रागादि से कर्म-बन्ध होता है -
जिस प्रकार कोई पुरूष शरीर में तेल लगाकर और बहुत धूल वाले स्थान में रहकर शास्त्रों से व्यायाम करता है, और ताड़, तमाल, कदली और बाँस के समूह को छेदता और भेदता है तथासचित्त और उचित्त द्रव्यों का उपघात करता है; नाना प्रकार के कारणों के द्वारा उपघात करते हुएउसके धूलि का बंध किस कारण से होता है; यह विश्चय से विचार करो। उस मनुष्य के शरीर पर वह जो तेल की चिकनाहट है, उसके कारण उस मनुष्य के धूलि-बन्ध होता है, कय की शेष चेष्टाओं से नहीं होता - यह निश्चय से जानना चाहिये। इस प्रकार नाना प्रकार की चेष्टाओं में प्रवर्तमान मिथ्यादृष्टि उपयोग में रागादि भावों को करता हुआ कर्म-रज से लिप्त होता है। A man, living in a place full of dust and with oil applied on his body, exercises with weapons like sword, dagger etc., pierces and slits clusters of trees such as plam, tamal, plantain, and bamboo, and breaks up animate and inanimate objects; think about the real reason why he attracts dust particles onto his body while performing such destructive activities. The stickiness of oil applied on his body is the reason for him attracting dust particles; know for sure that this attraction is not due to his bodily actions. In the same way, a wrong believer, while engaged in various activities, attracts karmic dust due to dispositions like attachment.
रागादि के अभाव में कर्म-बन्ध का अभाव -
जिस प्रकार पुनः वही मनुष्य समस्त तेल के दूर किये जाने पर बहुत धूल वाले स्थान में शास्त्रों से व्यायाम करता है तथा ताडू, तमाल, कदली ओर बाँस के समूह को छेदता और भेदता है, सचित और अचित द्रव्यों के उपघात करता है। नाना प्रकार के करणों से उपघात करते हुएउसके किस कारण से धूलि का बन्ध नहीं होता, निश्चय से यह विचार करो। उन मनुष्य के शरीर पर वह जो तेल की चिकनाई थी, उसके कारण उसके धूलि का बन्ध होता था, काय की शेष चष्टाओ से धूलि-बन्ध नहीं होता, यह निश्चयपूर्वक जानो। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव नाना प्रकार के योगों में वर्तन करते हुए उपयोग में रागादि भावों को नहीं करता; इसलिए वह कर्म-रज से लिप्त नहीं होता। Further, the same person, living in a place full of dust but after removing al oil that was sticking to his body, exercises with weapons like sword, dagger etc, pierces ad slits clusters of trees such as palm, tamal, plantain, and bamboo, nd breaks up animate and inanimate objects; think about the real reason why he does not attract dust particles onto his body while performing such destructive activities. The stickiness of oil applied on his body was the reason for him attracting dust particles; know for sure that this attraction was not due to his bodily actions. In the same way, a right believer, while engaged in various activities, does not attract karmic dust due to the absence of dispositions like attachment.
ज्ञानी और अज्ञानी की पहचान -
जो पुरूष मानता है कि मैंपरजीव को मारता हूं और दूसरे जीवों के द्वारा मैं मारा जाता हूँ, वह पुरूष मोही और अज्ञानी है; और जो इससे विपरीत है (जो ऐसा नहीं मानात), वह ज्ञानी है। The man, who believes that he kills other beings and gets killed by other beings, is under delusion and is ignorant. The man who thinks otherwise is the knower.
आयुकर्म के क्षय से ही मरण होता है। -
जीवों का मरण आयुकर्म के क्षय से होता है, जिनेन्द्रदेव ने ऐसा बताया है, और तू उनके आयुकर्म को हरता नहीं है, तब तूने उन परजीवों का मरण किस प्रकार किया। जीवों का मरण आयुकर्म के क्षय से होता है जिनेन्द्रदेव ने ऐसा बतायाहै; परजीव तेरा आयुकर्म हरते नहीं है, तब उन्होंने तेरा मरण किस प्रकार किया। The death of a living being is due to the termination of his life-determining karma; this has been declared by the Omniscient Lord. You cannot snatch the life-determining karma of any beings, then, how have you caused their death? The death of a living being is due to the termination of his life-determining karma; this has been declared by the Omniscient Lord. No other beings can snatch your life-determining karma, then, how have then caused your death?
अज्ञानी और ज्ञानी -
जो पुरूष ऐसा मातना है कि मैं परजीवों को जिलाता हूं और परजीव मुझे जिलाते हैं, वह पुरूष मोही है और जो इससे विपरीत है (जो ऐसा नहीं मानता), वह ज्ञानी है। The man, who believes that he causes other beings to live, and that he lives because of other beings, is under delusion and is ignorant. The man who thinks otherwise is the knower.
आयुकर्म के उदय से ही जीवन है -
जीव आयुकर्म के उदय से जीता है, ऐसा सर्वज्ञादेव कहते हैं। तू अन्य जीवों को आयुकर्म नहीं देता, तब तूने उन परजीवों को किस प्रकार जीवित किया। The life-span of a living being is determined by his life-determining karma; this has been declared by the Omniscient Lord. You cannot give life-determining karma to any beings, then, how have you given them life?
अज्ञानी और ज्ञानी का अन्तर -
जो ऐसा मानता है कि मैं अपने द्वारा (अपने सम्बन्ध से ही) परजीवों को दुखी और सुखी करता हूं, वह मोही और अज्ञानी है। जो इससे विपरीत मानता है, वह ज्ञानी है। The man, who believes that he is the cause of misery or happiness of other beings, is under delusion and is ignorant. The man who thinks otherwise is the knower.
जीव कर्म के उदय से दुखी-सुखी होते हैं -
यदि कर्म के उदय से सब जीव दुखी और सुखी होते हैं और तू उन्हें कर्म तो देता नहीं है, तब वे जीव तूने दुखी और सुखी किस प्रकार किये। यदि सभी जीव कर्म के उदय से दुखी और सुखी होते हैं अैर वे तुझे कर्म देते नहीं, तब तुझे उन जीवों ने किस प्रकार दुखी किया। यदि सभी जीव कर्म के उदय से दुखी और सुखी होते हैं और वे जीव तुझे कर्म तो देते नहीं है, तब उन्होंने तुझे सुखी कैसे किया। If all living beings become miserable or happy due to the fruition of karmas, and since you do not give them karmas, how have you made them miserable or happy? If all living beings become miserable or happy due to the fruition of karmas, and since they do not give you karmas, how have they made you miserable? If all living beings become miserable or happy due to the fruition of karmas, and since they do not give you karmas, how have they made you happy?
मरण और दुःख कर्मोदय से होता है -
जो मरता है और जो दुखी होता है, वह सब कर्म के उदय से होता है, इसलिए ’मैंने अमुक को मार दिया और मैंने अमुक को दुखी किया’ ऐसा तेरा अभिप्राय क्या वास्तव में मिथ्या नहीं है? जो न मरता है और न जो दुखी होता है, वह जीव भी वास्तव में कर्म के उदय से ही होता है; इसलिए’इसे मैंने नहीं मारा और इसे मैंने दुखी नहीं किया’ ऐसा तेरा अभिप्राय क्या मिथ्या नहीं है? If one dies or becomes miserable, all this is due to the fruition of karmas. Therefore, your view that you have killed or caused suffering to somebody, is it not erroneous? If one does not die or does not become miserable, all this also is due to the fruition of karmas. Therefore, your view that you have not killed or not caused suffering to somebody, is it not erroneous?
मूढ़बुद्धि बन्ध का कारण है -
तेरी यह जो बुद्धि है कि मैं जीवों को दुखी-सुखी करता हूं यह तेरी मूढ बुद्धि ही शुभाशुभ कर्मों को बंधती है। Your conviction that you give misery or happiness to other living beings is a delusion which engenders bondages of karmas resulting into merit or demerit.
मिथ्याध्ववसान बन्ध का कारण है -
मैं जीवों को दुखी और सुखी करता हूं, इस प्रकार का जेा तेरा (रागादि) अध्यवसान है, वह अध्यवसानपाप का बंध करने वाला अथवा पुण्य का बन्ध करने वाला है। मैं जीवों को मारता हूं, और खिलाता हूँ, इस प्रकार का जो तेरा (रागादि) अध्यवसान है, वह अध्यवसान पाप का बन्ध करने वाला अथवा पुण्य का बन्ध करने वाला है। That you give misery or happiness to other living beings, your disposition (involving attachment etc.) of this kind is the cause of bondage – resulting into either demerit or merit. That you kill other beings or cause them to live, your disposition (involving attachment etc.) of this kind is the cause of bondage – resulting into either demerit or merit.
निश्चयनय से बन्ध का कारण -
जीवों को मारो अथवा न मारो, कर्म-बन्ध अध्यवासन से होता है। यह निश्चयनय से जीवों के बन्ध का संक्षेप है। Whether you kill or do not kill living beings, bondage takes place due to your own disposition. This is the cause of bondage of living beings, from the pure, transcendental point of view, in a nutshell.
अध्यवसान से पाप, पुण्य का बन्ध -
इसी प्रकार (हिंसा के अध्यवसान के समान) असत्य में, चोरी में, अब्रह्मचर्य में और परिग्रह में जो अध्यवसान किया जाता है,उससे पाप का बंध होता है। और इसी प्रकार सत्य में, अचैर्य में, ब्रह्मचर्य में और अपरिग्रह में जो अध्यवसान किया जाता है, उससे पुण्य का बन्ध होता है। In the same way (like the disposition pertaining to injury or violence), dispositions of involvement in falsehood, stealing, unchastity, and possessions, cause bondage resulting into demerit. And in the same way, dispositions of involvement in truthfulness, non-stealing, celibacy, and renunciation, cause bondage resulting into merit.
बन्धु वस्तु से नहीं होता -
पुनः (चेतनाचेतन बाह्य) वस्तु का आलम्बन लेकर जीवों के वह रागादि अध्यवसान होता है। वास्व्त में वस्तु से बन्ध नहीं होता, अध्यवासन से ही बन्ध होता है। Further, the Self, conditioned by objects (external-animate and inanimate), entertains, dispositions of attachment etc. In reality, objects are not the cause of bondage; it is only due to dispositions.
मोह-बुद्धि निरर्थक है -
मैं जीवों को दुखी-सुखी करता हूँ, उन्हें बँधवाता हूँ, छुड़ाता हूँ, तेरी जो ऐसी मूढ़बुद्धि है वह निरर्थक है, अतः वास्तव में वह मिथ्या है। That I am responsible for making the other living beings miserable or happy, cause them to be bound or released, this assertion of yours is fraught with delusion, is futile, and, therefore, erroneous, for sure.
पर कर्तृत्व का अहंकार निरर्थक है -
यदि वास्तव में अध्यवासन के निमित्त से जीव कर्मों से बँधते हैं और मोक्षमार्ग में स्थित वे कर्मों से मुक्त होते हैं, तब तू क्या करता है? (अर्थात् दूसरों को बाँधने-छोडने का तेरा अध्यवसान निष्प्रयोजन रहा)। If, in reality, the living beings get bondages of karmas due to dispositions, and, treading on the path to liberation, they get dissociated from such bondages, then what is your role? (Meaning thereby that your dispositions concerning binding or releasing others are useless.).
जीव निज को पररूप मानता है -
जीव अध्वसान के द्वारा तिर्यन्च, नारक, देव और मनुष्य इन सब रूप और अनेक प्रकार के पुण्य और पाप इन सब रूप अपने आपको करता है। तथा उसी प्रकार जीव अध्यवासन के द्वारा धर्म-अधर्म, जीव-अजीव, लोक और अलोक इन सब रूप अपने को करता है। The Self, due to his dispositions, identifies himself with various states of existence – subhuman (plants and animals), infernal, celestial, and human beings – and various kinds of bondages involving merit and demerit. Similarly, due to his dispositions, he identifies himself with the medium of motion and the medium of rest, the soul and the non-soul, and the universe and beyond.
जिनके अध्यवसान नहीं, उनके कर्म-बन्ध नहीं -
ये पूर्व में कहे गये अध्यवसान तथा इसी प्रकार के अन्य भी अध्यवसान जिनके नही हैं, वे मुनि अशुभ और शुभ कर्म से लिप्त नहीं होते हैं। The ascetics who do not entertain the aforementioned, and similar other, dispositions remain free from bondage of karmas that result into merit or demerit.
अध्यवसान के नामान्तर -
बुद्धि, व्यवसाय, अध्यवसान,मति, विज्ञान, चित्त, भाव और परिणाम ये सब एकार्थक हैं (अर्थात जीव का परिणाम अध्यवसान है)। Intellect, resolution, disposition, opinion, logic, reflection, emotion, and manifestation, all denote the same thing (meaning that the manifestation of jiva is due to dispositions).
निश्चयाश्रित ही निर्वाण को पाते हैं -
इस प्रकार व्यवहारनय निश्चयनय के द्वारा निषिद्ध जानो; पुनः निश्चयनय के आश्रित मुनि निर्वाण प्राप्त करते हैं। Therefore, the empirical point of view (vyavahara naya) is contradicted by the transcendental point of view (nischaya naya). The ascetics adopting the transcendental point of view attain liberation.
अभव्य का चारित्र व्यर्थ है -
जिनेन्द्रदेव के द्वारा कथित व्रत, समिति, शील और तप को करता हुआ भी अभव्य जीव अज्ञानी मिथ्यादृष्टि ही हैै। Those incapable of attaining liberation, even though they may observe vows, carefulness, control, supplementary vows, and practice austerities as prescribed by Omniscient, remain without knowledge and are wrong believers.
अभव्य का शास्त्र-पाठ गुणकारी नहीं है।
जो अभव्यजीव है वह शास्त्र तो पढता है, किंतु मोक्षतत्व का श्रद्धान नहीं करता तो ज्ञान का श्रद्धान न करने वाले उस अभव्य जीव का शास्त्र-पाठ कोई लाभ नहीं करता है। The abhavya (one incapable of attaining liberation), even though he may have studied the scriptures, but having no faith in the substance (tattva) called liberation (moksa), then, not having faith in true knowledge, his study of the scriptures is of no use.
अभव्य की श्रद्धा निरर्थक है -
वह अभव्य जीव भोग के निमित्तभूत धर्म का ही श्रद्धान करता है, (उसी की) प्रतीति करता है, (उसी की) रूचि करता है तथा पुनः (उसी का) स्पर्श करता है, परंतु कर्म-क्षय के निमित्तरूप (धर्म की श्रद्धा, प्रतीति, रूचि और स्पर्श) नहीं करता। Such a person (incapable of attaining liberation), has faith in the dharma only to the extent of achieving worldly pleasures; he loves it, takes interest in it, and touches it. But for the dharma that is instrumental in dissociation of karmas, he does not have faith, love, interest or tactile-feeling.
व्यवहार और निश्चय का स्वरूप -
आचारांग आदि शास्त्र ज्ञान है, जीवादि तत्व दर्शन जानना चाहिए और छह जीवनिकाय चारित्र है - इस प्रकार तो व्यवहारनाय कहता है। निश्चय से मेरी आत्मा ही ज्ञान है, मेरी आत्मा ही दर्शन और चारित्र है, मेरी आत्मा ही प्रत्याख्यान है और मेरी आत्मा ही संवर और योग है (यह निश्चयनय का कथन है)। (Understanding of) the scriptures (Acharang) is knowledge, (belief in) substances like jiva is faith, and (protection of) six kinds of organisms is conduct; this is the empirical point of view (vyavahara naya). Surely, the Self is knowledge, the Self is faith and conduct, the Self is renunciation, and the Self is stoppage of karmas, and yoga; this is the transcendental point of view (nischaya naya).
भावकर्म से रागादि परिणति -
जैसे स्फटिक मणि विशुद्ध है, वह स्वयं लाल आदि वर्ण रूप से परिणत नहीं होती; परंतु वह अन्य लाल आदि वर्ण वाले द्रव्यों से लाल आदि रूप परिणमन करती है। इसी प्रकार ज्ञानी (आत्मा स्वयं तो) शुद्ध है। वह रागादि रूप स्वयं परिणमन नहीं करता; परंतु वह अन्य रागादि दोषों से राग रूप परिणमन करता है। Just as a crystal, which is pure, does not alter its colour by itself, but when in proximity with coloured (like red) objects, seems to acquire red tinge, similarly the knowledgeable Self is pure, and does not acquire modifications like attachment by itself. But due to dispositions like attachment, its purity gets tainted.
ज्ञानी रागादि का कर्ता नहीं है -
ज्ञानी राग, द्वेष, मोह को अथवा कषाय भाव को स्वयं निजरूप नहीं करता हे, इसलिए वह उन भावों का कर्ता नहीं है। The knowledgeable Self does not, on his own accord, produce in himself dispositions like attachment, aversion, delusion or passions. Therefore, he is not the causal agent for these dispositions.
अज्ञानी रागादि का कर्ता है -
राग के होने पर, द्वेष के होने पर और कषाय कर्मों के होने पर जो भाव होते हैं, उन रूप परिणमन करता हुआ (अज्ञानी) रागादी को बार-बार बांधता है। Due to dispositions of attachment, aversion and passions, the psychic manifestations of the ignorant cause bondages of such karmas, time and again.
रागादि से कर्मबन्ध होता है -
राग, द्वेष और कषाय कर्मरूप (द्रव्यकर्म के उदय) होने पर जो रागादि परिणाम होते हैं, उन रूप परिणमन करता हुआ आत्मा रागादि को बांधता है। (निष्कर्ष यह है कि कर्म-बंध के कारण रागादि भाव होते हैं और रागादि भाव कर्म-बंध का कारण है।) On the fruition of material karmas pertaining to attachment, aversion, and passions the psychic manifestations (like attachment) of the Self cause bondages of karmas. (The inference is that karmic bondages cause dispositions, like attachment; and dispositions, like attachment, cause karmic bondages.)
प्रतिक्रमण का स्वरूप -
(पूर्वा विषयरागादिरूप) अप्रतिक्रमण दो प्रकार का है। इसी प्रकार (भावी विषयाकांक्षारूप) अप्रत्याख्यान (दो प्रकार का) जानना चाहिए। इस उपदेश से आत्मा अकारक कहा गया है। अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान भी द्रव्य और भावरूप से दो प्रकार का है। इस उपदेश से आत्मा अकारक कहा गया है। जब तक आत्मा द्रव्य और भाव का प्रत्याख्यान नहीं करता और प्र्रतिक्रमण नहीं करता, तब तक वह आत्मा (कर्मों का) कर्ता होता है, ऐसा जानना चाहिए। Non-repentance (of past perversions like attachment) is of two kinds. Similarly, non-renunciation (of future perversions like desire) is of two kinds. This teaching entails that the Self is not their causal agent. Non-repentance and non-renunciation are also of two kinds each – physical and psychical. This teaching entails that the Self is not their causal agent. Know that so long as the Self does not follow renunciation and repentance, of physical and psychical dispositions, till then he is the causal agent of the karmas.
ज्ञानी मुनि को आहार निमित्तक बन्ध नहीं है -
अधः कर्म आदि जो ये पुद्गलद्रव्य के दोष है, उनको ज्ञानी (आत्मा) किस प्रकार कर सकता है, जो कि सदा परद्रव्य के गुण है। यह अधः कर्म और औद्देशिक पुद्गलमय द्रव्य है। वह मेरा किया किस प्रकार हो सकता है जो सदा अचेतन कहा गया है। How can a knowledgeable Self be responsible for the results of actions like preparing food for family and saint, adhakharma, which are defects of the material substances, having qualities alien to those of the Self? Results of actions like adhahkarma, and food prepared specially for saint (auddesik), are material in nature. How can these be may doings as these are perennially devoid of consciousness? अट्ठमो बंधाधियारो समत्तो