाध्याय के पंचवीस, गुण साधु के अट्ठाइस हैं।।
पांचों परमेष्ठी के गुणगण, एक सौ तेतालिस बतलाये।
जो इनका नाम स्मरण करे, वह झट भवदधि से तर जाये।।10।।

-दोहा-

पंच परम गुरू यद्यपि, गुण अनंत समवेत।
तदपि मुख्य गुण की रचूं, पूजा निजगुण हेत।।1।।
इति जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।