कुन्थुनाथ भगवान का परिचय
इसी जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र में सीता नदी के दक्षिण तट पर एक वत्स नाम का देश है। उसके सुसीमा नगर में सिंहरथ राजा राज्य करता था। वह राजा किसी समय उल्कापात देखकर विरक्त हो गया और विरक्त होकर संयम धारण कर लिया। उसने ग्यारह अंगों का ज्ञान प्राप्त किया तथा सोलहकारण भावनाओं द्वारा तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया। अन्त में समाधिमरण करके सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हो गये।
गर्भ और जन्म
कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में कौरववंशी काश्यप गोत्रीय महाराज सूरसेन राज्य करते थे। उनकी पट्टरानी का नाम श्रीकान्ता था। उस पतिव्रता देवी ने देवों के द्वारा की हुई रत्नवृष्टि आदि पूजा प्राप्त की थी। श्रावण कृष्ण दशमी के दिन रानी ने सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्र को गर्भ में धारण किया। उस समय इन्द्रों ने आकर भगवान का गर्भमहोत्सव मनाया और माता की पूजा करके स्वस्थान को चले गये। क्रम से नवमास व्यतीत हो जाने पर वैशाख शुक्ला प्रतिपदा के दिन पुत्ररत्न को जन्म दिया। उसी समय इन्द्रादि देवगण आये और बालक को सुमेरू पर्वत पर ले जाकर महामहिम जन्माभिषेक महोत्सव करके अलंकारों से अलंकृत किया एवं बालक का नाम ‘कुन्थुनाथ' रखा। वापस लाकर माता-पिता को सौंपकर देवगण स्वस्थान को चले गये। पंचानवे हजार वर्ष की उनकी आयु थी। पैंतीस धनुष ऊँचा शरीर था और तपाए हुए स्वर्ण के समान शरीर की कान्ति थी। तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष कुमारकाल के बीत जाने पर उन्हें राज्य प्राप्त हुआ और इतना ही काल बीत जाने पर उन्हें वैशाख शुक्ल प्रतिपदा के दिन चक्रवर्ती की लक्ष्मी मिली। इस प्रकार वे बाधारहित, निरन्तर दस प्रकार के भोगों का उपभोग करते थे। सारा वैभव शान्तिनाथ के समान ही था। किसी समय भगवान षडंग सेना से संयुक्त होकर क्रीड़ा से वहाँ वापस लौट रहे थे कि मार्ग में उन्होंने किसी मुनि को आतपयोग से स्थित देखा। देखते ही मंत्री के प्रति तर्जनी अंगुली से इशारा किया कि देखो-देखो! मंत्री उन मुनिराज को देखकर नतमस्तक हो गया और पूछने लगा कि हे देव! इस तरह कठिन तप कर ये क्या फल प्राप्त करेंगे ? चक्रवर्ती कुन्थुनाथ हँसकर कहने लगे कि ये मुनि या तो इसी भव से कर्म काटकर निर्वाण प्राप्त करेंगे या तप के प्रभाव से शाश्वत धाम प्राप्त करेंगे। जो परिग्रह का त्याग नहीं करते, वे संसार में ही परिभ्रमण करते रहते हैं। इत्यादि रूप से भगवान ने मंत्री को मोक्ष तथा संसार के कारणों का निरूपण किया। चक्रवर्ती पद के साम्राज्य का उपभोग करते हुए भगवान के तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष व्यतीत हो गये।
तप
किसी समय भगवान को पूर्वभव का स्मरण हो जाने से आत्मज्ञान प्राप्त हो गया और वे भोगों से विरक्त हो गये, उसी समय लौकान्तिक देवों ने आकर प्रभु का स्तवन-पूजन किया। उन्होंने अपने पुत्र को राज्यभार देकर इन्द्रों द्वारा किया हुआ दीक्षाकल्याणक उत्सव प्राप्त किया। देवों द्वारा लाई गई विजया नाम की पालकी में सवार होकर भगवान सहेतुक वन में पहुँचे। वहाँ तेला का नियम लेकर वैशाख शुक्ल प्रतिपदा के दिन कृतिका नक्षत्र में सायंकाल के समय एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली। उसी समय प्रभु को मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया। दूसरे दिन हस्तिनापुर के धर्ममित्र राजा ने भगवान को आहारदान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये। इसी प्रकार घोर तपश्चरण करते हुए भगवान के सोलह वर्ष बीत गये।
केवलज्ञान और मोक्ष
किसी दिन भगवान तेला का नियम लेकर तप करने के लिए वन में तिलक वृक्ष के नीचे विराजमान हुए। वहाँ चैत्र शुक्ला तृतीया के दिन उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। उसी समय देवों ने समवसरण की रचना की। भगवान के समवसरण में स्वयंभू को आदि लेकर पैंतीस गणधर, साठ हजार मुनिराज, साठ हजार तीन सौ पचास आर्यिकाएँ, दो लाख श्रावक, तीन लाख श्राविकाएँ, असंख्यात देव-देवी और संख्यातों तिर्यंच थे। भगवान दिव्यध्वनि के द्वारा चिरकाल तक धर्मोपदेश देते हुए विहार करते रहे। भगवान का केवली काल तेईस हजार सात सौ चौंतीस वर्ष का था। जब भगवान की आयु एक मास की शेष रह गयी, तब वे सम्मेदशिखर पर पहुँचे और प्रतिमायोग धारण कर लिया। वैशाख शुक्ल प्रतिपदा के दिन रात्रि के पूर्व भाग में समस्त कर्मों से रहित, नित्य, निरंजन, सिद्धपद को प्राप्त हो गये। ये कुन्थुनाथ भगवान तीर्थंकर होने के तीसरे भव पहले सिंहरथ राजा थे, मुनि अवस्था में सोलहकारण भावनाओं के प्रभाव से तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया पुन: सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुए, वहाँ से आकर कुन्थुनाथ नाम के १७वें तीर्थंकर, छठे चक्रवर्ती और कामदेव पद के धारक हुए हैं।
तिलोयपण्णत्ति और उत्तरपुराण के अनुसार इन भगवान के भी गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान ये चारों कल्याणक हस्तिनापुर में ही हुए हैं। भगवान का गर्भकल्याणक श्रावण कृष्णा दशमी को हुआ, दीक्षा कल्याणक चैत्र शुक्ला तृतीया को हुआ तथा जन्म, केवलज्ञान और मोक्षकल्याणक वैशाख शुक्ला प्रतिपदा को हुआ है। भगवान के शरीर की ऊँचाई १४० हाथ प्रमाण थी, बकरे का चिन्ह था, ऐसे सत्तरहवें तीर्थंकर कुन्थुनाथ भगवान हम और आप सबको शाश्वत सुख प्रदान करें।
In his previous incarnation Lord Kunthunath's soul was King Simhavaha of Khadgi town in Mahavideh area. He was a powerful and illustrious king. He had a bend for spiritual practices and after handling over the responsibilities of the kingdom to his son, he took diksha from Samvaracharya and did deep spiritual practices. As a result of his vigorous penance and devotion for the Arhant, he earned Tirthankar-nam-and-gotra. Completing his age he reincarnated in the Sarvarthasiddha dimension of gods.
From the dimension of gods he descended into the womb of queen Shri Devi, wife of king Shursen of Hastinapur. At the dawn of the ninth day of Shravan Krishna, queen saw the auspicious fourteen (sixteen according to the digamabar jain beliefs) dreams. This indicated that the coming soul would be a conqueror – a chakravarti king. And these dreams also indicated that he would be a Tirthankar. On the 14th day of the Vaishakh Krishna month of the Hindu calendar, queen Shridevi gave birth to a son.
During her pregnancy the queen saw a heap of gemstones known as Kunthu in her dreams. This inspired the king to name him Kunthu Kumar.
The pious deeds of earlier birth resulted in unlimited power and grandeur for Kunthu Kumar. After Shursen became an ascetic, Kunthu Kumar ascended the throne. Soon the disc weapon "Chakra" appeared in his armory and he proceeded to conquer the world with his mighty army. Without any confrontation all the kings accepted his sovereignty and Kunthunath became a Chakravarti. There was no blood shed anywhere and after conquering almost entire world, Kunthunath returned Hastinapur. After returning to his kingdom, he announced 12 years of the victory celebrations. He excused all the taxes taken from the people and took care that no body is in trouble in his reign. Many mighty kings and princes used to be present in his court all the time.
One day King Kunthunath was sitting in his deep thoughts when he realized that someone is sending him the message that he should now leave the vicious circle and move towards the path of Moksha. After a long and peaceful reign of twenty three thousand seven hundred and fifty years he became an ascetic along with one thousand kings immediately after Diksha he acquired Manahparyav Jnan. He spent sixteen years as an ordinary ascetic. Indulging in penances and other spiritual practices.
Omniscience and Nirvana
He attained omniscience on the third day of the bright half of the month of Chaitra under a Tilak tree in Sahasramara jungle outside Hastinapur. His first discourse was on the subject of "inner purity".
As an omniscient ascetic Kunthunath wandered around and preached true religion for a very long period. He then went to Sammed shikharji and observed a month long fast before breathing his last. His followers were deeply devoted to him. As such, a large crowd was present at the moment of his Nirvana and cremation ceremony. They witnessed the ceremony with heavy hearts and tear filled eyes. The mortal remains of Bhagavan Kunthunath were taken away by the gods for worship.