Home
Bhajans
Videos
Aarti
Jain Darshan
Tirthankar Kshetra
KundKundacharya
Sammed Shikharji
Vidhi Vidhan
जैन पंचांग
January
February
March
April
May
June
July
August
September
October
November
December
नवदेवता पूजन
समुच्चय जयमाला
--दोहा--
चिन्मय चिंतामणि सकल, चिंतित फल दातार।
तुम गुणकण भी गाय के, पाऊं सैख्य अपार।।1।।
शंभु छंद
जय जय जिन मोह अरी हन के, अरिहंत नाम तुमने पाया।
जय जय शतइंद्रों से पूजित, अर्हत का यश सबने गाया।
प्रभु गर्भागम के छह महिने, पहले ही सुरपति आज्ञा से।
धनपति ने रत्नमयी पृथ्वी, कर दी रत्नों की धारा से।।2।।
श्री ह्री धृति आदिक देवीगण, माता की सेवा खूब करें।
माता का गर्भ शुद्धि करके, निज का नियोग सब र्पूा करें।।
तीर्थंकर मां पिछली रात्री, में सोलह स्वप्नों को देखें।
प्रातः प्राभातिक विधि करके, आकर पति से उन फल पूछें।।3।।
त्रिभुवनपति जननी तुम होंगी, पति के मुख से फल सुन करके।
रोमांचित हो जाती माता, अतिशय सुख का अनुीाव करके।।
जब प्रभु तुम गर्भ बसे आके, इंद्रों ने उत्सव खूब किया।
पन्द्र महीनों तक रत्नवृष्टि, करके सब दारिद दूर किया।।4।।
जब जन्म लिया तीर्थेश्वर ने, त्रिभुवन जन में आनंद हुआ।
इंद्रों द्वारा मंदरगिरि पर, प्रभु का अभिषेक प्रबंध हुआ।।
जब प्रभु के मन वैराग्य हुआ, लौकांतिक सुरगण भी आये।
प्रभु की स्तवन विधी करके, श्रद्धा भक्तीवश हरषाये।।5।।
दीक्षा कल्याणक उत्सव कर, इंद्रों ने अनुपम पुण्य लिया।
जब केवलज्ञान हुआ प्रभु को, जनज न ने निज को धन्य किया।।
अनुपम वैभवयुत समवसरण, द्वादश कोठे मं भवि बैठें।
अरिहंत अनंतचुष्टय युत, सब जन को हितकर उपदेशें।।6।।
इन पंच कल्याणक के स्वामी, तीर्थंकरगण ही होते हैं।
कुछ दो या तीन कल्याणक पा, निज पर का कल्मष धोते हैं।।
बहुतेक भविक नि जतप बल से, चउ घाति कर्म का घात करें।
ये सब अरिहंत कहाते हैं, जो केवल ज्ञान विकास करें।।7।।
जिन अष्टकर्म को नष्ट किया, लोकाग्र विराजें जा करके।
वे सिद्ध हुए कृतकृत्य हुए, निज शाश्वत सुख को पा करके।।
आचार्य परमगुरू चतुःसंघ अधिनायक गणधर कहलाते।
जो पढ़े पढ़ावे जिनवाणी, वे उपाध्याय निज पद पाते।।8।।
जो करें साधन निज की नित, वे साधु परम गुरू माने हैं।
ये पंच परमगुरू भक्तों के, अगणित दुःखों को हाने हैं।।
ये पांचों ही मंगलकारी, लोकोत्तम शरणभूत माने।
इनकी शरणागत आकरके, निज कर्म कुलाचल को हाने।।9।।
इनकों अर्चू पूजूं वंदूं, और नमस्कार भी नित्य करूं।
निज हृदय कमल में धारण कर, सम्पूर्ण अमंगल विघ्न हरूं।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, होवे मम बोधि लाभ होवे।
मुझ सुगती गमन समाधिमरण, होकर जिनगुण संपत्ति होवे।।10।।
--दोहा--
तुम पद्भक्ति अमोघ शर, करे मृत्यु कर घात।
केवल ’’ज्ञानमती’’ सहित, मिले मुक्ति साम्राज।।11।।
ऊँ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शान्तये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
--गीता छंद--
अर्हंतसिद्धाचार्य पाठक, साधु को जो पूजते।
वे मोह को कर दूर, मृत्यू मल्ल को भी चूरते।।
अद्भुत सुखों को भोग क्रम से, मुक्ति लक्ष्मी वश करें।
कैवल्य अर्हत् ज्ञानमति पा, पूर्ण सुख शाश्वत भरें।।
।।इत्याशीर्वादः।।
प्रशस्ति
--नरेन्द्र छंद--
वीरनाथ अंतिम तीर्थंकर, जिनका शासन अब है।
जिनका नाम लेत ही तत्क्षण, क्षय होते अघ सब हैं।।
उनके शासन के अनुयायी, कुन्दकुन्द गुरू मानें।
गच्द सरस्वति विश्वप्रथितगण, बलात्कार भी जानें।।1।।
उस ही परम्परा के ऋषिवर, शांतिसागराचार्या।
जिनके शिष्य वीरसागर ने, गुरूपट्ट को धार्यो।।
ऐसे सूरि वीरसागर के,चरण कमल में आके।
’ज्ञानमती’ हो गई तभी मैं, श्रमणीव्रत को पाके।।2।।
अल्पबुद्धि भी गुरूप्रसाद से, शब्द ज्ञान कुछ पाया।
कष्टसहस्त्री अष्टसहस्त्री, का अनुवाद रचाया।।
नियमसार आदिक ग्रन्थों का, हिंदी अर्थ किया है।
न्यायसार आदिक पुस्तक लिख, शास्त्राभ्यास किया है।।3।।
अनुपम श्रेष्ठ ’इन्द्रध्वज’ आदिक प्रथित विधान रचे हैं।
प्रभु की अमित भक्ति ही उसमें, कारण मात्र लखें हैं।।
पंच परमगुरूपदपंकज की, भक्ति असीम हृदय में।
उनके लेश गुणों की पूजा, गुण का करे उदय में।।4।।
हस्तिनागपुर क्षेत्र पुण्यभू, सुरनर मुनिगण अभिनुत।
वीर शब्द पच्चीस शतक त्रय, वर्षायोग सुप्रस्तुत।।
आश्विन शुक्ल दशमी तिथि में, पूजा पूर्ण किया मैं।
निजभावों को निर्मल करके, दुर्गति चूर्ण किया मैं।।5।।
--दोहा--
ख्याति लाभ पूजादि की, वांछा नहिीं लवलेश।
स्वात्मसिद्धि के हेतु मैं, पूजा रची विशेष।।6।।
यावत् जिनशासन अमल, जग में रहे प्रधान।
तावत् भविजन हेतु यह, सुखप्रद रहे विधान।।7।।
आरती पंचपरमेष्ठी
रचयित्री - आर्यिका चन्दनामती
ऊँ जय पंच परमदेवा, स्वामी जय पंचपरमेदवा।
दुखहारी सुखकारी, जय जय जय देवा।। ऊँ जय0।।
घाती कर्म विनाशा, केवल रवि प्रगटा।। स्वामी0।।
दर्श ज्ञान सुख वीरज, अनुपम शांत छटा।। ऊँ जय।।
अष्ट कर्म रिपु क्षय कर, सिद्ध प्रसिद्ध हुए।।स्वामी0।।
लोक शिखर पर राजें, नंतानंत रहे।। ऊँ जय।।
पंचाचार सहित जो, गणनायक होते।। स्वामी0।।
सूरि स्वात्म आराधक, सुखदायक होते।। ऊँ जय।।
गुण पच्चीस सु शोभें, अतिशय गुणधारी।। स्वामी0।।
शिष्य पठन पाठनरत, जिन महिमा न्यारी।। ऊँ जय।।
राज्यविभव सुखसंपति, छोड़ विराग लिया।।स्वामी0।।
सर्वसाधु परमेष्ठी, नरभव सफल किया।। ऊँ जय।।
पंचपरमपद स्थित, परमेष्ठी होवें।।स्वामी0।।
यही ’’चन्दनामती’’ चाह है, भव का भ्रम खोवे।। ऊँ जय।।