शुभ कर्म भीसंसार का कारण है -
अशुभ कर्म कुशील (बुरा) है और शुभ कर्म सुशील (अच्छा) है, ऐसा तुम जानते हो; किंतु जो कर्म जीव को संसार में प्रवेश कराता है, वह किसी प्रकार सुशील (अच्छा) हो सकता है?
You know that wicked karma is undesirable, and virtuous karma is desirable. But how can the karma, which leads the jiva into the cycle of births and deaths (samsara), be considered desirable?
शुभशुभ कर्मबंध के कारण हैं -
जैसे सोने की बेड़ी भी पुरूष को बांधती है और लोहे की बेड़ी भी बांधती है। इसी प्रकार शुभ या अशुभ किया हुआ कर्म जीव को बांधता है (दोनों ही बन्धनरूप हैं)।
Just like a shackle, whether made of gold or iron, will be able to confine a man, similarly both – virtuous and wicked karmas – bind the Self (both are bondage).
शुभशुभ दोनों त्याज्य हैं -
इसलिए शुभ और अशुभ इन दोनों कुशीलों के साथ राग मत करो तथा संसर्ग भी मत करो, क्योंकि कुशील के सथ संसर्ग और रांग करने से स्वाधीन सुख का विनाश होता है।
Therefore, do not entertain any attachment for or association with both these types of undesirable karmas, virtuous or wicked, as any attachment for or association with the undesirable will lead to the destruction of innate bliss.
पूर्वोक्त का स्पष्टीकरण -
जैसे कोई पुरूष कुस्सित स्वभाव वाले पुरूष को जानकर उसके साथ संसर्ग और राग करना छोड़ देता है, इसी प्रकार स्वभाव में रत ज्ञानी जीव कर्म-प्रकृति के शील-स्वभाव को कुत्सित जानकर निश्चय ही उसके साथ संसर्ग को छोड़ देते हैं अैर (राग को) छोड़ देते हैं।
Just like a man, on becoming aware of the evil nature of someone, severs any association with or attachment for him, in the same way, a knowledgeable person engaged in the innate nature of the Self, severs any association with or attachment for even the virtuous karmas, as he knows these to be of evil nature.
हे भव्य! तू कर्मों में राग मत कर -
रागी जीव कर्मों को बांधता है और विरागी जीव कर्मों से छूटता है, यह जिनेन्द्र भगवान का उपदेश है, इसलिए (हे भव्य जीव!) तू कर्मों में राग मत कर!
The Self with the attribute of attachment suffers bondage of karmas, and the one with the attribute of non-attachment (detachment) sheds his karmas. This has been declared by the Omniscient Lord and, therefore, (O bhavya –potential aspirant to liberation!) do not have any attachment for the karmas.
ज्ञान निर्वाण का कारण है -
निश्चय से जो परमार्थ (आत्मा) है, वह समय (शुद्ध गुण-पर्यायों में परिणमन करने वाला) है, शुद्ध (समस्त नयपक्षों से रहित एक ज्ञानस्वरूप होने से शुद्ध) है, केवली (केवल चिन्मात्र वस्तुस्वरूप होने से केवली) हे मुनि (केवल मननमात्र भावस्वरूप होने से मुनि) है, ज्ञानी (स्वयं ही ज्ञानस्वरूप होने से ज्ञानी) है। उस परमात्मस्वभाव में स्थित मुनिजन निर्वाण को प्राप्त करते हैं।
Undoubtedly, the divine state of the soul is absolute consciousness (samaya), pure (free from all view points, only knowledge consciousness), omniscient (having attained its innate attributes), ascetic (absorbed only in the Self), and the knower (being knowledge by itself). The ascetics who position themselves in this divine state of the soul attain liberation (nirvana).
अज्ञानी का व्रत, तप निष्फल है -
जो परमार्थ में तो स्थित नहीं है, किंतु तप करता है और व्रत धारण् करता है, उसके उस समस्त तप और व्रत को सर्वज्ञदेव बालतप और बालव्रत कहते हैं।
Anyone who has not positioned himself in the divine state of the soul, but performs austerities and observes vows, the all knowing call his austerities and observance of vows as childish austerities (baltapa) and childish observance of vows (balvrata).
अज्ञानी को निर्वाण नहीं है -
व्रत और नियमों को धारण करते हुए तथा शील और तप करते हुए भी जो परमार्थ से बाह्य हैं (जिन्हें परमार्थभूत ज्ञानस्वरूप आत्मा की अनुभूति नहीं है), वे निर्वाण को प्राप्त नहीं करते।
Those who although observe vows and rules of conduct as well as celibacy and austerities, but do not position themselves in the divine state of the soul of knowledge consciousness – do not attain liberation.
पुण्य संसार का कारण है -
जो परमार्थ से बाह्य हैं (शुद्ध आत्मस्वरूप का जिन्हें अनुभव नहीं है), वे मोक्ष के हेतु को जानते हुए अज्ञान से संसार-गमन के भी कारण पुण्य को चाहते हैं।
Those who are not anchored to the divine state of the soul (not living through pure consciousness), since they are not aware of the path to liberation, out of ignorance, they desire virtue (punya) which is the cause of the cycle of births and deaths (samsara).
मोक्षमार्ग
जीवादिक नौ पदाथों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। उन्हीं पदार्थों का संशय, विमोह और विभ्रम से रहित ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। रागादिक का परित्याग सम्यक्चारित्र हे। यही मोक्ष का मार्ग है।
Belief in the nine substances as they are is right faith (samyagdarsana). Knowledge of these substances without doubt, delusion or misapprehension, is right knowledge (samyagjnana). Being free from attachment etc. is right conduct (samyakcharitra). These three, together, constitute the path to liberation.
यदि कर्मों का क्षय करता है -
निश्चयनय के विषय को छोड़कर विद्वान व्यवहार के द्वारा प्रवृत्ति करते हैं; किंतु निज शुद्धात्मभूत परमार्थ के आश्रित यतियों के ही कर्मों का क्षय होता है।
Leaving aside the ultimate point of view, wise ones take on the empirical way, but the destruction of karmas takes place only to those ascetics who embrace the pure, ultimate nature of the Real Self.
रत्नत्रय की मालिनता के कारण -
जैसे मैल से व्याप्त हुआ वस्त्र का श्वेतभाव नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार मिथ्यात्वरूपी मैल से व्याप्त सम्यक्त्व निश्चय ही तिरोहित हो जाता है; ऐसा जानना चाहिए।
जिस प्रकार मैल से व्याप्त हुआ वस्त्र का श्वेतभाव नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार अज्ञानरूपी मैल से व्याप्त ज्ञान तिरोहित हो जाता है; ऐसा जानना चाहिए।
जिस प्रकार मैल से व्याप्त वस्त्र का श्वेतभाव नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार कषाय से व्याप्त हुआ चारित्र तिरोहित हो जाता है; ऐसा जानना चाहिए।
Just as whiteness of linen gets destroyed when it is soiled with dirt, know that, in the same way, right faith gets destroyed when soiled with wrong belief.
Just as whiteness of linen gets destroyed when it is soiled with dirt, know that, in the same way, right knowledge gets destroyed when soiled with nescience.
Just as whiteness of linen gets destroyed when it is soiled with dirt, know that, in the same way, right conduct gets destroyed when soiled with passions.
कर्म स्वयं ही बन्धस्वरूप है -
वह आत्मा (स्वभाव से) सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है। (फिर भी वह) अपने कर्मरूपी रज से आच्छादित है (अतः वह) संसार को प्राप्त हुआ है। वह समस्त पदार्थों को सब प्रकार से नहीं जानता।
The Self, by his own nature, is all-knowing and all-perceiving. Still being covered with the dirt of karmas, he is in the worldly state of births and deaths (samsara) and does not know all the substances and their various modes.
रत्नत्रय के प्रतिबन्धक कारण -
सम्यक्त्व का प्रतिबंधक (रोकने वाला) मिथ्यात्व है, यह जिनेन्द्रदेव ने कहा है। उसके उदय से जीव मिथ्यादृष्टि होता है, ऐसा जानना चाहिए।
ज्ञान के प्रतिबन्धक (रोकने वाला) अज्ञान है, यह जिनेन्द्रदेव ने कहा है। उसके उदय से जीव अज्ञानी होता है, ऐसा जानना चाहिए।
चारित्र का प्रतिबन्धक (रोकने वाला) कषाय है,ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। उसके उदय से जीव चारित्ररहित होता है, ऐसा जानना चाहिए।
As declared by the Omniscient Lord, right faith gets obstructed by wrong belief. When this happens, the Self becomes a wrong believer, so let it be known.
As declared by the Omniscient Lord, right knowledge gets obstructed by nescience. When this happens, the Self becomes devoid of right knowledge, so let it be known.
As declared by the Omniscient Lord, right conduct gets obstructed by passions. When this happens, the Self becomes devoid of right conduct, so let it be known.
इदि चउत्थो पुणपावाधियारो समत्तो