|| Shree 1008 Parshva Nath Bhagwan ||



Details
Emblem :~
Serpent
Father :~
Ashvasen
Mother :~
Vama
Birth Place :~
Kashi (Banaras)
Place of Nirvan :~
Samet Sikhar
Color :~
Green
Panch-Kalyanak
Conception :~
Vaishakh, Krishna 2
Birth :~
Posh Krishna 11
Tap :~
Posh Krishna 11
Keval Gyan :~
Chaitra Krishna 4
Salvation :~
Shrawan Shukla 7

पार्श्वनाथ भगवान का परिचय

इसी जम्बूद्वीप के दक्षिण भरतक्षेत्र में एक सुरम्य नाम का बड़ा भारी देश है। उसके पोदनपुर नगर में अतिशय धर्मात्मा अरविन्द राजा राज्य करते थे। उसी नगर में विश्वभूति ब्राह्मण की अनुन्धरी ब्राह्मणी से उत्पन्न हुए कमठ और मरुभूति नाम के दो पुत्र थे जोकि क्रमश: विष और अमृत से बनाये हुए के समान मालूम पड़ते थे। कमठ की स्त्री का नाम वरुणा तथा मरुभूति की स्त्री का नाम वसुन्धरा था। ये दोनों ही राजा के मन्त्री थे। एक समय किसी राज्यकार्य से मरुभूति बाहर गया था तब कमठ मरुभूति की स्त्री वसुन्धरा के साथ व्यभिचारी बन गया। राजा अरविंद को यह बात पता चलते ही उन्होंने उस कमठ को दण्डित करके देश से निकाल दिया। वह कमठ भी मानभंग से दु:खी होकर किसी तापस आश्रम में जाकर हाथ में पत्थर की शिला लेकर कुतप करने लगा। भाई के प्रेम के वशीभूत हो मरूभूति भी कमठ को ढूंढ़ता हुआ उधर चल पड़ा। उसे आते देख क्रोध के आवेश में आकर कमठ ने वह हाथ की शिला उसके सिर पर पटक दी जिससे मरुभूति मरकर सल्लकी वन में वज्रघोष नाम का हाथी हो गया। किसी समय अरविन्द ने विरक्त होकर राज्य छोड़ दिया और संयम धारण कर सब संघ की वंदना के लिये प्रस्थान किया। चलते-चलते वे उसी वन में पहुँचकर सामायिक के समय प्रतिमायोग से विराजमान हो गये। वह हाथी संघ में हाहाकार करता हुआ अरविन्द महाराज के सन्मुख आकर मारने के लिए दौड़ा, तत्क्षण ही उनके वक्षस्थल में वत्स के चिन्ह को देखते ही उसे पूर्वभव के संबंध का स्मरण हो आया, तब वह पश्चाताप से शांत होता हुआ चुपचाप खड़ा रहा। अनंतर अरविन्द मुनिराज ने उसे धर्मोपदेश देकर श्रावक के व्रत ग्रहण करा दिये। उस समय से वह हाथी पाप से डर कर दूसरे हाथियों द्वारा तोड़ी हुई वृक्ष की शाखाओं और सूखे पत्तों को खाने लगा। पत्थरों के गिरने से अथवा हाथियों के समूह के संघटन से जो पानी प्रासुक हो जाता था, उसे ही वह पीता था तथा प्रोषधोपवास के बाद पारणा करता था। इस प्रकार चिरकाल तक महान तपश्चरण करता हुआ वह हाथी अत्यन्त दुर्बल हो गया। किसी दिन वह हाथी पानी पीने के लिए वेगवती नदी के किनारे गया और कीचड़ में गिरकर फंस गया, निकल नहीं सका। वहाँ पर दुराचारी कमठ का जीव मरकर कुक्कुट सर्प हुआ था, उसने पूर्व वैर के संस्कार से उसे काट खाया जिससे वह हाथी महामंत्र का स्मरण करते हुए मरकर बारहवें स्वर्ग में देव हो गया। इधर वह सर्प पाप से मरकर तीसरे नरक चला गया। जंबूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में पुष्कलावती देश है उसके विजयार्ध पर्वत पर त्रिलोकोत्तम नगर में राजा विद्युत्गति राज्य करते थे। वह देव का जीव वहाँ से च्युत होकर राजा की विद्युन्माला रानी से रश्मिवेग नाम का पुत्र हो गया। रश्मिवेग ने युवावस्था में समाधिगुप्त मुनिराज के पास दीक्षा लेकर महासर्वतोभद्र आदि श्रेष्ठ उपवास किये। किसी समय हिमगिरि पर्वत की गुफा में योग धारण कर विराजमान थे कि कुक्कुट सर्प का जीव, जो नरक से निकलकर अजगर हुआ था, उसने निगल लिया। मुनि का जीव मरकर सोलहवें स्वर्ग में देव हुआ और कालांतर में अजगर मरकर छठे नरक चला गया। जंबूद्वीप के पूर्वविदेहसम्बन्धी पद्मादेश में अश्वपुर नगर है। वहाँ के राजा वज्रवीर्य और रानी विजया के वह स्वर्ग का देव मरकर वज्रानाभी नाम का पुत्र हुआ। वह पुण्यशाली चक्रवर्ती के पद का भोक्ता हो गया, अनंतर किसी समय विरक्त होकर साम्राज्य वैभव का त्यागकर क्षेमंकर गुरु के समीप जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। कमठ का जीव, जो कि अजगर की पर्याय में मरकर छठे नरक गया था, वह कुरंग नाम का भील हो गया था। किसी दिन तपस्वी चक्रवर्ती वन में आतापन योग से विराजमान थे, उन्हें देखकर उस भील का वैर भड़क उठा, उसने मुनिराज पर भयंकर उपसर्ग किए। मुनिराज आराधनाओं की आराधना से मरण कर मध्यम ग्रैवेयक में श्रेष्ठ अहमिन्द्र हो गए तथा वह पापी भील आयु पूरी करके पाप के भार से पुन: नरक चला गया। जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में कौशलदेशसम्बन्धी अयोध्या नगरी में काश्यपगोत्री इक्ष्वाकुवंशी राजा वङ्काबाहु राज्य करते थे। उनकी रानी प्रभंकरी थी, वह अहमिन्द्र च्युत होकर रानी के गर्भ से आनंद नाम का आनंददायी पुत्र हो गया। वह बड़ा होकर मंडलेश्वर राजा हुआ। किसी दिन आनंद राजा ने महामंत्री के कहने से आष्टान्हिक महापूजा कराई जिसे देखने के लिए विपुलमति नाम के मुनिराज पधारे। आनंदराज ने उनकी वंदना-पूजा आदि करके उनसे पूछा कि हे भगवन्! जिनेन्द्रप्रतिमा अचेतन है उसकी पूजा से पुण्यबंध वैâसे होता है ? मुनिराज ने कहा-यद्यपि प्रतिमा अचेतन है तो भी महान पुण्य का कारण है जैसे चिंतामणि रत्न, कल्पवृक्ष आदि अचेतन होकर मनचिंतित और मनचाहे फल देते हैं, वैसे ही प्रतिमाओं की वंदना-पूजा आदि से जो शुभ परिणाम होते हैं उनसे सातिशय पुण्य बंध हो जाता है इत्यादि प्रकार से वीतराग प्रतिमा का वर्णन करते हुए मुनिराज ने राजा के सामने तीनलोकसम्बन्धी अकृत्रिम चैत्यालयों का वर्णन करना शुरू किया। उसमें प्रारम्भ में ही सूर्य के विमान में स्थित जिनमंदिर की विभूति का अच्छी तरह वर्णन किया। उस असाधारण विभूति को सुनकर राजा आनन्द को बहुत ही श्रद्धा हो गई। उस दिन से वह प्रतिदिन हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर सूर्यविमान में स्थित जिनप्रतिमाओं की स्तुति करने लगा। उसने कारीगरों द्वारा मणि और सुवर्ण का एक सूर्यविमान बनवाकर उसके भीतर जिनमन्दिर बनवाया। अनन्तर शास्त्रोक्त विधि से आष्टान्हिक, चतुर्मुख, रथावर्त, सर्वतोभद्र और कल्पवृक्ष इन नाम वाली पूजाओं का ‘अनुष्ठान' किया। ‘‘उस राजा को इस तरह सूर्य की पूजा करते देखकर उसकी प्रामाणिकता से अन्य लोग भी स्वयं भक्तिपूर्वक सूर्यमंडल की स्तुति करने लगे। आचार्य कहते हैं कि इस लोक में उसी समय से सूर्य की उपासना चल पड़ी है।’’ किसी दिन आनन्द राजा ने अपने सिर पर एक सफेद बाल देखा, तत्क्षण विरक्त होकर पुत्र को राज्य- वैभव देकर समुद्रगुप्त मुनिराज के पास अनेक राजाओं के साथ दीक्षित हो गये। उन्होंने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और सोलहकारण भावनाओं के चिंतवन से तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया। आयु के अंत समय वे धीर-वीर शांतमना मुनिराज प्रायोपगमन संन्यास लेकर ध्यान में लीन थे। पूर्व जन्म के कमठ का जीव नरक से निकलकर वहीं सिंह हुआ था, सो उसने आकर उन मुनि का कण्ठ पकड़ लिया। सिंहकृत उपसर्ग से विचलित नहीं होने वाले वे मुनिराज मरणकर अच्युत (सोलहवें) स्वर्ग के प्राणत नामक विमान में इन्द्र हो गए। वहाँ पर उनकी आयु बीस सागर की थी, साढ़े तीन हाथ ऊँचा शरीर था। वे वहाँ दिव्य सुखों का अनुभव कर रहे थे। उधर सिंह का जीव भी आयु पूरी करके मरकर नरक चला गया और वहाँ के भयंकर दु:खों का चिरकाल तक अनुभव करता रहा।

गर्भ और जन्म

गर्भावतार-इस जंबूद्वीप के भरतक्षेत्रसम्बन्धी काशी देश में बनारस नाम का एक नगर है। उसमें काश्यपगोत्री राजा विश्वसेन राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम ब्राह्मी था। जब उन सोलहवें स्वर्ग के इन्द्र की आयु छह मास की अवशेष रह गई थी, तब इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने माता के आँगन में रत्नों की धारा बरसाना शुरू कर दी थी। रानी ब्राह्मी ने सोलहस्वप्नपूर्वक वैशाख कृष्णा द्वितीया के दिन इन्द्र के जीव को गर्भ में धारण किया था। नवमास पूर्ण होने पर पौष कृष्णा एकादशी के दिन पुत्र का जन्म हुआ था। इन्द्रादि देवों ने सुमेरू पर्वत पर ले जाकर तीर्थंकर शिशु का जन्माभिषेक करके ‘पार्श्वनाथ' यह नामकरण किया था। श्री नेमिनाथ के बाद तिरासी हजार सात सौ पचास वर्ष बीत जाने पर इनका जन्म हुआ था। इनकी आयु सौ वर्ष की थी जोकि इसी अंतराल में सम्मिलित है। प्रभु की कांति हरितवर्ण की एवं शरीर की ऊँचाई नौ हाथ प्रमाण थी। ये उग्रवंशी थे।

तप

सोलह वर्ष बाद नवयौवन से युक्त भगवान किसी समय क्रीडा के लिये अपनी सेना के साथ नगर के बाहर गये। कमठ का जीव, जो कि सिंहपर्याय से नरक गया था, वह वहाँ से आकर महीपाल नगर का महीपाल नाम का राजा हुआ था। उसी की पुत्री ब्राह्मी (वामा देवी) भगवान पाश्र्वनाथ की माता थीं। यह राजा (भगवान के नाना) किसी समय अपनी पत्नी के वियोग में तपस्वी होकर वहीं आश्रम के पास वन में पंचाग्नियों के बीच में बैठा तपश्चरण कर रहा था। देवों द्वारा पूज्य भगवान उसके पास जाकर उसे नमस्कार किये बिना ही खड़े हो गये। यह देखकर वह खोटा साधु क्रोध से युक्त हो गया और सोचने लगा ‘‘मैं कुलीन हूँ, तपोवृद्ध हूँ और इसका नाना हूँ’’ फिर भी इस अज्ञानी कुमार ने अहंकारवश मुझे नमस्कार नहीं किया है, क्षुभित हो उसने अग्नि में लकड़ियों को डालने के लिए पड़ी हुई लकड़ी को काटने हेतु अपना फरसा उठाया, इतने में ही अवधिज्ञानी भगवान पाश्र्वनाथ ने कहा, ‘‘इसे मत काटो’’ इसमें जीव हैं किन्तु मना करने पर भी उसने लकड़ी काट ही डाली, तत्क्षण ही उसके भीतर रहने वाले सर्प और सर्पिणी निकल पड़े और घायल हो जाने से छटपटाने लगे। यह देखकर प्रभु के साथ स्थित सुभौमकुमार ने कहा कि तू अहंकारवश यह कुतप करके पाप का ही आस्रव कर रहा है। सुभौम के वचन सुन तपस्वी क्रोधित होकर अपने तपश्चरण की महत्ता प्रकट करने लगा। तब सुभौमकुमार ने अनेक युक्तियों से उसे समझाया कि सच्चे देव, शास्त्र और गुरू के सिवाय कोई हितकारी नहीं है। जिनधर्म में प्रणीत सच्चे तपश्चरण से ही कर्म निर्जरा होती है। यह मिथ्यातप, जीव हिंसा सहित होने से कुतप ही है। यद्यपि वह तापसी समझ तो गया किन्तु पूर्वबैर का संस्कार होने से अपने पक्ष के अनुराग से अथवा दु:खमय संसार के कारण से अथवा स्वभाव से ही दुष्ट होने से उसने स्वीकार नहीं किया प्रत्युत् यह सुभौमकुमार अहंकारी होकर मेरा तिरस्कार कर रहा है, ऐसा समझ वह भगवान पार्श्वनाथ पर अधिक क्रोध करने लगा। इसी शल्य से मरकर ‘शम्बर' नाम का ज्योतिषी देव हो गया। इधर सर्प और सर्पिणी कुमार के उपदेश से शांतभाव को प्राप्त हुए तथा मरकर बड़े ही वैभवशाली धरणेन्द्र और पद्मावती हो गये। अनंतर भगवान जब तीस वर्ष के हो गये, तब एक दिन अयोध्या के राजा जयसेन ने उत्तम घोड़ा आदि की भेंट के साथ अपना दूत भगवान पाश्र्वनाथ के समीप भेजा। भगवान ने भेंट लेकर उस दूत से अयोध्या की विभूति पूछी। उत्तर में दूत ने सबसे पहले भगवान ऋषभदेव का वर्णन किया पश्चात् अयोध्या का हाल कहा। उसी समय ऋषभदेव के सदृश अपने को तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध हुआ है, ऐसा सोचते हुए भगवान गृहवास से पूर्ण विरक्त हो गये और लौकांतिक देवों द्वारा पूजा को प्राप्त हुए। प्रभु देवों द्वारा लाई गई विमला नाम की पालकी पर बैठकर अश्ववन में पहुँच गये। वहाँ तेला का नियम लेकर पौष कृष्णा एकादशी के दिन प्रात:काल के समय सिद्ध भगवान को नमस्कार करके प्रभु तीन सौ राजाओं के साथ दीक्षित हो गये। पारणा के दिन गुल्मखेट नगर के धन्य नामक राजा ने अष्टमंगलद्रव्यों से प्रभु का पड़गाहन कर आहारदान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त कर लिये। छद्मस्थ अवस्था के चार मास व्यतीत हो जाने पर भगवान अश्ववन नामक दीक्षावन में पहुँचकर देवदारुवृक्ष के नीचे विराजमान होकर ध्यान में लीन हो गये। इसी समय कमठ का जीव शम्बर ज्योतिषी आकाशमार्ग से जा रहा था, अकस्मात् उसका विमान रुक गया, उसे विभंगावधि से पूर्व का बैर बंध स्पष्ट दिखने लगा। फिर क्या था, क्रोधवश उसने महागर्जना, महावृष्टि, भयंकर वायु आदि से महा उपसर्ग करना प्रारम्भ कर दिया, बड़े-बड़े पहाड़ तक लाकर समीप में गिराये, इस प्रकार उसने सात दिन तक लगातार भयंकर उपसर्ग किया। अवधिज्ञान से यह उपसर्ग जानकर धरणेन्द्र अपनी भार्या पद्मावती के साथ पृथ्वीतल से बाहर निकला। धरणेन्द्र ने भगवान को सब ओर से घेरकर अपने फणाओं के ऊपर उठा लिया और उस की पत्नी वज्रमय छत्र तान कर खड़ी हो गई। आचार्य कहते हैं कि देखो! स्वभाव से ही क्रूर प्राणी इन सर्प-सर्पिणी ने अपने ऊपर किये गये उपकार को याद रखा, सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन पुरुष अपने ऊपर किये हुए उपकार को कभी नहीं भूलते हैं।

केवलज्ञान और मोक्ष

तदनंतर ध्यान के प्रभाव से प्रभु का मोहनीय कर्म क्षीण हो गया इसलिए बैरी कमठ का सब उपसर्ग दूर हो गया। मुनिराज पार्श्वनाथ ने चैत्र कृष्णा चतुर्थी के दिन प्रात:काल के समय विशाखा नक्षत्र में लोकालोकप्रकाशी केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। उसी समय इन्द्रों ने आकर समवसरण की रचना करके केवलज्ञान की पूजा की। शंबर नाम का देव भी काललब्धि पाकर उसी समय शांत हो गया और उसने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया। यह देख, उस वन में रहने वाले सात सौ तपस्वियों ने मिथ्यादर्शन छोड़कर संयम धारण कर लिया, सभी शुद्ध सम्यग्दृष्टि हो गये और बड़े आदर से प्रदक्षिणा देकर भगवान की स्तुति-भक्ति की। आचार्य कहते हैं कि पापी कमठ के जीव का कहाँ तो निष्कारण वैर और कहाँ ऐसी पाश्र्वनाथ की शांति! इसलिए संसार के दु:खों से भयभीत प्राणियों को वैर-विरोध का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए।

भगवान पार्श्वनाथ के समवसरण में स्वयंभू को आदि लेकर दस गणधर थे, सोलह हजार मुनिराज, सुलोचना को आदि लेकर छत्तीस हजार आर्यिकाएँ, एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ थीं। इस प्रकार बारह सभाओं को धर्मोपदेश देते हुए भगवान ने पाँच मास कम सत्तर वर्ष तक विहार किया। अंत में आयु का एक माह शेष रहने पर विहार बंद हो गया। प्रभु पार्श्वनाथ सम्मेदाचल के शिखर पर छत्तीस मुनियों के साथ प्रतिमायोग से विराजमान हो गये। श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन प्रात:काल के समय विशाखा नक्षत्र में सिद्धपद को प्राप्त हो गये। इन्द्रों ने आकर मोक्ष कल्याणक उत्सव मनाया। ऐसे पार्श्वनाथ भगवान हमें भी सम्पूर्ण प्रकार के उपसर्गों को सहन करने की शक्ति प्रदान करें।

Life of Shree 1008 Parshva Nath Bhagwan

        Lord Parshvanath was the 23rd Tirthankar (ford-maker) of Jainism who lived during 877-777 BCE and has been accepted as a historical figure.

Like other Tirthankars, important events of earlier incarnations of the being that became Lord Parshvanath are available in Jain scriptures. Study of these incidents reveals that amnesty and compassion played a major part in his life and progress toward purity of soul. In every incarnation his rival, Kamath, continued to torture him and he continued to forgive and forget.

The soul that was to be Lord Parshvanath was inspired to take the direction of purity in its birth as Marubhuti. He was born to the wife of Purohit Vishabhuti living in Potanpur city. His elder brother was Kamath. As Kamath was cruel, conceited, and a debauch, in spite of being the elder son it was Marubhuti who succeeded his father on the post of Rajpurohit (the director of ritual ceremonies of the king and state). Attracted toward the beautiful wife of Marubhuti, Vasundhara, Kamath seduced her. When Kamath’s wife came to know about the affair, she tried to dissuade him in vain and told Marubhuti about it. Marubhuti made a secret inquiry and conveyed everything in detail to the king. Kamath was exiled by the king. He became a mendicant and started doing rigorous penance.

After sometime Marubhuti felt that it was because of his report that Kamath was insulted and thrown out of the state; as such he should go and beg forgiveness from his elder brother. Marubhuti went into the jungle near Kamath and bowed before him seeking his pardon. Instead of getting pacified, Kamath was over powered by the desire of vengeance. He picked up a large stone and hit Marubhuti on the head. Marubhuti died on the spot and reincarnated as an elephant.

The soul of Marubhuti was reborn as an elephant in the forests of Vindhyachal. It became the leader of the herd. One day when an ascetic was standing in meditation in the Vindhyachal area, the king elephant came near him. The memory of its past life precipitated and it became a follower of the ascetic and turned mellow and detached. One day the elephant rushed into and stationed itself in the middle of a pond in order to save himself from a forest fire. The being that was Kamath had taken birth as a serpent of the Kurkut species. When it saw the elephant, the serpent recognized it as its enemy from the earlier birth. The serpent landed on the head of the elephant and stung it. The elephant equally tolerated the pain and died peacefully.

In his third birth the being that was Marubhuti reincarnated as a god in the Sahasrar dimension. From there it descended and was born as prince Kiranveg in Mahavideh area. He furthered his progress towards purity by becoming an ascetic and was killed once again by the Kamath, now born as a snake. His next birth was as a god in the Achyut Kalpa dimension. From there he came to Mahavidh area as king Vajranabh. Kamath was born as a Bhil aborigine who shot Vajranabh, who had become an ascetic now, with an arrow. Reincarnating in the Madhyam Graiveyak dimension of gods, the being that was to be Parshvanath enjoyed the fruits of his pious Karma.

In his eighth birth this being was born in the royal family of Puranpur in the Mahavideh area. After ascending the throne Suvarnbahu conquered six continents and became a Chakravarti. In later part of his life he became an ascetic and did purest of meditations to earn Tirthakar-nam-and-gotra-karma. During this birth also, this being was killed by its old enemy Kamath who was born as a fierce lion. From here this being went to the Pranat dimension of gods.

Descending from the Pranat dimension of gods, the being that was Marubhuti came into the womb of Vama Devi, wife of King Ashvasen of Varanasi. On the tenth day of the dark half of the month of Paush Vama Devi gave birth to a son. At the time of his naming ceremony king Ashvasen announced that during her pregnancy Vama Devi one night saw a snake slithering on the bed near his flank. She woke him up and saved him from the impending danger. As such, he was naming the new born as Parshva (flank).

Prince Parshva was very handsome and intelligent. His fame reached Kushasthalpur and princess Prabhavatti, daughter of king Prasenjit, determined to become his wife. Before a proposal for marriage could be sent the king of Kalinga lay a seize of Kushasthalpur and sought the hand of Prabhavati in marriage. King Prasenjit, aware of the might of Yavanraj sent a messenger to Varanasi for help. King Ashvasen got irritated at the misconduct of Yavanraj and commands the army in this battle, Ashvasen was well aware of the ability and prowess of prince Parshva; he accepted proposal without any hesitation.

Before the prince started for the battle field the king of gods sent a divine and air worthy chariot for Parshva. After reaching the battle field the and prior to giving the orders to attack, Parshva sent a message to Yavanraj that now Prasenjit was under the protection of king Ashvasen, and as such he should break his seize of Kushasthalpur or face the great army of Varanasi and divine powers of Parshva. Although the youthful Yavanraj and some of his younger ministers were provoked, a senior minister informed him that the king of gods himself sided Parshva. He not only had divine powers but also the flying chariot of Indra. To fight Parshva was to embrace certain defeat. Yavanraj accepted the advice of the senior minister and surrendered before prince Parshva without a fight. He offered rich gifts to Parshva and became a friend of Prasenjit.

Victorious Parshva Kumar returned to Varanasi. King Prasenjit also came to Varanasi with his daughter Prabhavati and requested king Ashvasen to marry Parshva Kumar with Prabhavati. Parshva was averse to the bond of marriage. However, his parents persuaded him and he could not hurt their feelings. He was married to Prabhavati but led a simple and detached life.

One day prince Parshva was enjoying a view of the town from the balcony of his palace. When he saw groups of men and women, carrying items for worship, passing by, he asked out of curiosity if it was some day of religious ceremonies. His attendants informed him that some mendicant named Kamath is doing a harsh penance named Panch-agni Tap (five fire penance). The citizens are going to pay homage to him with all these presents. Prince Parshva also proceeded to witness this strange scene. As he was endowed with three levels of knowledge since birth, Parshva perceived everything worth knowing about this person at once. This was the same being that had been nurturing an intense feeling of vengeance for him for many births. After completing his age in the hell he was born in a poor family. Driven by hunger and poverty he had become a mendicant and was influencing the ignorant masses with his harsh but ill conceived penance.

When prince Parshva came near the mendicant he saw that some logs of wood were burning all around the mendicant. Inside one of the logs was a pair of serpents, writhing in pain due to the intense heat of the burning flames. Moved by a feeling of compassion the prince said to the mendicant, "Burning a five sensed being in fire, what sort of self improvement do you strive for?" The mendicant replied angrily, "Prince! You are a child; go and enjoy your princely games. It is mendicants like me who know about religion not you. How can you claim that some being is burning in the fire around me?"

All the efforts to persuade him that a pair of serpents was burning in the fire went in vain. Parshva then ordered his attendants to draw the specific log aside and split it. As soon as the attendants did that, a pair of serpents, partially scorched, fell on the ground writhing in pain. Realizing that they were about to die, prince Parshva said to them that they should not be annoyed with the ignorant mendicant and should remain silent during the last moments of their lives. He also recited the Namokar Mantra. As a result of silent thoughts and hearing the Namokar Mantra, after death the pair was born as the king and queen of the gods of the Nag Kumar clan (Dharanendra and Padmavati).

This incident inspired Parshva Kumar to step on the right path and show the path to the masses misled by such ignorant hypocrites. While he was contemplating this, he one day went to garden and chanced to see some frescoes about the incidents of life of the 22nd Tirthankar Lord Arishtanemi. These vivid paintings pushed him to the decision of becoming an ascetic. He sought permission of his father and started the year long charity. On the eleventh day of the dark half of the month of Paush he became an ascetic under an Ashok tree.

One day Parshva-muni was standing in meditation in Kaushamv jungle. God Dharanendra arrived there to pay homage. When he saw scorching sun rays falling on the meditating ascetic, he covered Parshva-muni with canopy of snake hoods. It is said that this area later became famous as Ahichhatra.

One day Parshva-muni was standing in meditation under a banyan tree in an Ashram outside a village. The being of Kamath who was incarnated as a celestial being saw Lord Lord Parshva and identified him as his enemy by his Clairvoyance. Driven by the animosity of earlier births, Meghamali arrived at the spot where Parshva-muni his extremely loud and fearsome laughter. When Lord Parshva remained unmoved, Meghmali inflicted pain on him by attacking in the form of various animals. Lord Parshva tolerated all these afflictions with equanimity. Meghamli’s anger reached its peak.

Now he created dark and dense clouds in the skies. The sky was completely covered by dark rain-bearing clouds. With fearsome rumbling and thunder and lightening it started raining heavily. Meghamali caused so much rain that it flooded the whole area. Lord Parshva tolerated the torment of this torrential rain like the Meru mountain. The water level rose and it reached the tip of Lord Parshva's nose. He was still unmoved in his meditation. At this peak of the affliction, the throne of god Dharanendra trembled. He came to know about the incident through his divine powers and reached the spot with Padmavati. One of these snake-gods created a platform under the feet of Lord Parshva and the other a canopy of its multiple hoods over hid head. And thus they worshipped Lord Parshva.

This incident has a mythological touch but we have to observe and find out the essence out of this. The moral of this incident is equanimity. Lord Parshva performed great equanimity as he didn't show hatred towards Meghmali who was afflicting him and didn't show love to Dharnendra and Padmavati who were worshipping him. The soul is complete in itself. It never loses its own essential qualities and never gains anything from outside. The soul is a substance with infinite knowledge, infinite perception, infinite power and infinite bliss. These essential qualities never leaves an individual, independent soul in any circumstances. When this fact is accepted we can practice equanimity with high stability. That is what Lord Parshva did and got rid of high amount of karmic atoms attached with his soul since infinite births.

Omniscience and Nirvana

After eighty three days of penance and spiritual practices Parshva-muni came to Ashrampad garden in Varanasi and stood in meditation under a Dharanendra tree. With fast increasing purity he attained enlightenment or omniscience on the fourth day of the dark half of the month of Chaitra. Now he was visualizing everything in the entire universe. Lord Parshvanath gave his first discourse on the form of religion. He propagated the four dimensional religion (Ahimsa, truth, non-stealing and non-possession) for upliftment of the soul.

Inspired by the discourse of Lord Parshvanath, many members of his family including his father Ashvasen, mother Vama Devi and wife Prabhavati renounced the mundane life. Many other princes and scholars including the famous Vedic scholar Shubhdatta also took renunciation after hearing to his magic discourse. Lord Parshvanath established the four pronged religious organization. He had eight chief disciples with Shubgdatta being the first and most senior.

Although no detailed mention is available about the areas visited by Lord Parshvanath, it can be surmised from various incidents and related stories that he covered a considerably wide area of the subcontinent. It appears that he visited Kashi-kaushal (Uttar Pradesh), Nepal, Bang (Bengal), Kalinga (Orissa), Anga (Magadh), Vidarbh, Konkan, Saurashtra (in Gujarat) etc. Among his followers were Shakya Kings, rulers of Magadh (grandfather and father of king Shrenik) and many others.

Even during the period of Lord Mahavir (the 24th Tirthankar) the faith and devotion for Lord Parshvanath was wide spread. The masses strongly believed that remembering the name of Lord Parshvanath was the panacea for all troubles as well as the means of success. This was the reason that in Lord Mahavir’s time Lord Parshvanath was popularly known as "Purushadaniya".

Many scholars are of the opinion that the Chaturyam Dharm (the four dimensional religion) was the leading and prominent religion in whole of India during that period. Lord Buddha also got initiated into this school in the early part of his spiritual life. Later he evolved and propagated his eight pronged religion out of this only.

Lord Parshvanath was a householder for thirty years and then an ascetic for seventy years. When he was 100 years old he got liberated on the fifth day of the bright half of the month of Shravan at Sammet Shikhar Mountain.

It is believed that the time span between the Nirvana of Lord Parshvanath and Lord Mahavir’s launching of his own school was about 250 years. There is a mention of four prominent leaders of Lord Parshvanath’s school:

1. Disciple Shubhdatta (Shumbh)

2. Arya Haridatta

3. Acharya Samudra Suri

4. Arya Keshi Shraman

The last one is believed to have existed between 166 to 250 years after the Nirvana of Lord Parshvanath. Arya Keshi Shraman was a forceful Acharya. The staunch non-believer king Pradeshi became a highly devoted Jain house-holder under his influence only. There were nine groups of five hundred ascetics each, in the large religious organization headed by Keshi-muni. These groups worked in far fling areas like Tailang (Andhra), Konkan and Maharashtra. He himself wandered in the Magadh area with one thousand ascetics.

Shree 1008 Parshva Nath Bhagwan Temples

arrow
Shree 1008 Parshvanath Bhagwan Tonk, Sammed Shikherji Siddha Kshetra

arrow
Shri Ahichchhatra Parshvanath Atishaya Kshetra, Ramnagar

arrow
Shri Parshvanath Digambar Jain Atishaya Kshetra Sawargaon (Koti)

arrow
Shri Nagphani Parshvanath, Moder, Rajasthan

arrow
Shri Parshvanath Digamber Jain Mandir Pisanhari Madiya, Jabalpur, M.P.

arrow
Shri Chanvaleshwar Parshvanath Digamber Jain Atishaya Kshetra

arrow
Shri Vighnahar Parshvanath Digamber Jain Atishaya Kshetra Ashta (Kasar)