जिस विज्ञान के नवीन आविष्कारों को देखकर मानव प्रसन्न होता है और पूरे विश्व में अपना साम्राज्य फैलाना चाहता है, वह आविष्कार आज उसके लिए कितना कष्टदायक है, इस बात से वह अनभिज्ञ है। आज समाज में जो अशांत एवं दु:ख वातावरण व्याप्त है उसके पीछे कारण नित हो रहे नवीन आविष्कार ही हैं। आज का विश्व अपनी क्रूर हिंसावृत्ति से स्वयं पीड़ित है और निरन्तर शांति, राहत, शुकुन प्राप्त करने के लिए प्रयास कर रहा है, ऐसे समय में महावीर के बताये मार्ग पर चलना ही उसके लिए श्रेयष्कर होगा और वह हिंसा के क्रूर, संकीर्ण वातावरण से निकलकर शांति के निर्मल आकाश/गगन में निर्भय हो विचरण कर सकेगा। भगवान महावीर की ही शिक्षा में उसकी आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं नैतिक उन्नति निहित है। मनुष्य की आध्यात्मिक एवं भौतिक उन्नत्ति का सरस, सुगम्य और दृढ़ मार्ग एक ही है और वह है भगवान महावीर की अहिंसा, अचौर्य, अपरिग्रह तप एवं ब्रह्मचर्य। यही एक मात्र ऐसा मार्ग है जिस पर चलकर मानव अपनी सर्वतोमुखी उन्नति कर सकता है। एकेन्द्रिय जीवों से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों के प्रति अहिंसा की बात जितनी सूक्ष्मता से जैन धर्म में प्रतिपादित है उतनी अन्यत्र नहीं। 'प्रश्नव्याकरणसूत्र' में अहिंसा के सव्वभूयखेमंकरी स्वभाव पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि वह अमृतरूपा, परब्रह्मस्वरूपा, सर्वव्यापिनी, क्षेमवती, क्षमामयी मंगलरूपा एवं सर्वभूत कल्याणकारिणी है। अहिंसा शरणदात्री है। 'उत्तराध्ययनसूत्र' में इसे दयारूपी कहा गया है। अहिंसा के निर्मल उद्देश्य से मनुष्य बिना किसी को कष्ट दिये अपनी उन्नति कर सकता है। अहिंसा कोरा उपदेश नहीं है, अपितु वह समस्त प्राणियों में चेतनता की अभिव्यक्ति है। यदि समस्त प्राणी एकदूसरे के प्रति घातक स्थिति अपना लें तो सृष्टि ही नष्ट हो जायेगी। अहिंसा के आधार पर ही मानव समाज का अस्तित्व है। यदि कोई यह माने कि बिना हिंसा के हमारा जीवित रहना संभव नहीं है तो यह उसकी मिथ्या धारणा है। यह स्वीकार किया जा सकता है कि सूक्ष्म अहिंसा का पालन संभव नहीं है परन्तु स्थूल रूप से अहिंसा का पालन संभव है और आवश्यक भी। क्योंकि इसी से जनकल्याण संभव है। इस मार्ग की सत्यता को अनेकान्तवाद के द्वारा परखा जा सकता है। अनेकांत को परिभाषित करते हुए कहा गया है- 'एकवस्तुनि वस्तुत्व निष्पादक परस्पर विरुद्ध शक्तिद्वय प्रकाशनमनेकान्तः। अनेकान्त जिस उद्देश्य की समझ पैदा करता है, स्याद्वाद उसी तत्व की अभिव्यक्ति में सहायक है।
भगवान महावीर के अचौर्य और अपरिग्रह के उपदेश से ही संसार में क्लान्त प्राणियों का निस्तार हो सकेगा। साम्राज्यवाद और पूँजीवाद ने तो मनुष्य को बद से बदतर अर्थात् जानवरों से भी अधिक पतित, क्रूर, दरिद्र एवं नारकीय बना दिया है। मानव की इसी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप आज परिवर्तन की आवश्यकता है। यदि परिवर्तन नही होता है तो परिणाम की कल्पना से ही कम्पन शुरु हो जाता है। ऐसे समय में मानव को कोई त्राण दे सकता है तो वह है भगवान महावीर का अचौर्य एवं अपरिग्रह का सिद्धान्त। अन्यथा मानव का अस्तित्व ही संदेहास्पद हो जायेगा। भगवान महावीर के द्वारा महाव्रत और अणुव्रत के रूप में प्रतिपादित अपरिग्रह का सिद्धान्त सर्वव्यापक, सार्वकालिक एवं सार्वेशिक सत्य है। परिग्रह सर्वत्र दुःख का मूल माना गया है। इसलिए 'आचारांगसूत्र' में कहा गया है'परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्केज्जा' अर्थात् परिग्रह से अपेन को दूर रखें, क्योंकि यह शांति एवं समता को भंग कर अशंति एवं विषमता उत्पन्न कर देता है। ‘सूत्रकृतांगसूत्र' में वर्णित है कि अपरिग्रह व्रत से अर्थात् मूर्छा के अभाव से, आसक्ति के अभाव से व्यक्ति दु:खों से मुक्त होता है। 'ठाणं' में तो परिग्रह को नरक का द्वार तथा अपरिग्रह को मुक्ति का द्वार कहा गया है। आचार्य तुलसी ने 'ममत्वविसर्जनं अपरिग्रहः' ममत्व के विसर्जन को अपरिग्रह व्रत कहा है। इस व्रत को ग्रहण करने से जीवन में सादगी, मितव्ययिता और शांति का अवतरण होता है।
भगवान महावीर ने केवल भौतिक स्तर को ही ऊँचा करने का मार्ग नहीं बताया है, अपितु यह कहा है कि व्यक्ति का आभ्यंतरिक तप, स्वावलम्बन और स्व-पुरुषार्थ से बन्धन मुक्त होना भी है। प्रत्येक प्राणी स्वतंत्र है। कोई परतन्त्र नहीं है। सभी को अपनी उन्नति एवं मुक्ति का प्रयास स्वयं ही करना होगा। कोई किसी को मुक्त नहीं कर सकता है। अपने द्वारा किये गये कार्य का परिणाम स्वयं को ही भोगना होता है। मुक्ति प्राप्त करने के लिए शुद्ध भावना, ज्ञान, अहिंसा एवं सत्य ही पर्याप्त है, व्यर्थ का कायक्लेश करने से कुछ भी प्राप्त नहीं होगा। उमास्वाति ने 'तत्त्वार्थसूत्र' में मोक्षमार्ग का निरूपण करते हुए कहा है - सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्ग:।
भगवान महावीर ने प्रत्येक जाति एवं वर्गों में समानता का उपदेश दिया है। उन्होंने कहा भी है कि उच्चवंश या कुल में जनम लेने से कोई बड़ा नहीं होता है, अपितु ऊँचे कर्मों से ही वह उच्च बनता है। किसी जाति या धर्म विशेष में जन्म लेने से मुक्ति नहीं होती है। प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्म से चाहे किसी भी धर्म का क्यों न हो मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। सभी प्राणियों में चेतना समान होती है। कोई भी जन्म से पतित या श्रेष्ठ नहीं हो सकता। हरिजन भी अपनी उन्नति उतनी ही कर सकता है जितना की एक राजा। 'उत्तराध्ययनसूत्र' में तो कहा भी गया है -
कम्मुणा बम्भणो होइ, कम्मुण होइ खत्तिओ। वइस्से कम्मुणा होइ, सुद्धो हवइ कम्मुणा।।२५/३३
अर्थात् कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है और कर्म से ही शूद्र होता है। सभी समान एवं स्वतंत्र है। आज के मानव में समानता, स्वतंत्रता एवं विश्वबन्धुत्व कहाँ है? जैन दर्शन में यह पूर्ण रूप से स्वीकृत है। इन भावनाओं को जागृत करके ही मानव का कल्याण किया जा सकता है। जैन दर्शन के यथार्थवाद, अनेकान्तवाद, अपरिग्रहवाद, अहिंसा, अचौर्यव्रत आदि के द्वारा आध्यात्मिक उन्नति संभव है। आध्यात्मिक उन्नति के बाद भारत का ही नहीं सम्पूर्ण विश्व का कल्याण संभव है। संसार में जितने भी महापुरुष जन्म लेते हैं वे सभी प्राणी जगत का उद्धार करने के लिए संसार को अपना संदेश अवश्य देते हैं। 'स्थानांगसूत्र' (८/ १११) में भगवान महावीर ने भी जन-जन के कल्याण के लिए आठ सन्देश दिये हैं- जो धर्मशास्त्र नहीं सुना उसे सुनो, जो सुना उसे याद रखो, नवीन कर्मों को रोको, पूर्वकृत कर्मों का नाश करो, जिसका कोई नहीं तुम उसके बनो, अशिक्षितों को शिक्षित करो, रोगियों की ग्लानि रहित होकर सेवा करो, निष्पक्ष होकर क्लेश मिटाओ।
महावीर ने षट्जीवनिकाय अर्थात् जीवों के छ: वर्गों का उपदेश दिया है जो जीवों के प्रति दया या करुणा के भाव को दर्शाता है। आत्मौपत्य का उपदेश उन्होंने इसलिए दिया कि जिस प्रकार हमें दुःख अप्रिय है और हम केवल सुख चाहते हैं उसी प्रकार किसी भी जीव को दु:ख प्रिय नहीं है, वे भी सुख की कामना करते हैं। अत: किसी को किसी प्रकार की पीड़ा या दुःख नहीं देना चाहिए। इसलिए अहिंसा का मार्ग उन्होंने सर्वोपरि बताया। जैन आचार में श्रमण एवं गृहस्थ दोनों के लिए अलगअलग विधान किये गये हैं। श्रमण को पूर्ण आचार का तथा गृहस्थ को आंशिक आचार के पालन का विधान है। जितना आवश्यक हो उतना करें अन्यथा उसका त्याग कर दें।
प्राचीन भारत के धार्मिक इतिहास में भगवान महावीर प्रबल और सफल क्रान्तिकारी के रूप में उपस्थित होते हैं। उनकी धर्मक्रान्ति से भारतीय धर्मों के इतिहास का नवीन अध्याय प्रारम्भ होता है। वे तत्कालीन धर्मों का कायाकल्प करने वाले और उन्हें नवजीवन प्रदान करने वाले युग निर्माता महापुरुष हुए। विश्व में अहिंसा की प्रतिष्ठा का सर्वाधिक श्रेय इन्हीं महामानव महावीर को है। सचमुच भगवान महावीर मानव जाति के महान् त्राता के रूप में अवतरित हुए।
भगवान महावीर की अहिंसा प्रधान उपदेश-प्रणाली ने आचार और व्यवहार में अहिंसा की पुनः प्रतिष्ठा की। उन्होंने अपने संघ में नारी को भी पुरूष के समान अधिकार देकर स्त्री स्वातन्त्र्य की प्रतिष्ठा की और उसे महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया। तप और संयम का महत्व है, जाति की कोई महत्ता नहीं है, यह कहकर चाण्डाल पुत्र हरिकेशी को भी मुनि संघ में स्थान दिया और उसे ब्राह्मणों के यज्ञ वाड़े में भेजकर पूजनीय बना दिया।
युगपुरुष महात्मा गांधी ने जिन-जिन साधनों के सहारे विश्व को आश्चर्यचकित किया उनका मूल जैनधर्म में ही था।
अहिंसा और सत्य का सिद्धान्त, अस्पृश्यता निवारण का सिद्धान्त, नारी जागरण, सामाजिक साम्य, ग्राम्यजनों का सुधार आदि कार्यों के लिए गांधी जी ने भगवान महावीर के सिद्धान्तों से प्रेरणा प्राप्त की थी। महात्मा गांधी की शिक्षाओं का उद्गम भगवान महावीर की शिक्षाओं में है। महावीर ने जिस-जिस क्षेत्र में प्रवेश किया उसमें सफलता प्राप्त की। उनका सबसे प्रधान कार्य था हिंसा का विरोध। उस दिशा में उन्हें जो सफलता मिली वह इसी बात से प्रकट होती है कि अब हिंसक यज्ञों की प्रथा प्राय: लुप्त-सी हो गई है। भगवान महावीर में उपदेश प्रदान करने की जैसी अनुपम कुशलता थी, वैसी ही अपने अनुयायियों की व्यवस्था करने की अद्वितीय क्षमता भी थी। भगवान के द्वारा अपने संघ की जैसी व्यवस्था की गई है, वैसी इतिहास के पन्नों में अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती। अपने संघ में त्यागियों और गृहस्थों के पृथक-पृथक नियमों और उनके पारस्परिक सम्बन्ध के विधि-विधानों के द्वारा भगवान महावीर ने अपने संघ को ऐसा श्रृंखला बद्ध किया है जो कभी छिन्न-भिन्न नहीं हो सकता। संघ व्यवस्था की इस महान शक्ति के कारण ही जैन धर्म अनेक संकट-कालों में से गुजरने पर भी सुरक्षित और सुव्यवस्थित रह सका है।
इस तरह विचार में अनेकांत दर्शन, आचार में अहिंसा, समाज रचना के लिए अचौर्य और अपरिग्रह तथा इन सबके लिए सत्य की निष्ठा और जीवन शुद्धि के लिए ब्रह्मचर्य यानी इन्द्रिय विजय आदि धर्मतीर्थ का प्रवर्तन महावीर ने किया।