प्रशस्ति
-शुभु छंद-

त्रिभुवन में धर्म वही उत्तम, जो श्रेष्ठ सुखों में धरता है।
सांसारिक सभी सौख्य देकर, मुक्ती पद तक पहुंचाता ह।।
इस रत्नत्रयमय धर्मतीर्थ के, कर्ता तीर्थंकर बनते।
इनको प्रणमूं मैं बार बार, ये सर्व आधि व्यााी हरते।।1।।

श्री गौतमगणधर को प्रणमूं, मां सरस्वती को नमन करूं।
श्री धरसेनाचार्य गुरू को, कोटि कोटि नित नमन करूं।।
श्री पुष्पदंत आचार्य भूतबलि, सूरी को शिरनत प्रणमूं।
श्री कुंदकुंद आचार्य नमूं, सब पूर्वाचार्यों को प्रणमूं।।2।।

श्री महावीर के शासन में, श्री कुंदकुंद आम्नाय प्रथित।
सरस्वती गच्छ गण बलात्कार से, जैन दिगम्बर धर्म विशद।।
इस परम्परा में सदी बीसवीं, के आचार्य प्रथम गुरूवर।
चारित्र चक्रवर्ती श्री शान्तीसागर सबके गुरू प्रवर।।3।।

इन प्रथमशिष्य पट्टाधिप श्री, गुरू वीरसागराचार्य हुए।
मुझको ये आर्यिका ज्ञानमती, करके अन्वर्थक नाम दिये।।
इन रत्नत्रय दाता गुरू को, है मेरा वंदन बार बार।
मां सरस्वती को नित्य नमूं, जिनका मुझ पर है बहूपकार।।4।।

इस दुषमकाल के अन्त समय तक, जैनधर्म जयवंत रहे।
इस हस्तिनागपुर में तब तक, यह जैन भूगोल स्थायि रहे।।
जिनधर्म विधान रचा सुंदर यह भव्यजनों को पुष्ट करे।
मुझ ’ज्ञानमति’ केवल करके, मेरे रत्नत्रय पूर्ण करे।।6।।

।।इति जिनार्मविधानं संपूर्णम्।।
इति शं भूयात्।