श्रीस्गुरूदेवाय नमः
अध्यात्मप्रेमी कविवर पण्डित दौलतरामजी कृत
छहढाला
(सुबोध टीका)
जिस प्रकार वायु के स्पर्शन से अग्नि और अधिक प्रज्वलित हो जाती है, उसीप्रकार भावनाओं के चिन्तवन से समतारूपी सुख और अधिक वृद्धिंगत हो जाता है अर्थात् बाहर भावनाओं का चिन्तवन न तो रो-रोकर और न ही हंस-हंसकर; बल्कि वीतराग भाव से करना चाहिए, जिससे समतारूपी सुख उत्पन्न हो।
छठवीं ढाल में मुनि से लेकर भगवान बनने तक की सारी विधि सविस्तार बताई गई है। यहां पण्डितजी ने छठवें गुणस्थानवर्ती मुनि के अट्ठाईस मूलगुणों का वर्णन करने के पश्चात स्वरूपाचरा चारित्र का वर्ण किया है, जिसमें आत्मानुभाव का चित्रण बड़ी ही मगनता के साथ किया गया है; ऐस लगता है- मानों पण्डितजी स्वयं मुनिराज के हृदय में बैठे हों और उनके अंतरंग भावों का अवलोकर कर रहे हों।
इस छहढाला ग्रन्थ की रचना पर पण्डित टोडरमलजी कृत मोक्षमार्ग प्रकाशक का प्रभाव स्पष्टतः परिलक्षित होता है। दोनों ग्रन्थों की विषयवस्तु के क्रम में बहुत अधिक समानता है। संसार-दशा के चित्रण का निरूपण, तत्पश्चात् मोक्षमार्ग का स्वरूप - इन तीनों विषयों सम्बन्धी क्रम दोनों ग्रन्थों में समानता से पाया जाता है। मिथ्यात्व के गृहीत और अगृहीत - ये दो भेद भी इन ग्रन्थों में ही स्पष्टतया देखने को मिलता है, अन्यत्र नहीं।
इस सम्बन्ध में एक बात यह है कि मोक्षमार्ग प्रकाशक के आद्य तीन अध्यायों का सार-संक्षेप छहढाला की पहली ढाल में व बाद में पांच अध्यायों का सार-संक्षेप दूसरी ढाल में आ गय है। इसीप्रकार नौंवे अधय की शुरूआत ’आत्मा का हित मोक्ष ही है’ - से हुई है, उसीतरह तीसरी ढाल की शुरूआत ’आतम को हित है सुख सो सुख आकुलता बिन कहिये’ - इस पंक्ति से हुई है।
छहढाला और मोक्षमार्ग प्रकाशक की इस समानता पर दृष्टिपात करने पर एक अनुसंधाानात्मक पहलू सामने आता है कि यदि कोई विद्वान चहो तो छहढाला की तीसरी, चैथी, पांचवी एवं छठवीं ढाल का आश्रय लेकर उसका विस्तार करते हुए इस अपूर्ण मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रन्थ को पूर्ण करने की जिम्मेदारी का कार्य पूर्ण कर सकता है।