भारतीय संस्कृति अध्यात्मप्रधान होने के कारण यहाँ प्रत्येक पर्वकी अपनी-अपनी कुछ विशेषता है और उन पर्वोका सम्बन्ध किसी-न-किसी महापुरुषसे हैं, जो विश्वको कुछ देता है । तात्पर्य यह कि भारतीय पर्व प्रायः महापुरुषोंसे सम्बन्धित हैं और वे उनकी स्मृतिमें स्थापित हुए हैं।
यहाँ पर्वो से हमारा अभिप्राय विशेषतया नैतिक एवं धार्मिक पर्वोसे है। यों तो रौढिक और सामाजिक पर्वोकी भारतवर्ष में और प्रत्येक जातिमें कमी नहीं है। इनमें कितने ही परम्परागत है और जिन्हें जनसमुदाय आज भी अपनाये हुए है । पर उनमें कितना तथ्यांश है, यह कह सकना कठिन है । एक परीक्षक बुद्धि अवश्य उनकी सचाई या असचाईको आंक सकती है । यह अवश्य है कि इन पर्वोसे लोगोंको मनोविनोद और इन्द्रियपोषणकी सामग्री सहजरूपमें मिल जाती है । किन्तु उनसे न विवेक जागृत होता है और न आध्यात्मिकता जगती है, जो जीवनको उन्नत और वास्तविक सुखी बनानेके लिए आवश्यक हैं।
पर जिन पर्वोके बारे में हम यहाँ चर्चा कर रहे हैं वे हैं धार्मिक और नैतिक पर्व । इन पर्वोसे अवश्य हमारा विवेक जागृत होता है, चेतना जागती है और हम गलत मार्गसे सही मार्गपर आ जाते हैं । इन पर्वोसे अध्यात्मप्रेमियोंको नीति, धर्म और अध्यात्मकी शिक्षा मिलती है। किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि कितने लोग इस सांचे में ढलते हैं और निश्छल भावसे अपनेको आध्यात्मिक बनाते हैं । प्रायः देखा जाता है कि इन धार्मिक एवं नैतिक पर्वोके अवसर पर, जब उनसे पूरी धार्मिकता सीखनी चाहिए, मनो-विनोद और अप्रत्यक्षतः इन्द्रियपोषणके आयोजन किये जाते हैं। लगता है कि हमारी मनोदशा उत्तरोत्तर ऐसी होती जा रही कि भोगोंका त्याग भी न करना पड़े और धर्म एवं नीतिका पालन भी हो जाये। इस प्रसंगमें पाहुडदोहाकारका निम्र वचन याद आ जाता है-
वेपंथेहि ण गम्मई वेमुहसूई ण सिज्जए कंथा। विणि ण हंति अयाणा इंदियसोक्खं च मोक्खं च ।।
-पा० दो० २१३ ।
'दो रास्तोंसे जाना नहीं होता, दो मुखोंसे सुई कथरी नहीं सीती। हे अजान ! इसी तरह ये दो कार्य नहीं हो सकते कि इन्द्रियसुख भी प्राप्त हो और मोक्ष भी मिल जाय । इनमें से प्रथम मार्गपर चलनेसे संसार होगा और दूसरे मार्ग ( भोगत्याग ) से मोक्ष प्राप्त होगा।' हिन्दीके एक विद्वान् कविने भी यही कहा है-
दो-मुख सुई न सीवे कथा, दो-मुख पंथी चले न पंथा । यों दो काज न होंय सयाने, विषय-भोग अरु मोक्ष पयाने ।।
धार्मिक एवं नैतिक पर्वोका सम्बन्ध जिन महापुरुषोंसे है, वास्तवमें उनके सन्देशों, उपदेशों और जीवन-चरितोंको अपने जीवनमें लाना चाहिए, तभी व्यक्ति अपनी उन्नति, अपने कल्याण और वास्तविक मोक्ष-सुखको प्राप्त कर सकता है।
प्रकृतमें हमें 'वीर-निर्वाण' पर्वपर प्रकाश डालना है। अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीरने कार्तिक कुष्णा चतुर्दशीकी रात्रि और अमावस्याके प्रत्यूषकाल ( ब्राह्ममुहूर्त-प्रातः ) में स्वातिनक्षत्रमें पावानगरीसे निर्वाण प्राप्त किया था। अत एव इस महान् एवं पावन दिवसको जैन परम्परामें 'वीर-निर्वाण' पर्वके रूपमें मनाया जाता है । आचार्य यतिवृषभ ( ई० सन्० ५ वीं शती) ने अपनी 'तिलोयपण्णत्ती' (४-१२०८ ) में स्पष्ट लिखा है-
कत्तिय-किण्हे चोदसि-पच्चूसे सादिणामणक्खत्ते । पावाए णयरीए एक्को वीरेसरो सिद्धो ।।
इस माथामें कहा गया है कि भगवान् वीरनाथ कात्तिकवदी १४ के प्रत्यूषकालमें स्वातिनामक नक्षत्र में पावापुरीसे अकेले सिद्ध ( मुक्त) हुए ।
इपके सिवाय आचार्य वीरसेन ( ई० ८३९ ) ने अपनी 'षट्खण्डागम' की विशाल टीका 'धवला' में 'वीर-निर्वाण' का प्रतिपादन करने वाली एक प्राचीन गाथा उद्धृत की है। उसमें भी यही कहा गया है । वह गाथा निम्न प्रकार है-
पच्छा पावाणयरे कत्तियमासे य किण्ह-चोदसिए । सादीए रत्तीए सेसरयं हत्तु णिव्वाओ ।।
'पश्चात् वीरनाथ पावानगरमें पहुँचे और वहाँसे कार्तिकवदी चउदसकी रात्रिमें स्वातिनक्षत्रमें शेष रज ( अघातिया कर्मों ) को भी नाश करके निर्वाणको प्राप्त हुए।'
यहाँ एक असंगति और विरोध दिखाई दे सकता है कि उपर्युक्त 'तिलोयपण्णत्ती' के उल्लेख में चतुर्दशीका प्रत्यूषकाल' बतलाया गया है और यहाँ ( धवलामें उद्धृत गाथामें' ) 'चतुर्दशीकी रात' बतलायी गयी है ? इसका समाधान स्वयं आचार्य वीरसेनने टीकामें 'रत्तीए' पदके विशेषणके रूपमें 'पच्छिमभाए'"पिछले पहर में' पदका प्रयोग अध्याहृत करके कर दिया है और तब कोई असंगति या विरोध नहीं रहता। इससे स्पष्ट होता है कि चतुर्दशीकी रातके पिछले पहरमें अर्थात् अमावस्याके प्रत्यूषकाल (प्रातः ) में भ० वीरनाथका निर्वाण हुआ। 'तिलोयपष्णत्ती' की उक्त गाथामें भी यही अभिप्रेत है । अतः आम तौरपर निर्वाणकी तिथि कार्तिकवदी अमावस्या मानी जाती है, क्योंकि धवलाकारके उल्लेखानुसार इसी दिन निर्वाणका समस्त कार्य-निर्वाणपूजा आदि सकल देवेन्द्रों द्वारा किया गया था । धवलाकारका वह उल्लेख इस प्रकार है-
'अमावसीए परिणिव्वाणपूजा सयलदेवेंदेहि कयात्ति।'
उत्तरपराणमें आचार्य गणभद्र ने भो ‘फातिककृष्णपक्षस्य चतुर्दश्यां निशास्यये।' इस पद्यवाक्यके द्वारा कार्तिकवदी चतुर्दशीको रातके अन्तमें भ० महावीरका निर्वाण बतलाया है ।
हरिवंशपुराणकार जिनसेनके हरिवंशपुराणगत उल्लेखसे भी यही प्रकट है । उनका वह उल्लेख इस प्रकार है-
जिनेन्द्रवीरोऽपि विबोध्य सन्ततं समन्ततो भव्यसमूहसन्ततिम् । प्रपद्य पावानगरी गरीयसी मनोहारोद्यानवने तदीयके ।। चतुर्थकालेऽर्धचतुर्थमासविहीनताभिश्चतुरब्दशेषके सकातिके स्वातिषु कृष्णभूतसुप्रभातसन्ध्यासमये स्वभावतः ।। अघातिकर्माणि निरुद्धयोगको विधूय घातिधनवद्विबन्धनः । विबन्धनस्थानमवाप शङ्करो निरन्तरायोरुसुखानुबन्धनम् ।।
-हरिवं० ६६ । १५, १६, १७ ।
'वीर जिनेन्द्र समस्त भव्यसमुदायको सतत संबोधित करके अन्तमें पावानगरी पहुंचे और उसके सुन्दर उद्यानवनमें कार्तिकवदो चउदसकी रात और अमावस्याके सुप्रभात समयमें, जब कि चौथे कालके साढ़े तीन मास कम चार वर्ष अवशेष थे, स्वातिनक्षत्रमें योग निरोध कर अघातियाकर्मोको घातियाकर्मोकी तरह नष्ट कर बन्धनरहित होकर बन्धनहीन ( स्वतंत्र ) और निरन्तराय महान् सुखके स्थान मोक्षको प्राप्त हुए ।'
आचार्य पूज्यपाद-देवनन्दि ( ई० ५ वीं शती) का 'निर्वाणभक्ति' गत निम्न उल्लेख भी यही बतलाता है-
पावानगरोद्याने व्युत्सर्गेण स्थितः स मुनिः । कार्तिककृष्णस्यान्ते स्वातावृक्षे निहत्य कर्मरजः ।।
इस प्रकार इन शास्त्रीय प्रमाणोंसे स्पष्ट है कि भ० महावीरका कार्तिक वदी चउदसकी रात और अमावस्याके सुबह, जब कुछ अन्धेरा था, निर्वाण हुआ था और उसी समय उनका निर्वाणोत्सव मनाया गया था। इस तरह 'वीर-निर्वाण' पर्व प्रचलित हुआ और जो आज भी सर्वत्र मनाया जाता है।
भ० महावीरके निर्वाणके समयका पता जनसमुदायको पूर्वदिनसे ही विदित हो चुका था और इसलिए वे सब वहाँ पहलेसे ही उपस्थित थे। इनमें अठारह गणराज्योंके अध्यक्ष, विशिष्टजन, देवेन्द्रों, साधारण देवों और मनुष्योंके समूह मौजूद थे। समस्त (११) मणधर, मुनिगण, आयिकाएं, श्रावक और श्राविकाएं आदि भी विद्यमान थे । जो नहीं थे, वे भी भगवान्के निर्वाणका समाचार सुनते ही पहुँच गये थे। बिजलीकी भांति यह खबर सर्वत्र फैल गयी थी। भगवान् बुद्धके प्रमुख शिष्यने उन्हें भी यह अवगत कराया था कि पावामें अभी-अभी गिरगंथनातपुत्त (महावीर) का निर्वाण हुआ।
उस समय प्रत्यूषकाल होनेसे कुछ अंधेरा था और इसलिए प्रकाश करने के लिए रत्नों और घृतादिके हजारों प्रदीप प्रज्वलित किये गये। आचार्य जिनसेनके हरिवंशपुराणमें स्पष्ट उल्लेख है कि उस समय ऐसा प्रकाश किया गया, जिससे पावानगरी चारों ओरसे आलोकित हो गयी। यहाँ तक कि आकाशतल भी प्रकाशमय-ही-प्रकाशमय दिखाई पड़ रहा था । यथा-
ज्वलत्पदीपावलिकया प्रवृद्धया सुरासुरैः दीपितया प्रदीप्तथा। तदा स्म पावानगरी समन्ततः प्रदीपिताकाशतला प्रकाशते ।। तथैव च श्रेणिकपूर्वभूभृतः प्रकृत्य कल्याणमदं सहप्रजाः । प्रजमुरिन्द्राश्च सुरैर्यथा पथं प्रयाचमाना जिनबोधिर्थिनः ।।
-हरिवं० ६६।१९,२० ।
हरिवंशपुराणकार (९वीं शती) ने यह भी स्पष्ट उल्लेख किया है कि इसके पश्चात् भगवान् महाबोरके निर्वाण लक्ष्मीको प्राप्त करनेसे इस पावन निर्वाण दिवसको स्मृति के रूपमें सदा मनानेके लिए भक्त जनताने 'वीपावली के नामसे एक पवित्र सार्वजनिक पर्व ही संस्थापित एवं सुनियत कर दिया-अर्थात् जनसमूह प्रतिवर्ष बड़े आदरके साथ इस निर्वाण-पर्वको प्रसिद्ध 'दीपावली के नामसे इस भारतवर्ष में मनाने लगा ! उनका वह उल्लेख इस प्रकार है-
ततस्तु लोकः प्रतिवर्षमादरात्प्रसिद्धदीपावलिकयाऽत्र भारते । समुद्यतः पूजयितुं जिनेश्वरं जिनेन्द्रनिर्वाणविभूतिभक्तिभाक् ॥
--वही, ६६।२१।
'इसके बाद तो समस्त भारतवर्ष में लोग प्रतिवर्ष बडे आदरके साथ वीर जिनेन्द्र के निर्वाणोत्सवको अपनी अनन्यभक्ति एवं श्रद्धाको 'दीपावली के रूपमें प्रकट करने लगे और तभीसे यह 'दीपावली' पर्व प्रचलित हुआ ।
इस तरह भारतवर्ष में दीपावली पर्वको मान्यता भगवान महावीरके निर्वाण-पर्वसे सम्बन्ध रखती है और यह एक सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय पर्व स्पष्ट अवगत होता है । मेरे अनुसन्धानसे इससे पूर्वका इतना और ऐसा उल्लेख अबतक नहीं मिला । यतः भगवानका निर्वाण कार्तिक वदी १४को रात और अमावस्याके प्रातः हुआ था, अतः उसके आसपासके कुछ दिनोंको भी इस पर्व में और शामिल कर लिया गया, ताकि पर्वको विशेष समारोह और आयोजन के साथ मनाया जा सके । इसीसे दीपावली पर्व कार्तिक वदो तेरससे आरम्भ होकर कार्तिक शुक्ला दूज तक मनाया जाता है। इन दिनों घरोंकी दीवारों और द्वारोंपर जो चित्र बनाये जाते हैं वे भ० महावीरके सभास्थल-समोशरण (समवसरण) की प्रतिकृति है, ऐसा ज्ञात होता है । गणेशसंस्थापन और लक्ष्मीपूजन भ० महावीरके प्रधान गणधर गौतम इन्द्रभूतिको, जिन्हें जनवाङ्मयमें 'गणेश' भी कहा है, उनका उत्तराधिकारी बनने तथा केवलज्ञानलक्ष्मीकी प्राप्ति करनेके मूर्तरूप प्रतीत होते हैं । इन जैसी और भी कितनी ही बातें इन दिनोंमें सामान्य जनता द्वारा की जाती हैं। उनका भी सम्बन्ध भ. महावीरसे स्पष्ट मालूम होता है। इन तथ्योंकी प्रचलित मान्यताओं और निर्वाणकालिक घटित घटनाओं के सामञ्जस्यके आधारपर खोज की जाय तो पूरा सत्य सामने आ सकता है और तथ्योंका उद्घाटन हो सकता है। फिर भी उपलब्ध प्रमाणों और घटनाओंपरसे यह निःसंकोच और असन्दिग्धरूपमें कहा जा सकता है कि वीर-निर्वाण पर्व और दीपावली पर्वका घनिष्ठ सम्बन्ध है अथवा वे एक दूसरेके रूपान्तर हैं ।