समापन
७४५ एवं से उदाहु अणुत्तरनाणी, अणुत्तरदंसी अणुत्तरणाण दंसणधरे।
अरहा नायपुत्ते भगवं, वेसालिए वियाहिए त्ति बेमि।।१।।

अर्हन् प्रभो! अमित दर्शन-ज्ञान-स्पर्शी, वे ‘ज्ञातु पुत्र‘ निखिलज्ञ अनंतदर्शी।
‘वैशालि में जनक सन्मति ने लिया था, धर्मोपदेश इस भाँति हमें दिया था।।१।।

745. This benedictory sermon (Hetopadesha) was delivered by lord Mahavir the son of jnat the silent knower (Anutter-darshi) and the silent embodiment of knowledge and perception (Anuttar-jnan darshan-dhari) in the city of (Vaishali).

७४६ ण हि णूण पुरा अणुस्सुयं, अदुवा तं तह णो अणुट्ठियं।
मुणिणा सामाइ आहियं, णाएण जग-सव्व-दंसिणा।।२।।

श्री वीर ने सुपथ यद्यपि था दिखाया, था कोटिशः सदुपदेश हमें सुनाया।
धिक्कार! किन्तु हमने उसको सुना ना, मानो! सुना पर कभी उसको गुना ना।।२।।

746. The omni percept son of jnat, lord Mahavir had preached about equanimity (Samauik) etc. but the mundane souls either did not listen to it or having listened to it did not follows it same.

७४७-७४८ अत्ताण जो जाणइ जो य लोगं, जो आगतिं जाणइऽणागतिं च
जो सासयं जाण असासयं च जातिं मरणं च चयणोववातं।
अहो वि सत्ताण वि उड्ढणं च, जो आसवं जाणति संवरं च
दुक्खं च जो जाणइ णिज्जरं च, सो भासिउ-मरिहति किरियवादं।।

जो साधु आगति-अनागति कारणों को, पीड़ा प्रमोदप्रद आस्रव-संवरों को।
औ जन्म को मरण को निज के गुणों को, त्रैलोक्य में स्थित अशाश्वत शाश्वतों को।।३।।
औ स्वर्ग को नरक को दुख निर्जरा को, है जानते च्यवन को उपपादता को।
श्री मोक्ष-पंथ प्रतिपादन कार्य में है, वे योग्य वंदन त्रिकाल करूँ उन्हें मैं।।४।।

747-748. He (alone) can properly preach about Right thought and Right conduct (samyak achar-vichar) i.e. ritualism (kriya vad), who knows present and future immortal and mortal birth and death dripping and being reborn in heavens; inflow and stoppage of karmas; sorrow and shedding off of karmas.

७४९ लद्धं अलद्ध-पुव्वं, जिण-वयण-सुभासिदं अमिद-भूदं।
गहिदो सुग्गइ-मग्गो, णाहं मरणस्स बीहेमि।।५।।

वाणी सुभाषित सुधा, शुचि ‘वीर‘ की है, थी पूर्व प्राप्त न, अपूर्व अभी मिली है।
क्यों मृत्यु से फिर डरूँ, तज सर्व-ग्रंथि, मैं हो गया जब प्रभो! शिव-पंथ-पंथी।।५।।

749. I have attained that well said vector like preachings of jina (jina-vachan) today that I never attained so far. I have accordingly adopted that way of achieving higher grade of life.
I do not fear death now.

७५॰ णाणं सरणं में, दंसणं च सरणं च चरिय सरणं च।
तव संजमं च सरणं, भगवं सरणो महावीरो।।१।।

सम्यक्त्व-बोध-व्रत पावन-झील न्यारे, मेरे रहें शरण संयम शील सारे।
लूँ वीर की शरण भी मम प्राण प्यारे, नौका समान भव-पार मुझे उतारें।।१।।

750. I am under the shelter of knowledge; I am under the shelter of perception; I am under the shelter of conduct; I am under the shelter of austerities and restraints; and I am under the shelter of lord Mahavir.

७५¬१ से सव्वदंसी अभिभूय णाणी, णिरामगंधे धिइयं ठियप्पा।
अणुत्तरे सव्वजगंसि विज्जं, गंथा अतीते अभए अणाऊ।।२।।

निग्र्रन्थ हैं अभय धीर अनंत-ज्ञानी, आत्मस्थ हैं अमल है कर आयु-हानि।
मूलोत्तरादिगुण-धारक विश्वदर्शी, विद्वान ‘वीर‘ जग में जग-चित्त-हर्षी।।२।।

751. Lord Mahavir was omnipercept, omniscient follower of pure conduct with all its basic/original (Mula) and subsequent/posterior (uttar) attributes, Enduring, possessionless (Granthatila/devoid of knots) fearless and free of age karma.

७५२ से भूइ-पण्णे अणिएय-चारी, ओहंतलरे धीरे अणंतचक्खू।
अणुत्तरे तवति सूरिए व, वइरोयणिंदे व तमं पगासे।।३।।

सर्वज्ञ हैं अनियताचरणावलम्बी, पाया भवाम्बुनिधि का तट स्वावलम्बी।
हैं अग्नि से निशि नशा स्वपरप्रकाशी, हैं ‘वीर‘ धीर रवितेज अनंतदर्शी।।३।।

752. Lord Mahavir had infinite knowledge (Anant jnani) and indefinite conduct (Aniyata chari/of unfixed/indeterminate conduct. He had succeeded in crossing the ocean of the world. He was enduring and possessed of infinite perception (Anant-darshi). He was extremely brilliant (Tejasvi/illustrous) like sun just as fire-ablaze/ destroys darkness and brings enlightenment; similarly lord Mahavir had removd the darkness of ignorance and thrown light on the true nature of essential elements (Padartha).

७५३ हत्थीसु एरावणमाहु णाए, सीहो मिगाणं सलिलाण गंगा।
पक्खीसु वा गरुले वेणुदेवो, णिव्वाण वादी-णिह नायपुत्ते।।४।।

ऐरावता वर-गजों हरि ज्यों मृगों में, गंगा नदी गरुड़ श्रेष्ठ विहंगमों में।
निर्वाणवादि मनुजों मुनि साधओं में, त्यों ‘ज्ञातृपुत्र‘ वर ‘वीर‘ मुमक्षुओं में।।४।।

753. The son of Jnat (Mahavir) was best of all the propounders of salvation (Nirvanvadis), in the manner in which Airavat is best of all the animals, Ganga is best of all the rivers; and eagles (venudev/Garud) is best of all the birds.

७५४ दाणाण सेट्ठं अभयप्पयाणं, सच्चेसु वा अणवज्जं वयंति।
तवेसु वा उत्तम बंभचेरं, लोगुत्तमे समणे नायपुत्ते।।५।।

ज्यों श्रेष्ठ सत्य वचनों वच कर्ण-प्रीय, दानों रहा ‘अभय दान‘ समच्र्यनीय।
है ब्रह्मचर्य तप‘ उत्तम सत्तपों में, त्यों ‘ज्ञातृपुत्र‘ श्रमणेश धरातलों में।।५।।

754. The supermost saint son of Jnata was supreme in the universe in the like manner in which the charity of protection (Abhaya-dan) is supermost of all the charities in which flawless and blameless speech (Anavadya-vachan) is supermost of all the true speeches; and celibacy (Brahma-charya) is supermost of all the true austerities (Satya-tapa).

७५५ जयइ जगजीवजोणी-वियाणओ जगगुरू जगाणंदो।
जगणाहो जगबंधू, जयइ जगप्पियामहो भयवं।।६।।

हैं जन्मते कब कहाँ जग जीव सारे, जाने जगद्गुरु! तुम्हीं जगदीश! प्यारे।
धाता पितामह चराचर मोदकारी, है! लोकबंधु भगवन्! जय हो तुम्हारी।।६।।

755. May the lord-who knows the Yonis (breeding-centers/generation centers) of all the living beings of the universe; who gives joy to universe; who is the lord of the universe; the brother of the universe and the great grant father of the universe be ever victorious.

७५६ जयइ सुयाणं पभवो, तित्थयराणं अपच्छिमो जयइ।
जयइ गुरू लोगाणं, जयइ महप्पा महावीरो।।७।।

संसार के गुरु रहें जयवन्त नामी! तीर्थेश अन्तिम रहें जयवन्त स्वामी!
विज्ञान स्त्रोत जयवन्त रहे ममात्मा, ये ‘वीरदेव‘ जयवन्त रहें महात्मा।।७।।

756. May the generation center of scriptural knowledge, that consists of twelve limbs (Dwada sanga-vani) the last amongst the twenty four tirthankars be victorious; May the great soul Mahavir be victorious.

दोहा: मेटे वाद-विवाद को, निर्विवाद स्याद्वाद।
सब वादों को खुश करे, पुनि-पुनि कर संवाद।।

चतुर्थ खंड समाप्तम्ः
गुरु-स्मृति-स्तुति

मैं आपकी सदुपदेश सुधा न पीता,
जाती लिखी न मुझ से यह ‘जैन-गीता‘।
दो ‘ज्ञानसागर गुरों!‘ मुझ को सुविद्या,
‘विद्यादिसागर‘ बनूँ तज दूँ अविद्या।।१।।

भूल-क्षम्य
लेखक कवि मैं हूँ नहीं, मुझ में कुछ नहिं ज्ञान।
त्रुटियाँ होवें यदि यहाँ, शोध पढे़ं धीमान।।२।।

मंगल-कामना
यही प्रार्थना ‘वीर‘ से अनुनय से कर जोर।
हरी-भरी दिखती रहे, धरतीचारों ओर।।३।।
मरहम पट्टी बाँध के, वृण का कर उपचार।
ऐसा यदि ना बन सके, डंडा तो मत मार।।४।।
फूल बिछाकर पंथ में, पर प्रति बन अनुकूल।
शूल बिछाकर भूल से, मत बन तू प्रतिकूल।।५।।
तजो रजोगुण साम्य को-सजो, भजो निज-धर्म।
शम मिले, भव दुःख मिटे, आशु मिटें वसु कर्म।।६।।

रचना स्थान एवं समय परिचय

‘श्रीधर-केवलि‘ शिव गये, कुण्डलगिरि से हर्ष।
धारा वर्षायोग उन, चरणन में इस वर्ष।।७।।
‘बड़े बाबा‘ बड़ी कृपा, की मुझ पै आदीश।
पूर्ण हुई मम कामना, पाकर जिन आशीष।।८।।
‘संग-गगन-गति-गंध‘ की भादु पदी सित तीज।
पूर्ण हुआ यह ग्रंथ है, भुक्ति-मुक्ति का बीज।।९।।