महावीर भगवान का परिचय
‘भगवान महावीर के पूर्वभव’
पुरुरवा भील-
इस जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के उत्तर किनारे पर ‘पुष्कलावती’ नाम का देश है। उसकी ‘पुण्डरीकिणी’ नगरी में एक ‘मधु’ नाम का वन है। उसमें ‘पुरुरवा’ नाम का एक भीलों का राजा अपनी ‘कालिका’ नाम की स्त्री के साथ रहता था1। किसी दिन दिग्भ्रम के कारण ‘श्री सागरसेन’ नामक मुनिराज को इधर-उधर भ्रमण करते हुये देखकर यह भील उन्हें मारने को उद्यत हुआ उसकी स्त्री ने यह कहकर मना कर दिया कि ‘ये वन के देवता घूम रहे हैं इन्हें मत मारो।’ वह पुरुरवा उसी समय मुनि को नमस्कार कर तथा उनके वचन सुनकर शांत हो गया। मुनिराज ने उससे मद्य, मांस और मधु इन तीन मकारोें का त्याग करा दिया। मांसाहारी भील भी इन तीनों के त्यागरूप व्रत का जीवनपर्यन्त पालन कर आयु के अंत में मरकर सौधर्म स्वर्ग में एक सागर की आयु को धारण करने वाला देव हो गया कहाँ तो वह हिंसक क्रूर भील पाप करके नरक चला जाता और कहाँ उसे गुरु का समागम मिला कि जिनसे हिंसा का त्याग करके स्वर्ग चला गया।
मरीचि कुमार
जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र सम्बन्धी आर्यखंड के मध्य भाग में कौशल नाम का देश है। इस देश के मध्य भाग में अयोध्या नगरी है। वहां ऋषभदेव भगवान् के ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती की अनंतमती रानी से ‘यह पुरुरवा भील का जीव देव’ मरीचि कुमार नाम का पुत्र हुआ। अपने बाबा भगवान् ऋषभदेव की दीक्षा के समय स्वयं ही गुरु भक्ति से प्रेरित होकर मरीचि ने कच्छ आदि चार हजार राजाओं के साथ दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली। भगवान् तो छह महीने का उपवास लेकर ध्यान में लीन हो गये। मरीचि आदि चार हजार राजा स्वयं ही फल, आवरण आदि को ग्रहण करने लगे तब वनदेवता ने प्रगट होकर कहा- ‘‘निग्र्रंथ दिगंबर-जिनमुद्रा को धारण करने वालों का यह क्रम नहीं है अर्थात् यह अर्हंतमुद्रा तीनों लोकों में पूज्य है इसको धारण कर यह स्वच्छंद प्रवृत्ति करना कथमपि उचित नहीं है अतः तुम लोग अपनी-अपनी इच्छानुसार अन्य वेष ग्रहण कर लो।’’
ऐसा सुनकर प्रबल मिथ्यात्व से प्रेरित हुये मरीचि ने भी सबसे पहले परिव्राजक की दीक्षा धारण कर ली। वास्तव में जिनका संसार दीर्घ होता है उनके लिये यह मिथ्यात्व कर्म मिथ्यामार्ग ही दिखलाता है। उस समय उसे उन सब विषयों का ज्ञान भी स्वयं ही प्रगट हो गया सो ठीक ही है क्योंकि सज्जनों के समान दुर्जनों को भी अपने विषय का ज्ञान स्वयं ही हो जाता है। उसने तीर्थंकर भगवान के वचन सुनकर भी समीचीन धर्म ग्रहण नहीं किया था। वह मरीचि साधु सोचता रहता था कि जिस प्रकार भगवान ऋषभदेव ने अपने आप समस्त परिग्रहों कर त्याग कर तीनों लोकों में क्षोभ उत्पन्न करने वाली सामथ्र्य प्राप्त की है उसी प्रकार मैं भी संसार में अपने द्वारा चलाये हुये दूसरे मत की व्यवस्था करूंगा और उसके मिमित्त से होने वाले बड़े भारी प्रभाव के कारण इन्द्र की प्रतीक्षा को प्राप्त करूंगा- इन्द्र द्वारा की हुई पूजा को प्राप्त करूंगा। मैं समझता हूं कि मेरे यह सब अवश्य होगा। इस प्रकार मान कर्म के उदय से वह पापबुद्धि सहित हुआ खोटे मत से विरक्त नहीं हुआ और अनेक दोषों से दूषित वही वेष धारण कर रहने लगा। तभी कच्छ आदि चार हजार राजा जो दीक्षित हुये उन सभी मुनिवेषधारियों ने भी अनेक वेष बना लिये।
मरीचि का भवभ्रमण
मरीचिकुमार आयु के अंत में मरकर ब्रह्मस्वर्ग में दस सागर आयु वाला देव हो गया। वहाँ से आकर जटिल ब्राह्मण हुआ पुनः पारिव्राजक बना पुनः मरकर सौधर्म स्वर्ग मे देव हुआ पुनः वहां से आकर अग्निसह ब्राह्मण होकर पारिव्राजक दीक्षा ले ली पुनः मरकर देव हुआ, वहां से च्युत होकर अग्निमित्र ब्राह्मण होकर पारिव्राजक तापसी हुआ। पुुनरपि माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ, वहाँ से आकर भारद्वाज ब्राह्मण होकर त्रिदण्डी साधु बन गया और पुनरपि स्वर्ग में गया। वहां से च्युत होकर मिथ्यात्व के निमित्त से यह मरीचि कुमार त्रस-स्थावार योनियों में असंख्यात वर्ष तक परिभ्रमण करता रहा। वह मरीचि कुमार का जीव इस तरह असंख्यात वर्षों तक इन कुयोनियों में भ्रमण करते हुये श्रांत हो गया। कुछ पुण्य से राजगृह नगर के शांडिल्य ब्राह्मण की पारशरी पत्नी से ‘स्थावर’ नाम का पुत्र हुआ। वहां भी सम्यग्दर्शन से शून्य पारिव्राजक की दीक्षा लेकर अंत में मरकर माहेन्द्र स्वर्ग में सात सागर की आयु वाला देव हो गया।
विश्वनंदी
इसी मगधदेश के राजगृह नगर में ‘विश्वभूति’ राजा की ‘जैनी’ नामकी रानी से यह मरीचि कुमार का जीव स्वर्ग से आकर ‘विश्वनंदी’ नाम का राजपुत्र हो गया। विश्वभूति राजा का एक विशाखभूति नाम का छोटा भाई था, उसकी लक्ष्मणा पत्नी से ‘विशाखनन्दि’ नाम का मूर्ख पुत्र हो गया। किसी दिन विश्वभूति राजा ने विरक्त होकर छोटे भाई विशाखभूति को राज्य देकर अपने पुत्र ‘विश्वनन्दि’ को युवराज बना दिया और स्वयं तीन सौ राजाओं के साथ श्रीधर मुनि के पास दीक्षित हो गये। किसी दिन विश्वनंदी युवराज अपने ‘मनोहर’ नामक उद्यान में अपनी स्त्रियों के साथ क्रीड़ा कर रहे थे। उसे देख, चाचा के पुत्र विशाखनंदी ने अपने पिता के पास जाकर उस उद्यान की याचना की। विशाखभूति ने भी युवराज विश्वनंदी को ‘विरुद्ध राजाओं को जीतने के बहाने’ बाहर भेजकर पुत्र को बगीचा दे दिया। विश्वनंदी को इस घटना का तत्काल पता लग जाने से वह क्रुद्ध होकर वापस विशाखनंदी को मारने को उद्यत हुआ। तब विशाखनंदी कैथे के वृक्ष पर चढ़ गया, इसने कैथे के वृक्ष को उखाड़ दिया। तब वह भागा और पत्थर के खम्भे के पीछे हो गया, यह विश्वनंदी पत्थर के खंभे को उखाड़कर उससे उसे मारने को दौड़ा। विशाखनंदी वहां से डर कर भागा तब युवराज के हृदय में सौहार्द और करुणा जाग्रत हो गयी। उसने उसी समय उसे अभयदान देकर बगीचा भी दे दिया और स्वयं ‘संभूत’ नामक मुनि के पास दीक्षा धारण कर ली, तब विशाखभूति ने भी पापों का पश्चाताप कर दीक्षा ले ली।
किसी दिन मुनि विश्वनंदी अत्यन्त कृश शरीरी मथुरा में आहार के लिए आये, उस समय यह विशाखनंदि वेश्या के महल की छत से मुनि को देख रहा था। मुनि को गाय ने धक्के से गिरा दिया यह देख विशाखनंदि बोला ‘तुम्हारा पत्थर का खम्भा तोड़ने वाला पराक्रम कहाँ गया’? मुनि ने यह दुर्वचन सुने उन्हें क्रोध आ गया अन्त में निदान सहित संन्यास से मरकर महाशुक्र स्वर्ग में देव हो गये, वहीं पर चाचा विशाखभूति भी देव हो गये। दोनों की आयु सोलह प्रमाण थी।
अर्धचक्री त्रिपृष्ठकुमार
सुरम्य देश के पोदनपुर नगर में प्रजापति महाराज की जयावती रानी से ‘विशाखभूति का जीव’ विजय नाम का पुत्र हुआ और महाराज की दूसरी रानी मृगावती से ‘विश्वनंदी का जीव’ त्रिपृष्ठ नाम का पुत्र हुआ। विजय बलभद्रपद के धारक हुये और ये त्रिपृष्ठ अर्धचक्री पद के धारक हुये। उधर विशाखनंदि का जीव चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता हुआ कुछ पुण्य से विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी के अलकापुर नगर में मयूरग्रीव विद्याधर की नीलांजना रानी से ‘अश्वग्रीव’ पुत्र हुआ। यह प्रतिनारायण हुआ था। कालांतर में युद्ध में अश्वग्रीव के चक्ररत्न से ही अश्वग्रीव को मारकर त्रिखण्डाधिपति राजा त्रिपृष्ठ ने अपने भाई विजय के साथ बहुत काल तक राज्यलक्ष्मी का उपभोग किया, अन्त में भोगलिप्सा में मरकर सप्तम नरक में चला गया क्योंकि सम्यग्दर्शन और पांच अणुव्रतों से रहित राज्य वैभव नरक का ही कारण है। नरक में इस मरीचि कुमार के जीव ने क्या-क्या कष्ट सहे हैं उनको असंख्य जिह्नाओं से भी नहीं कहा जा सकता? करोंत से चीरना, कुंभी-पाक में पकाना, अग्नि में जलाना, तिल-तिल खंड करना आदि के अनेकों दुख भोगे फिर भी आयु पूर्ण हुये बिना मर नहीं सका। वहाँ पर तेंतीस सागरों की आयु भोगकर सिंह हुआ और गर्मी-सर्दी, भूख प्यास आदि बाधाओं से दुःखी हुआ, वहाँ पर प्राणी हिंसा से मांसाहार करते हुये पुनः मरकर पहले नरक चला गया। वहाँ के दुःखों को भोगकर वहाँ से निकल कर पुनरपि इसी जम्बूद्वीप में सिंधुकूट की पूर्व दिशा में हिमवान् पर्वत के शिखर पर सुन्दर बालों से युक्त सिंह हुआ।
पुण्यशाली मृगेन्द्र
वह सिंह किसी समय एक हिरण को पकड़कर खा रहा था। उसी समय अतिशय दयालु ‘अजित॰जय’ और ‘अमितगुण’ नामक दो चारण ऋद्धिधारी मुनि आकाश मार्ग से उतर कर उस सिंह के पास पहुंचे और शिलालय पर बैठकर जोर-जोर से उपदेश देने लगे। उन्होंने कहा कि ‘हे भव्य मृगराज! तू अर्धचक्री त्रिपृष्ठ के भव में पांचों इन्द्रियों के विषयों का सेवन कर तृप्त नहीं हुआ तथा सम्यग्दर्शन से रहित होने के कारण तू नरक में चला गया, वहां अत्यन्त प्रचंड और लोहे के घनों की चोट से तेरा चूर्ण किया जाता था, इत्यादि दुःखों को भोगकर तू वहां से निकलकर सिंह हुआ पुनः हिंसा के पाप से मरकर नरक गया। वहां से निकलकर पुनः सिंह होकर हिंसा में रत है। तू ऋषभदेव के समय मरीचि के भव में तीर्थंकर ऋषभदेव के वचनों का अनादर कर त्रसस्थावर योनियों में असंख्यात वर्ष तक भ्रमण करता रहा। अब इस भव से दशवें भव में तू अन्तिम तीर्थंकर होगा। यह सब मैंने श्रीधर तीर्थंकर से सुना है। इन सब बातों को सुनते ही सिंह को जातिस्मरण हो गया। संसार के भयंकर दुःखों की स्मृति से उसका शरीर कांपने लगा तथा आंखोंे से अश्रु गिरने लगे। बहुत देर तक अश्रु गिरते रहने से ऐसा मालूम होता था कि मानों हृदय मेंे सम्यक्त्व को स्थान देने की इच्छा से मिथ्यात्व ही बाहर निकल रहा है। उसकी शांत भावना को देखकर मुनि ने उसे सम्यक्त्व और अणुव्रत ग्रहण कराये। सिंह ने मुनिराज की भक्ति से बार-बार प्रदक्षिणाएं दीं, बार-बार प्रणाम किया और तत्काल ही काललब्धि के आ जाने से तत्त्वश्रद्धानपूर्वक श्रावक के व्रत ग्रहण किये। सिंह का मांसाहार के सिवाय और कोई आहार नहीं अतः मांस का त्याग करने से उसने ‘‘निराहार व्रत’’ ग्रहण किया था।
सम्यग्दर्शन - सच्चे देव, शास्त्र, गुरु और तत्वों का श्रद्धान करना।
अहिंसाणुव्रत - मनवचनकाय से किसी भी जीव को नहीं मारना।
सत्याणुव्रत - स्थूल झूठ नहीं बोलना।
अचैर्याणुव्रत - बिना दी हुई पर की वस्तु नहीं लेना।
ब्रह्मचर्याणुव्रत - अपनी स्त्री के सिवाय सबको माता, बहन समझना।
परिग्रह परिमाणाणुव्रत - धन-धान्य आदि परिग्रह का जीवन भर के लिए प्रमाण कर लेना।
तिर्यंचों के संयमासंयम के आगे व्रत नहीं हो सकते। इसलिए वह देशव्रती कहलाया। वह सिंह सब कुछ त्याग कर शिलातल पर बेैठकर चित्रलिखित (पत्थर की मूर्ति) के समान हो गया था। चारण मुनि उसे शिक्षा देकर बार-बार उसका स्पर्श करते हुये चले गयेे। महावीर चरित में लिखा है कि-
‘यह मरा हुआ है ऐसा समझ मदोन्मत्त हाथियों ने उसकी सटाओं को नष्ट कर दिया, डांस, मक्खी और मच्छरों ने मर्म स्थानों को काट डाला, लोमड़ी और श्रृगाल मृतक समझकर उस सिंह को तीक्ष्ण नखों के द्वारा नोंच-नोंच कर खाने लगे तो भी उस सिंह ने अपनी परम समाधि नहीं छोड़ी, क्षमा भाव से सब सहन करता रहा। पूर्वोक्त प्रकार से एक महीने तक निश्चल रहकर अनशन धारण कर पाप रहित हुआ प्राणों से शरीर को छोड़ा।’ इस प्रकार सन्यास विधि से मरा और शीघ्र ही सौधर्म स्वर्ग में सिंहकेतु नाम का देव हो गया वहां दो सागर तक उत्तम सुख भोगे।
Bhagavan Mahavir was the last and the twenty fourth Tirthankar of this era in the Jain tradition.
Lord Mahavira was a prince whose childhood name was Vardhaman. According to the Digambar traditation, Lord Mahavira was born in the year 615 BC, but the Swetambaras believe that he was born in 599 BC. Both sects however agree that he was the son of Siddhartha and Trisala. It is said that mother Trisala had Sixteen auspicious dreams before the child was born (only 14 according to the Swetambaras). Astrologers interpreting these dreams, stated that the child would be either an emperor or a Tirthankar.. As the son of a king, he had many worldly pleasures, comforts, and services at his command. In boyhood once while playing he brought under control a terrify serpent. consequently and symbolic of this feat of bravery, he got the title Mahavir and Vira-natha.
However at the age of thirty he left his family and the royal household, gave up his worldly possessions, and became a monk in search of a solution to eliminate pain, sorrow, and suffering from life of all beings. Mahavira left home, retired to the park, Jnatrkhanda-vana, close to Kundapura and relinquished his ornaments and cloths. He pulled out his hair by his hands, observed fast for three days, and then plunged himself into meditation. After some time, he started touring various parts of the country. He strictly followed Ahimsa, not to deprive others of even a blade of grass belonging to them, not to speak lie, not to entertain any sex appetite, even in mind, and not to have any possession of worldly goods. Along with the practice of his five great voes he got himself habituated to endure with peace and patience all such physical and mental tortures like hunger, thirst, cold, heat, insect bites etc. known as parisaha.
After attaining omniscience, Lord Mahavira came to Rajgriha (Rajgir), the capital of Magadha and took a worthy seat on the mount Vipulacala. Here he propounded to the audience the basic principles of Jain dharma, the anu-vrata for the laity and mahavartas for the monks whereby the blissful ideal of life can be reached, Lord Mahavira spent the next thirty years traveling barefoot throughout India preaching the eternal truth he had realized. The ultimate objective of his teaching is how one can attain total freedom from the cycle of birth, life, pain, misery, and death, and achieve the permanent blissful state of one's self. This is also known as liberation, Nirvän, absolute freedom, or Moksha.
Lord Mahavira's message of nonviolence (Ahimsä), truth (Satya), non stealing (Achaurya), celibacy (Brahmacharya), and nonpossession (Aparigraha) is full of universal compassion. Lord Mahavira made religion simple and natural, free from elaborate rituals. Mahavira Teaching reflect the internal beauty and harmony of the soul. Lord Mahavira taught the idea of supremacy of human life and stressed the importance of a positive attitude towards life. Lord Mahavira said that, "A living body is not merely an integration of limbs and flesh but it is the abode of the soul which potentially has infinite perception (Anantdarshana), infinite knowledge (Anantjnäna), infinite power (Anantvirya), and infinite bliss (Anantsukha). Mahavira's message reflects freedom and spiritual joy of the living being. Lord Mahavira emphasized that all-living beings, irrespective of their size, shape, form, and how spiritually developed or undeveloped, are equal and we should love and respect them. In this way, he preached the universal love.
Lord Mahavira taught that the true nature of reality is timeless, with no beginning or end and rejected the concept of God as a creator, a protector, and a destroyer of the universe. He also taught that worshiping heavenly gods and goddesses, as a means of material gain and personal benefits is contrary to the path of liberation.
Once Lord Mahavira was asked what is the religion from a realistic point of view. Lord Mahavira said, “ the realistic religion consists of four parts: 1) equality of all living ones, 2) every living soul has right to put self-effort to improve itself and should not to be stripped of that right, 3) no one should rule over other living beings, and 4) all situations should be viewed with equanimity - without like or dislike." If one adopts only one of these four, other three will automatically be adopted.
The Teachings of Lord Mahavira
• Every soul is independent. None depends on another.
• All souls are alike. None is superior or inferior.
• Every soul is in itself absolutely omniscient and blissful. The bliss does not come from outside.
• All human beings are miserable due to their own faults, and they themselves can be happy by correcting these faults.
• The greatest mistake of a soul is non recognition of its real self and can only be corrected by recognizing itself.
• There is no separate existence of God. Everybody can attain Godhood by making supreme efforts in the right direction.
• Know thyself, recognize thyself, be immersed by thyself you will attain Godhood.
• God is neither the creator nor the destructor of the universe. He is merely a silent observer and omniscient.
• One who, even after knowing the whole universe, can remain unaffected and unattached is God.
• Fight with yourself, why fight with external foes? He who conquers himself through himself, will obtain happiness.
• All beings hate pain, therefore one should not hurt kill them. Ahimsa (non-violence) is the highest religion.
• A man is seated on top of a tree in the midst of a burning forest. He sees all living beings perish. But he doesn't realize that the same fate is soon to overtake him also. That man is fool.
Mahavira's Message
Lord Mahavir was born in Bihar in 599 B.C... His father’s name was King Siddharth and mother’s name was Queen Trishla. His mother had 14 auspicious dreams during her pregnancy. When he born, his father’s wealth increased, that’s why they decided to name the new born child Vardhaman, which means ever increased. As time spent and Vardhaman became young and handsome prince. Due to his brave nature he also became known as Mahavir, means, fearless.
He was married with Yashodhara and he had a daughter named Priyadarshana. When he was 28 years old, his parents passed away. However during this time, Vardhaman became detached from mundane pleasures and he decided to renounce the worldly pleasures in search of enlightenment. He went to his elder brother, Nandivardhan to take permission. His brother was worried about handling the palace and state by single hand. He told Vardhaman to stay in the palace for two more years. Vardhaman accepted this and stayed at his palace for two more years. During this time he distributed his wealth to the needy and poor people. He practiced meditation and fasting. Finally at age of 30, the day of renunciation approached. Vardhaman came out of his palace. Thousands of eyes were watching at him. He was looking great in the shining dress and ornaments. Gradually, he removed all the clothes and ornaments attached with his body; he plucked out his long hairs by his five handfuls. He put a single cloth on his shoulder, and uttered “Namo Siddhanam” as he left the place. He didn’t even look back at his palace. There was great joy and happiness on his face.
Now began the long journey of 12 and half years for shraman Mahavir. During these 12 and half years he bore many obstacles and calamities peacefully and silently. During these years he was tested by hevenly beings like Sangham, he was bitten by the snake, tortured by undomesticated peoples, and at last his ears were plugged with grass sticks. But he tolerated all the pain silently and happily. He forgave all the people. During these 12 and half years he had taken meal only equal to 1 year and he had taken sleep only for 48 minutes!!! Once he observed fast lasting for 5.5 months without even drinking water. He remained in deep silence and deep meditation. Mostly he used to stand in “Kayotsarg” or motion less posture, like a rock. His heart was always felt with compassion toward every form of living beings. He always kept his eyes on the ground while walking so he could not step on small insects.
Observing the details of Bhagavan Mahavir's twelve-year period of spiritual practices it becomes evident that his practices combined four qualities-1. Deep and undisturbed meditation, 2. Rigorous penance, 3. Extreme tolerance of pain, and 4. Ultimate equanimity.
Finally after 12 long years of spiritual pursuit he came to the village and sat in meditation in a “cow-milking posture”. It was the evening time. His mind was absorbed in the highest type of meditation. He was observing fast for two days without even drinking water. The sun was setting in west and the sun of omniscience was rising within his soul. Soon Lord Mahavir attained full enlightenment and awakening, visualizing everything in the entire universe, knowing the feelings of all living beings of the Universe. Mahavir had become Bhagavan (God), Jina (Victor), Sarvajna (all knowing), and Sarvadarshi (all perceiving).
After attaining omniscience, Lord Mahavir gave his first sermon. He converted 11 learned Brahmins and explained them the real nature of soul within body. Other 500 people took renunciation under Lord Mahavir’s order. 11 Brahmins became his disciples. Indrabhuti Gautam was chief disciple of Lord Mahavir. Indrabhuti was the first person to listen Lord’s words for the first time after omniscience. Then the number of people increased and once there were 50000 ascetics in Lord Mahavir’s order. All the 50000 had attained omniscience. The king Shrenik was strong devotee and listener of Lord Mahavir. Indrabhuti Gautam attained omniscience on the same night when Lord Mahavir attained Nirvana at the age 72. The last omniscient was Jambu Swami, after that nobody has attained omniscience in this part of the universe (Bharat Area). The next Tirthankar will born after 81,500 years.
Lord Mahavir was the last and 24th Tirthankar of the present era of time. He was last in the series of 24 Tirthankars. Lord Parshva was the 23rd who attained Nirvana 250 years before Lord Mahavir’s Nirvana. Lord Parshva and Lord Mahavir are historically accepted. The first Tirthankar was Lord Rishabhdev who lived billions of years ago. Lord Rishabhdev is also mentioned in the Hindu scriptures as an avatar of Lord Vishnu. In the present time, Lord Simandhar Swami is a living Tirthankar but he is in other part of the Universe called Maha Videha Area. Liberation is possible if we born there.
Omniscience and Nirvana
Lord Mahavira spent majority of the following twelve and one half years in deep silence and meditation to conquer his desires, feelings, and attachments, and to eradicate all four Ghati Karma. He carefully avoided harming other living beings including animals, birds, insects, and plants. He also went without food for long periods of time. He remained calm and peaceful against all unbearable hardships. During this period, his spiritual powers developed fully and he realized perfect perception, perfect knowledge, perfect conduct, unlimited energy, and unobstructed bliss. This realization is known as Keval-jnän or the perfect enlightenment.
Lord Mahavira was the head of an excellent community of 14,000 monks, 36,000 nuns, 159,00O male lay votaries and 318,OOO female lay votaries. The four groups designated as monks, nuns, laymen and laywomen constitute the four fold order (tirtha) of Jainism. Of the eleven principle disciples (ganadharas) of Lord Mahavira, only two, viz., Gautam Swami and Sudharma Swami survived him. After twenty years of Nirvän of Lord Mahavir, Sudharma Swami also attained emancipation. He was the last of the eleven gandharas to die. Jambu Swami, the last omniscient, was his pupil. He attained salvation after sixty four years of the Nirvän of Lord Mahavira.
At the age of 72 (in 527 BC), Lord Mahavira attained Nirvana and his purified soul left his body and achieved complete liberation. He became a Siddha, a pure consciousness, a liberated soul, living forever in a state of complete bliss. On the evening of his Nirvän, people spiritually celebrated the Festival of Lights (Dipävali) in his honor. This is the last day of the Jain calendar year.