|| श्रमणचर्या विषयक आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि ||
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आगम का अर्थ - जो सम्पूर्ण दोषों से रहित है, केवलज्ञान आदि परम वैभव से सहित है, वे परमात्मा कहलाते हैं। इनसे विपरीत परमात्मा नहीं है। उस परमात्मा के मुख से निकले हुए वचन, जो पूर्वापर दोष से रहित और शुद्ध है, वही ‘आगम‘ है। उस आगम में कहे गये ही तत्वार्थ है।

दिगम्बर जैन आचार्यों की परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द का स्थान सर्वोपरि है। भगवान् महावीर और गौतम गणधर के बाद उनके नाम का स्मरण किया जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द निर्दोष श्रमणचर्या के कट्ठर समर्थक थे, असंयतपने के वे प्रबल विरोधी थे। दर्शन और आचार, उभयपक्ष को उन्होंने समान रूप से स्वीकार किया था। उनके अनुसार आगम से यदि पदार्थों का श्रद्धान न हो तो सिद्धि नहीं होती, पदार्थांे का श्रद्धान करने वाला भी यदि असंयत हो तो निर्वाण को प्राप्त नहीं होता। पाँच समिति, पाँच इन्द्रियों का संवर वाला, तीन गुप्ति सहित, कषायों को जीतने वाला तथा दर्शन, ज्ञान से परिपूर्ण श्रमण संयत है। जो जीव निग्र्रन्थ रूप से दीक्षित होने के कारण संयत तथा तप संयुक्त हो, वह भी यदि ऐहिक कार्यों सहित वर्तता है तो लौकिक है। संयम और तप में रत श्रमण को किसी के प्रति राग नहीं होना चाहिए। राग बंधन का कारण है, चाहे वह भगवान् के प्रति ही क्यों न हो। आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि में संयम तथा तप संयुक्त होने पर भी नवपदार्थों और तीर्थंकर के प्रति जिसकी बुद्धि का झुकाव है, सूत्रों के प्रति जिसकी रुचि है, उस जीव को निर्वाण दूर है। निर्वृतिकाम के लिए वीतरागी होना आवश्यक है।

आगमचक्षु साधु-

साधु का नेत्र आगम है। आगमहीन श्रमण आत्मा को तथा पर को नहीं जानता। पदार्थों को नहीं जानने वाला भिक्षु कर्मों का क्षय कैसे कर सकता है ? जो कर्म अज्ञानी लक्षकोटिभवों में खपाता है, वह कर्म ज्ञानी तीन प्रकार (मन, वचन, काय) से गुप्त होने से उच्छ्वासमात्र में खपा देता है। ज्ञानी की पर पदार्थों के प्रति मूच्र्छा (आसक्ति) नहीं होना चाहिए। जिसके शरीरादि के प्रति परमाणुमात्र भी मूच्र्छा है, वह भले ही सर्वागम का धारी हो, तथापि वह सिद्धि को प्राप्त नहीं होता। मोक्षार्थी जीव निःसंग और निर्मम होकर सिद्धों की भक्ति करता है, अतः वह निर्वाण को प्राप्त होता है।

नग्नः विमोक्षमार्गः-

आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार- जिस मत में परिग्रह का अल्प अथवा बहुत ग्रहणपना कहा है, वह मत तथा उसकी श्रद्धा करने वाला पुरुष गर्हित ही क्यों न हो। नग्नपना मोक्ष का मार्ग है, शेष उन्मार्ग है। मुनि यथाजात रूप है, वह अपने हाथ से तिल के तुषमात्र भी कुछ ग्रहण नहीं करता है, यदि थोड़ा बहुत ग्रहण करता है, तो निगोद में जाता है। साधु के बाल के अग्रभाग की कोटिमात्र भी परिग्रह का ग्रहण नहीं होता है, वह अन्य का दिया भोजन भी एकस्थान पर खड़े होकर पाणिपात्र में ग्रहण करता है। वस्त्ररहित अचेलक अवस्था और एक स्थान पर पाणिपात्र में भोजन के अतिरिक्त जितने मार्ग हैं, वे अमार्ग है। जो अण्डज, कार्पासज, वल्कल, चर्मज तथा रोमज; इस तरह पाँच प्रकार के वस्त्रों में किसी को ग्रहण करते हैं, परिग्रह के ग्रहण करने वाले हैं, याचनाशील हैं तथा पापकर्म में रत हैं, वे मोक्षमार्ग से च्युत हैं।

आचार्य कुन्दकुन्द के समय में मुनिमार्ग में शिथिलाचार आ गया था। यही कारण है कि नग्नत्व का प्रबल समर्थन करते हुए भी जो केवल नग्नत्व का बाह्म प्रदर्शन करते हैं, ऐसे श्रमणों की आचार्य कुन्दकुन्द ने तीव्र भत्र्सना की है-

१. कुछ मुनि ऐसे थे, जिन्होंने निग्र्रन्थ होकर मूलगुण धारण तो कर लिए थे, किन्तु बाद मंे मूलगुणों का छेदन कर केवल बाह्म क्रिया में रत थे। आचार्य कुन्दकुन्द ने उन्हें जिनमार्ग का विराधक कहा है।

२. कुछ मुनि रागी परद्रव्य के प्रति आभ्यन्तरिक प्रीतिवान् थे, जिनभावना रहित ऐसे मुनियों को भावपाहुड में द्रव्यनिग्र्रन्थ कहा है। ऐसे साधु समाधि (धर्म तथा शुक्लध्यान) और बोधि (रत्नत्रय) को नहीं पा सकते हैं। ऐसे व्यक्तियों के लिए आवश्यक है कि सर्वप्रथम वे मिथ्यात्व का त्यागकर भाव की अपेक्षा नग्न हों, अनंतर जिनाज्ञा के अनुसार द्रव्यलिंग धारण करें। आभ्यन्तर भावदोषों से रहित जिनवरलिंग (बाह्म निग्र्रन्थलिंग) प्रकट करना श्रेयस्कर है। भावमलिन जीव बाह्म परिग्रह के प्रति भी मलिनमति हो जाता है। भावसहित मुनि दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप रूप चार आराधनाओं का पा लेता है। भावरहित मुनि दीर्घ संसार में भ्रमण करता है। जिनभावनावर्जित नग्न दुःख पाता है, बोधि को प्राप्त करता है; क्योंकि द्रव्य की अपेक्षा तो सभी नग्न रहते ही हैं, मनुष्यादिक भी कारण पाक नग्न होते हैं, तथापि परिणाम अशुद्ध होने से बाह्म श्रमणपने को नहीं प्राप्त करते हैं। जिसके परिणाम अशुद्ध है, उसके बाह्म परिग्रहत्यागपना अकार्यकारी है। वस्त्रादि का त्यागकर तथा हाथ लम्बे कर कोई कोटाकोटि काल तप करे, तो भी यदि भावरहित है तो उसकी सिद्धि नहीं है। बाह्म परिग्रह का त्याग भाव की विशुद्धि के लिए किया जाता है। जो आभ्यन्तर परिग्रह युक्त है, उसका बाह्म त्याग विफल है।

३. कुछ श्रमण दिगम्बर रूप जिनलिंग को ग्रहण कर पापमोहितमति होकर उसे हास्य के समान गिनते थे, आचार्य कुन्दकुन्द ने उन्हें नारदलिंगी कहा है।

४. कुछ लिंगी बहुत मानकषाय से गर्वित होकर वाद तथा द्यूतक्रीड़ा करते थे, लिंगपाहुड में उन्हें नरकगामी बतलाया था।

५. कुछ श्रमणलिंग धारण कर अब्रह्म का सेवन करते थे, कुन्दकुन्द ने इन्हें संसारी रूपी कान्तार में भ्रमण करने वाला लिखा है।

६. कुछ लिंगी दूसरे गृहस्थों के विवाह सम्बंध कराते थे। वे कृषि, वाणिज्य तथा जीवघात रूप कार्य को करते थे।

७. कुछ चोरों, झूठ बोलने वालों तथा राजकार्य करने वालों में परस्पर युद्ध अथवा विवाद करा देते थे, जिनमें अधिक कषाय उत्पन्न हो; ऐसे तीव्रकर्म करते थे एवं यंत्र (चैपड़, शतरंज वगैरह) से द्यूतक्रीड़ा करते थे।

८. कुछ लिंग धारणकर दर्शन, ज्ञान, चारित्र तथा संयम रूप नित्य कर्मों का आचरण करते हुए मन मंे दुःखी होते थे, आचार्य कुन्दकुन्द ने उन्हें तथा उपर्युक्त सभी को नरकगामी बतलाया है।

९. कुछ श्रमणलिंग धारणकर नृत्य करते थे, गाना गाते थे, वाद्य बजाते थे, परिग्रह का संग्रह करते थे अथवा उसमें ममत्व रखते थे, परिग्रह की रक्षा करते थे, रक्षा हेतु अत्यधिक प्रयत्न करते थे तथा उसके लिए निरंतर आत्म ध्यान करते थे। भोजन मे रस-लोलुप होते हुए कन्दर्पादि मंे वर्तते थे तथा मायामयी आचरण करते थे। कुछ श्रमण ईर्यापथ का पालन न कर दौड़ते हुए चलते थे, उछलते थे, गिर पड़ते थे, पृथ्वी को खोदते हुए चलते थे। धान्य, पृथ्वी तथा वृक्षों के समूह का छेदन करते थे। कुछ दर्शन और ज्ञान से हीन श्रमण नित्य महिला वर्ग के प्रति स्वयं राग रखते थे तथा जो निर्दोष थे, उन्हें दोष लगाते थे। कुछ मुनियों की क्रिया और गुरुओं के ंप्रति अत्यधिक स्नेह रखते थे। आचार्य कुन्दकुन्द ने इन सभी को तिर्यग्योनि कहा है। उनकी दृष्टि में वास्तव में वे श्रमण नहीं थे। आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि मंे जो आहार के निमित्त दौड़ता है, आहार के निमित्त कलह कर उसे खाता है तथा आहार के निमित्त अन्य से ईष्र्या करता है, वह श्रमण जिनमार्गी नहीं है। जो बिना दिया हुआ दाल लेता है तथा परोक्ष मंे दूसरे की निन्दा करता है, जिनलिंग को धारण करता हुआ वह श्रमण चोर के समान है।

अल्पलेपी श्रमण-

बाल, वृद्ध, या ग्लान श्रमण को मूल का जैसे छेदन हो उस प्रकार अपने योग्य आचार आचरे। यदि श्रमण आहार विहार, देश, काल श्रम, क्षमता, तथा उपधि को जानकर प्रवृत्ति करता है तो अल्पलेपी होता है।

समः श्रमणः-

यदि श्रमण अन्य द्रव्य का आश्रय करके अज्ञान होता हुआ मोह, राग अथवा द्वेष करता है तो विविध कर्मों से बँधता है। यदि ऐसा नहीं करता तो नियम से विविध कर्मों को नष्ट करता है। जिसे शत्रु और बन्धुवर्ग समान है, सुख और दुःख समान है, प्रशंसा और निंदा के प्रति जिसे समता है, जिसे लोष्ठ (मिट्ठी का ढेला) और सुवर्ण समान है तथा जीवन-मरण के प्रति जिसे समता है, वह श्रमण है।

निरास्रव और सास्रव श्रमण-

शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी दो प्रकार के श्रमण होते हैं। इनमें से शुद्धोपयोगी निरास्रव है, शेष सास्रव है। ऐसा होते हुए भी आचार्य कुन्दकुन्द ने शुभोपयोगी की क्रियाओं का निषेध नहीं किया है, बल्कि उसकी कौन-कौन सी क्रियायें प्रशस्त हैं, इसका प्रवचनसार में विस्तृत रूप से वर्णन किया है।

अन्य में शुद्धोपयोगी की प्रशंसा में वे कहते हैं कि शुद्धोपयोगी को श्रमण कहा है और शुद्ध को दर्शन तथा ज्ञान कहा है, शुद्ध के निर्वाण होता है, शुद्ध ही सिद्ध होता है, उसे नमस्कार हो।

इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने ग्रंथों में श्रमण की निर्दोष चर्या पर पर्याप्त प्रकाश डाला है उनके प्रवचनसार मंे श्रमणचर्या का जो यथार्थ चित्र प्राप्त होता है, वह अन्यत्र विरल है।

१॰. जो महिलावर्ग में दर्शन, ज्ञान और चारित्र की शिक्षा दे, विश्वास उत्पन्न कर उनमें प्रवृत्ति करता है, वह पाश्र्वस्थ (भ्रष्ट मुनि) से भी निकृष्ट है। जो व्यभिचारिणी स्त्री के घर आहार लेता है, नित्य उसकी स्तुति करता हुआ पिण्ड पोषण करता है, वह अज्ञानी है, भावविनष्ट है, श्रमण नहीं है। अतः श्रमण धर्मी को जानना चाहिए कि श्रमणलिंग धर्म सहित होता है, लिंग धारण करने मात्र से ही धर्म की प्राप्ति नहीं हो जाती है। अतः भावधर्म को जानना चाहिए, केवल लिंगमात्र से कोई प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं है। यदि लिंग रूप धारण कर भी दर्शन, ज्ञान, चारित्र को उपधान रूप ग्रहण न किया, केवल आर्तध्या नही किया तो ऐसे व्यक्ति का अनंत संसार होता है।

छेदविहिन श्रमण-

व्रत, समिति, इन्द्रियरोध, लोच, आवश्यक, अचेलपना, अस्नान, भूमिशयन, अदंतधावन, खड़े खडे़ भोजन करना और एक बार आहार में श्रमणों के मूलगुण जो जिनवरों ने कहे हैं, उनमें प्रमत्त होता हुआ श्रमण छेदोपस्थापक होता है। यदि श्रमण के प्रयत्नपूर्वक की जाने वाली कायचेष्टा में छेद होता है तो उसे आलोचनापूर्वक क्रिया करना चाहिए, किन्तु यदि श्रमण छेद में उपयुक्त हुआ हो तो उसे जैनमत में व्यवहारकुशल श्रमण के पास जाकर आलोचना करके वे जैसा उपदेश दें, वह करना चाहिए। श्रमण अधिवास (आत्मवास अथवा गुरुओं के सहवास में बसते हुए) या गुरुओं से भिन्न वास में बसते हुए सदा प्रतिबंधों का परिहरण करता हुआ श्रामण्य में छेदविहीन होकर विहार करे। मुनि आहारक्षपण (उपवास), आवास, विहार, उपधि (परिग्रह), श्रमण (अन्य मुनि) अथवा विकथा में प्रतिबंध (लीन होना) नहीं चाहता।

प्रयतचर्या-

श्रमण के शयन, आसन, स्थान, गमन इत्यादि में जो अप्रयतचर्या है, वह सदा हिंसा मानी जाती है। जीव मरे या जिये अप्रयत आचार वाले के (अंतरंग) हिंसा निश्चित है। प्रयत (प्रयत्नशील, सावधान) के, समितिवान् के (बहिरंग) हिंसामात्र से बंध नहीं है। अप्रयत् आचार वाला श्रमण छहों काय संबंधी वध का करने वाला माना गया है। यदि श्रमण यत्नपूर्वक आचरण करे तो जल में कमल के समान निर्लेप कहा गया है।

उपधि त्याग-

उपधि परिग्रह को कहते है। कायचेष्टापूर्वक जीव के मरने पर बंध होता है, अथवा नहीं होता, किन्तु उपधि से अवश्य बंध होता है, इसलिए श्रमणों ने सर्वपरिग्रह को छोड़ा है। उपधि का निषेध अन्तरंगछेद का ही निषेध है, क्योंकि यदा निरपेक्ष त्याग न हो तो भिक्षु के हृदय की विशुद्धि नहीं होती, जो भाव में अविशुद्ध है, उसके कर्मों का क्षय कैसे हो सकता है ? उपधिक के सद्भाव से भिक्षु के मूच्र्छा, आरंभ या असंयम न हो, यह नहीं हो सकता। जो परद्रव्य में रत है, वह आत्मसाधना नहीं कर सकता। जिस उपधि के ग्रहण, विसर्जन में सेवन करने वाले के छेद नहीं होता, उस उपधियुक्त काल, क्षेत्र को जानकर श्रमण इस लोक में भले वर्ते। भले ही अल्प हो तथापि जो अनिन्दित हो, असंयतजनों से आप्रार्थनीय हो और मूच्छादि की जननरहित हो ऐसी उपाधि को श्रमण ग्रहण करे। अनुनर्भवकामियों के लिए जिनवरेन्द्रों ने देह परिग्रह है, ऐसा कहकर देह में भी अप्रतिकर्मपना कहा है, तब उसके अन्य परिग्रह कैसे हो सकता है ?

जिनमार्ग में उपकरण-

यथाजात रूप, गुरुवचन, सूत्रों का अध्ययन और विनय; जिनमार्ग में ये चार उपकरण कहे गए हैं।

अप्रतिसिद्ध शरीर मात्र का पालन-

श्रमण से लोक में निरपेक्ष और परलोक मे अप्रतिबद्ध होने से कषायरहित वर्तता हुआ युक्ताहार विहारी होता है। स्वयं अनशन स्वभाव वाला होने से और एषणा शून्य होने से युक्ताहारी साक्षात् अनाहारी ही है। युक्ताहार एक बार, ऊनोदर, यथालब्ध, भिक्षाचरण में, दिन में, रस की अपेक्षा से रहित और मधु-मांस रहित होता है।

निश्चय और व्यवहार नय

ज्ञाता के अभिप्राय विशेष को नय कहते हैं। जिनेन्द्र भगवान् के मत में नयवाद के बिना सूत्र और अर्थ कुछ भी नहीं कहा गया है। इसलिए जो नयवाद में निपुण होते हैं, वे ही सिद्धांत के ज्ञाता होते हैं। अध्यात्मशास्त्र में निश्चय और व्यवहार नय का अवलंबन कर प्ररूपणा की गई है। स्वाश्रित कथन निश्चय नय है और पराश्रित कथन व्यवहार नय है। निश्चय और व्यवहार नय को क्रमशः द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय भी कहा जाता है। सर्वार्थसिद्धि में कहा गया है-द्रव्यं अर्थः प्रयोजनं अस्य इति द्रव्यार्थिकः, पर्यायः, अर्थः प्रयोजनं अस्य इत्यसौ पर्यायार्थिकः।

आचार्य कुन्दकुन्द ने निश्चय और व्यवहारनय के विषय में कहा है-

ववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ।
भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो।।
(समयसार-११)

उपर्युक्त गाथा की टीका में आचार्य जयसेन ने कहा है - ‘‘व्यवहार नय अभूतार्थ अर्थात् असत्यार्थ है, किन्तु शुद्धनिश्चयनय भूतार्थ अर्थात् सत्यार्थ कहा गया है। इन दोनों नय में किसका आश्रय लेकर सम्यग्दृष्टि होता है? इसका समाधान करते हैं कि भूतार्थ अर्थात् सत्यार्थ रूप जो निश्चय नय है, उसको आश्रय लेकर, उसमें पूर्ण रूप से स्थित होकर यह जीव सम्यग्दृष्टि होता है। इस प्रकार टीकाकर (अमृतचन्द्राचार्य) का एक व्याख्यान है। दूसरे व्याख्यान के अनुसार (ववहारो अभूयत्थो देसिदो) व्यवहारनय अभूतार्थ भी है और भूतार्थ भी है; ऐसे दो प्रकार का कहा गया है। केवल व्यवहार नय ही दो प्रकार का नहीं है, अपितु निश्चयनय भी शुद्ध निश्चय नय और अशुद्ध निश्चय नय के भेद से दो प्रकार का है।

यहाँ यह तात्पर्य है कि जैसे कोई ग्रामीण पुरुष तो कीचड़ सहित तालाब आदि का जल पी लेता है, किन्तु नागरिक विवेकी पुरुष तो उसमंे कतकफल निर्मली डालकर उसे निर्मल बनाकर पीता है, उसी प्रकार स्वसंवेदन ज्ञानरूप भेदभावना से रहित जो मनुष्य है, वह तो मिथ्यात्व और रागादि रूप विभाव परिणामसहित ही आत्मा का अनुभव करता है, किन्तु जो सम्यग्दृष्टि मनुष्य होता है, वह तो अभेद रत्नत्रय लक्षण निर्विकल्प समाधि के बल से कतक स्थानीय निश्चयनय का आश्रय लेकर शुद्धात्मा का अनुभव करता है।

शुद्ध निश्चयनय शुद्ध द्रव्य का कथन करने वाला है, वह परम शुद्ध भावना में लगे पुरुषों के द्वारा अंगीकार करने योग्य है; परंतु जो पुरुष अशुद्ध व नीचे की अवस्था में स्थित हैं, उनके लिए व्यवहारनय ही कार्यकारी है। शुद्ध निश्चयनय सोलहबानी स्वर्ण के समान अभेद रत्नत्रय स्वरूप समाधिकाल में प्रयोजनवान् होता है, किन्तु व्यवहार, विकल्प, भेद अथवा पर्याय के द्वारा कहा गया जो व्यवहारनय है, वह पन्द्रह, चैदह आदि बानी के स्वर्णलाभ के समान उन लोगों के लिए प्रयोजनवान् है जो लोग अशुद्ध रूप शुभोपयोग में, जो कि असंयत सम्यग्दृष्टि अथवा श्रावक की अपेक्षा तो सरागसम्यग्दृष्टि वाला है और प्रमत्त, अप्रमत्त संयत लोगों की अपेक्षा भेद रत्नत्रय लक्षण वाला है, ऐसे शुभोपयोग रूप जीवपदार्थ में स्थित है।

आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार-

निश्चयमिह भूतार्थं व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम्।
भूतार्थबोधविमुखः प्रायः सर्वोऽपि संसारः।।
(पुरुषार्थ सिद्ध्युयाय-५)

अर्थात् निश्चय नय को भूतार्थ तथा व्यवहारनय को अभूतार्थ (असत्यार्थ) कहते हैं। प्रायः निश्चय के ज्ञान से विरूद्ध जो अभिप्राय है, वह सब ही संसारस्वरूप है।

यहाँ यह विचारणीय है कि व्यवहार की अभूतार्थता (अपरमार्थता) और निश्चयनय की भूतार्थता (परमार्थता) का कारण क्या है ? यतश्र्च व्यवहारनय अन्य द्रव्य के निमित्त से उत्पन्न विकारी भावों को आत्मा के कहता है, जैसे कि पौद्गलिक कर्म के निमित्त उत्पन्न रागादि विकारी भावों को आत्मा के कहता है, यही उसकी अपरमार्थता का कारण है। यद्यपि रागादि विकारी भाव आत्मा के उपादान से ही होते हैं अर्थात् आत्मा के सिवाय अन्य द्रव्यों में नहीं होते, तथापि ज्ञानदर्शनादि के समान आत्मा के साथ उनकी त्रैकालिक व्याप्ति न होने से आत्मा के नहीं कहे जा सकते। परन्तु व्यवहारनय अथवा अन्य आचार्यों के मत से अशुद्ध निश्चय नय उन्हें आत्मा के कहता है। यही उसकी अपरमार्थता का कारण है। निश्चयनय स्वकीय गुणपर्याय को ही आत्मा के कहता है, अतः वह स्वाश्रित होने से परमार्थ है।

व्यवहारनय को अपरमार्थ कहते हुए भी जैनदर्शन में उसकी उपयोगिता सिद्ध की गई है। कहा गया है कि यद्यपि व्यवहारनय बहिर्द्रव्य का आलंबन लेने से अभूतार्थ है, किन्तु रागादि बहिर्द्रव्य के आलम्बन से रहि और विशुद्ध ज्ञान, दर्शन स्वभाव के आलम्बन सहित ऐसे परमार्थ का प्रतिपादक होने से इसका भी कथन करना आवश्यक है; क्योंकि यदि व्यवहारनय को सर्वथा भुला दिया जाय तो फिर शुद्ध निश्चय से तो त्रस, स्थावर जीव हैं ही नहीं, अतः फिर लोग निःशंक होकर उनके मर्दन में प्रवृत्ति करने लगेंगे, ऐसी दशा में पुण्य रूप धर्म का अभाव हो जायेगा, एक दूषण यह आवेगा तथा शुद्ध निश्चयनय से तो जीव राग, द्वेष, मोह से रहित पहले से ही है, अतः मुक्त ही है, ऐसा मानकर फिर मोक्ष के लिए भी अनुष्ठान कोई क्यों करेगा ? अतः मोक्ष का भी अभाव हो जाएगा, यह दूसरा दूषण आवेगा। इसलिए व्यवहारनय का व्याख्यान परम आवश्यक है, निरर्थक नहीं है।

इसी प्रसंग में पं. जयचन्द्र जी ने कहा है कि परमार्थनय तो जीव को शरीर और राग, द्वेष, मोह से भिन्न कहता है, यदि इसी का एकांत किया जाय तब शरीर तथा राग, द्वेष, मोह पुद्गलमय ठहरे, तब पुद्गल के घात से हिंसा नहीं हो सकती और राग, द्वेष तथा मोह से बंध नहीं हो सकता, इस प्रकार परमार्थ से संसार और मोक्ष दोनों का अभाव हो जायेगा, ऐसा एकान्त रूप वस्तु का स्वरूप नहीं है। अवस्तु का श्रद्धान, ज्ञान और आचरण मिथ्या-अवस्तु रूप ही है, इसलिए व्यवहार का उपदेश न्याय प्राप्त है। इस प्रकार स्याद्वाद से दोनों नयों का विरोध मेंटकर श्रद्धान करना सम्यक्त्व है।

जह णवि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा दु गाहेदुं।
तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं।।८।।

अर्थात् जिस प्रकार किसी अनार्य पुरुष को उसकी भाषा में बोले बिना नहीं समझाया जा सकता, उसी प्रकार परमार्थ का उपदेश भी व्यवहार के बिना नहीं हो सकता अर्थात् परमार्थ को समझाने के लिए व्यवहारनय का अवलम्बन लिया जाता है। इसी अभिप्राय को आचार्य अमृतचन्द्र ने इन शब्दों में व्यक्त किया है-

अवबुध्य बोधनार्थं मुनीश्वराः देशयन्त्यभूतार्थम्।
व्यवहार केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति।।
(पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय-६)

अर्थात् मुनीश्वरों ने अज्ञानी व्यक्ति के बोधन के लिए अभूतार्थ का उपदेश दिया है। जो मात्र व्यवहार को ही जानता है, निश्चय को अपना लक्ष्य नहीं बनाता है, उसे लिए यह देशना नहीं है। जैसे जिसने सिंह को नहीं जाना है ऐसे व्यक्ति के लिए विलाव ही सिंह ज्ञात होता है। इसी प्रकार जो निश्चय के ज्ञाता नहीं है, उनके लिए व्यवहार ही निश्चयता को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार व्यवहारनय की भी अपनी उपयोगिता है। कहा भी है-

जइ जिणमयं पवज्जह तो मा ववहार णिच्छए मुणह।
एगेण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण पुण तच्चं।।

अर्थात् यदि जिनमत में प्रवृत्ति चाहते हो तो निश्चय और व्यवहार दोनों नयों का अवलम्बन मत छोड़ो; क्योंकि यदि एक व्यवहारनय छोड़ते हो तो तीर्थ की प्रवृत्ति नष्ट हो जायेगी, अन्य निश्चयनय छोड़ने पर तत्व का विलोप हो जायगा अर्थात् तत्व ज्ञान नहीं हो सकेगा।

यथार्थ में व्यवहार और निश्चय ये दोनों वस्तु तत्व को समझाने की शैलियाँ हैं, जिस प्रकार पक्षी दोनों पंखों से आकाश में उड़ता है, एक पंख के द्वारा उसका उड़ना सम्भव नहीं है, उसी प्रकार दोनों नयों का अवलम्बन लिए बिना तत्व का परिज्ञान नहीं हो सकता। यद्यपि ये दोनों नय परस्पर विरोधी हैं, तथापि स्याद्वादात्मक पद्धति से जो व्यक्ति अपेक्षा को महत्व देता है, वह उभयनयों के विरोध को समाप्त करता है। कहा भी है-

उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदांगे
जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वात्नमोहाः।
सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चै
रनवमनय पक्षाक्षुण्णमीक्षंत एव।।
(समयसार कलश-४)

अर्थात् निश्चय और व्यवहार इन दो नयों में विषय के भेद से परस्पर विरोध है, उस विरोध का नाश करने वाला ‘स्यात्‘ पद से चिन्हित जो जिनभगवान् का वचन है, उसमें जो पुरुष रमते हैं, वे स्वयं ही मिथ्यात्व कर्म के उदय का वमन करके इस अतिशय रूप ज्योति प्रकाशमान शुद्ध आत्मा को तत्काल ही देखते हैं। वह समयसार रूप शुद्ध आत्मा नवीन नहीं उत्पन्न हुआ, किन्तु पहले कर्मों से आच्छादित था, सो वह प्रगट व्यक्त रूप हो गया है और वह सर्वथा एकांतरूप कुनय के पक्ष से खण्डित नहीं होता है, निर्बाध है।

निश्चय और व्यवहार के विषय में कोई ऐकान्तिक पक्षपात नहीं होना चाहिए। जैसा कि श्री अमृतचन्द्र सूरि ने कहा है-

व्यवहारनिश्चयौ यः प्रबुध्य तत्वेन भवति मध्यस्थः।
प्राप्तनोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः।।
(पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय-८)

जो शिष्य व्यवहार और निश्चय दोनों नयों की ताब्त्त्विकात को जानकर मध्यस्थ हो जाता है, अर्थात् किसी एक नय को हठाग्रह नहीं करता है, वह देशना के सम्पूर्ण फल को प्राप्त करता है।

निश्चय और व्यवहार का परस्पर विरोधः

१. यह आत्मा जिन भावों को करता है, उन्हीं का कर्त्ता होता है, यह निश्चय नय का कथन है और व्यवहारनय की अपेक्षा यह जीव पुद्गल कर्मों का कर्त्ता है।

२. व्यवहार नय की अपेक्षा से वर्ण आदि से लेकर गुणस्थान पर्यन्त सभी भाव जीव के ही हैं, किन्तु निश्चयनय की अपेक्षा से ये कुछ भी नहीं है।

३. एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रिय असंज्ञी, संज्ञी, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त; ये सब नामकर्म की प्रकृतियाँ हैं, जो कि अमूर्त्त, अतीन्द्रिय और निरंजन ऐसे परमात्म तत्व से विलक्षणता लिए हुए हैं। इन पुद्गलमयी नाम प्रकृतियों द्वारा निष्पन्न १४ जीव समास हैं। अतः वे निश्चयनय से जीव कैसे कहे जा सकते हैं ? कभी नहीं कहे जा सकते। जैसे कर्णभूत सोने केे द्वारा बनाया गया तलवार का म्यान स्वर्ण रूप ही होता है, वैसे ही पुद्गलमय प्रकृतियों द्वारा निष्पन्न हुए जीव समास भी पुद्गल द्रव्य स्वरूप ही हैं, न कि जीव स्वरूप है। ऐसा कहने से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि जीवसमास ही जब पुद्गल है तो वर्णादिक तो सर्वथा ही पुद्गलाश्रित हैं, फिर वे तो जीव के स्वरूप किसी भी प्रकार न होकर पुद्गल स्वरूप ही है। पर्याप्त, अपर्याप्त एवम् सूक्ष्म और वादर ये सब देह की संज्ञायें हैं। उन्हीं को व्यवहारनय से परमागम में (अभेद नय से) जीव की बताई हैं।

४. निश्चयनय की अपेक्षा से आत्मा अपने आप का ही कर्त्ता है और अपने आपका ही भोक्ता है। व्यवहारनय की अपेक्षा आत्मा अनेक प्रकार के अपने पुद्गल कर्मों का कर्त्ता है और उन्हीं अनेक प्रकार के कर्मों का भोक्ता भी है।

५. यह आत्मा व्यवहारनय से घट, पट और रथ आदि वस्तुओं को करता है और इन्द्रियादिक को करता है तथा ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म एवम् शरीरादिक नोकर्म व क्रोधादिक भावकर्मों को भी करता है। निश्चय नय के अनुसार यदि आत्मा परद्रव्यों को भी करे तो वह उन द्रव्यों के साथ नियम से तन्मय हो जावे, परंतु तन्मय तो होता नहीं, इसलिए वह उनका कर्त्ता नहीं है। जीव कभी भी घट को नहीं करता, न पट को ही करता है और न शेष द्रव्यों को ही करता है। जीव के योग और उपयोग दोनों घट पटादि की उत्पत्ति करने में निमित्ति होते हैं। इन दोनों योग और उपयोग दोनों घट पटादि की उत्पत्ति करने में निमित्ति होते हैं। इन दोनों योग उपयोग का यह आत्मा करने वाला होता है। पुद्गल द्रव्यों का परिणमन जो ज्ञानावरणादि कर्म रूप होता है, उसका भी कर्त्ता वास्तव में आत्मा नहीं है। इस प्रकार (स्वानुभव द्वारा) जो जानता है, वह ज्ञानी होता है। अज्ञानी जीव भी रागादि रूप अज्ञानभाव का कर्त्ता होता है, किन्तु ज्ञानावरणादि परद्रव्य का कर्त्ता नहीं होता है। जो गुण जिस द्रव्य में होता है, वह उसको छोड़कर अन्य द्रव्य में कभी नहीं जाता और जब वह अन्य द्रव्य में नहीं जाता, तब अन्य को कैसे परिणमा सकता है ?

निश्चय नय से अभेदविवक्षा में तो एक पुद्गल ही कर्मों का कर्त्ता है और भेदविवक्षा में सामान्य मूल प्रत्यय चार हैं, जो कि बंध के करने वाले हैं। उत्तर प्रत्यय तो बहुत हैं। यहाँ सामान्य शब्द का अर्थ विवक्षा का न होना है। सामान्य प्रत्यय मिथ्यात्व, अवरिति, प्रमाद, कषाय और योग इन नाम वाले हैं। उन्हीं प्रत्ययों के उत्तभेद गुणस्थान के नाम से तेरह प्रकार का बतलाया गया है, जो कि मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगी गुणस्थान तक है। ये सभी मिथ्यात्वादि प्रत्यय-द्रव्य रूप प्रत्यय तो अचेतन हैं, किनतु मिथ्यात्वादि भावप्रत्यय भी निश्चयनय की विवक्षा में अचेतन ही हैं, क्योंकि ये सभी पौद्गलिक कर्म के उदय से होने वाले हैं। जैसे पुत्र जो उत्पन्न होता है, वह स्त्री और पुरुष दोनों के संयोग से होता है। अतः विवक्षावश उसकी माता की अपेक्षा देवदत्ता का यह पुत्र है, ऐसा कोई कहते हैं, दूसरे पिता की अपेक्षा से यह देवदत्ता का पुत्र है, ऐसा कहते हैं। परंतु इस कथन में कोई दोष नहीं हैं; क्योंकि विवक्षा भेद से दोनों ही ठीक है। वैसे ही जीव और पुद्गल इन दोनों के संयोग से उत्पन्न होने वाले मिथ्यात्व रागादि रूप जो भावप्रत्यय हैं, वे अशुद्ध उपादान रूप अशुद्ध निश्चयनय से चेतन हैं; किन्तु शुद्ध उपादान रूप शुद्ध निश्चयनय से ये सभी अचेतन हैं; क्योंकि पौद्गलिक कर्म के उदय से हुए हैं, किन्तु वस्तुस्थिति में ये सभी न तो एकांत से जीवरूप ही हैं और न पुद्गल ही हैं, किन्तु चूना और हल्दी के संयोग से उत्पन्न हुई कुमकुम के समान ये प्रत्यय भी जीव और पुद्गल के संयोग से उत्पन्न होने वाले संयागी भाव हैं और जब गहराई से सोचें तो सूक्ष्म रूप शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से इनका अस्तित्व ही नहीं है; क्योंकि अज्ञान द्वारा उत्पन्न हैं, अतएव कल्पित हैं। यदि कोई प्रश्न करे कि सूक्ष्म शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा से किसके हैं तो इसका उत्तर यह है कि सूक्ष्म शुद्ध निश्चयनय में तो इन सबका अस्तित्व ही नहीं है। शुद्ध नय की दृष्टि में तो सभी शुद्ध हैं- ‘‘सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया‘‘।

६. व्यवहारनय की अपेक्षा से ऐसा कहा जाता है कि ज्ञानी के ज्ञान, दर्शन और चारित्र हैं, निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा शुद्ध ज्ञायक ही है।

७. व्यवहारनय तो मुनि और श्रावक के भेद से दोनों प्रकार के ही लिंगों को मोक्षमार्ग मानता है, किन्तु निश्चयनय सब ही बाह्म लिंगों में किसी को भी मोक्षमार्ग मानता है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि भावरहित द्रव्यलिंग का यहाँ निषेध किया गया है, न क भावसहित द्रव्यलिंग का; क्योंकि जब पहले दीक्षा ली गई, उस समय सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग किया गया था, तब वहाँ देह का त्याग नहीं किया गया; क्योंकि दे हके आधार से ध्यान और अनुष्ठान होता है और शेष परिग्रह के समान देह को पृथक् भी नहीं किया जा सकता, अतः फिर वीतराग रूप ध्यान के कामल में ही यह मेरा देह है, मैं लिंगी हूँ, इत्यादि विकल्प व्यवहार के द्वारा भी करना योग्य नहीं है। शालि तन्दुल के ऊपर बाहर में जब तक तुष लगा रहे, तब तक अन्तरंग के तुष को नहीं छुड़ाया जा सकता। जहाँ अंतरंग तुष का त्याग होता है, वहाँ उसके बहिरंग तुष का त्याग अवश्य होता है, इस न्याय से जहाँ सर्वसंग अर्थात् परिग्रह के त्याग स्वरूप बहिरंग द्रव्यलिंग होता है, वहाँ भावलिंग होता भी है और नहीं भी होता है, किन्तु अंतरंग भावलिंग जहाँ होता है, वहाँ सर्वपरिग्रह त्यागरूप द्रव्यलिंग अवश्य होता है।

समयसार में उक्त नयों का विरोध कैसे दूर किया जा सकता है, इसका भी विशद विवेचन है। एक स्थान पर कहा गया है-

जीवे कम्मं बद्धं पुटठं चेदि ववहारणयभणिदं।
सुद्धणयस्स दु जीवे अबद्धपुट्ठं हवइ कम्मं।।
कम्मं बद्धमबद्धं जीवे एवं तु जाण णयपक्खं।
पक्खादिक्कंतो पुण भणिदो जो सो समयसारो।।
(समयसार १४७-१५॰)

कर्म जीव से सम्बद्ध हैं, आत्मप्रदेशों में मिले हुए हैं, यह व्यवहार नय का पक्ष है और कर्म जीव में अबद्धस्पष्ट है अर्थात् बँधे हुए नहीं हैं, ऐसा शुद्ध नय का कथन है। जीव में कर्म बद्ध हैं, यह भी और जीव में कर्म चिपके हुए नहीं हैं, ऐसा भी एक नय का पक्ष है, किन्तु समयसार रूप जो आत्मा है, वह इन दोनों पक्षों से दूरवर्ती है।

नय जितने भी होते हैं, वे सब श्रुतज्ञान के विकल्परूप होते हैं। श्रुतज्ञान क्षायोपशमिक है। क्षयोपशम ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्रकट होने के कारण यद्यपि व्यवहार नय के द्वारा छद्यस्थ जीव की अपेक्षा से जीव का स्वरूप होता है, तथापि केवलज्ञान के अपेक्षा वह शुद्ध जीव का स्वरूप नहीं है।

जो पुरुष सहज परमानंद स्वरूप समयसार का अनुभव करने वाला है, वह दोनों नयों के कथन को जानता अवश्य है, किन्तु वह किसी भी एक नय के पक्ष को स्वीकार नहीं करता, दोनों नयो के पक्षपात से दूर होकर रहता है। तात्पर्य यह कि जो कोई नयों के पक्षपात से दूर स्वसंवेदनज्ञानी है, वह बद्ध, अब्ध, मूढ, अमूढ आदि नय के विकल्पों से रहित चिदानंदमयी एक स्वभाव को उसी प्रकार जानता है, जैसा भगवान् केवली निश्चयनय तथा व्यवहारनय के विषय द्रव्य-पर्याय रूप अर्थ को जानते हैं, किन्तु सहज परमानंद स्वभाव जो शुद्धात्मा उसके अधीन होते हुए केवली भगवान् निरंतर केवलज्ञान के रूप में वर्तमान होने से श्रुतज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले विकल्प जाल रूप जो निश्चयनय और व्यवहारनय, उन दोनों नयों के पक्षपात से रहित होने के कारण किसी भी नय के पक्षरूप विकल्प को कभी स्वीकार नहीं करते हैं, अर्थात् उसे छूते भी नहीं हैं। वैसे ही गणधरदेव आदि छद्यस्थ महर्षि लोग भी दोनों नयों के द्वारा बतलाए हुए वस्तु के स्वरूप को जानते अवश्य हैं, फिर भी चिदानन्दैकस्वभाव रूप शुद्धात्मा के अधीन होते हुए श्रुतज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न विकल्पों का जालरूप जो दोनों नयों का पक्षपात है, उससे शुद्ध निश्चय के द्वारा दूर होकर नय के पक्षपात रूप विकल्प को निर्विकल्प समाधि काल में अपने आत्मरूप से ग्रहण नहीं करते हैं।

आत्मा निर्विकल्प समाधिस्थ पुरुषों के द्वारा इन्द्रियानिन्द्रिय जनित बाह्म विषयक समस्त मतिज्ञान के विकल्पों से रहित ही देखा और जाना जाता है तथा वही आत्मा बद्धाबद्धादिक विकल्परूप नय के पक्षपात से रहित समयसार का अनुभव करता हुआ देखा और जाना जाता है, इसलिए केवल मात्र सकल विमल केवलज्ञान और केवल दर्शन रूप व्यपदेश को वह स्वीकार करता है, न कि बद्धाबद्धादि रूप व्यपदेशों को। कही भी है-

सम्मद्दंसण्णाणं एदं लहदित्तिणवरि ववदेसं।
सव्वणयपक्खरहिदो भणिदो जो सो समयसारो।।
(समयसार-१५२)

अर्थात् जो समयसार है, वह तो सभी नयों के पक्षपात से रहित होता है, उस समयसार को यदि किसी दूसरे शब्द से कहा जा सकता है तो वास्तव में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान शब्द द्वारा कहा जा सकता है।

आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि में ज्ञानी और अज्ञानी

‘समयसार‘ में ज्ञानी और अज्ञानी के स्वरूप की प्रतिपादक अनेक गाथायें आयी हैं। ‘जीवाधिकार‘ में कहा गया है कि आत्मा अपने आप से भिन्न सचित्त, अचित्त और मिश्र वस्तुओं में, मैं सो यह है, यह है सो मैं हूँ, ये मेरे हैं, मैं इनका हूँ, ये मेरे पहले थे, मैं पहले इनका था, आगे भी ये मेरे होंगे और मैं इनका होऊँगा; इस प्रकार का संयोगात्मक विकल्प करता है, वह मूढ़ अर्थात् मोहभाव का धारक होता है, किन्तु जो मोहरहित अर्थात् संयत होता है, वह भूतार्थ (निश्चय नयात्मक) आत्मस्वरूप का अनुभव करता हुआ इन सब विकल्पों से दूर रहता है।

इसकी टीका में आचार्य जयसेन ने कहा है- मैं हूँ सो यह है, यह है सो मैं हूँ, इस प्रकार अहंकार भाव, यह मेरा है और मैं इसका हूँ, इस प्रकार ममकार भाव, इसी प्रकार देह से भिन्न जो परद्रव्य हैं, वे सचित्त, अचित्त और मिश्र तीन प्रकार हैं। उनमें गृहस्थ की अपेक्षा स्त्री आदि सचित्त, स्वर्णादि अचित्त, साभरण स्त्री आदि मिश्र हैं। अथवा तपोधन की अपेक्षा छात्रादि सचित्त, पीछी, कमण्डलु, पुस्तक आदि अचित्त और उपकरण सहित छात्रादि मिश्र हैं। अथवा रागादि भावकर्म सचित्त, ज्ञानावणादि द्रव्यकर्मं अचित्त, द्रव्य और भावकर्म रूप मिश्र है। अथवा विषय कषाय रहित निर्विकल्प समाधि मंे सिद्ध पुरुष की अपेक्षा सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप सचित्त, पुद्गल आदि पाँच द्रव्य अचित्त और गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणादि रूप परिणत जो संसारी जीव का स्वरूप वह मिश्र है। इस प्रकार वर्तमान कल की अपेक्षा गाथा समाप्त हुई। ये सब मेरे पहले थे, मैं भी इनका पहले था, ये सब आगे भी मेरे होंगे और मैं भी आगे इनका होऊँगा, इस प्रकार भूत और भविष्यत् काल की अपेक्षा गाथा समाप्त हुई। इस प्रकार असद्भूत तीनकाल संबंधी परद्रव्यों से संसर्ग लिए हुए मिथ्यारूप अपने आपके विचार को अर्थात् अशुद्ध निश्चय रूप से होने वाले जीव के परिणाम को जो करता है, वह मोह के लिए हुए अज्ञानी बहिरात्मा होता है, किन्तु जो भूतार्थ निश्चय नय को जानता हुआ तीन काल में होने वाले उपर्युक्त परद्रव्य संबंधी मिथ्या विकल्प को नहीं करता है, वह मोहभावरहित सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा ज्ञानी होता है अर्थात् भेदाभेद रत्नत्रय की भावना में निरत होता है।

जैसे कोई अज्ञानी प्राणी कहे कि तीनों कालों में अग्नि ही ईंधन है, और ईंधन ही अग्नि है, ऐसा एकांत अभेद रूप से कहता है, वैसे ही देहरागादि परद्रव्य ही इस समय मैं हूँ, पहले भी मैं परद्रव्य रागादि रूप था और आगे भी परद्रव्य रागादि रूप होऊँगा, ऐसा कहता है, वह अज्ञानी बहिरात्मा है, किन्तु ज्ञानी सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा जीव इससे विपरीत विचार वाला है। इस प्रकार ज्ञानी और अज्ञानी जीव का लक्षण जानकर निर्विकल्प स्वसंवेदन है लक्षण जिसका ऐसे भेदज्ञान में निमग्न होकर भावना करनी चाहिए। जैसे कोई राजपुरुष भी राजा के शत्रुओं के साथ संसर्ग रखता है तो वह राजा का आराधक नहीं कहला सकता, उसी प्रकार परमात्मा की आराधना करने वाला पुरुष आत्मा के प्रतिपक्षभूत जो मिथ्यात्व व रागादि भाव हैं, उन रूप परिणमन करने वाला होता है, तब वह परमात्मा का आराधक नहीं हो सकता, यह इसका भावार्थ है।

अज्ञान से मोहित बुद्धिवाला संसारी प्राणी अपने साथ में मिलकर रहने वाले शरीर और अपने से पृथक् (गहने आदि) पुद्गल द्रव्य को अपना कहता है, नाना प्रकार की राग-द्वेषादि रूप कल्पना करता है। जब सर्वज्ञ भगवान् ने जीव को नित्य उपयोग लक्षण वाला देखा है तो फिर वह पुद्गल द्रव्य रूप कैसे हो सकता है ? जिससे कि तू पुद्गलात्मक पदार्थ को मेरा, मेरा कहता है। यदि जीव द्रव्य पुद्गल रूप हो जाय तो पुद्गल द्रव्य भी जीव रूप हो जाय। तब तू कह सकता है कि यह पुद्गल द्रव्य मेरा है। (पर ऐसा तीन काल में नहीं हो सकता)।

शंका-यदि जीव और शरीर मे एकपना नहीं हैं तो तीर्थंकरों की और आचार्यों की जो स्तुतियाँ शरीर को लेकर की गयी हैं वह सब व्यर्थ ठहरती हैं ?

शंका- हे भगवन्! यदि जीव और शरीर एक रूप नहीं है तो भक्त लोगों के द्वारा की गई तीर्थंकर और आचार्यों की स्तुति सब व्यर्थ ठहरती है, अतः आत्मा और शरीर एक हैं, ऐसा मानना ही चाहिए।

समाधान- व्यवहार नय कहता है कि जीव और देह अवश्य एक हैं, किन्तु निश्चयनय से जीव और देह किसी काल में भी एक नहीं हैं, भिन्न भिन्न हैं। जीव से अन्य इस पुद्गलमयी देह की स्तुति गुणानुवाद करके मुनि भी ऐसा मानते हैं कि मैंने केवली भगवान् की स्तुति व वंदना कर ली किन्तु उपर्युक्त बात निश्चयनय में घटित नहीं होती; क्योंकि शरीर के पुद्गलमयी गुण केवली के नहीं हो सकते। अतः निश्चयनय में तो जब केवली के ज्ञानादि गुणों का स्तवन करता है, तभी केवली भगवान् का स्तवन समझा जाता है। जैसे नगर का वर्णन करता है, किन्तु नगर का वर्णन करने पर भी राजा का वर्णन नहीं होता, इसी तरह देह के गुणों की स्तुति करने पर केवली भगवान् के गुणों की स्तुति नहीं होती।

जैसे कोई पुरुष यह जानकर कि यह परद्रव्य है, उसे छोड़ देता है। उसी प्रकार जो आत्मा से अतिरिक्त पदार्थों को अपने से भिन्न जान लेता है, तो उन्हें छोड़ ही देता है, वह ज्ञानी कहलाता है।

आत्मभाव और आस्रवभाव दोनों में परस्पर होने वाली विशेषता को जब तक यह जीव अपने उपयोग में ठीक प्रकार नहीं जान लेता है, तब तक अज्ञानी बना रहता है और तभी तक क्रोधादिक करने में प्रवृत्त होता है। निश्चय कर परमार्थ रूप जीवात्मा का स्वरूप ऐसा है कि जो शुद्ध है, केवली है, मुनि है और ज्ञानी है। इस प्रकार से जिसके नाम हैं, उस स्वभाव में स्थित होकर ही मुनि लोग निर्वाण को प्राप्त होते हैं। जो व्रत और नियमों को धारण करते हैं, शील पालते हैं तथा तप भी करते हैं, परन्तु परमात्मस्वरूप के ज्ञान से रहित हैं, वे सब अज्ञानी हैं। जो लोग परमार्थ से बाह्म हैं, परमार्थभूत आत्मा का अनुभव नहीं करते हैं वे लोग अपने अज्ञान भाव के द्वारा पुण्य को ही अच्छा मानकर उसे करते रहते हैं, जो कि संसार को बनाए रखने का हेतु है; क्योंकि वे लोग मोक्ष का कारण ज्ञानस्वरूप जो आत्मा उसका अनुभव नहीं कर पाते हैं।

ज्ञानी जीव सब द्रव्यों के प्रति होने वाले राग को छोड़ देता हैं, अतः वह ज्ञानावरणादि सहित होकर भी नवीन कर्मरज से लिप्त नहीं होता। जैसे कि कीचड़ में पड़ा हुआ सोना जंग नहीं खाता है किन्तु अज्ञानी जीव सभी द्रव्यों में राग रखता है, इसलिए कर्मों के फन्दे में फँसकर नित्य नए नए कर्म बंध किया करता है, जैसे कि लोहा कीचड़ में पड़ने पर जंग खा जाया करता है। अज्ञानी जीव कर्म के फल को प्रकृति के स्वभाव में स्थित होता हुआ भोगता है परंतु ज्ञानी जीव उदय में आये हुए कर्म के फल को जानता मात्र है, भोगता नहीं है। जो अपराध रहित आत्मा होता है, वह निश्शंक होता है, वह अपने आपको जानता, अनुभव करता हुआ निरंतर आराधना में ही तत्पर होता है। शास्त्रों को अच्छी प्रकार पढ़ करके भी अभव्य जीव कर्मोदय के स्वभाव को नहीं छोड़ता। जैसे गुड़ सहित दूध को पीते हुए भी सर्प निर्विष नहीं होते हैं। यह जीव कर्मों के द्वारा ही अज्ञानी किया जाता है तथा कर्मों के द्वारा ज्ञानी भी होता है; क्योंकि जब तक अपने शुद्ध आत्मा को आत्मा रूप से नहीं जानता है और पाँचों इन्द्रियों के विषय आदिक परद्रव्य को अपने से भिन्न पररूप नहीं जानता है, तब तक यह जीव राग-द्वेषों से परिणमन करता है।

यह आत्मा उपादान रूप से कर्म के परिणाम का और नोकर्म के परिणाम का करने वाला नहीं है, इस प्रकार जो जानता है, वही ज्ञानी है। किसी एक नय से, व्यवहारनय से आत्मा पुण्य-पापादि परिणामों का कर्त्ता है और किसी एक नय से निश्चयनय से इन परिणामों का कर्त्ता नहीं है, इस प्रकार जो जानता है, वह ज्ञानी होता है। ज्ञानी जीव अनेक प्रकार के पुद्गल द्रव्य के पर्याय रूप कर्मों को जानता हुआ भी तन्मयता के साथ परद्रव्य की पर्यायों में उन स्वरूप न तो परिणमता है, न ग्रहण ही करता है और न उन रूप उत्पन्न ही होता है। ज्ञानी जीव अपने अनेक प्रकार के होने वाले परिणामों को जानता हुआ भी निश्चय से परद्रव्य की अवस्था रूप न परिणमन करता है, न उसको ग्रहण करता है, न उस रूप उत्पन्न ही होता है, इसलिए निश्चय से उसके साथ कर्त्ता-कर्मभाव नहीं है। ज्ञानी जीव पुद्गल कर्मों के अनंत सुख-दुःख फलों को जानता हुआ भी निश्चय से परद्रव्य की पर्याय रूप में न तो परिणमन ही करता है, न उसे ग्रहण ही करता है और न उस रूप उत्पन्न ही होता है। अज्ञानमय संसारी जीव पर को अपनाता है और अपने आपको पर का बनाता है, अतः वह कर्मों का कर्त्ता होता है। जो जीव किसी प्रकार भी पर को अपने रूप और अपने को पररूप नहीं करता, वह ज्ञानी होता है और नूतन कर्मों को करने वाला नहीं होता।

अज्ञानी जीव अपने अज्ञान भाव से पर पदार्थों को अपने रूप करता है और इसी प्रकार अपने आपको पर रूप कर लेता है। पुद्गल द्रव्यों का परिणमन जो ज्ञानावरणादि कर्म रूप होता है, उसका भी कर्त्ता वास्तव में आत्मा नहीं है- इस प्रकार जो जानता है, वह ज्ञानी होता है। यह आत्मा जिस समय जैसा भाव करता है, उस समय उसी भाव का कर्त्ता वह होता है, अतः ज्ञानी के ज्ञानमय और अज्ञानी के अज्ञानमय भाव होता है। अज्ञानी जीव के अज्ञानमय भाव ही होता है, जिससे वह कर्माें को करता रहता है, परंतु ज्ञानी, विरागी या समाधिस्थ जीव के ज्ञानमय भाव ही होते हैं। अतः वह ज्ञानी किसी भी प्रकार का कर्म नहीं करता है। ज्ञानी जीव के सब ही भाव ज्ञानमय ही होते हैं; क्योंकि ज्ञानमय भाव से ज्ञानमय भाव ही उत्पन्न होता है। इसी प्रकार अज्ञानमय भाव से अज्ञानमय भाव ही उत्पन्न होता है, अतः अज्ञानी जीव के सभी भाव अज्ञानमय होते हैं। जैसे सोने के कुण्डलादिक आभूषण बनते हैं और लोहे के टुकड़े से कड़ा आदि बनता है, उसी प्रकार अज्ञानी जीव के अज्ञानमय भाव से अनेक प्रकार के अज्ञानभाव होते हैं, किन्तु ज्ञानी जीव के सब ही भाव ज्ञानमय होते हैं।

जैसे मैल के विशेष सम्बंध से अवच्छिन्न होकर अर्थात् दबकर वस्त्र का श्वेतपना नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार मिथ्यात्वमल के विशेष संबंध से दबकर जीव के मोक्ष का हेतुभूत सम्यक्त्व गुण नष्ट हो जाता है। जैसे मैल के विशेष संबंध से दबकर वस्त्र का श्वेतपना नष्ट हो जाता है, वैसे ही जीव का मोक्ष का हेतुभूत ज्ञानगुण भी अज्ञान रूपी मल से दबकर नष्ट हो जाता है। तथा जैसे मैल के विशेष संबंध से वस्त्र का श्वेतपना नष्ट हो जाता है, वैसे ही कषायरूप मल से दबकर मोक्ष का हेतुभूत जीव का चारित्रगुण भी नष्ट हो जाता है।

मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग रूप चार कर्म बंध के कारण हैं। वे आत्मा का ज्ञान और दर्शन गुण के द्वारा समय समय पर अनेक प्रकार के नवीन कर्मों को बाँधते रहते हैं, इसलिए ज्ञानी तो स्वयं अबंधक ही है। आत्मा ज्ञानगुण जब तक जघन्य अवस्था में रहता है अर्थात् स्पष्टतया यथाख्यात दशा को प्राप्त नहीं होता, तब तक अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् अन्यपने को निर्विकल्पता से सविकत्पता को प्राप्त होता रहता है, इसलिए उस समय में वह नवीन बंध करने वाला भी होता है। दर्शन, ज्ञान और चारित्र; ये तीनों जब तक जघन्य अवस्था मे रहते हैं यथाख्यात अवस्था को नहीं प्राप्त होते, तब तक ज्ञानी जीव भी नाना प्रकार के पौद्गलिक कर्मों से बँधता ही रहता है।

जैसे अग्नि से तपाया हुआ सोना भी अपने स्वर्णपने को नहीं छोड़ता है, वैसे ही कर्मोदय के द्वारा सताया हुआ ज्ञानी जीव भी अपने ज्ञानीपने का त्याग नहीं करता है। इस प्रकार ज्ञानी तो अपने आप को जानता ही रहता है, किन्तु अज्ञानी तो अज्ञान अंधकार से ढका हुआ होने के कारण अपने आपको नहीं जानता हुआ राग को ही अपना स्वरूप समझता है। जैसे वैद्य विष खाकर भी मरण को प्राप्त नहीं होता, वैसे ही ज्ञानी जीव कर्मफल को भोगता हुआ भी बंध को प्राप्त नहीं होता। जैसे कोई पुरुष अरतिभाव से अप्रीतिपूर्वक किसी भी मादक पदार्थ को पीता हुआ भी मतवाला नहीं होता, वैसे ही किसी भी पदार्थ के उपभोग में रागादिरहित हुआ ज्ञानी जीव भी कर्मबंध को प्राप्त नहीं होता है।

जो जानने वाला भाव है और जो उसके द्वारा जाना जाता है, ये दोनों ही समय-समय पर विनष्ट हो जाते हैं। इन दोनों में से जो किसी को भी अंगीकार नहीं करता है, किन्तु केवल ज्ञायक मात्र होकर रहता है, वह ज्ञानी होता है। हे आत्मन्! यदि तू कर्मों से सर्वथा मुक्त होना चाहता है तो उस निश्चित ज्ञान को ग्रहण कर; क्योंकि ज्ञानगुण से रहित पुरुष अनेक प्रकार के कर्म करते हुए भी इस ज्ञानस्वरूप पद को प्राप्त नहीं होते हैं। ज्ञानी जीव परिग्रह से रहित है- पर पदार्थों को ग्रहण किए हुए नहीं होता; क्योंकि वह इच्छा से रहित है- पर पदार्थों को ग्रहण किए हुए नहीं होता; क्योंकि वह इच्छा से रहित है; ऐसा कहा है। इसी कारण वह पुण्य कर्म करने की भी इच्छा नहीं करता, इसलिए उसके पुण्य का भी परिग्रह नहीं है। वह केवल ज्ञायक होकर ही रहता है। ज्ञानी जीव परिग्रह रहित है - अन्य पदार्थ को ग्रहण नहीं करता; क्योंकि वह इच्छा से रहित है। अतः वह किसी भी प्रकार के पाप की भी इच्छा नहीं करता, इसलिए उसके पाप का भी परिग्रह नहीं है। वह तो उसका मात्र जानने वाला रहता है। परमतत्वज्ञानी जीव धर्म, अधर्म, आकाश, अंगपूर्व का श्रुतज्ञान, देव, मनुष्य, तिर्यंच, नारकी व अन्य परिग्रह की इच्छा नहीं करता हुआ मात्र ज्ञाता ही रहता है। जो इच्छा से रहित है, वह परिग्रहरहित कहा जाता है। इस प्रकार जो ज्ञानी होता है, वह भोजन की इच्छा नहीं करता है। जो इच्छा से रहित है, वह परिग्रहरहित कहा जाता है। इस प्रकार ज्ञानी जीव किसी पीने योग्य वस्तु की भी इच्छा नहीं करता है। इस कारण उसके पीने का भी परिग्रह नहीं होता है। अतः वह तो उसका केवल ज्ञाता ही रहता है। उदय को प्राप्त हुए वर्तमान कालिक कर्म के भोगने में वियोगबुद्धि होने से ज्ञानी जीव आगामी काल में उदय होने वाले कर्म के भोगने की वांछा नहीं करता तथा भूतकालीन कर्म का भोग तो रहा ही नहीं है। ज्ञानी जीव सब ही द्रव्यों के प्रति होने वाले राग को छोड़ देता है, अतः वह ज्ञान वरणादि कर्म सहित होकर भी नवीन कर्मरज से लिप्त नहीं होता। जैसे कि कीचड़ में पड़ा हुआ सोना जंग नहीं खाता है, किन्तु अज्ञानी जीव सभी द्रव्यों में राग रखता है, इसलिए कर्मों के फंदे में फँसकर नित्य नए कर्म बंध किया करता है। जैसे कि लोहा कीचड़ में पड़ने पर जंग खा जाया करता है। जैसे शंख अनेक प्रकार के सचित्त, अचित्त व मिश्र द्रव्यों का भक्षण करता है, तो भी उन वस्तुओं के खाने मात्र से अपने श्वेत स्वभाव को छोड़कर काला नहीं हो सकता, उसी प्रकार ज्ञानी भी सचित्त, अचित्त व मिश्र द्रव्यों का भोग करते हुए भी उस ज्ञानी का ज्ञान रागरूप नहीं हो सकता है, किन्तु वही शंख जब श्वेतपने को छोड़कर कृष्ण रूप में परिणमन करता है, तब उसके श्वेतपना नहीं रहता। उसी प्रकार ज्ञानी भी यदि अपने ज्ञानस्वभाव को छोड़कर अज्ञानरूप परिणमन करता है तो अवश्य अज्ञानी बन जाता है।

जो ऐसा मानत है कि मैं पर जीव को मार रहा हूँ या मार सकता हूँ और मैं पर जीवों के द्वारा मारा जा रहा हूँ या मारा जा सकता हूँ, वह अज्ञानी है। ज्ञानी का विचार इससे विपरीत होता है। जीवों का मरण उनकी आयु के क्षय से होता है, ऐसा जिनेश्वर देव ने कहा है। जब उनकी आयु का तू अपहरण नहीं कर सकता तो कैसे तुम्हारे द्वारा उनका मरण किया गया ? जीव अपनी आयु के उदय से ही जीवित है, ऐसा सर्वज्ञ देव कहते हैं। तू परजीव को आयु नहीं देता है तो तूने उस जीव को जीवित कैसे किया ? जो जीव अपने मन में ऐसा समझता है कि मैं इन परजीवों को दुःखी या सुखी करता हूँ या कर सकता हूँ तो ऐसा विचार करने वाले जीव मूढ़ हैं, अज्ञानी हैं। ज्ञानी का विचार तो इससे विपरीत होता है। अपने अपने कर्मोदय के निमित्त से ही जीव सुखी या दुःखी होते हैं, ऐसा देखने में आ रहा है और तू उनको कर्म देता नहीं तब तेरे द्वारा वे प्राणी कैसे सुखी या दुःखी किए गए एवं वे सब जीव तुझे कर्म तो देते नहीं हैं फिर उन्होंने तुझे दुःखी किया, यह भी कैसे बन सकता है ? तथा उन्होंने तुझे सुखी किया, यह भी कैसे बन सकता है ? कभी नहीं कहा जा सकता।

जिन भगवान् ने बताया है कि व्रत, समिति, गुप्ति, शील और तपों को करता हुआ भी अभव्य जीव अज्ञानी तथा मिथ्यादृष्टि बना रहता है। क्योंकि उसके मिथ्यात्वादि सात प्रकृतियों का उपशम, क्षय या क्षयोपशम नहीं हो पाता। अतः शुद्ध आत्मतŸव ही उपादेय है, इस प्रकार का श्रद्धान उसके नहीं होता है। अभव्य जीव धर्म का श्रद्धान करता है, उसे प्रतीति में लाता है, उसमंे रुचि रखता है एवं उसे धारण करता है, सो वह कर्मों को नष्ट करने के लिए नहीं, किन्तु भोगों को प्राप्त करने के लिए करता है। आहार लेने के विषय में मान, अपमान, सरस, नीरस आदि की चिन्ता रूप राग-द्वेष न करने के कारण आहार लेते हुए भी ज्ञानी जीव के आहारकृत बंध नहीं होता। जैसे स्फटिक मणि जो कि निर्मल होता है, वह किसी बाहरी लगाव के बिना अपने आप ही लाल आदि रूप परिणमन नहीं करता है, किन्तु बाह्म दूसरे द्रव्य के द्वारा वह लाल आदि बनता है, उसी प्रकार ज्ञानी जीव भी उपाधि से रहित अपने चिच्चमत्कार रूप स्वभाव से शुद्ध ही होता है, जो कि जपा पुष्प स्थानीय कर्मोदय उपाधि के बिना रागादि रूप विभावों के रूप में परिणमन नहीं करता है। जब कर्मोदय से होने वाले रागादि रूप दोष भावों सेे अपनी सहज स्वच्छता से च्युत होता है, त बवह रागी बनता है। ाानी जीव स्वयं ही अपने आप में राग, द्वेष और मोह भाव को तथा किसी भी प्रकार के कषायभाव को नहीं करता है, इसलिए वह उन भावों को करने वाला नहीं होता है। राग-द्वेष आदि कषाय रूप कर्मों के उदय आने पर जो भाव होते हैं, उन विकारी परिणामों के रूप में परिणमन करता हुआ वही जब अज्ञानी बन जाता है तो फिर रागादि रूप कर्मों को बाँधने लग जाता है।

जब तक जीव प्रकृति के अर्थ को अर्थात् कर्मोदय से होने वाली रागादि रूप परिणति को नहीं छोड़ता है, तब तक अज्ञायक रहता है, मिथ्यादृष्टि तथा असंयत होता है। जब यह आत्मा अनंत भेद वाले कर्म के फल को छोड़ देता है, उसे नहीं भोगता है, उस समय बंध से रहित होता हुआ ज्ञाता, दृष्टा और संयमी होता है। अज्ञानी जीव कर्म के फल केा प्रकृति के स्वभाव में स्थिर होता हुआ भोगता है, परंतु ज्ञानी जीव उदय में आए हुए कर्म के फल को जानता मात्र है, भोगता नहीं है। जो अपराधरहित आत्मा होता है, वह निःशंक होता है। वह अपने आपको जानता-अनुभव काता हुआ निरंतर आराधना में ही तत्पर होता है। शास्त्रों को अच्छी प्रकार पढ़ करके भी अभव्य जीव कर्मोदय के स्वभाव को नहीं छोड़ता, जैसे गुड़ सहित दूध पीते हुए भी सर्प निर्विष नहीं होते है। ज्ञानी जीव निर्वेद सम्पन्न अर्थात् वैराग्य सहित होता है। वह यद्यपि मीठा, कड़वा आदि अनेक प्रकार वाले कर्मफल को जानता है, फिर भी वह उसका अनुभव करने वाला नहीं होता है। ज्ञानी अनेक प्रकार कर्मों को न तो करता ही है, न भोगता ही है, परंतु कर्म के बंध को तथा कर्मफल पुण्य और पाप को जानता ही है। जैसे चक्षु देखने योग्य पदार्थ को देखता ही है, उसका कर्त्ता या भोक्ता नहीं होता है, उसी प्रकार ज्ञानी भी बंध, मोक्ष, कर्मों के उदय तथा कर्मों की निर्जरा को जानता ही है, कर्त्ता, भोक्ता नहीं होता है।

जिन्होंने पदार्थ का स्वरूप जान लिया है, ऐसे लोग भी व्यवहार की भाषा द्वारा परद्रव्य मेरा है; ऐसा कहते हैं, परंतु निश्चयनय के द्वारा वे लोग यह जानते हैं कि इन बाह्म वस्तुओं में परमाणुमात्र भी मेरा कुछ नहीं है। जैसे कोई पुरुष कहे कि अमुक ग्राम, नगर, प्रान्त और देश मेरा है तो उसके कहने मात्र से वे सब उसके नहीं हो जाते हैं, किन्तु जीव के मोह के वश से मेरा मेरा कहता है। इसी प्रकार परद्रव्य को परद्रव्य जानता हुआ भी ज्ञानी जीव यह मेरा है, यह मेरा है; ऐसा कहता है, उस पर द्रव्य को अपना बनाता है तो अवश्य ही मिथ्यादृष्टि है। इसलिए परद्रव्य मेरा नहीं हो सकता है, ऐसा जानकर परद्रव्य के विषय में लौकिक जन और ज्ञानी (मुनि) जन इन दोनों के ही इस कर्त्तापन के व्यवसाय को जानता हुआ ज्ञानी जीव तो उसे मिथ्यादृष्टियों का ही व्यवसाय जाने।

इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द ने ज्ञानी और अज्ञानी का सुंदर निरूपण किया है। इसका विशद वर्णन समयसार की टीकाओं में प्राप्त होता है।

श्रमण-धर्म के उन्नयन में श्रावक की भूमिका

जैन धर्म किसी समय श्रमण धर्म के नाम से प्रख्यात था। इसकी अभिवृद्धि प्रचार और प्रसार में श्रमणों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। श्रमण धर्म और श्रावक धर्म; ये जैन धर्म के दो महत्वपूर्ण सोपान हैं। इनमें भी श्रमण धर्म की प्रमुखता है; क्योंकि श्रमण हुए बिना मोक्ष की उपलब्धि नहीं होती। यही कारण है कि प्राचीन समय में श्रमणधर्म का ही प्राधान्य था, श्रावक धर्म आनुषंगिक था। जब श्रमणधर्म धारण करने की ओर अभिरुचि कम हुई, तब श्रावक धर्म का विस्तार हुआ, किन्तु श्रमणधर्म का महत्व कम नहीं हुआ। प्रवचनसार में कहा गया है-पडिवज्जदु सामण्णं जदि इच्छदि दुक्ख परिमोक्खं अर्थात् यदि दुःखों से छुटकारा चाहते हो तो श्रामण्य अंगीकार करो। इसीलिए आचार्य से सबसे पहले श्रमणधर्म (मुनिधर्म) का उपदेश देने हेतु कहा गया है। यदि श्रावक श्रमणधर्म का पालन करने में असमर्थ हो तो उसे श्रावकधर्म का उपदेश देने हेतु कहा गया है। यदि कोई गृहस्थ मुनिधर्म का पालन कर सकता है, किन्तु आचार्य उसे श्रावक धर्म का उपदेश देते हैं तो आचार्य प्रायश्चित के भागी होते हैं, ऐसा शास्त्रों में बतलाया है। श्रावक मुनिधर्म धारण न करते हुए भी मुनिधर्म का अनुरागी होता है। वह श्रमणों से धर्म सुनता है।

श्रावक की व्युत्पत्ति है-‘श्रृणोति गुर्वादिभ्यो धर्ममिति श्रावकः‘ अर्थात् जो गुरु आदि से धर्म सुने, वह श्रावक है। इस प्रकार धार्मिकता को कायम रखने के लिए श्रमणों का होना अनिवार्य आवश्यकता है। जहाँ जहाँ श्रमणों का विहार होता रहा, वहाँ श्रावकधर्म खूब फला फूला, किन्तु जहाँ श्रमणों का विहार न हो सका, उन अनेक स्थानों से जैन धर्म का भी लोप हो गया। इस प्रकार श्रमण धर्म की महिमा स्पष्ट है। इस श्रमण धर्म के उन्नयन में श्रावक की महत्वपूर्ण भूमिका हेाती है। श्रमण धर्म के अनवरत प्रवाह के लिए श्रावकों का होना अत्यावश्यक है। यहाँ हम इसी पहलू पर प्रकाश डालते हैं-

जो श्रमण होना चाहता है वह गुरु, कलत्र और पुत्रादि से सर्वप्रथम अनुमति लेता है। यदि पुत्र, कलत्रादि मोहवश उसे अनुमति नहीं देते हैं, या विसंवाद उत्पन्न कर तरह तरह की बाधायें उपस्थित करते हैं तो दृढ़ संकल्पहीन दीक्षार्थी दीक्षा लेने से विरत हो सकता है। अतः सबसे पहले श्रावक के परिजनों को चाहिए कि यदि किसी के वैराग्य के भाव दृढ़ हैं और वह श्रमण धर्म का निर्वाह भली भाँति कर सकता है तो उसे दीक्षा से न रोकें। यदि अनावश्यक रूप से पाबंदी लगायी गयी और दीक्षार्थी दृढ़ संकल्पी है तो वह दीक्षा लेने से विरत नहीं होता, अपितु रोकने वाले के खोटे परिणाम होते हैं और उसे कुगतियों में भी जाना पड़ सकता है। जैसे सुकौशल की माँ ने सुकौशल पर तरह तरह से प्रतिबंध लगाए, किन्तु सही स्थिति की जानकारी होने पर वह उसे श्रामण्य अंगीकार करने से न रोक सकी। वह अति रौद्र ध्यान से मृत्यु को प्राप्त हुई और सिंहनी के रूप में जनम लिया। सिंहनी के रूप में वह अपने पुत्र सुकौशल को ही भूल गई और कषायाविष्ट हो उसने उसे खाना प्रारंभ कर दिया। बाद में वस्तुस्थिति की जानकारी होने पर उसे घोर पछतावा हुआ।

साधु को शून्य घर, शमसान तथा वन आदि में वृक्ष के मूल या गुफा में रहने हेतु कहा गया है, ताकि एकांत में उसके संयम का निर्वाह हो सके। एकान्तवास करने से समाधि ठीक होती है, कलह, कषाय आदि नहीं होते तथा आत्मनियंत्रण होता है। वर्तमान में साधु प्रायः वन में न रहकर ग्राम, नगर आदि में ठहरने लगे हैं। ऐसी स्थिति में श्रावक का यह कर्त्तव्य है कि जिस घर में गृहस्थों का आवास हो या उनके और साधु के जाने-आने का मार्ग एक हो, जहाँ स्त्रियों का तथा पशुओं आदि का आना जाना हो, वहाँ साधु को न ठहराए। ऐसे स्थान में ठहरने से साधु के संयम मंे बाधा पहुँचती है।

साधु को गाँव में एक दिन और नगर में पाँच दिन ठहरना चाहिए। जब साधु विहार करें तो श्रावकों को उनके गंतव्य तक पहुँचाने का प्रयत्न करना चाहिए तथा जिस नए स्थान पर साधु पधारें वहाँ के लोगों को योग्य विनयपूर्वक उनकी अगवानी करनी चाहिए और योग्य स्थान पर ठहराना चाहिए। साधुओं के साथ में श्रावकों का जाना इसलिए आवश्यक है कि दुष्ट विधर्मी जन उन पर आक्रमण कर तरह तरह का उपसर्ग कर सकते हैं। ऐसे समय यदि साधु के परिणाम कलुषित हो गए तो श्रमण धर्म कलुषित हो सकता है। सच्चे वीतराग धर्म की हँसी हो सकती है। जिस प्रकार बालक की सारी जिम्मेदारी उसके माँ, बाप और परिवार की होती है, उसी प्रकार अनयितविहारी साधु की जिम्मेदारी भी समाज पर है, क्योंकि वे अपने पर हुए आक्रमण का कुछ भी प्रतिकार नहीं करते। सब कुछ शांत परिणामों से सहन कर लेते हैं। अतः साधु की सुरक्षा का दायित्व समाज पर है।

साधु के अणुमात्र भी परिग्रह का निषेध किया गया है। यही कारण है कि दिगम्बर परम्परा में साधु नग्न रहते हैं। नग्न रहने के कारण उन्हंे शीत, उष्ण आदि की परीषह सहन करनी पड़ती है। गृहस्थ को भक्ति के अतिरेक से साधु को लज्जा निवारण, कामविकार का आच्छादन और शीतादि परीषह के निवारण हेतु वस्त्रादि प्रदान नहीं करना चाहिए; क्योंकि यदि साधु वस्त्रादि स्वीकार करता है तो मुनिपना नहीं रहता है। श्रावक को भक्ति के वश ऐसा भी कार्य नहीं करना चाहिए, जिससे संयम की रक्षा होने के बजाय उपसर्ग हो जाय। मुरैना नगर में इस प्रकार की घटना घटित हुई थी। साधु पाटे पर शीतकाल मंे सोए हुए थे, किसी ने शीतनिवारण हेतु पाटे के नीचे धधकती हुई अँगीठी रख दी। गर्मी के प्रभाव से पाटा गर्म हो गया और मुनिराज के अंग उसी मंे चिपक गए। घोर वेदना को भी मुनि महाराज ने शांत परिणामों से सहा। प्रातः श्रावकों को ज्ञात हुआ तो उन्होंने मुनि महाराज की चिकित्सा की और अनेक प्रकार से पश्चाताप किया। अंत में मुनि महाराज ने सल्लेखना धारण कर प्राण विसर्जित कर दिए। वर्तमान में बहुत से लोग साधु के ठहरने के स्थान पर हीटर जला देते हैं; कूलर लगा देते हैं या पंखा चला देते हैं। इन सब कारणों से साधु की सहन शक्ति कम हो जाती है और वह संयम के योग्य नहीं रह जाता है।

दिगम्बर साधु पाणि-पात्री होते हैं। वे विधिपूर्वक आहार के लिए निकलते हैं। उनका भोजन का काल सूर्योदय से तीन घड़ी पश्चात् और सूर्यास्त से तीन घड़ी पहले होता है। वे छियालीस दोषों से रहित और नवकोटि से विशुद्ध आहार लेते हैं। श्रावकों को उन्हें नवधा भक्तिपूर्वक शुद्ध आहार देना चाहिए। जिस प्रकार पृथ्वीतल पर बोया गया वट का बीज समय पर बड़ा होकर बहुत फल प्रदान करता है, उसी प्रकार साधु को दिया गया थोड़ा भी आहारदान बहुत बड़ा फल देता है। इससे भोगभूमि और स्वर्गादि लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। भगवान् ऋषभदेव को मुनि अवस्था में आहारदान देने पर हस्तिनापुर में राजा श्रेयांस और सोम को पंच आश्चर्यों की प्राप्ति हुई और वे वर्तमान कर्मभूमि के दान-तीर्थ प्रवर्त्तक कहलाए।

साधु के लिए शरीर संयम का साधन है, अतः तरह तरह के व्रत करते हुए भी साधु संयम के निर्वाह हेतु आहार ग्रहण करते हैं। गृहस्थों का जैसा आहार होता है और आहार कराते समय जैसे परिणाम होते हैं, उनका फल साधु के शरीर और उनकी चर्या पर पड़ता है। अतः भक्तिभाव पूर्वक निर्मल परिणामों से साधु को अपनी सामथ्र्यानुसार ऐसा आहार देना चाहिए, जिससे उनके शरीर में आलस्य, तन्द्रा या रोगादिक का प्रादुर्भाव न हो और संयम वृद्धि को प्राप्त हो। साधु को भोजन हेतु ऐसे मार्ग से ले जाना चाहिए जिस पर कीचड़, जीवजन्तु, जंगली जानवर, गड्ढ़े, नाला, पुल, गोबर वगैरह न हो। उसे वेश्यावास, अधिकारियों के निवास तथा राजप्रासाद में नहीं ले जाना चाहिए। साधु के संबंधी यदि किसी गाँव में रहते हों तो उनके घर भी नहीं ले जाना चाहिए। तत्काल लीपी हुई भूमि पर नहीं ले जाना चाहिए। जिस घर के कुटुम्बी घबराए हों, जिनके मुख पर विषाद और दीनता हो, वहाँ नहीं ले जाना चाहिए। नीच कुलों मंे भी नहीं ले जाना चाहिए। शुद्ध कुलों में भी यदि सूतक आदि दोष हो तो वहाँ नहीं ले जाना चाहिए। जिस घर में नाचना-गाना होता हो, झण्डियाँ लगी हों, मत्त लोग रहते हो, शराबी लोगों के घर, यज्ञशाला, दानशाला, विवाह वाला घर तथा विशेष आरक्षित घर में भी नहीं ले जाना चाहिए।

श्रावक मुनि को मूक्षित आदि दस दोषों से रहित तथा नख, रोम, जन्तु रहित हड्डी, कण, शाल्य आदि के आभ्यन्तर भाग का सूक्ष्म अवयव, पूय, चर्म, रक्त, मांस, बीज, फल, कन्द और मूल इन चैदह मलों से रहित आहार दे। अपराजित सूरि के अनुसार मांस, मधु, मक्खन, बिना कटा फल, मूल, पत्र, अंकुर, कन्द तथा इनसे छुआ हुआ भोजन, इस गंध से विकृत, दुर्गन्धित, पुष्पित, पुराना, जीव-जन्तु युक्त भोजन मुनि को नहीं देना चाहिए। टूटे फूटे चम्मच आदि से, कपाल, जूठे पात्र, कमल तथा केले आदि के पŸो में रखकर भी मुनि को आहार नहीं देना चाहिए। उष्ण एवं प्रासुक जल का प्रयोग मुनि के लिए विहित है। श्रावक आहार के ३२ अन्तरायों को टालने का प्रयत्न करें। दाता को श्रद्धा, संतोष, भक्ति, विज्ञान, निर्लोभता, क्षमा और सŸव; इन सात गुणों से युक्त होना चाहिए। उसे ईष्यालु, विषादहीन, प्रीतियुक्त, कुशल अभिप्राय युक्त, प्रत्यक्ष फल की आकांक्षा तथा निदान एवं किसी से विसंवाद से रहित होना चाहिए।

श्रावक यह प्रयत्न करें कि मुनि को उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजना, प्रमाण, इंगाल, धूम और कारण दोष न लगने पायें।

भगवती आराधना में कहा गया है कि गन्धर्वशाला, नृत्यशाला, गजशाला, अश्वशाला, कुम्भकारशाला, यंत्रशाला, शंख, हाथी-दाँत आदि का काम करने वालों का स्थान, कोलिक, धोबी, बाजा बजाने वाले, डोम, नट आदि के घरों के समीप तथा राजमार्ग के समीप के स्थानों पर, चारणशाला, कोट्ठकशाला (पत्थर का काम करने वालों का स्थान), कलालों का स्थान, रजक शाला, रसवणिक्शाला (आरे से जहाँ लकड़ी आदि चीरी जाती है), पुष्पवाटिका, मालाकार का स्थान तथा जलाशय के समीप का स्थान- ये सब वसति के योग्य नहीं हैं, अतः श्रावक श्रमण को ऐसे स्थान पर न ठहरायें।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मुनि के पास तिल-तुष मात्र भी परिग्रह न हो। एक बार आचार्य धर्मसागर जी महाराज ने कहा था कि जब मुनि दीक्षा लेते हैं तो पीछी, कमण्डलु के अतिरिक्त उनके पास कुछ नहीं होता है। श्रावकों के सम्पर्क में आकर कुछ मुनि परिग्रह सम्बन्धी दोष से युक्त हो जाते हैं। इससे समाज में उनकी आलोचना होता है अतः श्रावकों को चाहिए कि मुनि को परिग्रह न बनायें। आचार्य कुन्दकुन्द न तो यहाँ तक कहा कि यदि मुनि थोड़ा भी परिग्रह ग्रहण करते हैं तो निगोद जाते हैं। जिस लिंग में थोड़ा बहुत परिग्रह का ग्रहण होता है, वह निंदनीय लिंग है; क्योंकि जनागम में परिग्रह रहित को ही निर्दोष साधु माना गया है। मुनि प्राणि बाधा परिहार के लिए पीछी और शुद्धि के लिए कमण्डलु उपकरण मात्र रखते हैं। स्वाध्याय हेतु शास्त्रों का पठन, पाठन भी उनकी चर्चा का अंग है, किन्तु वे शास्त्र स्वयं कुछ नहीं जानता। अतः ज्ञान अन्य है और शास्त्र अन्य है। शास्त्र ज्ञान का उपकरण हो सकता है, अतः शास्त्र के ग्रहण, त्याग का भी मुनि विवेक रखे और श्रावक इसमंे सहयोग दें।

श्रावक मुनि को लौकिक कार्य में न फँसाए; क्योंकि लौकिक कार्यों का मुनि के निषेध है। उदाहरणार्थ कहा गया है कि जो मुनिलिंग धारण कर नाचता है, गाता है अथवा बाजा बजाता है, वह पाप से मोहित बुद्धि वाला पशु है, मुनि नहीं। जो पुरुष मुनिलिंग धारक होकर भी निरंतर गर्व से युक्त होकर कलह करता है, वाद-विवाद करता है, अथवा जुआ खेलता है, वह चूँकि मुनिलिंग से ऐसे कुकृत्य करता है, अतः पापी है और नरक में जाता है। जो मुनि का लिंग रखकर भी दूसरों के विवाह सम्बंध जोड़ता है तथा खेती और व्यापार के द्वारा जीवों का घात करता है, वह चूँकि मुनिलिंग से ऐसे कृत्य को करता है, अतः पापी है और नरक जाता है। जो लिंगी चोरों तथा झूठ बोलने वालों के युद्ध और विवाद का कराता है तथा तीव्रकर्म-खरकर्म अर्थात् अधिक हिंसा वाले कार्यों से और यंत्र अर्थात् चैपड़ आदि से क्रीड़ा करता है, वह नरकवास को प्राप्त होता है। जो मुनि स्त्रियों में विश्वास उपजाकर उन्हें दर्शन, ज्ञान और चारित्र देता है, वह पाश्र्वस्थ मुनि से भी निकृष्ट है तथा भावलिंग से शून्य है, वह परमार्थमुनि नहीं है। जो मुनि व्यभिचारिणी स्त्री के घर आहार लेता है, निरंतर उसकी स्तुति करता है तथा पिण्ड को पालता है अर्थात् उसकी स्तुति कर निरंतर आहार प्राप्त करता है, वह बाल स्वभाव को प्राप्त होता है तथा भाव से विनष्ट है, वह श्रमण नही है।

सच्चे श्रमण रत्नत्रय के तेज से जिनधर्म की प्रभावना करते हैं। आचार्य समन्तभद्र, अकलंकदेव, पात्रकेशरी, उमास्वामी, पूज्यपाद आदि अनेकों आचार्यों ने जिनधर्म की खूब प्रभावना की । वर्तमान में आचार्य शान्ति सागर, आचार्य देशभूषण, आचार्य ज्ञानसागर, आचार्य विद्यासागर आदि अनेक आचार्यों तथा उनकी परम्परा के श्रमणों ने स्थान स्थान पर ज्ञान का उद्योत किया है। ऐसे श्रमणों की संख्या निरन्तर बढ़ती रहे, यही श्रावक की भावना और कर्तव्य होना चाहिए। जिस प्रकार कुल की परम्परा को चलाने के लिए लोग सन्तति उत्पादन करते हैं तथा यदि किसी के सन्तति नहीं होती है तो दूसरे के बच्चे को गोद ले लेते हैं। इसी प्रकार धर्म और धार्मिकों की परम्परा को अविच्छिन्न बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि नए नए साधु भी होते रहें और उनके द्वारा लोग आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त करें। इसके लिए श्रावक को साधु के आहार, विहार, आश्रय, स्वाध्याय, ध्यान आदि की समुचित व्यवस्था करनी चाहिए ताकि श्रमण धर्म का निरंतर उन्नयन होता रहे और श्रावक अपनी भूमिका पर दृढ़ रहे।