शान्तिनाथ भगवान का परिचय
इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में रत्नपुर नाम का नगर है। उस नगर का राजा श्रीषेण था, उसके सिंहनन्दिता और अनिन्दिता नाम की दो रानियाँ थीं। इन दोनों के इन्द्रसेन और उपेन्द्रसेन नाम के दो पुत्र थे। उसी नगर की सत्यभामा नाम की एक ब्राह्मण कन्या अपने पति को दासी पुत्र जानकर उसे त्याग कर राजा के यहाँ अपने धर्म की रक्षा करते हुए रहने लगी थी। किसी एक दिन राजा श्रीषेण ने अपने घर पर हुए आदित्यगति और अरिंजय नाम के दो चारण मुनियों को पड़गाहन कर स्वयं आहारदान दिया और पंचाश्चर्य प्राप्त किये तथा दश प्रकार के कल्पवृक्षों के भोग प्रदान करने वाली उत्तरकुरू भोगभूमि की आयु बाँध ली। दान देकर राजा की दोनों रानियों ने तथा दान की अनुमोदना से सत्यभामा ने भी उसी उत्तम भूमि की आयु बाँध ली। सो ठीक ही है क्योंकि साधुओं के समागम से क्या नहीं होता ?
किसी समय इन्द्रसेन की रानी श्रीकांता के साथ अनन्तमति नाम की एक साधारण स्त्री आई थी उसके साथ उपेन्द्रसेन का स्नेह समागम हो गया। इस निमित्त को लेकर बगीचे में दोनों भाईयों का युद्ध शुरू हो गया। राजा इस युद्ध को रोकने में असमर्थ रहे, साथ ही अत्यन्त प्रिय अपने इन पुत्रों के अन्याय को सहन करने में असमर्थ रहे अत: वे विषपुष्प सूँघ कर मर गये, वही विषपुष्प सूँघ कर दोनों रानियाँ और सत्यभामा भी प्राणरहित हो गर्इं तथा धातकीखंड के पूर्वार्ध भाग में जो उत्तर कुरू प्रदेश है उसमें राजा तथा सिंहनन्दिता दोनों दम्पत्ती हुए और अनिन्दिता नाम की रानी आर्य तथा सत्यभामा उसकी स्त्री हुई, इस प्रकार वे सब वहाँ भोगभूमि के सुखों को भोगते हुए सुख से रहने लगे।
राजा श्रीषेण का जीव भोगभूमि से चयकर सौधर्म स्वर्ग के श्रीप्रभ विमान में श्रीप्रभ नाम का देव हुआ। रानी सिंहनन्दिता का जीव उसी स्वर्ग के श्रीनिलय विमान में विद्युत्प्रभा नाम की देवी हुई। सत्यभामा ब्राह्मणी और अनिन्दिता नाम की रानी के जीव क्रमश: विमलप्रभ विमान में शुक्लप्रभा नाम की देवी और विमलप्रभ नाम के देव हुए।
विजयार्ध के राजा ज्वलनजटी के पुत्र अर्ककीर्ति थे। उस अर्ककीर्ति की ज्योतिर्माला रानी से राजा श्रीषेण का जीव श्रीप्रभ विमान से स्वर्ग में आकर अमिततेज नाम का पुत्र हुआ है। सिंहनन्दिता का जीव अमिततेज की ज्योति:प्रभा नाम की स्त्री हुई। देवी अनिन्दिता का जीव श्रीविजय हुआ और सत्यभामा का जीव अमित- तेज की बहन सुतारा हुआ है। यह अमिततेज विद्याधर समस्त पर्वों में उपवास करता था। दोनों श्रेणियों का अधिपति होने से वह सब विद्याधरों का राजा था। किसी एक दिन दमवर नामक चारणऋद्धिधारी मुनि को विधिपूर्वक आहारदान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये।
किसी समय अमिततेज और विजय दोनों ने मुनि के मुख से अपनी आयु एक मास मात्र है, ऐसा जानकर अपने पुत्रों को राज्य दे दिया और बड़े आदर से अष्टान्हिका पूजा की तथा नन्दन नामक मुनि के समीप चन्दन वन में सब परिग्रह त्याग कर प्रायोपगमन सन्यास धारण कर लिया। अन्त में समाधिमरण कर शुद्ध बुद्धि का धारक अमिततेज तेरहवें स्वर्ग के नन्द्यावर्त विमान में रविचूल नाम का देव हुआ और श्रीविजय भी इसी स्वर्ग के स्वस्तिक विमान में मणिचूल नाम का देव हुआ।
वहाँ के भोगों का अनुभव करके रविचूल नाम का देव नन्द्यावर्त विमान से च्युत होकर जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में स्थित वत्सकावती देश की प्रभाकरी नगरी के राजा स्तिमित सागर और उनकी रानी वसुन्धरा के अपराजित नाम का पुत्र हुआ। मणिचूल देव भी स्वस्तिक विमान से च्युत होकर उसी राजा की अनुमति नाम की रानी के अनन्तवीर्य नाम का लक्ष्मीसम्पन्न पुत्र हुआ। ये दोनों भाई बलभद्र और अद्र्धचक्री नारायण पद के धारक हुए तथा दमितारि नाम के प्रतिनारायण को मार कर चक्ररत्न को प्राप्त कर बहुत काल तक राज्य के उत्तम सुखों का अनुभव करते रहे।
किसी समय अनन्तवीर्य के मरण से बलभद्र अपराजित पहले तो बहुत दु:खी हुए, जब प्रबुद्ध हुए तब अनन्तसेन नामक पुत्र के लिए राज्य देकर यशोधर मुनिराज के समीप दीक्षा धारण कर ली। वे तीसरा अवधिज्ञान प्राप्त कर अत्यन्त शान्त हो गये और तीस दिन का सन्यास लेकर अच्युत स्वर्ग में इन्द्र हुए।
इधर अनन्तवीर्य नारायण नरक गया था वहाँ पर जाकर धरणेन्द्र ने उसे समझा-बुझाकर सम्यक्त्व ग्रहण कराया। उसके प्रभाव से वह अनन्तवीर्य नरक से निकलकर जम्बूद्वीपसम्बन्धी भरतक्षेत्र के विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी के राजा मेघवाहन की रानी मेघमालिनी से मेघनाद नाम का पुत्र हो गया। कालान्तर में दीक्षा लेकर आयु के अन्त में मरकर तपश्चरण के प्रभाव से अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र हो गये और इन्द्र के साथ उत्तम प्रीति रखकर स्वर्ग सुख का अनुभव करने लगे।
अपराजित का जीव, जो पहले इन्द्र हुआ था, वह पहले च्युत हुआ और इसी जम्बूद्वीपसम्बन्धी पूर्व विदेह क्षेत्र के रत्नसंचय नामक नगर में राजा क्षेमंकर तीर्थंकर की कनकचित्रा नाम की रानी से मेघ की बिजली के समान पुण्यात्मा श्रीमान ‘वङ्काायुध’ नाम का पुत्र हुआ। इस पुत्र की उत्पत्ति में आधान, प्रीति, सुप्रीति, धृति, मोद, प्रियोद्भव आदि क्रियायें की गई थीं। जिस प्रकार चन्द्रमा शुक्लपक्ष को पाकर कान्ति तथा चन्द्रिका से सुशोभित होता है उसी प्रकार वह वङ्काायुध भी तरुण अवस्था पाकर राज्यलक्ष्मी तथा लक्ष्मीमती नामक स्त्री से सुशोभित हो रहा था। उन वङ्काायुध और लक्ष्मी के अनन्तवीर्य (प्रतीन्द्र) का जीव सहस्रायुध नाम का पुत्र हुआ। इस प्रकार राजा क्षेमंकर पुत्र-पौत्र आदि परिवार से परिवृत होकर राज्य करते थे।
किसी समय क्षेमंकर तीर्थंकर वङ्काायुध का राज्याभिषेक करके लौकान्तिक देवों द्वारा स्तुति को प्राप्त होते हुए तपोवन को चले गये और तपश्चरण के प्रभाव से केवलज्ञान को प्राप्त कर बारह सभाओं को दिव्यध्वनि द्वारा सन्तुष्ट करने लगे।
इधर वङ्काायुध के यहाँ चक्ररत्न की उत्पत्ति हो गई और वे चक्रवर्ती हो गये। दिग्विजय करके षट्खंड पृथ्वी को जीतकर सार्वभौम राज्य करने लगे। किसी समय नाती के केवलज्ञान का उत्सव देखने से वङ्काायुध चक्रवर्ती को भी आत्मज्ञान हो गया जिससे उन्होंने सहस्रायुध पुत्र को राज्य देकर क्षेमंकर तीर्थंकर के समीप पहुँचकर दीक्षा धारण कर ली। दीक्षा के बाद ही उन्होंने सिद्धिगिरि पर्वत पर जाकर एक वर्ष के लिये प्रतिमायोग धारण कर लिया। उनके चरणों का आश्रय पाकर सर्पों की बहुत सी वामियाँ तैयार हो गर्इं सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुष चरणों में लगे हुए शत्रुओं को भी बढ़ाते हैं। उनके शरीर के चारों तरफ सघनरूप से जमी हुई लताएँ भी मानों उनके परिणामों की कोमलता को प्राप्त करने के लिए उन मुनिराज के पास जा पहुँची थीं।
इधर वङ्काायुध के पुत्र सहस्रायुध को भी किसी कारण से वैराग्य हो गया उन्होंने अपना राज्य शतबली को दे दिया, सब प्रकार की इच्छाएँ छोड़ दीं और पिहितास्रव नाम के मुनिराज के पास उत्तम संयम धारण कर लिया। जब पिता वङ्काायुध मुनि का एक वर्ष का योग समाप्त हो गया तब वे सहस्रायुध मुनि उन्हीं के समीप जा पहुँचे। पिता-पुत्र दोनों ने चिरकाल तक दु:सह तपस्या की। अन्त में वे वैभार पर्वत के अग्रभाग पर जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने शरीर से स्नेह रहित हो संन्यास मरण किया और ऊध्र्व ग्रैवेयक के नीचे के सौमनस नामक विमान में बड़ी ऋद्धि के धारक अहमिन्द्र हुए।
इसी जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में पुष्कलावती नाम का देश है उसकी पुंडरीकिणी नगरी में राजा घनरथ राज्य करते थे, उनकी मनोहरा नाम की सुन्दर रानी थी। वङ्काायुध का जीव ग्रैवेयक से च्युत होकर उन्हीं दोनों के मेघरथ नाम का पुत्र हुआ उसके जन्म के पहले गर्भाधान आदि क्रियाएँ हुई थीं। उन्हीं घनरथ राजा की मनोरमा नाम की दूसरी रानी से सहस्रायुध का जीव (अहमिन्द्र) दृढ़रथ नाम का पुत्र हो गया। राजा घनरथ ने तरुण होने पर मेघरथ का विवाह प्रियमित्रा और मनोरमा के साथ किया था और दृढ़रथ का विवाह सुमतिदेवी से किया था। इस प्रकार पुत्र-पौत्र आदि सुख के समस्त साधनों से युक्त राजा घनरथ सिंहासन पर बैठकर इन्द्र की लीला धारण कर रहे थे।
इसी बीच में प्रियमित्रा पुत्रवधू की सुषेणा नाम की दासी घनतुंड नामक मुर्गा लाकर दिखलाती हुई बोली कि यदि दूसरों के मुर्गे इसे जीत लें तो मैं एक हजार दीनार दूँगी। यह सुनकर छोटी पुत्रवधू की कांचना नाम की दासी एक वङ्कातुंड नामक मुर्गा ले आई । दोनों का युद्ध होने लगा, वह युद्ध दोनों मुर्गों के लिए दु:ख का कारण था तथा देखने वालों के लिये भी हिंसानन्द आदि रौद्रध्यान कराने वाला था अत: धर्मात्माओं के देखने योग्य नहीं, ऐसा विचार कर राजा घनरथ बहुत से भव्यजीवों को शान्ति प्राप्त कराने के लिये अपने पुत्र मेघरथ से उन मुर्गों के पूर्व भव पूछने लगे।
अवधिज्ञान के धारक मेघरथ ने बतलाया कि जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में रत्नपुर नाम का नगर है। उसमें भद्र और धन्य नाम के दो सगे भाई थे। दोनों ही गाड़ी चलाने का काम करते थे एक दिन दोनों भाई नदी के किनारे बैल के निमित्त लड़ पड़े और मरकर नदी के किनारे श्वेतकर्ण-ताम्रकर्ण नाम के जंगली हाथी हुए। वहाँ भी पूर्व वैर के संस्कार से लड़कर मरे और दोनों भैंसे हुए पुन: लड़कर मरे और मेढ़ा हुए, मेढ़े भी परस्पर में लड़े और ये दोनों मुर्गे हुए हैं। दो विद्याधर हम लोगों से मिलने के लिये यहाँ आये थे और विद्या से इन मुर्गों में प्रविष्ट होकर इन्हें और अधिक शक्तिशाली बना रहे हैं। इस तरह मेघरथ से सब समाचार सुनकर उन विद्याधरों ने अपना स्वरूप प्रकट किया राजा घनरथ और कुमार मेघरथ की पूजा की तथा गोवर्धन मुनिराज के समीप जाकर दीक्षा ग्रहण कर ली।
उन दोनों मुर्गों ने भी अपना पूर्वभव का सम्बन्ध जानकर परस्पर का बंधा हुआ वैर छोड़ दिया और अन्त में साहस के साथ संन्यास धारण कर लिया एवं भूतरमण तथा देवरमण नामक वन में ताम्रचूल और कनकचूल नाम के भूतजातीय व्यन्तर हुए।
उसी समय वे देव पुंडरीकिणी नगरी में आये और प्रेम से मेघरथ युवराज की पूजा कर अपने मुर्गे के भव को बतलाकर परमोपकारी मान कर कुछ प्रत्युपकार करने की प्रार्थना करने लगे। अन्त में उन दोनों देवों ने कहा कि आप मानुषोत्तर पर्वत के भीतर विद्यमान समस्त संसार को देख लीजिये। हम लोगों के द्वारा आपका कम-से-कम यही उपकार हो जावे। देवों के ऐसा कहने पर कुमार ने जब ‘तथास्तु' कहकर स्वीकृति प्रदान कर दी, तब देवों ने कुमार को उनके आप्तजनों के साथ अनेक ऋद्धियों से युक्त विमान में बैठाया और आकाशमार्ग में ले जाकर यथाक्रम से चलते-चलते सुन्दर देश दिखलाये।
वे बतलाते जाते थे कि यह पहला भरतक्षेत्र है, यह हैमवत है इत्यादिरूप से सभी क्षेत्र, पर्वतों को दिखलाते हुए मानुषोत्तर पर्वत के भीतर के सभी अकृत्रिम चैत्यालयों की वन्दना करा दी। तदनन्तर बड़े उत्सव से युक्त नगर में वापस आ गये। आचार्य कहते हैं कि जो मनुष्य अपने उपकारी का प्रत्युपकार नहीं करता है वह गन्धरहित पुष्प के सदृश जीवित भी मृतकवत् है।
घनरथ महाराज तीर्थंकर थे। किसी दिन विरक्त होकर दीक्षित हो गये। इधर मेघरथ महाराज ने दमवर नामक ऋद्धिधारी मुनि को आहारदान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये। कभी नन्दीश्वर पर्व में महापूजा कर रात्रि में प्रतिमायोग से ध्यान करते थे और इन्द्रों द्वारा पूजा को प्राप्त होते थे। किसी दिन घनरथ तीर्थंकर के समवसरण में धर्मोपदेश को सुनकर संसार, शरीर, भोगों से विरक्त हो गये और अपने पुत्र को राज्य देकर दृढ़रथ भाई और अन्य सात हजार राजाओं के साथ दीक्षित होकर ग्यारह अंग के पाठी हो गये और सोलह कारण भावनाओं से तीर्थंकर नाम कर्म का बंध कर लिया। अत्यन्त धीर-वीर मेघरथ ने दृढ़रथ के साथ ‘नभस्तिलक' पर्वत पर आकर एक महीने का प्रायोपगमन संन्यास धारण कर शरीर छोड़कर अहमिन्द्र१ पद प्राप्त कर लिया।
गर्भ और जन्म
कुरुजांगल देश की हस्तिनापुर राजधानी में काश्यप गोत्रीय राजा विश्वसेन राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम ऐरावती था। भगवान शान्तिनाथ के गर्भ में आने के छह महीने पहले से ही इन्द्र की आज्ञा से हस्तिनापुर नगर में माता के आँगन में रत्नों की वर्षा होने लगी और श्री, ह्री, धृति आदि देवियाँ माता की सेवा में तत्पर हो गईं। भादों वदी सप्तमी के दिन भरणी नक्षत्र में रानी ने गर्भ धारण किया। उस समय स्वर्ग से देवों ने आकर तीर्थंकर महापुरुष का गर्भकल्याणक महोत्सव मनाया और माता-पिता की पूजा की।
नव मास व्यतीत होने के बाद रानी ऐरादेवी ने ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिन याम्ययोग में प्रात:काल के समय तीन लोक के नाथ ऐसे पुत्ररत्न को जन्म दिया। उसी समय चार प्रकार के देवों के यहाँ स्वयं ही बिना बजाये शंखनाद, भेरीनाद, सिंहनाद और घंटानाद होने लगे। सौधर्मेन्द्र ऐरावत हाथी पर चढ़कर इन्द्राणी और असंख्य देवगणों सहित नगर में आया तथा भगवान को सुमेरू पर्वत पर ले जाकर जन्माभिषेक मनाया। अभिषेक के अनन्तर भगवान को अनेकों वस्त्रालंकारों से विभूषित करके उनका ‘शान्तिनाथ' यह नाम रखा, इस प्रकार भगवान को हस्तिनापुर वापस लाकर माता-पिता को सौंपकर पुनरपि आनन्द नामक नाटक करके अपने-अपने स्थान पर चले गये।
भगवान की आयु एक लाख वर्ष की थी। शरीर चालीस धनुष ऊँचा था। सुवर्ण के समान कांति थी। ध्वजा, तोरण, शंख, चक्र आदि एक हजार आठ शुभ चिन्ह उनके शरीर में थे। उन्हीं विश्वसेन की यशस्वती रानी के चक्रायुध नाम का एक पुत्र हुआ। देवकुमारों के साथ क्रीड़ा करते हुए भगवान शान्तिनाथ अपने छोटे भाई चक्रायुध के साथ-साथ वृद्धि को प्राप्त हो रहे थे। भगवान की यौवन अवस्था आने पर उनके पिता ने कुल, रूप, अवस्था, शील, कान्ति आदि से विभूषित अनेक कन्याओं के साथ उनका विवाह कर दिया। इस तरह भगवान के जब कुमार काल के पच्चीस हजार वर्ष व्यतीत हो गये, तब महाराज विश्वसेन ने उन्हें अपना राज्य समर्पण कर दिया। क्रम से उत्तमोत्तम भोगों का अनुभव करते हुए जब भगवान के पच्चीस हजार वर्ष और व्यतीत हो गये, तब उनकी आयुधशाला में चक्रवर्ती के वैभव को प्रगट करने वाला चक्ररत्न उत्पन्न हो गया। इस प्रकार चक्र को आदि लेकर चौदह रत्न और नवनिधियाँ प्रगट हो गर्इं। इन चौदह रत्नों में चक्र, छत्र, तलवार और दण्ड ये आयुधशाला में उत्पन्न हुए थे, काकिणी, चर्म और चूड़ामणि श्रीगृह में प्रकट हुए थे, पुरोहित, सेनापति और गृहपति हस्तिनापुर में मिले थे और कन्या, गज तथा अश्व विजयार्ध पर्वत पर प्राप्त हुए थे। नौ निधियाँ भी पुण्य से प्रेरित हुए इन्द्रों के द्वारा नदी और सागर के समागम पर लाकर दी गई थीं।
चक्ररत्न के प्रकट होने के बाद भगवान ने विधिवत् दिग्विजय करके छह खण्ड को जीतकर इस भरतक्षेत्र में एकछत्र शासन किया था। जहाँ पर स्वयं भगवान शान्तिनाथ इस पृथ्वी पर प्रजा का पालन करने वाले थे, वहाँ के सुख और सौभाग्य का क्या वर्णन किया जा सकता है ? इस प्रकार चक्रवर्ती के साम्राज्य में भगवान की छ्यानवे हजार रानियाँ थीं, बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा उनकी सेवा करते थे और बत्तीस यक्ष हमेशा चामरों को ढुराया करते थे। चक्रवर्तियों के साढ़े तीन करोड़ बन्धु कुल होते हैं। अठारह करोड़ घोड़े, चौरासी लाख हाथी, तीन करोड़ उत्तम वीर, अनेकों करोड़ विद्याधर और अठासी हजार म्लेच्छ राजा होते हैं। छ्यानवे करोड़ ग्राम, पचहत्तर हजार नगर, सोलह हजार खेट, चौबीस हजार कर्वट, चार हजार मटंब और अड़तालीस हजार पत्तन होते हैं इत्यादि अनेकों वैभव होते हैं।
चौदह रत्नों के नाम-अश्व, गज, गृहपति, स्थपति, सेनापति, स्त्री और पुरोहित ये सात जीवित रत्न हैं एवं छत्र, असि, दण्ड, चक्र, काकिणी, चिन्तामणि और चर्म ये सात रत्न निर्जीव होते हैं।
नवनिधियों के नाम-काल, महाकाल, पाण्डु, मानव, शंख, पद्म, नैसर्प, पिंगल और नानारत्न ये नौ निधियाँ हैं। ये क्रम से ऋतु के योग्य द्रव्यों, भाजन, धान्य, आयुध, वादित्र, वस्त्र, हम्र्य, आभरण और रत्नसमूहों को दिया करती है । दशांग भोग-दिव्यपुर, रत्न, निधि, सैन्य, भोजन, भाजन, शय्या, आसन, वाहन और नाट्य ये चक्रवर्तियों के दशांग भोग होते हैं। इस प्रकार संख्यात हजार पुत्र-पुत्रियों से वेष्टित भगवान शान्तिनाथ चक्रवर्ती के साम्राज्य को प्राप्त कर दस प्रकार के भोगों का उपभोग करते हुए सुख से काल व्यतीत कर रहे थे। भगवान तीर्थंकर और चक्रवर्ती होने के साथ-साथ कामदेव पद के धारक भी थे।
तप
भगवान का वैराग्य-जब भगवान के पच्चीस हजार वर्ष साम्राज्य पद में व्यतीत हो गये, तब एक समय अलंकारगृह के भीतर अलंकार धारण करते हुए उन्हें दर्पण में अपने दो प्रतिबिम्ब दिखाई दिये। उसी समय उन्हें आत्मज्ञान उत्पन्न हो गया और पूर्व जन्म का स्मरण भी हो गया, तब भगवान संसार, शरीर और भोगों के स्वरूप का विचार करते हुए विरक्त हो गये। उसी समय लौकान्तिक देवों ने आकर अनेकों स्तुतियों से पूजा-स्तुति की। अनन्तर सौधर्म आदि इन्द्र सभी देवगणों के साथ उपस्थित हो गये। भगवान ने नारायण नाम के पुत्र का राज्याभिषेक करके सभी कुटुम्बियों को यथायोग्य उपदेश दिया।
भगवान का दीक्षा ग्रहण-अनन्तर इन्द्र ने भगवान का दीक्षाभिषेक करके ‘सर्वार्थसिद्धि' नाम की पालकी में विराजमान करके हस्तिनापुर नगर के सहस्राम्र वन में प्रवेश किया। उसी समय ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिन भरणी नक्षत्र में बेला का नियम लेकर भगवान ने पंचमुष्टि लोंच करके ‘नम: सिद्धेभ्य:' कहते हुए जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली और सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करके ध्यान में स्थिर होते ही मन:पर्ययज्ञान प्राप्त कर लिया।भगवान का आहार-मन्दिरपुर के राजा सुमित्र ने भगवान शान्तिनाथ को खीर का आहार देकर पंचाश्चर्य वैभव को प्राप्त किया। इस प्रकार अनुक्रम से तपश्चरण करते हुए भगवान के सोलह वर्ष व्यतीत हो गये।
केवलज्ञान और मोक्ष
भगवान को केवलज्ञान की प्राप्ति-भगवान शान्तिनाथ सहस्राम्र वन में नंद्यावर्त वृक्ष के नीचे पर्यंकासन से स्थित हो गये और पौष कृष्ण दशमी के दिन अन्तर्मुहूर्त में दसवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म का नाश कर बारहवें गुणस्थान में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का सर्वथा अभाव करके तेरहवें गुणस्थान में पहुँचकर केवलज्ञान से विभूषित हो गये और उन्हें एक समय में ही सम्पूर्ण लोकालोक स्पष्ट दीखने लगा। पहले भगवान ने चक्ररत्न से छह खण्ड पृथ्वी को जीतकर साम्राज्य पद प्राप्त किया था, अब भगवान ने ध्यानचक्र से विश्व में एकछत्र राज्य करने वाले मोहराज को जीतकर केवलज्ञानरूपी साम्राज्य लक्ष्मी को प्राप्त कर लिया। उसी समय इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने दिव्य समवसरण की रचना कर दी।
समवसरण का संक्षिप्त वर्णन-यह समवसरण पृथ्वीतल से पाँच हजार धनुष ऊँचा था, इस पृथ्वीतल से एक हाथ ऊँचाई से ही इसकी सीढ़ियाँ प्रारंभ हो गयी थीं। ये सीढ़ियाँ एक-एक हाथ की थीं और बीस हजार प्रमाण थीं। यह समवसरण गोलाकार रहता है। इसमें सबसे पहले धूलिसाल के बाद चारों दिशाओं में चार मानस्तम्भ हैं। मानस्तंभों के चारों ओर सरोवर है। फिर निर्मल जल से भरी परिखा है। फिर पुष्पवाटिका (लतावन) है। उसके आगे पहला कोट है। उसके आगे दोनों ओर से दो-दो नाट्यशालाएँ हैं। उसके आगे दूसरा अशोक, आम्र, चंपक और सप्तपर्ण का वन है। उसके आगे वेदिका है। तदनन्तर ध्वजाओं की पंक्तियाँ हैं। फिर दूसरा कोट है। उसके आगे वेदिका सहित कल्पवृक्षों का वन है। उसके बाद स्तूप, स्तूपों के बाद मकानों की पंक्तियाँ हैं। फिर स्फटिक मणिमय तीसरा कोट है। उसके भीतर मनुष्य, देव और मुनियों की बारह सभाएँ हैं। तदनन्तर पीठिका है और पीठिका के अग्रभाग पर कमलासन पर चार अंगुल अधर ही अर्हन्त देव विराजमान रहते हैं। भगवान पूर्व या उत्तर की ओर मुँह कर स्थित रहते हैं फिर भी अतिशय विशेष से चारों दिशाओं में ही भगवान का मुँह दिखता रहता है। समवसरण में चारों ओर प्रदक्षिणा के क्रम से पहले कोठे में गणधर और मुनिगण, दूसरे में कल्पवासिनी देवियाँ, तीसरे में आर्यिकाएँ और श्राविकाएँ, चौथे में ज्योतिषी देवांगनाएँ, पाँचवें में व्यन्तर देवांगनाएँ, छठे में भवनवासी देवांगनाएँ, सातवें में भवनवासी देव, आठवें में व्यन्तर देव, नवमें में ज्योतिषी देव, दसवें में कल्पवासी देव, ग्यारहवें में चक्रवर्ती आदि मनुष्य और बारहवें में पशु बैठते हैं।
समवसरण में भव्यजीवों का प्रमाण-भगवान के समवसरण में चक्रायुध को आदि लेकर छत्तीस गणधर थे। बासठ हजार मुनिगण और साठ हजार तीन सौ आर्यिकाएँ, दो लाख श्रावक और चार लाख श्राविकाएँ, असंख्यातों देव-देवियाँ और संख्यातों तिर्र्यंच थे। इस प्रकार बारहगणों के साथ-साथ भगवान ने बहुत काल तक धर्म का उपदेश दिया।
भगवान का मोक्षगमन-जब भगवान की आयु एक माह शेष रह गई, तब वे सम्मेदशिखर पर आए और विहार बंदकर अचलयोग से विराजमान हो गये। ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिन भगवान चतुर्थ शुक्लध्यान के द्वारा चारों अघातिया कर्मों का नाश कर एक समय में लोक के अग्रभाग पर जाकर विराजमान हो गये। वे नित्य, निरंजन, कृतकत्य सिद्ध हो गये। उसी समय इन्द्रादि चार प्रकार के देवों ने आकर निर्वाण कल्याणक की पूजा की और अन्तिम संस्कार करके भस्म से अपने ललाट आदि उत्तमांगों को पवित्र कर स्व-स्वस्थान को चले गये। ये शान्तिनाथ भगवान तीर्थंकर होने से बारहवें भव पूर्व राजा श्रीषेण थे और मुनि को आहारदान देने के प्रभाव से भोगभूमि में गये थे। फिर देव हुये, फिर विद्याधर हुए, फिर देव हुए, फिर बलभद्र हुए, फिर देव हुए, फिर वङ्काायुध चक्रवर्ती हुए। उस भव में इन्होंने दीक्षा ली थी और एक वर्ष का योग धारण कर खड़े हो गये थे, तब इनके शरीर पर लताएँ चढ़ गई थीं, सर्पों ने वामी बना ली थीं, पक्षियों ने घोंसले बना लिये थे और ये वङ्काायुध मुनिराज ध्यान में लीन रहे थे। अनन्तर अहमिन्द्र हुए, फिर मेघरथ राजा हुए, उस भव में इन्होंने दीक्षा लेकर घोर तपश्चरण करते हुए सोलहकारण भावनाओं का चिन्तवन किया था और उसके प्रभाव से तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया था। फिर वहाँ से सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुए, फिर वहाँ से आकर जगत् को शांति प्रदान करने वाले सोलहवें तीर्थंकर और पंचम चक्रवर्ती ऐसे शान्तिनाथ भगवान हुए।
उत्तरपुराण में श्री गुणभद्र स्वामी कहते हैं कि इस संसार में अन्य लोगों की बात जाने दीजिए,
श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र को छोड़कर भगवान तीर्थंकरों में ऐसा कौन है जिसने पूर्व के बारह भवों में से प्रत्येक भव में बहुत भारी वृद्धि प्राप्त की हो!
इसलिये हे विद्वान लोगों! यदि तुम शान्ति चाहते हो तो सबसे उत्तम और सबका भला करने वाले श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र का निरन्तर ध्यान करते रहो। यही कारण है कि आज भी भव्यजीव शांति प्राप्ति के लिए श्री शान्तिनाथ की आराधना करते हैं।
पुष्पदन्त तीर्थंकर से लेकर सात तीर्थंकरों तक उनके तीर्थकाल में धर्म की व्युच्छित्ति हुई अत: धर्मनाथ तीर्थंकर के बाद पौनपल्य अन्तर पावपल्य काल तक इस भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में धर्म का विच्छेद हो गया अर्थात् हुण्डावसर्पिणी के दोष से उस पावपल्यप्रमाण काल तक दीक्षा लेने वालों का अभाव हो जाने से धर्मरूपी सूर्य अस्त हो गया था, उस समय शान्तिनाथ ने जन्म लिया था। तब से आज तक धर्मपरम्परा अविछिन्नरूप से चली आ रही है इसलिए उत्तरपुराण में भी गुणभद्र स्वामी कहते हैं कि-पुष्पदन्त तीर्थंकर से लेकर सात तीर्थंकरों तक उनके तीर्थकाल में धर्म की व्युच्छित्ति हुई अत: धर्मनाथ तीर्थंकर के बाद पौनपल्य अन्तर पावपल्य काल तक इस भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में धर्म का विच्छेद हो गया अर्थात् हुण्डावसर्पिणी के दोष से उस पावपल्यप्रमाण काल तक दीक्षा लेने वालों का अभाव हो जाने से धर्मरूपी सूर्य अस्त हो गया था, उस समय शान्तिनाथ ने जन्म लिया था। तब से आज तक धर्मपरम्परा अविछिन्नरूप से चली आ रही है इसलिए उत्तरपुराण में भी गुणभद्र स्वामी कहते हैं कि-
‘भोगभूमि आदि कारणों से नष्ट हुआ मोक्षमार्ग यद्यपि ऋषभदेव आदि तीर्थंकरों के द्वारा पुन:-पुन: दिखलाया गया था तो भी उसे प्रसिद्ध अवधि के अन्त तक ले जाने में कोई भी समर्थ नहीं हो सका, तदनन्तर जो शांतिनाथ भगवान ने मोक्षमार्ग प्रकट किया, वही आज तक अखण्डरूप से बाधारहित चला आ रहा है इसलिए इस युग के आद्यगुरू श्री शांतिनाथ भगवान ही हैं क्योंकि उनके पहले जो १५ तीर्थंकरों ने मोक्षमार्ग चलाया था, वह बीच-बीच में विनष्ट होता जाता था।'
जिनके शरीर की ऊँचाई एक सौ आठ हाथ है, जो पंचम चक्रवर्ती हैं और कामदेव पद के धारी है, जिनके हरिण का चिन्ह है, जो भादों वदी सप्तमी को माता के गर्भ में आये, ज्येष्ठ वदी चौदस को जन्म लिया और ज्येष्ठ वदी चौदस को ही दीक्षा ग्रहण किया, पौष शुक्ल दशमी के दिन केवलज्ञानी हुए पुन: ज्येष्ठ वदी चौदस को ही मुक्तिधाम को प्राप्त हुए, ऐसे शांतिनाथ भगवान सदैव हम सबको शांति प्रदान करें।
The account of the earlier incarnations of Bhagwan Shantinath indicates that this soul had taken the path that lead towards purity of soul. As a result of his upliftment of the soul as Shrisen and Vajrayudh he got birth as Meghrath, son of King Dhanrath of Pundarikini town in Mahavideh area. King Dhanrath gave his throne to his son and became ascetic.
Meghrath was a benevolent and religious ruler. He was compassionate and protected all living things. Disturbed by the miseries of the mundane life, one day king Meghrath was doing mediation. He transcended to a very high level of purity. Knowing about this uncommon purity and determination of Meghrath the king of gods bowed to him with reverence, "My salutations to you O citizen Yogi! there are but a few in this world who could reach this level of detachment and purity." Two senior consorts of Indra, Surup and Atirup did not like this gesture of praise of a mere human. They both came to disturb the meditation of Meghrath. They made several beautiful and voluptuous damsels appear before the king. These beauties tried to disturb Meghrath by a display of dances and inviting gestures. When these night long seductive afflictions failed to disturb king Meghrath, the goddesses, before returning to their abode, appeared themselves and asked the king to forgive them.
King Meghrath’s uncommon purity and determination made gods to bow to him with reverence. King Meghrath, then, crowned his son and took Diksha from Arhat Dhanrath. Due to his increasing purity in meditation in the face of many afflictions, he earned the Tirthankar-nam-and-gotra-karma. Completing his age he reincarnated in the Sarvarthasiddha dimension of gods.
From the dimension of gods, the being that was Meghrath descended into the womb of queen Achira, wife of king Vishwasen of Ikshvaku clan and ruler of Hastinapur. It had been raining from continuous seven days in Hastinapur area. The sky was covered with dense dark clouds and it was thundering along with heavy rain. Everybody was upset in the town. But this morning, clouds seemed to calm down a little and rain turned to drizzle. Queen could not control her self this morning and went to meet the king inspite of the rain outside. She wanted to tell the king about the fourteen (sixteen according to the digambar jain beliefs) auspicious dreams she saw at the dawn of the day. King understood that her queen was carrying a pious soul in her womb.
King was sitting in his court when his general, secretary, health minister, religious leaders all came to him and mentioned about the epidemic spread all over and that about hundreds of people started dying every day. King was in great tension because he felt helpless in solving the problem. He took a vow that he will not eat or drink as long as peace and normalcy does not return to his to his kingdom.
Moved by his this harsh vow, the king of gods himself appeared before the king and said, “O king! You are unnecessarily disturbed. What can happen wrong in the place where the wish fulfilling trio of chintamani, kalpavriksha, and Kamdhenu exists? Remember about the fourteen (sixteen according to the digambar jain beliefs) dreams that the queen saw. Her glance at the vast expanses of your kingdom all around is enough to remove all the miseries from wherever it reaches.”
Next day in a beautiful chariot king and queen both started their journey for the entire kingdom. And wherever they went there was a message of calmness and relief.
On the thirteenth day of the dark half of the month of Jyeshtha the queen gave birth to the great and illustrious son.
When queen gave birth to the son, the whole universe, including even the hell, was pervaded by a soothing glow and a feeling of joy and happiness. Due to this pacifying influence during the pregnancy of the queen and after the birth of the son, the new born was named Shanti Kumar (Shanti = Peace).
Time passed by and Shantinath became young handsome prince. His beauty, vision, wisdom, deep thoughts, religious nature was famous. Though he was not interested in getting married, yet he knew that he had some karmas left to be shed off. So he was married to several beautiful pricesses. At proper time King Vishwasen handed over the kingdom to Shantinath and went away on the path meditation in search of Moksha. After a few years king Shantinath got a son who was named Chakrayudh.
King Shantinath was to be a Chakravarti king that was decided by his stars and it was what his religious leaders have been telling him and inspiring him. Few years later a divine disc weapon appeared in the armory. When the traditional worship rituals of this weapon were concluded, it started moving toward the east on its own. Shantinath took permission from his mother and followed the weapon. Most of the kings on the way surrendered. After defeating the remaining few Shantinath became a Chakravarti. His kingdom was under the influence of peace and calmness allover.
Slowly and steadily all his Karmas to live in palace and rule as a king was over. He realized the real purpose of his life, his ultimate goal to be achieved in this very life span. He handed over the responsibilities of the kingdom to Chakrayudh.
For the entire year from that time, he distributed wealth among the people. One day, along with thousand other kings, he came out of the palace, removed his hair with his fist, uttered, “Namo Siddhanam” and became an ascetic.
Omniscience and Nirvana
He went roaming place to place and meditating. Lots of problems came in his path but they all had to surrender to Shantinath ji’s feet. After one year of spiritual practices he reached Hastinapur and while sitting under Nandi Tree he attained omniscience on the bright half of the month of Paush. In his first religious discourse his son, mother, wife, all the people of Hastinapur and many people from all around came. Under the influence of the Pravachan Chakrayudh also took diksha and started his journey towards Moksha.
Tirthankar Shantinath ji, went to Sammed shikharji and there while meditating there all his Ghati Karma shed away and he attained Nirvana on the dark half of the month of Jyeshtha.