आगम का अर्थ - जो सम्पूर्ण दोषों से रहित है, केवलज्ञान आदि परम वैभव से सहित है, वे परमात्मा कहलाते हैं। इनसे विपरीत परमात्मा नहीं है। उस परमात्मा के मुख से निकले हुए वचन, जो पूर्वापर दोष से रहित और शुद्ध है, वही ‘आगम‘ है। उस आगम में कहे गये ही तत्वार्थ है।
श्री वीरसेनाचार्य ने कहा है-
‘‘भावश्रुत और अर्थपदों के कर्त्ता तीर्थंकर है। तीर्थंकर से गौतमस्वामी श्रुतपर्याय से परिचित हो जाते हैं, इसलिए द्रव्यश्रुत के कर्त्ता गौतम है। उसे ही ग्रंथ रचना हुई है।‘‘
श्रुत से कहे गए जो भी पदार्थ हैं, वे ही तत्वार्थ कहलाते हैं।
शंका - तत्व इस शब्द से क्या समझना ?
समाधान- यहाँ तत्व शब्द भाववाची है। तत् यह सर्वनाम पद है और सर्वनाम पद सामान्य अर्थ में रहते हैं। ‘तस्य भावः तत्व‘ उसका जो भाव है, वह तत्व है।
शंका - ‘उसका‘ से किसको लेना ?
समाधान-जो पदार्थ जिस प्रकार से अवस्थित है, उसका उसी प्रकार होना, यह अर्थ इस तत्व शब्द से समझना।
शंका - अर्थ‘ किसे कहते हैं ?
समाधान-‘‘ऋ‘‘ धातु से अर्यते बना है। यह गत्यर्थ धातु है। इसलिए जो ‘अर्यते‘ अर्थात् निश्चित किया जाता है, वह अर्थ है। अथवा जो गुण पर्यायों को प्राप्त करता है या जो गुण पर्यायों से प्राप्त किए जाते हैं वे ‘अर्थ‘ कहलाते हैं-इन्हें ही द्रव्य कहते हैं। तत्व रूप जो अर्थ है, वह तत्वार्थ है। अथवा भाव से भाव वाले को कहना तत्वार्थ है, क्योेंकि ये परस्पर में अभिन्न हैं। या तत्व ही अर्थ है, वही तत्वार्थ है। तात्पर्य यह है कि परमार्थभूत पदार्थ को अर्थ कहते हैं।
‘पंचास्तिकाय‘ में आगम को ‘समय‘ शब्द से कहा है-
अर्थात् श्रमण के मुख से निकले हुए अर्थमय (सर्वज्ञ महामुनि के मुख से कहे हुए पदार्थाें का कथन करने वाले) चार गति का निवारण करने वाले और निर्वाण सहित (निर्वाण के कारणभूत) ऐसे इस ‘समय‘ को शिर से नमर करके मैं उसका कथन करता हूँ।
‘पंचास्तिकाय‘ की आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीका में ‘समयो ह्मागमः‘ कहकर समय का अर्थ आगम माना है। यहाँ ‘समय‘ शब्द का अर्थ तीन प्रकार से कहा है-
शब्द समय - पाँच अस्तिमय का ‘समवाय‘ अर्थात् मध्यस्थ (राग, द्वेष से विकृत नहीं हुआ) पाठ (मौखिक या शास्त्रारूढ़ निरूपण) शब्दसमय है अर्थात् शब्दागम वह शब्द समय है।
ज्ञान समय- मिथ्यादर्शन के उदय का नाश होने पर उस पंचास्तिकाय का सम्यक् अवाय अर्थात् सम्यक् ज्ञान, ज्ञान समय है।
अर्थसमय -कथन के निमित्त से ज्ञात हुए उस पंचास्तिकाय का ही वस्तुरूप से समवाय अर्थात् समूह अर्थसमय है अर्थात् सर्वपदार्थ समूह अर्थसमय है।
आगम की उपयोगिता - ‘प्रवचनसार‘ में कहा गया है - श्रमण एकाग्रता को प्राप्त होता है, एकाग्रता पदार्थां के निश्चयवान् के होती है। पदार्थों का निश्चय आगम के द्वारा होता है, इसलिए आगमचेष्टा मुख्य है। आगमहीन श्रमण आत्मा का (निज को) और पर को नहीं जानता; पदार्थाें को नहीं जानता हुआ भिक्षु कर्मों को किस प्रकार क्षय करे ? साधु आगम चक्षु है। समस्त पदार्थ विचित्र गुण पर्यायों सहित आगमसिद्ध हैं, उन्हें भी वे श्रमण आगम द्वारा वास्तव में देखकर जानते हैं। तात्पर्य यह कि आगम द्वारा सभी द्रव्य प्रमेय होते हैं; क्योंकि सर्वद्रव्य विशेष स्पष्ट तर्क के साथ मेल वाले हैं। आगम से वे द्रव्य विचित्र गुण, पर्याय वाले प्रतीत होते हैं। क्योंकि आगम को समप्रवृत्त और क्रमप्रवृत्त अनेक धर्मों में व्यापक अनेकान्तमय होने से प्रमाणता की प्राप्ति है। क्योंकि श्रमण विचित्र गुण, पर्याय वाले सर्वद्रव्यों में व्यापक अनेकान्तात्मा श्रुतज्ञानोपयोग रूप होकर परिणमित होते हैं।
इस लोक में जिसकी आगमपूर्वक दृष्टि नहीं हैं, उसके संयम नहीं है, इस प्रकार सूत्र कहता है और असंयत श्रमण कैसे हो सकता है ? आगम से यदि पदार्थों का श्रद्धान न हो तो सिद्धि नहीं होती। पदार्थों का श्रद्धान करने वाला भी यदि असंयत हो तो निर्वाण को प्राप्त नहीं होता।
आगम का सामान्य कथन- आगम का क्षेत्र जीव, पुद्गलकाय, धर्म, अधर्म, काल और आकाश है। इन्हीं का नाम तत्वार्थ है। ये विविध गुण पर्यायों से संयुक्त है। जीव और अजीव; ये दो भाव तथा उन दो के पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष; ये नव पदार्थ है। आकाश, काल, पुद्गल, धर्म और अधर्म जीव के गुण नहीं हैं, उनहें अचेतनापना कहा है। जीव सब जानता है और देखता है, सुख की इच्छा करता है, दुःख से डरता है, हित-अहित को करता है और उनके फल को भोगता है। सुख-दुःख का ज्ञान, हित का उद्यम और अहित का भय जिसे नहीं होता है, उसे अजीव कहते हैं। आत्मा अपने भाव को करता है, वहाँ रहने वाले पुद्गल अपने भावों से जीव में अन्योन्य अवगाह रूप से प्रविष्ट हुए कर्मभाव को प्राप्त होते हैं। और समय पृथक् होने पर सुख-दुःख देते और भोगते हैं। जीव के भाव से संयुक्त कर्म (द्रव्यकर्म) कर्ता है। चेतक भाव के कारण जीवकर्मफल को भोक्ता है। कर्म भोक्ता नहीं है; क्योंकि उसे चैतन्यपूर्वक अनुभूति का सद्भाव नहीं है। जो पुरुष जिनवचन द्वारा मार्ग को प्राप्त करके उपशांतक्षीणमोह होता हुआ ज्ञानानुमार्ग में विचरता है, वह धी पुरुष निर्वाणपुर को प्राप्त होता है। हेतु (मोह, राग, द्वेष रूप) का अभाव होने से ज्ञानी को नियम से आस्रव का निरोध होता है और आस्रवभाव के अभाव में कर्म का निरोध होता है और कर्मों का अभाव होने से वह सर्व और सर्वलोकदर्शी होता हुआ इन्द्रियरहित, अव्याबाध, अनंतसुख को प्राप्त करता है। जो संवर से युक्त है, ऐसा जीव सर्वकर्मों की निर्जरा करता हुआ वेदनीय और आयुरहित होकर भव को छोड़ता है, इसलिए वह मोक्ष है। इस प्रकार मोक्ष प्राप्त आत्माओं को ही सिद्ध कहते हैं। आगम में समस्त द्रव्यों केे निरूपण के साथ आत्मा का भी निरूपण है और आत्मा की स्वाभाविक अवस्था सिद्ध अवस्था है, अतः उसका भी इसमें निरूपण है। इस प्रकार आत्मा की समस्त संयोगी पर्यायों को निरूपण कर अंत में उसकी सिद्ध पर्याय का निरूपण होने के कारण ही आगम को सिद्धांत शब्द से भी कहते हैं।
सिद्धांत पर आधारित अध्यात्म- अध्यात्म शब्द की परिभाषा देते हुए ‘द्रव्यसंग्रह‘ के टीकाकर ब्रह्मदेव ने कहा है-
‘‘मिथ्यात्वरागादि रूप समस्तविकल्प जालरूप परिहारेण स्वशुद्धआत्मन्यधिन्यदनुष्ठानं तदध्यात्ममिति‘‘
अर्थात् मिथ्यात्व-राग आदि समस्त विकल्प समूह के त्याग द्वारा निजशुद्ध आत्मा में जो अनुष्ठान (प्रवृत्ति करना) उसको अध्यात्म कहते हैं। आचार्य जयसेन के अनुसार रागादि पर द्रव्यों के आलंबन से रहित, जिसका आधार विशुद्ध है, ऐसे शुद्धात्मा में स्थित हो जाना अध्यात्म है। आत्मा शब्द का अर्थ इस प्रकार है-अत धातु निरंतर गमन करने रूप अर्थ मंे है और सब गमनार्थक धातु ज्ञानार्थक होती हैं, इस वचन से यहाँ पर ‘गमन‘ शब्द से ज्ञान कहा जाता है। इस कारण जो यथासंभव ज्ञान आदि गुणों में सर्वप्रकार वर्तता है, वह आत्मा है अथवा शुभ-अशुभ, मन-वचन-काय की क्रिया द्वारा यथासंभव मंद आदि रूप से जो पूर्णतया वर्त्तता है, वह आत्मा है अथवा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य; इन तीन धर्मों के द्वारा जो पूर्ण रूप से वर्तता है, वह आत्मा है (द्रव्य संग्रह-ब्रह्मदेव वृत्ति, पृ. ३१)
समस्त जिनशासन अध्यात्म रूप है, उसमें जो भौतिक कर्मवाद या लोकवाद कथन है, वह भी अध्यात्म प्रेरित ही है किन्तु अध्यात्म प्रेरित में और अध्यात्म में अंतर है। जैन सिद्धांत अध्यात्म की ओर प्रेरित अवश्य करता है, किन्तु अध्यात्ममय नहीं है। जैसे-‘गोम्मटसार‘ में जीव का विवेचन है। वह विवेचन संसारी जीव का है, उसमें गुणस्थान, मार्गणास्थान और जीव समास के द्वारा जीव का विवेचन है। उसे पढ़कर संसारी जीव का तो परिज्ञान होता है, किन्तु शुद्ध जीव का परिज्ञान नहीं होता। होता भी है तो अंत में जाकर होता है, वह भी उतना स्पष्टता से नहीं होता, किन्तु अध्यात्म-समुद्र ‘समयसार‘ में तो उतरते ही शुद्ध आत्मा दृष्टिपथ में आए बिना नहीं रहता। यही दोनों में अंतर है।
अध्यात्म के प्रवर्तक होते हुए भी आचार्य कुन्दकुन्द और अमृतचन्द ने सिद्धांत या व्यवहार की उपेक्षा नहीं की। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार के अतिरिक्त प्रवचनसार, पंचास्तिकाय तथा अन्य प्राभृतों में जैन सिद्धांत और जैन आचार का वर्णन किया और अमृतचन्द्र ने तत्वार्थसूत्र को लेकर तत्वार्थसार रचा तथा श्रवकाचार को लेकर पुरुषार्थसिद्ध्युपाय रचा। किन्तु उनकी इन दोनों रचनाओं में उनके अध्यात्म की स्पष्ट छाप है; जो इन विषयों की अन्य रचनाओं में नहीं पायी जाती। सिद्धांत हो या अध्यात्म दोनों में दृष्टिभेद होने पर भी मोक्षमार्ग भिन्न-भिन्न नहीं है। एक का काम तो व्यवहार प्रधान है तो दूसरे का निश्चय प्रधान है। आचार्य अमृतचन्द्र जी ने लिखा है - व्यवहार भी परमार्थ का ही प्रतिपादन करता है, उसके अतिरिक्त वह किंचित् भी नहीं कहता, फिर भी वह प्रतिषेध्य है-हेय है। क्यों है ? इसके समाधान में जयसेनाचार्य कहते हैं-
‘जो निश्चय मोक्षमार्ग में स्थित हैं, उनका नियम से मोक्ष होता है, किन्तु व्यवहार मोक्षमार्ग में जो स्थित हैं, उनका मोक्ष होता भी है और नहीं भी होता। यदि मिथ्यात्वादि सात प्रकृतियों का उपशमादि होने से शुद्धात्मा को उपादेय मानकर वर्तता हेै तो तो मोक्ष होता है, अन्यथा नहीं होता। जो पूर्वोक्त शुद्धात्म स्वरूप को उपादेय नहीं मानता, उसके सात प्रकृतियों का उपशमादि नहीं होता।
आगम और अध्यात्म में अंतर- अध्यात्म शास्त्र शुद्ध सीधा ही मोक्षमार्ग का वर्णन करता है, अतः शुद्धोपयोग को मोक्षमार्ग मानता है, शुभोपयोग को बंधमार्ग कहता है। शुभोपयोग को मोक्षमार्ग में कुछ भी स्थान नहीं देता। आगमिक दृष्टि मोक्षमार्ग की प्राप्ति के उपायों पर जोर देती है, अतः शुभोपयोगी चारित्र को महत्व देती है, क्योंकि उसके पाए बिना वीतरागी शुद्धोपयोगी चरित्र नहीं मिलता। न्याय शास्त्र के कार्यकारण भाव के अनुसार अनन्तर पूर्व पर्याय विशिष्ट द्रव्य उत्तर पर्याय का उपादान कारण होता है, अतः शुद्धोपयोग रूप पर्याय का उपादान शुभोपयोग विशिष्ट पूर्वपर्यायगत द्रव्य ही होगा। अध्यात्मदृष्टि साक्षात् साधन को ही साधन मानती है, परम्परा साधनों को साधन नहीं मानती, पर आगमिक दृष्टि साक्षात् साधन को मानती हुई भी उस साक्षात् साधन की प्राप्ति के उपायों को भी परम्परा से मोक्षमार्ग का साधन मानती हैं। एक दृष्टि शुद्ध सिद्धांत का ही प्रतिपादन करती है तो दूसरी दृष्टि सिद्धांत तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करती है।
यद्यपि आगमिक विषय के अनुसार प्रत्येक द्रव्य अपनी पर्याय का स्वयं कर्त्ता होता है और वह पर्याय ही उसका कर्म है, इस आधार पर रागादि भावों का कर्त्ता और उसके फल का भोक्ता संसारी जीव ही है, तथापि अपने अनान्तातन्त कर्मनिरपेक्ष सहज पारिणामिक भाव का स्वामी अखंड, अविचल आत्मा को संसारी दशा मंेे भी द्रव्यदृष्टि से अवलोकन करने पर वह मात्र अपने ज्ञानस्वभाव का ही स्वामी ठहरता है, रागादि के कर्तृत्व, भोक्तृत्व का उसमें स्थान नहीं है।
अध्यात्म दृष्टि से जीव के वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान, संहनन, राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय (आस्रव), कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्द्धक, अध्यात्म स्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान, मागणास्थान, स्थितिबंध स्थान, संक्लेशबंध स्थान, विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान, जीवस्थान अथवा गुणस्थान नहीं हैं; क्योंकि यह सब पुद्गल द्रव्य के परिणाम है। आगम में जीव का इनकी अपेक्षा निरूपण पाया जाता है।
अध्यात्म की कसौटी प्रत्यक्ष या अनुभव है। जैसे जीवस्वभाव की दृष्टि से सिद्ध और निगोदिया जीव समान हैं। आगम कथित गुणस्थान भेद की अपेक्षा सिद्धों और निगोदिया जीवों में भेद हैं। अनुभवकाल में दृष्टा (सम्यग्दृष्टि) की दृष्टि में भेद नहीं है। वह तो एक मात्र अखंड, चैतन्य-पुंज, विशुद्ध आत्मद्रव्य को ही देख रहा है, अन्य सब कुछ रहते हुए भी उसकी तात्कालिक दृष्टि में वे सब नहीं हैं, गौण है। इसका अर्थ ऐसा नहीं है कि उपयोग में दोनों की सत्ता है, किन्तु जो शुद्धात्मतत्व है, उसी का अस्तित्व उपयोग में हैख् अन्य का नहीं है। तथापि अन्य के स्वतः अस्तित्व का निषेध नहीं है। अन्यत्र उपयोग होने पर उनकी स्वीकारता उसके ज्ञान में है, तथापि अनुभवन काल में उनकी सत्ता की उपलब्धि नहीं है। यदि उस काल में भी उपयोग में आ जावे तो शुद्धात्मा पर के उपयोग से तत्काल हट जायगा। इसका कारण यह है कि उपयोग एक समय एक ही पदार्थ को विषय करता है। एक साथ दो उपयोग नहीं हो सकते। ‘‘छदुमत्थाणं ण दुण्णि उव-ओगा‘‘ आचार्य नेमिचन्द्र के इस वचन से यह स्पष्ट है तथापि यदि मिथ्यादृष्टि अन्य काल में अन्यान्य पदार्थों पर भी उपयोग ले जाता है तो उन्हें स्वात्मभिन्न अनुपादेय ही मानता है, इससे उसके सम्यग्दर्शन में कोई बाधा नहीं है।
अध्यात्म की दृष्टि से आराध्य आराधक भाव अपने आप में ही है। आगम की दृष्टि से स्वात्मोपलब्धि की सिद्धि करने वाले सभी आराध्य हैं।
आगम के व्याख्यान के समय मनुष्य की बुद्धि निश्चय और व्यवहार; इन दोनों नयों को लेकर चलती है, किन्तु तत्व को जान लेने के बाद स्वयं हो जाने पर ऊहापोहात्मक बुद्धि दूर हो जाती है। निश्चय और व्यवहार; इन दोनों नयों के द्वारा हेय और उपादेय तत्व का निर्णय कर लेने पर हेय का त्याग करके उपादेय तत्व में लगे रहना साधु, संतों को अभिष्ट है। सहज परमानंद स्वरूप समयसार का अनुभव करने वाला दोनों नयों के कथन को जानता अवश्य है, किन्तु वह किसी भी एक नय के पक्ष को स्वीकार नहीं करता, दोनों नयों के पक्षपात से दूर रहता है।
अध्यात्म भाषा में जिसे शुद्धात्मभावना कहते हैं और आगम भाषा में जिसे वीतराग सम्यक्त्व कहते हैं, उसके बिना जो व्रत दानादि किए जाते हैं, वे सब मुक्ति के कारण नहीं होकर मात्र पुण्यबंध के कारण होते हैं। वे व्रत, दानादि सम्यक्त्व सहित हों तो परम्परा से मुक्ति के कारण भी होते हैं।
‘‘मोत्तूण णिच्छयट्ठं ववहारेण विदुसा पवट्ठन्ति। निश्चय को छोड़कर बुद्धिमान लोग व्यवहार में प्रवर्तन नहीं करते, अपितु अपनी आत्मा में ही रमण करते रहते हैं; क्योंकि कर्मों का क्षय इसी से होता है, यह अध्यात्म शैली का कथन है, किन्तु आगम शैली कहती है कि व्यवहार में प्रवृत्त हुए बिना निश्चय का प्राप्त नहीं किया जा सकता। विद्वान् लोग व्यवहार मोक्षमार्ग (त्याग भाव) को स्वीकार करके उससे निश्चय मोक्षमार्ग को प्राप्त कर लेते हैं, किन्तु मन की चंचलता से यदि वह प्राप्त की हुई समाधि छूट भी जाय तो भी व्यवहार मोक्षमार्ग जो त्यागभाव है, उसे नहीं छोड़ते, उसमें लगे रहते हैं, ताकि उस त्याग भाव के बल से पुनः समाधि प्राप्त कर मुक्ति प्राप्त कर सकें।
‘‘निश्चयार्थं मुक्तवा व्यवहारे प्रवर्तन्ते ते न विद्वांसः‘‘ जो लोग निश्चय मोक्षमार्ग को न प्राप्त करके केवल व्यवहार मोक्षमार्ग में ही मगन रहते हैं, वे विद्वान् कहलाने के अधिकारी नहीं है।
अध्यात्म भाषा में समयसार में कहा गया है कि रागद्वेष और मोहरूप आस्रव भाव सम्यग्दृष्टि जीव के नहीं होते हैं अतः आस्रव भाव के न होने से (सम्यग्दृष्टि जीव के) नूतन कर्मबंध नहीं होता। यह सम्यग्दृष्टि अप्रमत्त दशा में सीचीन ध्यान की एकता होने पर सप्तमादि गुणस्थान अवस्था में हुआ करता है। उससे नीचे तो कुछ न कुछ हीनाधिक रूप में मोह बना ही हुआ करता है। उस समय वह कर्म कर्तृत्वपने से दूर नहीं रह सकता। छद्यस्थ के अप्रमत्तपन तो अधिक से अधिक एक साथ अन्तर्मुहूर्तकाल तक ही रह सकता है। यदि इस समय में इसने अपने मोहनीय कर्म को सत्ता में से उखाड़ फेंका, तब तो सदा के लिए सच्चिदानंद बना जाता है, नहीं तो फिर इसका उपयोग आत्मा से हटकर इतर वस्तुओं पर चल जाता है, ताकि रागभाव करके यह फिर से पूर्व की भाँति, नूतन कर्म बाँधने लगता है।
आगम भाषा मे तो सच्चे देव, शास्त्र, गुरु को श्रद्धान करना, तत्वार्थ श्रद्धान, आपा-पर का श्रद्धान तथा आत्मविनिश्चिति सम्यग्दर्शन के लक्षण में गर्भित है। इन सबका उद्देश्य भी यद्यपि राग, द्वेष, मोह छुड़ाता है, फिर भी अध्यात्म भाषा में राग, द्वेष, मोह को छोड़ने की बात तथा उसके आधार पर सम्यग्दृष्टि की बात सीधे कही गयी है।
आत्मोपलब्धि तीन प्रकार की है-
१ आगमिक आत्मोपलब्धि - गुरु की वाणी में आत्मा का स्वरूप सुनकर उस पर विश्वास ले आना; यह आगमिक आत्मोपलब्धि है।
२ मानसिक आत्मोपलब्धि - आत्मा के शुद्धस्वरूप को मन से स्वीकार करना अर्थात् मन को तदनुकूल परिणाम लेना; यह मानसिक आत्मोलब्धि है।
३ केवलात्मोपलब्धि - केवलज्ञान हो जाने पर प्रत्यक्ष रूप से आत्मा की प्राप्ति है, वह केवलात्मोपलब्धि है।उनमें से केवल आत्मोपलब्धि की बात तो अपूर्व है, वह तो परमात्मस्वरूप एवं ध्येय स्वरूप है ही, परंतु यहाँ पर शेष आत्मोपलब्धियों में से मानसिक आत्मोलब्धि की बात है। जहाँ पर श्रद्धा के साथ आचरण भी तदनुकूल होता है। जहाँ पर श्रद्धा के साथ-साथ मानसिक आत्मोपलब्धि के समय स्वयं में भी हर्ष विषादादि विकारभावों का का अभाव होता है, वहाँ शुभ या अशुभ किसी प्रकार के नूतन कर्मबंध का सद्भाव नहीं होता। इसी का अध्यात्म प्रकरण में संग्रहण है एवं उसी मानसिक आत्मोपलब्धि वाले को सम्यग्दृष्टि, ज्ञानी, निर्बन्ध आदि रूप में कहा गया है।जहाँ आगमिक आत्मोपलब्धि की बात है, वहाँ पर शुद्धात्मा के विषय का श्रद्धान तो होता है, किन्तु आचरण तदनुकूल न होकर उल्टा होता है अर्थात् उसे यह विश्वास तो है कि आत्मा का स्वरूप हर्ष, विषादादि करना नहीं है, किन्तु स्वयं हर्ष, विषादादि को कलए रहता है और करता रहता है। इस प्रकार कथनी और करनी वाली कहावत को चरितार्थ करने वाला होने से उसे अध्यात्म शैली में सम्यग्दृष्टि आदि न कहकर मिथ्यादृष्टि आदि कहा गया है। आगमिक लोग शुद्धात्मा की श्रद्धा मात्र से सम्यग्दृष्टिपना मानते हैं; क्योंकि उनकी विचारधारा यह है कि इसके शुद्धात्मा स्वरूप आचरण भले ही आज न हो, किन्तु शुद्धात्म की श्रद्धा तो इसके भी जगी है, अतः संग्रहकर्ता के रूप में यह भी सम्यग्दृष्टि ही है।
अध्यात्म की भाषा में शुद्धोपयोग की दशा में ध्यान, ध्याता, ध्येय का विकल्प नहीं रहता; ऐसा कहा जाता है। आगम भाषा मे इस एकाकार ध्यान को शुक्ल ध्यान कहते हैं।
जब काल आदि लब्धियों के वश में भव्यत्व शक्ति की अभिव्यक्ति होती है, त बवह जीव सहज, शुद्ध पारिणामिक भाव रूपी लक्षण को रखने वाली ऐसे निज परामत्मद्रव्य के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और और आचरण की पर्याय के रूप में परिणमन करता है, उसी ही परिणमान को आगम भाषा में औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक भाव; इन तीन नामों से कहा जाता है। वही अध्यात्म भाषा में शुद्ध आत्मा के अभिमुख परिणाम कहलाता है, जिसको शुद्धोपयोग इत्यादि पर्याय रूप नाम से कहते है। वह शुद्धोपयोग रूप पर्याय भी शुद्ध पारिणामिक भाव है लक्षण जिसका ऐसे शुद्धात्मद्रव्य से कथंचित् भिन्न रूप होती है; क्योंकि वह भावना रूप होती है, किन्तु शुद्ध पारिणामिक भाव भावना रूप नहीं होता है। यदि इस भावना रूप परिणाम को एकांत रूप से शुद्ध पारिणामिक भाव से अभिन्न ही मान लिया जाय तो मोक्ष का कारण भूत भावना रूप परिणाम का तो मोक्ष हो जाने पर नाश हो जाता है, तब उसके नाश हो जाने पर शुद्ध पारिणामिक भाव के विषय में जो भावना है, उस रूप जो औपशामिकादि तीन भाव है, सो रागादिक समस्त विकार भावों से रहित होने से शुद्ध उपादान के कारण रूप है, इसलिए मोक्ष के कारण होते हैं, किन्तु शुद्ध पारिणामिक भाव मोक्ष का कारण नहीं है। हाँ, जो शक्तिरूप मोक्ष है, वह तो शुद्ध पारिणामिक रूप से पहले से ही प्रवर्तमान है, किन्तु यहाँ पर तो व्यक्तिरूप मोक्ष का विचार चल रहा है। सिद्धांत में लिखा है कि ‘निष्क्रियः शुद्ध; पारिणामिकः‘ अर्थात् शुद्ध पारिणामिक भाव तो निष्क्रिय होता है। निष्क्रिय कहने का भी क्या अर्थ है कि रागादिमय परिणति वाली एवं बंध की कारणभूत क्रिया से रहित है तथा मोक्ष की कारणभूत जो क्रिया शुद्ध स्वरूप की भावनामय परिणति है, उससे भी रहित है। इससे भी जाना जाता है कि शुद्ध पारिणामिक भाव ध्येय रूप है, परंतु ध्यानरूप नहीं है, क्योंकि विनाशशील है। जैसा कि योगीन्द्रदेव ने अपने परमात्मप्रकाश में लिखा है-
अर्थात् - हे योगी ! सुन, परमार्थ दृष्टि से देखने पर यह जीव न तो उपजता है, न मरता है, न बंध ही करता है, न मोक्ष ही प्राप्त करता है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान कहते हैं।
तात्पर्य यह है कि विवक्षा मे ली हुई एकदेश शुद्धनय के आश्रित होने वाली भावना निर्विकार स्वसंवेदन ही हैै लक्षण जिसका; ऐसे क्षायोपशमिक ज्ञान से पृथकपने के कारण यद्यपि एकदेश व्यक्ति रूप है, फिर भी ध्यान करने वाला पुरुष यही भावना करता है कि जो सभी प्रकार के आवरणों से रहित अखंड एक प्रत्यक्ष प्रतिभासमय तथा नाशरहित और शुद्ध पारिणामिक लक्षण वाला निज परमात्मा द्रव्य है, वही मैं हूँ, अपितु खंड ज्ञानरूप मैं नहीं हूँ। यह सब व्याख्यान यहाँ परस्पर की अपेक्षा के लिए हुए जो आगम और अध्यात्म नय इन दोनों का विरोध नहीं करने से सिद्ध होता है।
सिद्धांत ग्रंथों में ज्ञान की परप्रकाशी, दर्शन को स्वप्रकाशी और आत्मा को स्व-पर प्रकाशी माना गया है। नियमसार, गाथा-१६४ में व्यवहार नय से ज्ञान, दर्शन तथा आत्मादि प्रकाशी तथा गाथा-१६५ में निश्चयमान से तीनों को आत्मप्रकाशी कहा गया है। न्याय ग्रंथों में दर्शन को स्व का सत्ता मात्र ग्राही, ज्ञान को स्व पर का विशेषांश प्रकाशी तथा आत्मा को स्व पर प्रकाशी माना है। सिद्धांत, अध्यात्म और न्याय ग्रंथ तीनों में अंतर होते हुए भी अपेक्षाकृत मानने से दोष नहीं है।
अध्यात्म की उपयोगिता- प्रवचनसार में कहा है- सूत्र, संयम और तप से संयुक्त होने पर भी यदि यह जीव जिनोक्त आत्मप्रधान पदार्थों का श्रद्धान नहीं करता तो वह श्रमण नहीं है। अध्यात्म में शुद्धोपयोगी की बड़ी महत्व है। शुद्ध को श्रामण्य कहा है। शुद्ध को दर्शन तथा ज्ञान कहा है, शुद्ध के निर्वाण होता है। वही सिद्ध होता है।
दर्शनविशुद्धि, विनय सम्पन्नता, शील और व्रतों का अतिचार रहित आचरण, निरंतर ज्ञान उपयोग, संवेग, शक्ति अनुसार त्याग, शक्ति अनुसार तप, साधु समाधि, वैयावृत्त करना, अर्हन्त भक्ति, आचार्य भक्ति, बहुश्रुत भक्ति, प्रवचन भक्ति, आवश्यकों में हानि न करना, मार्ग प्रभावना और प्रवचनवात्सल्य; ये १६ भावनायें तीर्थंकर प्रकृति के बंध के कारण है। तीन मूढ़ता, आठ मद, छः अनायतन और आठ शंका आदि दोष; ये २५ सम्यग्दर्शन के दोष हैं। परमागम भाषा मे २५ दोष रहित सम्यग्दर्शन और अध्यात्म भाषा से जिनशुद्ध आत्मा मे उपादेय रूप रुचि, इस प्रकार सम्यक्त्व की भावना ही मुख्य है। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि जो सर्वनयपक्षों से रहित कहा गया है वह समयसार है। इसी समयसार की ही केवल सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान ऐसी संज्ञा मिलती है। इसकी टीका में आचार्य अमृतचन्द्र जी ने कहा है-प्रथम श्रुतज्ञान के अवलम्बन से ज्ञान स्वभाव आत्मा को निश्चय करके फिर आत्मा की प्रगट प्रसिद्धि के लिए पर पदार्थ की प्रसिद्धि के कारण भूत इन्द्रियों द्वारा और मन के द्वारा प्रवर्तमान बुद्धियों को मर्यादा में लेकर जिसने मतिज्ञान तत्व को आत्मसन्मुख किया है; ऐसा तथा जो नाना प्रकार के नयपक्षों के अवलम्बन से होने वाले अनेक विकल्पों के द्वारा आकुलता उत्पन्न करने वाली श्रुतज्ञान की बुद्धियों को भी मर्यादा मे लाकर श्रुतज्ञान तत्व को भी आत्मसन्मुख करता हुआ अत्यंत विकल्प रहित होकर तत्काल निजरस से ही प्रगट होता हुआ यदि मध्य और अंत से रहित, अनाकुल, केवल एक संपूर्ण ही विश्व पर तैरता है, ऐसे अखंड प्रतिभासमय अनंत विज्ञान धन परमात्मा रूप समयसार का जब आत्मा अनुभव करता है, तब उसी समय आत्मा सम्यक्तया दिखाई देता है और ज्ञात होता है। इसलिए समयसार ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है।
आगम भाषा में जिसे काल लब्धि का आना कहते हैं, उसे अध्यात्म भाषा में निजात्मशुद्धतŸव की प्रतीति कहते हैं। आचार्य जिनसेन ने कहा है- जब यह जीव आगम भाषा के काललब्धि रूप और अध्यात्म भाषा से शुद्धात्माभिमुख परिणाम रूप स्वसंवेदन ज्ञान को प्राप्त होता है, तब सराग सम्यग्दृष्टि होकर पराश्रित धर्मध्यान ही बहिरंग सहकारी कारण रूप जो अनंत ज्ञानादि स्वरूप मैं हूँ, इत्यादि भावना स्वरूप आत्माश्रित धर्मध्यान को प्राप्त करके आगम कथित क्रम से शुक्लध्यान को करते हुए भावमोक्ष को प्राप्त करता है।
परामगम की दृष्टि से धर्मध्यान कषाय सहित जीवों को होता है और शुक्लध्यान कषायरहित जीवों को होता है, इस अपेक्षा से धर्मध्यान का अवस्थान चैथे से दसवें गुणस्थान तक होता है, किन्तु जहाँ तक अध्यात्म दृष्टि का संबंध है, वहाँ धर्मध्यान का अवस्थान चैथे से सातवें गुणस्थान तक होता है; क्योंकि यहाँ तक बुद्धिपूर्वक राग पाया जाता है और सातवें गुणस्थान से ऊपर शुक्लध्यान का प्रथम भेद प्रारंभ होता है; क्यांेकि वहाँ बुद्धिपूर्वक राग नहीं पाया जाता।
आचार्य जिनसेन के अनुसार जिसमें अभेद रत्नत्रय का प्रतिपादक अर्थ और पदार्थों का व्याख्यान किया जाता है, उसको अध्यात्मशास्त्र कहते हैं। वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत छः द्रव्यों आदि का सम्यक् श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान तथा व्रतादि के अनुष्ठान रूप रत्नत्रय के स्वरूप का जिसमें प्रतिपादन किया जाता है, उसे अध्यात्मशास्त्र कहते हैं।
पंडित जयचन्द्र जी ने कहा है-‘‘तहाँ सामान्य विशेषकरि सर्व पदार्थनि का निरूपण करिए है, सो आगम रूप बहुरि जहाँ एक आत्मा के ही आश्रय निरूपण करिए सो अध्यात्म है। पं. बनारसीदास जी परमार्थ वचनिका में कहते हैं-‘‘द्रव्य रूप तो पुदग्ल के परिणाम हैं और भावरूप पुद्गलाकार आत्मा की अशुद्ध परिणति रूप परिणाम है। यह दोनों परिणाम अगम रूप स्थापें। द्रव्य रूप तो जीवत्व (सामान्य) परिणाम है और भावरूप ज्ञान,दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनंतगुण (विशेष) परिणाम है। यह दोनों परिणाम अध्यात्म रूप जानना चाहिए।
प्रवचनसार में संसार और मोक्ष का स्वरूप
संसार -
आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार संसरण करते हुए (गोल फिरते हुए, परिवर्तित होते हुए) द्रव्य की क्रिया का नाम संसार है। संसार में स्वभाव से अवस्थित कोई नहीं है। जीव द्रव्यपने से अवस्थित होने पर भी पर्यायों से अनवस्थित है। उसमें मनुष्यादिक पर्यायें होती है। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जीव के साथ किस कारण पुद्गल का सम्बंध होता है, जिसमें उसकी मनुष्यादि पर्यायें होती हैं ? इसका उत्तर यह है कि कर्म से मलिन आत्मा कर्मसंयुक्त परिणाम को (द्रव्यकर्म के संयोग से होने वाले अशुद्ध परिणाम को) प्राप्त करता है, उससे कर्म चिपक जाता है, इसलिए संयुक्तता से ही परिणाम कर्म है। द्रव्यकर्म परिणाम का हेतु है; क्योंकि द्रव्यकर्म ही संयुक्तता से ही (अशुद्ध) परिणाम देखा जाता है।
प्रश्न - ऐसा होने से इतरेतराश्रय दोष आयेगा।
उत्तर - नहीं आएगा, क्योंकि अनादि सिद्ध द्रव्यकर्म के साथ सम्बद्ध आत्मा को जो पूर्व द्रव्यकर्म है, उसका वहाँ हेतु रूप से ग्रहण किया गया है।
पुद्ल पिण्डों को कर्म रूप करने वाला आत्मा नहीं है-
लोक चारों ओर सूक्ष्म और वादर तथा कर्मत्व के अयोग्य तथा योग्य पुद्गल स्कन्धों के द्वारा अवगाहित होकर गाढ भरा हुआ है। कर्मत्व योग्य स्कन्ध जीव की परिणति को प्राप्त करके कर्मभाव को प्राप्त होते हैं। जीव उनको नहीं परिणमता। कर्मरूप परिणत वे पुद्गल पिण्ड देहान्तर रूप परिवर्तन को प्राप्त करके पुनः जीव के शरीर होते हैं।
अमूर्तिक आत्मा का मूर्तिक पुद्गल के साथ बंध-
जैसे रूपादि रहित जीव रूपी द्रव्यों को और उनके गुणों को देखता है और जानता है, उसी प्रकार आत्मा का रूपी पुद्गलों के साथ बंध होता है।
भावबन्ध-
जो उपयोगमय जीव विविध विषयों को प्राप्त करके मोह करता है, राग करता है अथवा द्वेष करता है, वह जीव उन मोह, राग, द्वेष के द्वारा बंध रूप है।
द्रव्यबंध का निमित्त भावबंध-
आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि जीव जिस भाव से विषयगत पदार्थ को देखता और जानता है, उसी से उपरक्त होता है और उसी से कर्म बँधता है। इसी की व्याख्या करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं- ‘यह आत्मा साकार और निराकार प्रतिभास स्वरूप (ज्ञान और दर्शन स्वरूप) होने से प्रतिभास्य (प्रतिभासित होने योग्य) पदार्थ समूह केा जिस मोहरूप, रागरूप या द्वेषरूप भाव से देखता और जानता है, उसी से उपरक्त होता है। जो यह उपराग (विकार) है, वह वास्तव में स्निग्ध-रुक्षत्व स्थानीय भावबंध है और उसी से अवश्य पौद्गलिक कर्म बँधता है। इस प्रकार यह द्रव्यबंध का निमिŸा भावबंध है।
जब आत्मा रागद्वेष युक्त होता हुआ शुभ और अशुभ में परिणमित होता है, तब कर्मरज ज्ञानावरणादि रूप से उसमें प्रवेश करती है। इस विषय में आचार्य अमृतचन्द्र ने मेघजल का दृष्टांत दिया है। जब नया मेघजल भूमिसंयोग रूप परिणमित होता है, तब अन्य पुद्गल स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त हरियाली, कुकुमुŸाा और इन्द्रगोप (चातुर्मास में उत्पन्न लाल कीड़ा) आदि रूप परिणमित होता है, इसी प्रकार जब यह आत्मा रागद्वेष के वशीभूत होता हुआ शुभाशुभ रूप परिणमित होता है, तब अन्य योगद्वारों से प्रविष्ट होते हुए कर्म पुद्गल स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त ज्ञानावरणादि भावरूप परिणमित होते हैं। प्रदेशयुक्त यह आत्मा यथाकाल मोह, राग, द्वेष के द्वारा कषायित होने से कर्मरज से लिप्त या बद्ध होता हुआ बंध कहा गया है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि में कर्म भी दो प्रकार का होता है, एक वह कर्म जो आत्मा मंे होता है, जिसे जैनदर्शन मंे भावकर्म कहा जाता है, दूसरे द्रव्य कर्म जो पौद्गलिक होता है, जिसकी संयुक्तता से आत्मा मलिन होती है। वैशेषिक मत में कर्म एक स्वतंत्र पदार्थ है। जैनदर्शन मंे कर्म स्वतंत्र पदार्थ न होकर आत्मा का अशुद्ध परिणाम अथवा पुद्गल का विशेष परिणमन है, जिसे क्रमशः द्रव्यकर्म और भावकर्म कहा जाता है। वैशेषिक दर्शन में कर्म केवल मूर्त द्रव्यों में ही रहता है। वैशेषिकों के अनुसार-आत्मा व्यापक है, अतः इसमें कर्म नहीं होता। जैनदर्शन में भावकर्म आत्मा में होता है और द्रव्यकर्म भी आत्मा के प्रदेशों में एक क्षेत्रावगाह रहता है। अतः कंथचित् वह आत्मा का कहा जाता है। वैशेषिक दर्शन में कर्म और क्रिया दोनों को एक माना गया है, इसीलिए वहाँ कर्म पाँच प्रकार के बतलाए गए हैं- १ उत्क्षेपण, २ आक्षेपण ३. आकुंचन ४. प्रसारण और ५. गमन। जैनदर्शन में क्रिया चाहे वह स्वप्रत्ययक हो अथवा परप्रत्ययक हो, प्रत्येक द्रव्य में पाई जाती है, क्यांेकि वहाँ प्रत्येक द्रव्य को उत्पाद, व्यय, ध्रौव्ययुक्त माना गया है, जब कि कर्म या ता आत्मा का (वैभाविक) परिणाम होता है, अथवा पौद्गलिक कर्म होता है अन्य किसी प्रकार का कर्म नहीं होता है। वेदांत दर्शन में यद्यपि निष्पंद ब्रह्म में मायोपाधिक आद्यस्पंद या हलचल कर्म माना गया है, किन्तु उस माया को वे मिथ्या मानते हैं, जैनधर्म उसे सर्वथा मिथ्या नहीं मानता है। वेदांत ब्रह्म को स्थितिमय और सृष्टि को गत्यात्मक मानता है। जैन धर्म सब पदार्थों को स्थितिमय और गतिमय (उत्पाद-व्ययमय) मानता है।
सांख्यदर्शन में सृष्टिनिर्माण के सम्बंध में मुख्यता प्रकृति की है; क्योंकि पुरुष कर्त्ता नहीं है, वह निष्क्रिय है, कर्ता स्वयं प्रकृति है। इसलिए परिणमन भी प्रकृति में होता है। कारण यह है कि पुरुष निष्क्रिय है और प्रकृति सक्रिय। जैनदर्शन में संसार का कारण आत्मा और कर्म पुद्गल दोनों है; क्यांेकि आत्मा राग-द्वेष करता है, उससे कर्म पुद्गल आकृष्ट होते हैं, कर्म पुद्गलों के निमित्त से जीव राग-द्वेष करता है, इस प्रकार का चक्र निरंतर चलता रहता है। पुरुष अर्थात् आत्मा भी कंथचित् कर्त्ता है और कर्म पुद्गल भी कंथचित् कर्त्ता है। पुरुष या आत्मा सर्वथा निष्क्रिय नहीं है। जड़ और चेतन दोनों में परिणमन होता है। सांख्यदर्शन में पुरुष को बन्ध नहीं होता है, जैनदर्शन में संसारी अवस्था में पुरुष का बंध होता है; क्योंकि जिसका बंध होता है, उसी का मोक्ष होना युक्ति युक्त ठहरता है। सांख्यदर्शन में शुभ अशुभ, सुख-दुःख प्रकृति के धर्म है। जैनदर्शन के अनुसार ये संसारी आत्मा के होते हैं और इनके होने में कथंचित् प्रकृति या कर्म निमित्त है। सांख्यदर्शन मे पुरुषकर्त्ता नहीं भोक्ता है। जैनदर्शन में पुरुषकर्त्ता भी है और भोक्ता भी है। करे कोई दूसरा और फल भोगे दूसरा, ऐसा जिनागम में नहीं है। सांख्य आत्मा को ज्ञानमय न मानकर ज्ञान को प्रकृति का धर्म कहता है। जैनदर्शन ज्ञान को आत्मा का धर्म कहता है।
बंध के निरूपक दो नय-
राग परिणाम ही आत्मा का कर्म है, वही पुण्य पाप रूप द्वैत है, आत्मा राग परिणाम का ही कर्त्ता है, उसी का ग्रहण करने वाला है और उसी का त्याग करने वाला है, यह शुद्ध द्रव्य का निरूपण स्वरूप निश्चयनय है और जो पुद्गल परिणाम आत्मा का कर्म है, वही पुण्य-पाप रूप द्वैत है। आत्मा पुद्गल परिणाम का कर्त्ता है, उसका ग्रहण करने वाला और छोड़ने वाला है-ऐसा अशुद्ध द्रव्य के निरूपण स्वरूप व्यवहार कर्म है। द्रव्य की प्रतीति शुद्ध रूप और अशुद्ध रूप दोनों प्रकार से की जाती है। निश्चयनय यहाँ साधकतम है, अतः उसका ग्रहण किया गया है। साध्य के शुद्ध होने से द्रव्य के शुद्धत्व का द्योतक होने से निश्चयनय ही साधकता है, अशुद्धता का द्योतक व्यवहारनय साधकतक नहीं है।
जीव की शुभ, अशुभ और अशुद्ध अवस्थायें-
जीव परिणाम स्वभावी होने से जब शुभ या अशुभ भावरूप परिणमन करता है, तब शुभ या अशुभ स्वयं ही होता है और जब शुद्ध भावरूप परिणमित होता है, तब शुद्ध होता है। धर्म से परिणमित स्वरूप वाला यदि शुद्ध उपयोग में युक्त हो तो मोक्षसुख को प्राप्त करता है और यदि शुभोपयोग वाला हो तो स्वर्ग के सुख को प्राप्त करता है। अशुभ उदय से आत्मा कुमनुष्य, तिर्यंच और नारकी होकर हजारों दुःखों से सदा पीडि़त हुआ संसार में भ्रमण करता है।
बौद्धदर्शन में दुःख का कारण तृष्णा बतलाई गई है। मनुष्य को जहाँ सुख एवं आनंद मिलता है, वहाँ ही उसकी प्रवृत्ति होती है। उसकी यह अधिक प्रवृत्ति या चाह ही तृष्णा कहलाती है। यह तृष्णा ही पुनः उत्पन्न कराती है, अर्थात् तृष्णा पौनर्भाविकी है। नन्दि और राग से सहमत है। जहाँ जहाँ सत्त्व उत्पन्न होते हैं, वहाँ वहाँ तृष्णा अभिनंदन करती, कराती है, अतएव तृष्णा पौनर्भविकी नन्दिराग सहगत और तत्रतत्राभिनन्दिनी कही गई है। कुन्दकुन्द ने भी दुःख का मूल कारण रागद्वेषादिक परणिति को कहा है। राग, द्वेष तथा मोह तृष्णा के ही रूप है। बौद्धदर्शन के अनुसार पंचेन्द्रिय और उनके विषय जो कि प्रिय, मनोज्ञ एवं आनंदकर हैं, तृष्णा से उत्पन्न होते हैं। सत्त्व इनमें आसक्त हो इन्हंे ही सुखरूप मानकर उनमें ही आनंद लेते हैं, जिससे तृष्णा बढ़ती ही जाती है। तृष्णा से उपादान, भव, जाति, जरा मरण आदि दुःख उठ जाते हैं। तृष्णा से उपादान, भव, जाति, जरा मरण आदि दुःख उठ जाते हैं। जैनदर्शन में भी शरीर तथा इन्द्रियों की निर्मिति के कारण जीव के द्रव्य और भावकर्म है। इनमें भावकर्माें का मूल कारण तृष्णा या राग-द्वेष तथा मोह है। इससे ही उपादान अर्थात् आस्रव और बंध होते हैं तथा उससे भव तथा जन्म, जरा, मरण आदि दुःख होते हैं।
जैनदर्शन के अनुसार यदि आत्मा स्वयं स्वभाव से शुभ या अशुभ नहीं होता (शुभाशुभ भाव में परिणमित ही नहीं होता) तो समस्त जीवतिकायों के संसार भ विद्यमान नहीं है, ऐसा सिद्ध होगा।
शंका: संसार का अभाव तो सांख्यों के लिए दूषण नहीं, किन्तु भूषण ही है।
समाधान: ऐसा नहीं है। संसार का अभाव ही मोक्ष कहा जाता है।
वह मोक्ष संसारी जीवों के नहीं दिखायी देता है। यदि संसारी जीवों के भी मोक्ष मानो तो प्रत्यक्ष से विरोध हो जायेगा।
शुद्धोपयोग का अधिकारी-
जिन्होंने पदार्थों को और सूत्रों को भली-भाँति जान लिया है, जो संयम और तप से युक्त है, जो वीतराग है तथा जिन्हें सुख और दुःख समान हैं, ऐसे श्रमण को शुद्धोपयोगी कहा है।
शुद्धोपयोगी की अवस्था-
जो शुद्धोपयोगी है, वह आत्मा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और मोहरूप रज से रहित स्वयमेव होता हुआ ज्ञेय-भूत पदार्थों के पर को सर्वलोक के अधिपतियों से पूजित स्वयमेव हुआ होने से स्वयम्भू है। शुद्धोपयोग से निष्पन्न हुए आत्माओं का सुख अतिशय, आत्मोत्पन्न, विषयातीत, अनुपम, अनंत और अविच्छिन्न है। तात्पर्य यह कि-
१ अनादि संसार से जो पहले कभी अनुभव में नहीं आया ऐसे अपूर्व परम अद्भुत आल्ह्द रूप होने से अतिशय।
२ आत्मा की आश्रय लेकर (स्वीकृत) प्रवर्तमान होने से आत्मोत्पन्न।
३ पराश्रय से निरपेक्ष होने से विषयातीत।
४ अत्यंत विलक्षण होने से अनुपम।
५ समस्त आगामी काल में कभी भी नाश को प्राप्त न होने से अनंत।
६ बिना ही अन्तर के प्रवर्तमान होने से अविच्छिन्न सुख शुद्धोपयोग से निष्पन्न हुआ आत्माओं के होता है, इसलिए वह सुख वांछनीय है।
केवलज्ञानी अबंधक है-
केवलज्ञानी अबंधक पदार्थों को जानता हुआ भी उस रूप परिणमित नहीं होता, उन्हें ग्रहण नहीं करता और उन पदार्थों के रूप में उत्पन्न नहीं होता है, इसीलिए उसे अबंधक कहा गया है।
जहाँ तक इन्द्रियाँ हैं, वहाँ तक स्वभाव से ही दुःख है-
जिन्हें विषयों में रति है, उन्हें स्वभाविक दुःख है। यदि वह दुःख स्वाभाविक न हो तो विषयार्थ में व्यापार न हो। तात्पर्य यह है कि जिनकी इन्द्रियाँ जीवित हैं, उन्हें उपाधि के कारण दुःख नहीं है, किन्तु स्वाभाविक ही है; क्योंकि उनकी विषयों में रति देखी जाती है। जैसे हाथी हथिनी रूपी कुट्ठिनी के शरीर स्पर्श की ओर, मछली बंसी में फँसे हुए मादा के खाद की ओर, भ्रमर बंद हो जाने वाले कमल की गंध की ओर, पतंगा दीपक की ज्योति के रूप की ओर और हिरण शिकारी के संगीत केे स्वर की ओर दौड़ते दिखाई देते हैं, उसी प्रकार दुर्निवार इन्द्रियवेदना के वशीभूत हुए वे यद्यपि विषयों का नाश अतिनिकट है, तथापि विषयों की ओर दौड़ते दिखाई देते हैं। यदि उनका दुःख स्वाभाविक न हो तो जैसे जिसका शीत ज्वर उपशांत हो गया है, वह पसीना आने के लिए उपचार करता तथा जिसका दाह व ज्वर उतर गया है, वह कांजी से शरीर के ताप को उतारता तथा जिसकी आँखों का दुःख दूर हो गया है, वह वटाचूर्ण (शंख इत्यादि का चूर्ण) आँगता तथा जिसका कर्णशूल नष्ट हो गया है वह कान में फिर बकरे का मूत्र डालता दिखाई नहीं देता। इसी प्रकार विषय व्यापार देखने में नहीं आना चाहिए, किन्तु उनके वह विषयप्रवृत्ति देखी जाती है, अतः सिद्ध है कि जिनके इन्द्रियाँ जीवित हैं, ऐसे परोक्षज्ञानियों को दुःख स्वाभाविक है।
बौद्धदर्शन में कहा गया है कि वेदना तृष्णा का कारण है। तब अर्हत् को वेदना होने से उसे तृष्णा होगी। अर्हत् भी इस प्रकार तृष्णावान् कहलाएगा। परंतु ऐसा नहीं कहा जा सकता। क्योंकि तृष्णा का बीज प्रतिपक्ष विशेष के होने से ही उद्धत होता है। अर्हत् को वेदना के रहने पर भी अविद्या बीज के अभाव में तृष्णा की उत्पत्ति नहीं होती। जैनदर्शन में भी अर्हन्तावस्था में वेदनीय कर्म का सद्भाव बतलाया गया है, किन्तु मोह (तृष्णा) कर्म के अभाव के कारण वह वेदनीय कर्म कुछ भी फल देने में समर्थ नहीं हो पाता है। अविद्या अथवा मिथ्यात्व के अभाव के कारण मोक्ष नहीं रहता है।
आत्मा ही सुख-दुःख रूप होती है, देह नहीं-
स्पर्शनादिक इन्द्रियाँ जिनका आश्रय लेती हैं, ऐसे इष्ट विषयों को पाकर (अपने शुद्ध) स्वभाव से परिणमन करता हुआ आत्मा स्वयं ही सुखरूप होता है, देह सुख रूप नहीं होती। एकांत से अर्थात् नियम से स्वर्ग मंे भी शरीर शरीरी (आत्मा) को सुख नहीं देता, परंतु विषयों के वश से सुख अथवा दुःख रूप स्वयं आत्मा होता है। यदि प्राणी की दृष्टि तिमिर नाशक हो तो दीपक से कोई प्रयोजन नहीं है अर्थात् दीपक कुछ नहीं कर सकता, उसी प्रकार जहाँ आत्मा स्वयं सुखरूप परिणमन करता है, वहाँ विषय क्या कर सकते हैं।
इन्द्रिय सुख दुःख ही है-
जो इन्द्रियों से प्राप्त होता है, वह सुख परसम्बंध युक्त, बाधा सहित, विच्छिन्न, बंध का कारण और विषम है, इस प्रकार वह दुःख ही है। तात्पर्य यह कि इन्द्रिय सुख को परद्रव्य की अपेक्षा होती है। पारमार्थिक सुख परद्रव्य से निरपेक्ष आत्माधीन होता है। तीव्र क्षुधा, तृष्णा आदि अनेक बाधाओं सहित होने के कारण इन्द्रिय सुख बाधासहित है। निजात्मसुख पूर्वोक्त समस्त बाधाओं से रहित होने के कारण अव्याबाध है। इन्द्रिय सुख प्रतिपक्षभूत असातावेदनीय कर्म के उदय से विच्छिन्न होता है, इसके विपरीत अतीन्द्रिय सुख प्रतिपक्षभूत असातावेदनीय कर्म के अभाव से निरंतर होता है। दृष्ट, श्रुत और अनुभूत भोगाकंाछा प्रभृति अनेक अपध्यान के वश से भावी नरक दुःखों के उत्पादक कर्म बंध का उत्पादक होने से इन्द्रिय सुख बंध का कारण है, अतीन्द्रिय सुख समस्त बुरे ध्यानांे से रहित होने के कारण बंध का कारण नहीं है। इन्द्रियसुख में परमशांति नहीं रहती अथवा उसमें हानि-वृद्धि होती रहती है, अतः वह विषम है। अतीन्द्रियसुख परमतृप्तिकर तथा हानि और वृद्धि से रहित है। इस प्रकार इन्द्रियों से लब्ध संसार सुख-दुःख रूप ही है।
देहोत्पन्न दुःख का क्षय-
वस्तु स्वरूप को जानकर जो द्रव्यों के प्रति राग या द्वेष को प्राप्त नहीं होता, वह उपयोग विशुद्ध हुआ देहोत्पन्न दुःख का क्षय करता है। पापारम्भ को छोड़कर शुभचारित्र में उद्यत होने पर भी यदि जीव मोहादि को नहीं छोड़ता तो वह शुद्धात्मा को प्राप्त नहीं होता है।
आत्मज्ञान का उपाय-
जो अरहंत को द्रव्यपने, गुणपने और पर्यायपने से जानता है, वह आत्मा को जानता है और उसका मोह अवश्य क्षय को प्राप्त होता है। जिसने मोह दूर किया है और आत्मा के सम्यक् तŸव को प्राप्त किया है, ऐसा जीव यदि राग, द्वेष को छोड़ता है तो वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त करता है।
राग-द्वेष तथा मोह क्षय करने योग्य क्यों है ?
मोहरूप, रागरूप अथवा द्वेषरूप परिणमित जीव क विविध बंध होता है, इसलिए वे सम्पूर्णतया क्षय करने योग्य है।
सांख्यदर्शन में माने गए सत्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुण प्रीति, अप्रीति तथा विषादात्मक है। तत्वकौमुदीकार ने प्रीति का अर्थ सुख, अप्रीति का अर्थ दुःख तथा विषाद का अर्थ मोह किया है। ये तीनों जैनदर्शन मंे कहे हुए राग, द्वेष, मोह ही हंै। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार राग, द्वेष और मोह सम्यग्दृष्टि के नहीं है। इसीलिए आस्रवभाव के बिना द्रव्यप्रत्यय कर्मबंध के कारण नहीं है। तात्पर्य यह है कि सम्यग्दृष्टि के राग,द्वेष, मोह नहीं है, क्योंकि राग,द्वेष, मोह के अभाव में सम्यग्दृष्टि नहीं बन सकता। राग,द्वेष, मोह के अभाव से उस सम्यग्दृष्टि के द्रव्यास्रव पुद्गल कर्म के बँधने का कारण नहीं बन सकते, क्योंकि द्रव्यास्रव के पुद्गल कर्म बँधने के कारणपने का कारणपना रागादिक ही है, इसलिए कारण के कारण का अभाव प्रसिद्ध है, इस कारण ज्ञानी के बंध नहीं है। उपर्युक्त राग-द्वेष तथा मोह सांख्य के अनुसार प्रकृति के धर्म है तथा जैनदर्शन मंे इनका कारण प्रकृति को ही कहा गया है।
मोह के चिन्ह-
पदार्थों का अन्यथा ग्रहण, तिर्यंच-मनुष्यों के प्रति करुणाभाव तथा विषयों की संगति यह सब मोह के चिन्ह हैं। शुद्धात्मा की उपलब्धि लक्षण परम उपेक्षा संयम से विपरीत दयापरिणाम करुणाभाव है। अथवा व्यवहार से यहाँ करुणा का अभाव ग्रहण किया जा सकता है। ये सब दर्शनमोह के चिन्ह है। निर्विषय सुखास्वाद से रहित बहिरात्मा जीवों के मनोज्ञ और अमनोज्ञ विषयों मंे जो प्रकृष्टता से संसर्ग है, उसे देखकर प्रीति और अप्रीति रूप लिंगों से चारित्रमोह नाम वाले राग-द्वेष जाने जाते हैं। उक्त जानकारी के अनंतर ही निर्विकार स्वशुद्ध भावना से राग,द्वेष, मोह नष्ट करना चाहिए।
मोहक्षय के उपाय-
प्रवचनसार में मोहक्षय के निम्नलिखित उपाय बतलाए गए हैं-
१ जिनशास्त्र का अध्ययन: जिनशास्त्र द्वारा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से पदार्थों को जानने वाले के नियम से मोह का समूह क्षय हो जाता है, इसलिए शास्त्र का सम्यक् प्रकार से अध्ययन करना चाहिए। तात्पर्य यह कि वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत शास्त्र से कोई भव्य ‘एक शाश्वत आत्मा ही मेरा है‘, इत्यादि परामात्मा के उपदेशक श्रुतज्ञान के द्वारा आत्मा को जानता है, तदनंतर विविध अभ्यास के वश परम समाधिकाल में समाधि विकल्प से रहित मानस प्रत्यक्ष से उसी आत्मा की जानकारी करता है अथवा उसी प्रकार अनुमान से जानकारी करता है। जैसे कि ‘इसी देह में निश्चयनय से शुद्ध, बुद्ध एक स्वभाव वाला परामात्मा है, क्योंकि निर्विकार स्वसंवेदन प्रत्यक्ष हो रहा है, जैसे कि सुखादि का प्रत्यक्ष होता है। इसी प्रकार अन्य भी पदार्थ यथासंभव आगम के अभ्यास के बल से उत्पन्न प्रत्यक्ष अथवा अनुमान से जाने जाते है। अतः मोक्षार्थी भव्य को आगम का अभ्यास करना चाहिए। जो जिनेन्द्र के उपदेश को प्राप्त करके मोह, राग तथा द्वेष हनता है, वह अल्पकाल में समस्त दुःखों से छूट जाता है।
२. स्वपर विवेक: यदि आत्मा अपनी निर्मोहता चाहता हो तो जिनमार्ग से गुणों के द्वारा द्रव्यों मंे स्व और पर को जाने। अर्थात् जिनागम द्वारा ऐसा विवेक करना चाहिए कि अनंत द्रव्यों में से यह स्व है और यह पर है।
निर्वाण की सम्प्राप्ति-
प्रवचनसार की आरम्भिक गाथाओं में पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करके उनके विशुद्ध दर्शन ज्ञान प्रधान आश्रम की प्राप्ति के अनंतर साम्य भाव की प्राप्ति बतलाई है। तथा साम्यभाव से मोक्ष की प्राप्ति प्रतिपादित की गई है। आचार्य अमृतचन्द्र ने यहाँ ‘सम्मं‘ का अर्थ चारित्र मानकर उसके वीतराग और सराग देा भेद किए हैं तथा वीतराग चारित्र की प्राप्ति मुख्य ध्येय बतलाया है। वे कहते हैं कि सम्यग्दर्शन सम्पन्न होकर जिसमें कषायकण विद्यमान होने से जीव को जो पुण्यबंध की प्राप्ति का कारण है, ऐसे सरागचारित्र को प्राप्त करता है। उस सराग चारित्र के क्रम से आ पड़ने वर भी दूर उल्लंघन करके जो समस्त कषाय क्लेश रूपी कलंक से भिन्न होने से निर्वाण प्राप्ति का कारण है, ऐसे वीतरागचारित्र को प्राप्त करता है। आचार्य जयसेन ने सम्मं का अर्थ चारित्र ही किया है। इसी बात को आचार्य कुन्दकुन्द ने इस रूप में वर्णित किया है कि चारित्र धर्म और जो धर्म है, वह साम्य है तथा साम्य मोह और क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम है। तात्पर्य यह कि धर्म, चारित्र और साम्य ये तीनों शब्द एक ही अर्थ को व्यक्त करते हैं। द्रव्य जिस समय जिस भाव से परिणमन करता है, उस समय उसमय है। इसलिए धर्म परिणत आत्मा को धर्म समझना चाहिए। इस धर्म (चारित्र अथवा साम्यभाव) से ही निर्वाण की प्राप्ति होती है।
संदर्भ-
१ संसारो पुण किरिया संसरमाणस्स दव्यस्स- प्रवचनसार-१२॰