शान्तप्रकाश " सत्यदास"
इस लिये कि जो वितराग है-राग रहित है - मोहरहित है, वही निष्पक्ष रह सकता है । मोह के कारण ही मनुष्य पक्षपात करता है । जो पक्षपाती है, उससे न्याय की आशा नहीं की जा सकती। इस लिए निष्पक्ष न्यायप्रेमी बनने के लिए यह जरूरी है कि सब प्रकार का मोह छोड कर मनुष्य वीतराग बने । मोह दो प्रकार का होता है-स्वत्वमोह और कालमोह।
अपनी होने से ही कोई वस्तु सच्ची नहीं हो जाती और न पराई होने से ही कोई वस्तु झूठी हो जाती है। अपनापन सत्य की पहिचान नहीं हैं । अमुफ वस्तु अपनी है, इसलिये सच्ची है-यह स्वत्वमोह की आवाज है; किन्तु अमुक वस्तु सच्ची है, इसलिए अपनी है यह आवाज विवेक की है।
अपनी होने से कोई वस्तु हमें प्यारी तो हो सकती है, किन्तु वह सबके लिये अच्छी है ऐसा दावा वह नहीं कर सकता, जो सम्यग्दृष्टि है । अपनी माँ हमारे लिए कितनी भी प्यारी और पूज्य हो, किन्तु केवल इसीलिए क्या हम ऐसा दावा कर सकते हैं कि वह सब लोगों के लिए उतनी ही प्यारी और पूज्य है ?
सूत्रों के अनुसार मालूम होता है, कि अपने बड़े भाई नन्दीवर्द्धन की बात मानकर वर्द्धमानकुमार ने महाभिनिष्क्रमण जसे पवित्र विचार को भी दो वर्ष के लिए स्थगित कर दिया था । इस घटना के आधार पर वर्द्धमान स्वामी ऐसा तो कह सकते हैं-कि जैसे मैंने बड़े भाई की बात मान ली है, उसी प्रकार सब लोग अपने -अपने बड़े भाई की बात माना करें।
परन्तु उन्होंने कभी ऐसा नहीं कहा और न कह भी सकते थे-कि मैंने जैसे नन्दीवर्द्धन की बात मानी है, उसी प्रकार सब लोग नन्दीवर्द्धन की बात माना करें, क्यों कि वे मेरे बड़े भाई हैं !
सम्यग्दष्टि को सत्य का ही आग्रह होता है, अपनेपन का नहीं । उसकी नजर सम्यक् पर होती है अपनेपन पर नहीं । . सम्यग्टएि कभी ऐसा नहीं कह सकता कि जैनधर्म मेरा है, इसलिए सच्चा है ! किन्तु यह सिर्फ यही कहेगा या उसे यही कहना चाहिए कि जैनधर्म सखा है, . इसलिए मेरा है !
चौकिये नहीं, जैनधर्म की बात तो एक उदाहरण के रूप में कह गया हूँ, किन्तु आज दुनियाभर के सारे सम्प्रदाय अपने अपने मजहब को ही सच्चा समझते हैं और दूसरों को झुठा ! इसके लिए अनानी, मिथ्यात्वी, म्लेच्छ, काफिर और नास्तिक जैसे शब्द भी बना रक्खे हैं उन्होंने । यह सब एकान्त-दृष्टि है । वीतराग की बताई हुई भनेकान्तदृष्टि उन सब का समन्वय करने के ही लिए है !
एकान्तदृष्टियों के दुराग्रह के कारण ही धार्मिक दृष्टि से भी आज मानवसमाज की चिन्दियाँ चिन्दियाँ हो गई है । सब प्रकार के साम्प्रदायिक संघर्ष के मूल में उसी स्वत्वमोह की गर्जना है !
स्वत्वमोह के विजेता वीतराग वर्द्धमानस्वामी ने आज के तथाकथित जैनसमाज के ही लिए धर्मप्रवचन नहीं किया था, किन्तुः-
“सबजगजीवरक्खदयट्टयाए भगवया पावयणं सुकहियं ।'
(जगत् के सभी जीवों की रक्षारूप दया के लिए भगवान ने प्रवचन कहा है।) इसीलिये तो कहा जाता है, कि उनके समवसरण में मनुष्य ही नहीं, पशुपक्षी भी आकर उपदेश सुना करते थे ।
कालमोह दो प्रकार का है- प्राचीनत्वमोह और अर्वाचीनत्वमोह ।
जैसे अपनापन सत्य की पहिचान नहीं है, वैसे ही नयापन या पुरानापन भी सत्य की पहिचान नहीं है । अमुक वस्तु पुरानी है, इसलिए अच्छी है अथवा अमुक वस्तु नई है, इसलिये अच्छी है- यह कालमोह की आवाज है, किन्तु अमुक वस्तु सच्ची है, इसलिए अच्छी है यह विवेक को वाणी है । महाकवि कालिदास के शब्दों में:-
पुराणमित्येव न साधु सर्वम् न साधु सर्वम् नवमित्यवद्यम् । सन्तः परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते मूढः परप्रत्यय - नेहबुद्धिः ॥
[न सव पुराना होने से ही अच्छा माना जा सकता है और न सब नया होने से ही । सज्जन परीक्षा करके जो ठीक मालूम होता है, उसी को ग्रहण करते है (फिर भले ही वह नया हो या पुराना ) दूसरों के विश्वास पर चलने वाले तो मूढ हैं । ]
सचमुच विवेकी मनुष्य नयेपन या पुरानेपन का आग्रही नहीं, सत्याग्रही होता है। वह समझता है कि नई या पुरानी होने से ही कोई वस्तु उपादेय नहीं हो जाती, किन्तु केवल सच्ची होने से ही उपादेय होती है।
विद्वान् बनाने का ध्येय एक-सा होते हुए भी जैसे सभी कक्षाओं का पाठयक्रम अलग - अलग होता है, वैसे ही जगत् कल्याण का ध्येय एक - सा होने पर भी द्रव्य -क्षेत्र काल और भाव के अनुसार सत्य के बाह्य रूपों में भिन्नता हो जाती है । किन्तु सम्मग्दृष्टि उन सभी भिन्नताओं के भीतर छिपी हुई ध्येयरूप एकता को देखता है-उसकी नजर माला के भीतर छिपे हुए एक धागे की ओर होती है कि जिस पर भिन्न मणियाँ पिरोई रहती हैं।
कालमोह के विजेता वीतराग वर्धमान स्वामी ने अर्वाचीन होने से ही "चतुर्याम" को उपादेम नहीं मान लिया, और चतुर्याम की अपेक्षा प्राचीन होने से ही "पंचमहाव्रत" को अनुपादेय नहीं माना ! दूसरी ओर पुराने होने से ही चार वेदों को प्रामाणिक नहीं मान लिया और न बौद्ध आदि दर्शनों की मान्यताएँ नई होने से ही उन्हें प्रामाणिक माना ! उनकी नज़र केवल सत्य पर थीकेवलशान पर थी, इसीलिए के केवलझानी कहलाये।
कहने का आशय यह है कि स्वत्वमोह और कालमोह से ऊपर उठने वाला ही वीतराग है। जो वीतराग है, वही सब के कल्याण के लिए निर्मयतापूर्वक निष्पक्ष सत्य-विचार कह सकता है। इसी लिये वह आराध्य-देव है।
वीतराग-देवों की आराधना या उपासना केवल इसीलिए की जाती है, कि जिससे हमें भी उन्हीं के समान वीतराग बनते का प्रयत्न करने की प्रेरणा मिलती रहे ! इति शम् ॥