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अर्हन्त पूजा
अर्हन्त पूजा
--स्थापना-गीताछन्द --
अरिहंत प्रभु ने घातिया को, घात निज सुख पा लिया।
छ्यालीस गुण के नाथ अठरह, दोष का सब क्षय किया।।
शत इन्द्र नित पूजें उन्हें, गणधर मुनी वंदन करें।
हम भी प्रभों! तुम अर्चना, के हेतु अभिनंदन करें।।1।।
ऊँ ह्रीं णमोअरिहंताणं श्री अर्हत्परमेष्ठि समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट आह्वाननं।
ऊँ ह्रीं णमोअरिहंताणं श्री अर्हत्परमेष्ठि समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ऊँ ह्रीं णमोअरिहंताणं श्री अर्हत्परमेष्ठि समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथाष्टकं - स्त्रग्विणी छंद
साधु के चित्त सम स्वच्छ जल ले लिया।
कर्ममल क्षालने तीन धारा किया।।
सर्व अरिहंत को पूजहूं भक्ति से।
कर्म अरि को हनूं भक्ति की युक्ति से।।1।।
ऊँ ह्रीं णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
गंध सौगंध्य से नाथ को पूजते।
सर्व संताप से भव्यजन छूटते।।
सर्व अरिहंत को पूजहूं भक्ति से।
कर्म अरि को हनूं भक्ति की युक्ति से।।2।।
ऊँ ह्रीं णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
धौत अक्षत लिये स्वर्ण के थाल में।
पुंज धर के जजूं नाय के भाल मैं।।
सर्व अरिहंत को पूजहूं भक्ति से।
कर्म अरि को हनूं भक्ति की युक्ति से।।3।।
ऊँ ह्रीं णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो अक्ष्ज्ञयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
केतकी कुंद मचकुंद बेला लिया।
कामहर नाथ के पाद अर्पण किये।।
सर्व अरिहंत को पूजहूं भक्ति से।
कर्म अरि को हनूं भक्ति की युक्ति से।।4।।
ऊँ ह्रीं णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मुद्ग मोदक इमरती भरे थाल में।
आत्म सुख हेतु मैं अर्पिहूं हाल में।।
सर्व अरिहंत को पूजहूं भक्ति से।
कर्म अरि को हनूं भक्ति की युक्ति से।।5।।
ऊँ ह्रीं णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्ण के दीप में ज्योति कर्पूर की।
नाथ पद पूजते मोह तम चूरती।।
सर्व अरिहंत को पूजहूं भक्ति से।
कर्म अरि को हनूं भक्ति की युक्ति से।।6।।
ऊँ ह्रीं णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप को अग्नि में खेवते शीघ्र ही।
कर्म शत्रू जलें सौख्य हो शीघ्र ही।।
सर्व अरिहंत को पूजहूं भक्ति से।
कर्म अरि को हनूं भक्ति की युक्ति से।।7।।
ऊँ ह्रीं णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सवे अंगूर दाडि़म अनन्नास ले।
मोक्ष फल हेतु जिन पद पूजूं भले।।
सर्व अरिहंत को पूजहूं भक्ति से।
कर्म अरि को हनूं भक्ति की युक्ति से।।8।।
ऊँ ह्रीं णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अघ्र्य लेकर जजूं नाथ को आज मैं।
स्वात्म संपत्ति का पाऊं साम्राज मैं।।
सर्व अरिहंत को पूजहूं भक्ति से।
कर्म अरि को हनूं भक्ति की युक्ति से।।9।।
ऊँ ह्रीं णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
--दोहा--
जिन पद में धरा करूं, चउसंघ शांती हेत।
शांती धारा जगत में, आत्यन्तिक सुख देत।।10।।
शांतये शांतिधारा।
चंपक हर सिंगार बहु, पुष्प सुगंधित सार।
पुष्पांजलि से पूजते, होवे सौख्य अपार।।1।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
अथ प्रत्येक अघ्र्य
--सोरठा--
परमानन्द समेत, श्री अरिहंत जिनेश हैं।
निजगुण संपत्ति हेतु, तिनके गुणमणि को जजूं।।1।।
इति मंडले प्रथमदलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
जन्म के दश अतिशय
-नरेन्द्र छंद-
जन्म समय से ही दश अतिशय, प्रभु के तन में सोहे।
सौ धर्मेन्द्र बना नित किंकर, प्रभु के मन को मोहे।।
देह पसेव रहित है प्रभु का, यह अतिशय मन भावे।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, परमानन्दसुख पावें।।1।।
ऊँ ह्रीं स्वेदरहित सहजातिशयधारक अर्हत्परमेष्ठिभ्यः अध्र्यं.....।
मात गर्भ से जन्में फिर भी, मलमूत्रादि रहित हैं।
मुनि मन को निर्मल करने में, सचमुच आप निमित्त हैं।।
सुर नर असुर इंद्र विद्याधर, बहु रूचि से गुण गावें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें।।2।।
ऊँ ह्रीं निर्मलत्व सहजातिशयधारक अर्हत्परमेष्ठिभ्यः अघ्र्य......।
प्रभु शरीर में श्वेत दुग्ध सम, रूधिर रहे अतिशायी।
रूधिर लाल नहिं यह शुीा अतिशय, सब जनमन सुखदायी।।
गणधरगण नित हर्षित मन से, प्रभु का ध्यान लगावें।।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें।3।।
ऊँ ह्रीं क्षीरगौर रूधिरत्व सहजातिाय सहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं........।
तन सुडौल आकार मनोहर, समचतुरस्त्र कहावे।
जिस जिस अवयव का जितना है, माप वही मन भावे।।
इस अतिशययुत श्री जिनवर को, हम भी पूजें ध्यावें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें।।4।।
ऊँ ह्रीं समचतुरस्त्रसंस्थान सहजातिशय सहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं......।
वज्रवृषभनाराच संहनन, उत्तम प्रभु का जानों।
अद्भुत महिमाशाली जिनवर, का शुभ देह बखानों।।
इस अतिशय को हम नित पूजें, अतिशय भक्ति बढ़ावें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें।।5।।
ऊँ ह्रीं वज्रवृषभनाराचसंहनन सहजातिशय सहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
कोटिक कामदेव छवि लाजें, अतिशय रूप मनोहर।
इंद्र हजार क्षेत्र कर निरखें, तृप्त न होवे तो पर।।
सुन्दर सुन्दर सब परमाणु, प्रभु के तन बस जावें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें।।6।।
ऊँ ह्रीं अतिशयरूप सहजातिशयसमन्वितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
महा सुगंधित प्रभु का तन है, देव सुमन से बढ़कर।
अन्य सुरभि नहिं है इस जग में, उस सदृश अति सुखकर।।
जन्म समय से ही यह अतिशय, सब जन मन को भावें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावों।।7।।
ऊँ ह्रीं सौगन्ध्य शरीर सहजातिशयसमन्वितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
एक हजार आठ शुभ लक्षण, प्रभु के तन में सोहें।
सब सर्वोत्तम गुण के सूचक, त्रिभुवन जन मन मोहें।।
जन्मकाल से ये शुभ लक्षण, सब इनको ललचावें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें।।8।।
ऊँ ह्रीं अष्टोत्तरसहस्त्रशुीालक्ष्ज्ञणसहितशरीरसहजातिशयधारकार्हत्परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
तुलना रहित अतुलबल प्रभु तन, जग में है न किसी के।
इन्द्र चक्रवर्ती से अद्भुत, शक्ती है जिन जी के।।
निज शक्ती के प्रगटन हेतू, हम भी प्रभु गुण गावें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से परमानंद सुख पावें।।9।।
ऊँ ह्रीं अप्रमितवीर्ससहजातिशयसमन्वितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
प्रिय हित मधुर वचन अमृतसम, सबको तृप्त करे हैं।
बाल्यकाल में आप संग में, सुर शिशु आन रमें हैं।।
ऐसे अतिश्ज्ञय युत जिनवर की, हम नित पूज रचावें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, परमानंद सुख पावें।।10।।
ऊँ ह्रीं प्रियहितवादित्वसहजातिशयसमन्विहार्हत्परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
देवकृत चैदह अतिशय
शंभु छंद
सर्वार्धमागधी भाषा है, तीर्थंकर की भवि सुखकारी।
सुरकृत यह अतिशय सब जन के, मन चमत्कार करता भारी।।
जो आतम निधि के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।1।।
ऊँ ह्रीं सर्वार्धमागधीय भाषा देवोपनीतातिशयसहितार्ह परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
प्रभु का विार हो जहां जहां,, सब प्राणी मैत्री भाव धरें।
सब जाति विरोधी जीव वहां, आपस में वैर हरें विचरें।।
जो आतम निधि के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।2।।
ऊँ ह्रीं सर्वजीवमैत्री भावदेवोपनीतातिशयसहितार्ह परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
जब श्रीविार होता प्रभु का, और समवसरण जहां राजे हैं।
षट्ऋतु के सब फल फलते हैं, बस फूल खिलें अति भासे हैं।।
जो आतम निधि के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।3।।
ऊँ ह्रीं सर्वर्तुफलादिशोभितपरिणामदेवोपनीतातिशयसहितार्हपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
दर्पण तलसम भूरत्नमयी, जहं जहं प्रभु विहरण करते हैं।
यह अतिशय सुरकृत मनहारी, भवि पूजत ही दुख हरते हैं।।
जो आतम निधि के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।4।।
ऊँ ह्रीं आदर्शतलप्रतिमारत्नमयीमहीदेवापनीतातिशयसहितार्हपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
अनुकूल पवन है मन्द मन्द, सुरभित सुखकर जन मन हारी।
सब आधी व्याधी शोक टलें, स्पर्श पवन का हितकारी।।
जो आतम निधि के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।5।।
ऊँ ह्रीं सुगंधितविहरणमनुगतवायुत्वदेवोपनीतातिश्ज्ञयसहितार्हपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
जहं जहं प्रभु का हो श्रीविहार, सब जन परमानन्दित होते।
परमानन्दामृत पी करके, मुनिगण भी कर्म पंक धोते।।
जो आतम निधि के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।6।।
ऊँ ह्रीं सर्वजनपरमानन्दत्वदेवोपनीतातिशयसहितार्हपरमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
धूलि कंटक आदिक विरहित, भूमी अति स्वच्छ सदा दिखती।
प्रभु के विहार के अतिशय से, दुर्भिक्ष मरी व्याधी टरती।।
जो आतम निधि के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।7।।
ऊँ ह्रीं वायुकुमारोपशमित धूलिकंटकादिवेवोपनीतातिशयसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
सुरभित गन्धोदक की वर्षा, भकती से मेघकुमार करें।
प्रभु का ही अतिशय पुण्यमहा, जो पूजें भवदधि पार करें।।
जो आतम निधि के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।8।।
ऊँ ह्रीं मेघकुमारकृत गंधोदकवृष्टिदेवोपनीतातिशयसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
जहं जहं प्रभु चरणकमल धरते, तहं तहं शुभ स्वर्ण कमल खिलते।
सुरकृत अतिशय को देख देख, जन-जन के हृदय कमल खिलते।।
जो आतम निधि के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।9।।
ऊँ ह्रीं चरणकमलतलरचितस्वर्णकमलदेवापनीतातिशयसहितार्हत् परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
शाली आदिक सब धान्य भरित, खेती फल से झुक जाती है।
सुरकृत अतिशय से चहुंदिश में, सुन्दर पृथ्वी लहराती है।।
जो आतम निधि के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।10।।
ऊँ ह्रीं फलभारनम्रशालिदेवापनीतातिशयसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
आकाश शरद् ऋतु के सदृश, सब दशों दिशा धूमादि रहित।
भक्ती से जनज न का मन भी, सब पाप पंक से हो विरहित।।
जो आतम निधि के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।11।।
ऊँ ह्रीं शरत्कालवन्निर्मलगगनदिग्भात्वदेवोपनीतातिशयसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
आवो आवो सब सुरगण मिल, आवो आवो जयकार करो।
जिनवर की अतिशय भक्ती कर, अब मोहराज पर वार करो।।
जो आतम निधि के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।12।।
ऊँ ह्रीं एतैतेति चतुर्णिकायामरपरापराह्नानदेवोपनीतातिश्ज्ञयसहितार्हत् परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
वर धर्मचक्र सर्वाण्हयक्ष, मस्तक पर धारण करते हैं।
प्रभु के आगे चलते जग में, ये धर्मचक्र शुीा करते हैं।।
जो आतम निधि के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतू हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।12।।
ऊँ ह्रीं धर्मचक्रचतुष्टयदेवोपनीतातिशयसहितार्हत् परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
कलश ध्वज छत्र चमर दर्पण, भृंगार ताल ओर सुप्रतीक।
ये मंगलद्रव्य आठ इनको, देवी कर धारें मंगलीक।।
जो आतम निधि के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।13।।
ऊँ ह्रीं अष्टमंगलद्रव्यदेवोपनीतातिशयसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
आठ प्रातिहार्य
गीता छन्द-
वर प्रातिहार्य अशोक तरूवर, शोक जन मन को हरे।
गारूत्मणी के पत्र सुन्दर, पवन प्रेरित थरहरें।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम अर्चना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।1।।
ऊँ ह्रीं अशोकवृक्षमहाप्रातिहार्यसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
सुरगण करें सुकल्पतरू के, पुष्प की वर्षा घनी।
अतिशय सुगंधित पुष्प पंक्ती, सर्व मन हरसावनी।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम अर्चना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।2।।
ऊँ ह्रीं सुरपुपष्पवृष्टिमहाप्रातिहार्यसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
प्रभु दिव्यध्वनि चउकोश तक, गम्भीर ध्वनि करती खिरे।
निर अक्षरी फिर भी असंख्यों, भव्य को तर्पित करे।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम अर्चना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।3।।
ऊँ ह्रीं दिव्यध्वनिमहाप्रातिहार्यसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
चैंसठ चमर ढोरें अमर बहु, पुण्य संचय कर रहें।
ये चमर मानों कह रहे प्रभु, भक्त ऊरध गति लहें।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम अर्चना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।4।।
ऊँ ह्रीं चतुःषष्टिचामरमहाप्रातिहार्यसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
बहुरत्न संयुत सिंहपीठ, जिनेश जिस पर राजते।
जो भव्य पूजें नाथ को वे, आतम ज्योति प्रकाशते।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम अर्चना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।5।।
ऊँ ह्रीं सिंहासनमहाप्रातिहार्यसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
प्रभु देह कांती प्रभामंडल, कोटि सूर्य तिरस्करे।
भवि सात भव उसमें निरख जिन, विभव लख शिरनत करे।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम अर्चना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।6।।
ऊँ ह्रीं भामंडलमहाप्रातिहार्यसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
सुरदुंदभी बजती विविध, भविलोक को हर्षित करे।
धुनि श्रवणकर जिन दर्शकर, जन पुण्य बहु अर्जित करें।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम अर्चना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।7।।
ऊँ ह्रीं सुरदुंदुभिमहाप्रातिहार्यसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
जिननाथ के मस्तक उपरि त्रय, छत्र सुन्दर फिर रहें।
त्रैलोक्य की प्रभुता प्रभू की, है यही सब कह रहें।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम अर्चना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।8।।
ऊँ ह्रीं छत्रत्रयमहाप्रातिहार्यसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
चार अनंत चतुष्टय
नाराच छंद-
तीन लोक तीन काल की समस्त वस्तु को।
एक साथ जानता अनंत ज्ञान विश्व को।।
जो अनंत ज्ञान युक्त इन्द्र अर्चतें जिन्हें।
पूजहूं सदा उन्हें अनंत ज्ञान हेतु मैं।।1।।
ऊँ ह्रीं अनंतज्ञानसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
लोक औ अलोक के समस्त ही पदार्थ को।
एक साथ देखता अनन्त दर्श सर्व को।।
जो अनंत ज्ञान युक्त इन्द्र अर्चतें जिन्हें।
पूजहूं सदा उन्हें अनंत ज्ञान हेतु मैं।।2।।
ऊँ ह्रीं अनंतदर्शनसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
बाधहीन जो अनन्त सौख्य भोगते सदा।
हो भले अनन्तकार आवते न ह्यां कदा।।
जो अनंत ज्ञान युक्त इन्द्र अर्चतें जिन्हें।
पूजहूं सदा उन्हें अनंत ज्ञान हेतु मैं।।3।।
ऊँ ह्रीं अनंतसौख्यसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
जो अनन्तवीर्यवान अंतराय को हने।
तिष्ठते अनन्तकाल श्रम नहीं कभी उन्हें।।
जो अनंत ज्ञान युक्त इन्द्र अर्चतें जिन्हें।
पूजहूं सदा उन्हें अनंत ज्ञान हेतु मैं।।4।।
ऊँ ह्रीं अनन्तवीर्यसहितार्हत्परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
--पूर्णाघ्र्यं-शंभु छंद--
दश अतिशय जन्म समय से हों, दश केवल ज्ञान उदय से हों।
देवोंकृत चैदह अतिशय हों, चैंतिस अतिशय सब मिलकें हों।
वर प्रातिहार्य हैं आठ कहें, सु अनन्त चतुष्टय चार कहें।
इन छ्यालिस गुणयुत अर्हत को, हम पूजें वांछित सर्व लहें।।
ऊँ ह्रीं षट्चत्वारिंशद् गुणसंयुक्तार्हत्परमेष्ठिभ्यः अघ्र्यं...........।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
जाप्य - ऊँ ह्रीं अर्हत्सिद्वाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्योः नमः।
जयमाला
-दोहा-
श्री अरिहंत जिनेन्द्र का, धरूं हृदय में ध्यान।
गाऊं गुणमणिमालिका, हरूं सकल अपध्यान।।1।।
--शंभु छंद--
जय जय प्रभु तीर्थंकर जिनवर, तुम समवसरण में राज रहे।
जय जय अर्हत् लक्ष्मी पाकर, निज आतम में ही आप रहे।।
जन्मत ही दश अतिशय होते, तन में न पसेव न मल आदी।
पय समसित रूधिर सु समचतुष्क, संस्थान संहनन है आदी।।1।।
अतिशय सुरूप, सुरभित तनु है, शुभ लक्षण सहस आठ सोहें।
अतुलितबल प्रियहितवचन प्रभो, ये दशअतिशय जनमनमोहें।।
केवल रविप्रगटित होते ही दश, अतिशय अद्भुत ही मानों।
चारों दिश इक इक योजन तक, सुभिक्ष रहे यह सरधानों।।2।।
हो गगन गमन, नहिं प्राणीबंध, नहिं भोजन नहिं उपसर्ग तुम्हें।
चउमुख दीखे सब िवद्यापति, नहिं छाया नहिं टिमकार तुम्हें।।
नहिं नख औ केश बढ़ें प्रभु के, ये दश अतिशय सुखकारी हैं।
सुरकृत चैदह अतिशय मनहर, जो भव्यों को हितकारी हैं।।3।।
सर्वार्धमागधीया भाषा, सब प्राणी मैत्री भाव धरें।
सब ऋतु के फल और फूल खिलें, दर्पणवत् भूरलाभ धरें।।
अनुकूल सुगंधित पवन चले, सब जन मन परमानन्द भरें।
रजकंटक विरहित भूमि स्वच्छ, गंधोदक वृष्टी देव करें।।4।।
प्रभु पद तल कमल खिलें सुन्दर, शाली आदिक बहुधान्य फलें।
निर्मल आकाश दिशा निर्मल, सुरगण मिल जाय जयकार करें।।
अरिहंत देव का श्रीविहार, वर धर्मचक्र चलता आगे।
वसुमंगल द्रव्य रहें आगे, यह विभव मिला जग के त्यागे।।5।।
तरूवर अशोक सुरपुश्प वृष्टि, दिव्यध्वनि, चैंसठ चमर कहें।
सिंहासन भामंडल सुरकृत, दुंदुभि छत्रत्रय शोभ रहें।।
ये प्रातिहार्य हैं आठ कहे, और दर्शन ज्ञान सौख्य वीरज।
ये चार अनंत चतुष्टय हैं, सब मिलकर छ्यालिस गुण कीरत।।6।।
क्षुधा तृषा तन्म मरणादि दोष, अठदश विरहित निर्दोष हुए।
चउ घाति घात नवलब्धि पाय, सर्वज्ञ प्रभू सुखपोष हुए।।
द्वादशगण के भवि असंख्यात, तुम धुनि सुन हर्षित होते हैं।
सम्यक्त्व सलिल को पाकर के भवभव के कलिमल धोते हैं।।7।।
मैं भी भवदुःख से घबड़ा कर, अब आप शरण में आया हूं।
सम्यक्त्व रतन नहिं लुट जावे, बस यही प्रार्थना लाया हूं।।
संयम की हो पूर्ती भगवन्! औ मरण समाधी पूर्वक हो।
हो केवल ज्ञानमती सिद्धी, जो सर्व गुणों की पूरक हो।।8।।
--दोहा--
मोह अरी को हन हुए, त्रिभुवन पूजा योग्य
नमो नमो अरिहंत को, पाऊं सौख्य मनोज्ञ।।9।।
जाप्य - ऊँ णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यः जयमाला अघ्र्यं............।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
--गीताछन्द--
अर्हंत सिद्धाचार्य पाठक, साधु को जो पूजते।
वे मोह को कर दूर मृत्यु, मल्ल को भी चूरते।।
अद्भुत सुखों को भोग क्रम से, मुक्तिलक्ष्मी वश करें।
कैवल्य अर्हंत ’ज्ञानमति’ पा, पूर्ण सुख शाश्वत करें।।
।।इत्याशीर्वाद।।