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जिन धर्म विधान
आरती
-आर्यिका सुदृढ़मती
तर्ज-झुमका गिरा रे...................
आरति करो रे, केवली प्रणीत श्री जिनधर्म की आरति करो।
तीर्थंकर के श्री विहार में, धर्म चक्र चलता आगे।
प्रभु प्रभाव से जीवों के, सब रोग, शोक दारिद्र भागे।
आरति करो, आरति करो, आरति करो रे,
रत्नत्रयमय इस धर्म तीर्थ की आरति करो रे।।1।।
श्री जिनेन्द्र का धर्म ही जग में, जैनधर्म कहलाता है।
जो भी इसकी शरण में आता, भव सागर तर जाता है।।
आरति करो, आरति करो, आरति करो रे,
इस आदि अंत से रहित धर्म की आरति करो रे।
नव देवों में एक देव, जिनधर्म को माना जाता है।
जो भी इसकी पूजन करता, मनवांछित फल पाता है।।
आरति करो, आरति करो, आरिति करो रे,
’’सुदृढ़मती’’ इस धर्म का पालन, मुनि श्रावक दोनों करते।
सकल विकल चारित्र रूप, दो भेद कहे जिन आगम में।।
आरति करो, आरति करो, आरति करो रे,
उत्तम क्षमादि मय दश धर्मों की आरति करो रे।
भजन
-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती
तर्ज-हम लाए हैं तूफान से..................
दुनिया में जैनधर्म सदा से ही रहा है।
प्रभु ऋषभ महावीर ने भी यही कहा है।।टेक.।।
जब से है धरा आसमां सौन्दर्य प्रकृति का।
तक से ही प्राणियों में है विश्वास धर्म का।।
हर जीव के सुख का यही आधार रहा है।
प्रभु ऋषभ महावीर ने भी यही कहा है।।1।।
जो कर्म शत्रुओं को जीत ले जिनेन्द्र है।
जिनवर के पासक ही असलियत में जैन हैं।।
यह धर्म जाति भेद से भी दूर रहा है।
प्रभु ऋषभ महावीर ने भी यही कहा है।।2।।
चांडाल सिं सर्प भी धारण इसे करें।
मिश्री की भांति मिष्ट फल को प्राप्त वे करें।।
यह सार्वभौम विश्व धर्मरूप रहा है।
प्रभु ऋषभ महावीर ने भी यही कहा है।।3।।
इस प्राकृतिक उद्यान को सींचा है सभी ने।
इससे ही अहिंसा धरम सीखा है सभी ने।।
यह आदि संत से रहित अनादि कहा है।
प्रभु ऋषभ महावीर ने भी यही कहा है।।4।।
इसका कभी न अंत होगा सदा रहेगा।
कलियुग के कालचक्र का संकट भी सहेगा।।
यह धर्म ’’चंदनामती’’ जिन सूर्य कहा है।
प्रभु ऋषभ महावीर ने भी यही कहा है।।5।।