उत्तमब्रह्मचर्य
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ब्रह्म अर्थात निजशुद्धात्मा में चरना, रमना ही ब्रह्मचर्य है। जैसाकि ’अनगार धर्मामृत’ में कहा है -

’’या ब्रह्मणि स्वात्मनि शुद्धबुद्धे चर्या परद्रव्यमुचप्रवृत्तिः।
तद् ब्रह्मचर्यं व्रतसार्वभौंम ये पान्ति ते यान्ति परं प्रमोदम्।।4/60।।

परद्रव्यों से रहित शुद्ध-बुद्ध अपने आत्मा में जो चर्या अर्थात् लीनता होती है, उसे ही ब्रह्मचर्य कहते हैं। व्रतों में सर्वश्रेष्ठ इस ब्रह्मचर्य व्रत का जो पालन करते हैं, वे अतीन्द्रिय आनन्द को प्राप्त करते हैं’’

इसीप्रकार का भाव ’भगवती आराधना1’ एवं ’पद्मानंद-पिंचविंशतिका2’ में भी प्रकट किया गया है।

य़द्यपि निजात्मा में लीनता ही ब्रह्मचर्य है; तथापि जबतक हम अपने आत्मा को जानेंगे नहीं, मानेंगे नहीं; तबतक उसमें लीनता कैसे सम्भव है? इसलिए कहा गया है कि आत्मलीनता अर्थात सम्यक्चारित्र आत्मज्ञान एवं आत्म-श्रद्धानपूर्वक ही होता है। ब्रह्मचर्य के साथ लगा ’उत्तम’ शब्द भी यही ज्ञान कराता है कि सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान सहित आत्मलीनता ही उत्तमब्रह्मचर्य है।

1. जीवों बंभा जीवम्मि चेव चरियाहविज्ज जा जणिदो।
तं जाण बंभचेर विमुक्कापरदेहतित्तिस्स।।878।।

जीव ब्रह्म है, देह की सेवा से विरक्त होकर जीव में ही जो चर्या होती है, उसे ब्रह्मचर्य जानो।

2. आत्मा ब्रह्म विविक्तबोधनिलयों यत्तत्र चर्यं पर।
स्वांगसंगविवर्जितैकमनसस्तदूब्रह्मचर्यं मुनेः।।

ब्रह्म शब्द का अर्थ निर्मल ज्ञानस्वरूप आत्मा है। उस आत्मा में लीन होने का नाम ब्रह्मचर्य है। जिन मुनि का मन अपने शरीर से निर्ममत्व हो गया, उसी के वास्तविक ब्रह्मचर्य होता है।

अतः यह स्पष्ट है कि निश्चय से ज्ञानानंदस्वभावी निजात्मा को ही निज मानना, जानना और उसी में जाना, रम जाना, लीन हो जाना ही वास्तविक ब्रह्मचर्य है। आज जो ब्रह्मचर्य शब्द का अर्थ समझा जाता है, वह अत्यन्त स्थूल है। आज मात्र स्पर्शन इन्द्रिय के विषय-सेवन के त्यागरूप व्यवहार ब्रह्मचर्य को ही ब्रह्मचर्य माना जाता है। स्पर्शन इंन्द्रिय के भी सम्पूर्ण विषयों के त्याग को नहीं, मात्र एक क्रियाविशेष (मैथुन) के त्याग को ही ब्रह्मचर्य कहा जाता है, जबकि स्पर्शन इंद्रिय का भोग तो उनके प्रकार से संभव है।

स्पर्शन इंद्रियों के विषय आठ हैं -

1. ठंडा

2. गरम

3. कड़ा

4. नरम

5. रूखा

6. चिकना

7. हलका

8. भारी।

इन आठों ही विषयों में आनन्द अनुीाव करान स्पर्शन इन्द्रिय के विषयों का ही सेवन है। गर्मियों के दिनों में कूलन एवं सर्दियों में हीटर का आनन्द लेना स्पर्शन इन्द्रिय का ही भोग है। इसीप्रकार डनलप के नरम गद्दों ओर कठोर आसानों के प्रयोग में आनन्द अनुभव करना तथा रूखे-चिकने व हल्के-भारी स्पर्शों में सुखानुभूति - यह सब स्पर्शन-इन्द्रिय के विषय हैं। पर अपने केा ब्रह्मचारी मानने वालों ने कभी इस ओर भी ध्यान दिय है कि ये सब स्पर्शन इन्द्रिय के विषय हैं, हमें इनमें भी सुखबुद्धि त्यागनी होगी। इनसे भी विरत होना चाहिए। इससे यह सिद्ध होता है कि हम स्पर्शन इन्द्रिय के भी सम्पूर्ण भोग को ब्रह्मचर्य का घातक नहीं मानते, अपितु एक क्रियाविशेष (मैथुन) को ही ब्रह्मचर्य का घातक मानते हैं; और जैसे-तैसे मात्रउससे बचकर अपने को ब्रह्मचारी मान लेते हैं।

नहीं, कदापि नहीं; क्योंकि आत्मा किसी भी इन्द्रिय के विषय में क्यों न उलझा हो, उस समय आत्मलीनता संभव नहीं है। जबतक पांचों इन्द्रियों के विषयों से प्रवृत्ति नहीं रूकेगी, तबतक आत्मलीनता नहीं होगी और जबतक आत्मलीनता नहीं होगी, तबतक पंचेन्द्रियों के विषयों से प्रवृत्ति का रूकना भी संभव नहीं हैं। इसप्रकार पंचेन्द्रिय के विषयों से प्रविृत्ति की निवृत्ति यदि नास्ति से ब्रह्मचर्य है तो आत्मलीनता अस्ति से।

यदि कोई कहे कि शास्त्रों मे भी तो कामभोग के त्याग को ही ब्रह्मचर्य लिखा है। हम भी ऐसा ही मानते हैं, इसमें हमारी भूल क्या है?

सुनो! शास्त्रों में कामभोग के त्याग को ब्रह्मचर्य कहा है, सो ठीक ही कहा है; पर कामयोग का अर्थ केवल स्पर्शन-इन्द्रिय का ही भोग लेना - यह कहां कहा? समयसार की चैथी गाथा की टीका करते हुए आचार्य जयसेन ने स्पर्शन और रसना इन्द्रियों के विषयों को माना है काम; औ घ्राण चक्षु कर्ण इन्द्रिय के विषयों को माना है भोग। इसप्रकार उन्होंने काम और भोग में पंचेन्द्रिय विषयों को ले लिया है। पर हम इस अर्थ को कहां मानते हैं! हमने तो काम औरभोग को एकार्थवाची मान लिया है और उसका भी अर्थएक क्रियाविशेष (मैथुन) से संबंधित कर दिया है। मात्र एक क्रियाविशेष को छोड़कर पांचों इन्द्रियों के विषयों को भरपूर भोगते हुए भी अपने को ब्रह्मचारी मान बैठे हैं। जब आचार्यों ने काम और भोग के विरूद्ध आवाज लागई तो उनका आशय पांचों इन्द्रियों के विषयों के त्याग से था, न कि मात्र मैथुनक्रिया के त्याग से। आज भी जब किसी को ब्रह्मचर्यव्रत दिया जाताहै तो साथ में पांचों पापों से निवृत्ति कराई जाती है; सादा खान-पाप, सादा रहन-सहन रखने की प्रेरणा दी जाती है; सर्वप्रकार के श्रृंगारों का त्याग कराया जाता है। अभक्ष्य एवं गरिष्ठ भोजन का त्याग आदि बातें पंचेन्द्रियों के विषयों के त्याग की ओर ही संकेत करती है।

आचार्य उमास्वामी ने तत्वार्थसूत्र में ब्रह्मचर्यव्रत की भावनाओं और अतिचारों की चर्चा करते हुए लिखा है -

स्त्रीरागकथा श्रवणतन्मनोहरांगनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येश्टरसस्व-शरीरसंस्कारत्यागाः पंच।। अध्याय 7, सूत्र 7।।
परविवाहकरणेत्यवरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनानंगक्रीड़ाकाम-तीव्राभिनिवेषा।। अध्याय 7 , सूत्र 28।।

इसमें श्रवण, निरीक्षण, स्मरण, रसस्वाद, श्रृंगार, अनंग क्रीड़ा आदि को ब्रह्मचर्य का घातक कहा गया है।

यदि हम पंचेन्दिय के विषयों में निर्बाध प्रवृत्ति करते रहें और मात्र स्त्री-संसर्ग का त्याग कर अपने को ब्रह्मचारी मान बैठें तो यह एक भ्रम ही है। तथा यदि स्त्री-संसर्ग के साथ-साथ पंचेन्द्रिय के विषयों केा ही बाह्य से छोड़ दें, गरिष्ठादि भोजन भी न करे; फिर भी यदि आत्मलीनतारूप ब्रह्मचर्य अंतर में प्रकट नहीं हुआ तो भी हम सच्चे ब्रह्मचारी नहीं हो पावेंगे। अतः आत्मलीनतापूर्वक पंचेन्द्रिय के विषयों का त्याग ही वास्तविक ब्रह्मचर्य हैं।

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य़द्यपि शास्त्रों में आचार्यों ने भी ब्रह्मचर्य की चर्चा करते हुए स्पर्शन-इन्द्रिय के विषय-त्याग पर ही अधिक बल दिया है, कहीं-कहीं तो रसनादि इंद्रियों के विषयों के त्याग की चर्चा तक नहीं की है; तथापि उसका अर्थ यह कदापि नहीं कि उन्होंने रसनादि चार इंद्रियों के विषयों के सेवन को ब्रह्मचर्य का घातक नहीं माना, उनके सेवन की छूट दे रखी है। जब वे स्पर्शन-इंद्रिय को जीतने की बात करते हैं तो उनका आशय पांचों इन्द्रियों के विषयों के त्याग से ही रहता है; क्योंकि स्पर्शन में पांचों इन्द्रियां गर्भित हैं। आखिर रसना, नाक, कान और आंखें शरीररूप स्पर्शनेन्द्रिय के ही तो अंग हैं। स्पर्शनइन्द्रिय सारा ही शरीर है; जबकि शेष चार इन्द्रियां उसके ही अंश ;च्ंतजद्ध हैं। स्पर्शन-इन्द्रिय व्यापक है, शेष चार इन्द्रियां व्याप्य हैं।

जैसे भारत कहने में राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र आदि सारे प्रदेश आ जाते हैं, पर राजस्थान कहने में पूरा भारत नहीं आता; उसीप्रकार शरीर कहने में रसना, आंख, कान, नाक आ जाते हैं, आंख-कान कहने में पूरा शरीर नहीं आता। इसप्रकार स्पर्शन-इन्द्रिय का क्षेत्र विस्तृत और अन्य इन्द्रियों का संकुचित है।

जिसप्रकार भारत को जीत लेने पर सभी प्रान्त जीत लिये गये - ऐसा मानने में कोई आपत्ति नहीं, पर राजस्थान को जीतने पर सारा भारत जीत लिया - ऐसा नहीं माना जा सकता है; इसीप्रकार स्पर्शन-इन्द्रिय को जीत लेने पर सभी इन्द्रियां जीत ली जाती हैं, पर रसनादि के जीतने पर स्पर्शन-इन्द्रिय जीत ली गई - ऐसा नहीं माना जा सकता।

अतः यह कहना अनुचित नहीं कि स्पर्शन-इन्द्रिय को जीतने वाला ब्रह्मचारी है, पर उक्त कथन का आशय पंचेन्द्रियों को जोतने से ही है।

यदि कर्ण-इन्द्रिय के विषयसेवन के अभाव को ब्रह्मचर्य कहते तो फिर चार-इन्द्रिय जीवों को ब्रह्मचारी मानना पड़ता; क्योंकि उनके कर्ण है ही नहीं, तो कर्ण के विषय का सेवन कैसे संभव है? इसीप्रकार चक्षु-इन्द्रिय के विषयसेवन के अभाव को ब्रह्मचर्य कहने पर तीन-इन्द्रिय जीवो को, घ्राण इन्द्रिय के विषय सेवन के अभाव को ब्रह्मचर्य कहने पर दो-इन्द्रिय जीवों को, रसना इन्द्रिय के विषय सेवन के अभाव को ब्रह्मचर्य कहने पर एकेन्द्रिय जीवों को ब्रह्मचारी मानने का प्रसंग प्राप्त होता है; क्योंकि उनके उक्त इन्द्रियों का अभाव होने से उनका विषयसेवन सम्भव नहीं है।

इसी क्रम में यदि कहा जाय कि इसप्रकार तो फिर यदि स्पर्शन-इन्द्रिय के विषयसेवन के अभाव को ब्रह्मचर्य मानने पर स्पर्शन-इन्द्रियरहत जीवों को ब्रह्मचाीर मानना होगा - तो इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं; क्योंकि स्पर्शन-इन्द्रिय से रहित सिद्ध भगवान ही हैं और वे पूर्ण ब्रह्मचारी हैं ही। संसारी जीवों में तो कोई ऐसा है नहीं, जो स्पर्शन-इन्द्रिय से रहत हो। इसप्रकार स्पर्शन-इन्द्रिय के विषयत्याग को ब्रह्मचर्य कहने में कोई दोष नहीं आता।

इसीप्रकार मात्र क्रियाविशेष (मैथुन) के अभाव को ही ब्रह्मचर्य मानें तो फिर पृथ्वी, जलकायादि जीवों को भी ब्रह्मचारी मानना होगा; क्योंकि उनके मैथुनक्रिया देखने में नहीं आती।

प्रश्न - एकेन्द्रियादि जीवों को ब्रह्मचारी मानने में क्या आपत्ति है?

उत्तर - यही कि उनके आत्मरमणतारूप निश्चयब्रह्मचर्य नहीं हैं, आत्मरमणतारूप ब्रह्मचर्य सैनी पंचेन्द्रिय के ही होता है; तथा एकेन्द्रियादि जीवों के मोक्ष भी मानना पड़ता, क्योंकि ब्रह्मचर्यधर्म को पूर्णतः धारण करने वाले मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त करते ही हैं। कहा भी है -

’द्यानत धरम दश पैंड चढिके, शिवमहल में पग धरा।’

द्यानतरायजी कहते हैं कि दशधर्मरूपी पेडियों (सीढियों) पर चढृ़कर शिवमहल में पहुंचते हैं। दशधर्मरूपी सीढियों में दशवीं सीढ़ी है ब्रह्मचर्य, उसके बाद तो मोक्ष ही है।

चार इन्द्रियां हैं खण्ड-खण्ड, और स्पर्शन-इन्द्रिय है अखण्ड; क्योंकि आत्मा के प्रदेशों का आकार एवं स्पर्शन-इन्द्रिय का आकार बाराबर एवं एक-सा है, जबकि अन्य इन्द्रियों के साथ ऐसा हनीं है। अखण्ड दप की प्राप्ति के लिए अखण्ड इन्द्रियों को जीतना आवश्यक है।

जितने क्षेत्र का स्वामित्व या प्रतिनिधित्व प्राप्त करना हो उतने क्षेत्र को जीतना होगा; ऐसा नहीं हो सकता कि हम जीतें राजस्थान को और स्वामी बन जायें पूरे हिन्दुस्तान के । हम चुनाव लड़े नगर निगम का और बन जायें भारत के प्रधानमंत्री। भारत का प्रधानमंत्री बनना है तो लोकसभा का चुनाव लड़ना होगा औ समस्त भारत में से चुने हुए प्रतिनिधियों का बहुमत प्राप्त करना होगा। उसीप्रकार ऐसा नहीं हो सकता, हम जीते खण्ड इन्द्रियों को और प्राप्त कर लें अखण्ड पद को। अखण्ड पद को प्राप्त करने के लिए जिसमें पांचों ही इन्द्रियां गर्भित हैं ऐसी अखण्ड स्पर्शन- इन्द्रिय को जीतना होगा।

यही कारण है कि आचार्यों ने प्रमुखरूप से स्पर्शन- इन्द्रिय के जीतने को ब्रह्मचर्य कहा है।

रसनादि चार इन्द्रियां न हों तो भी सांसारिक जीवन चल सकता है, पर स्पर्शन- इन्द्रिय के बिना नहीं। आंखें फूटी हों, कान से कुछ सुनाई नहीं पड़ता हो, तो भी जीवन चलने में कोई बाधा नहीं; पर स्पर्शन-इन्द्रिय के बिना तो सांसारिक जीवन की कल्पना भी सम्भव नहीं है।

आंख-कान-नाक और रसना के विषयों का सेवन तो कभी-कभी होता है, पर स्पर्शन का तो सदा चालू ही है। बदबू आवे तेा नाक बंद की जा सकती है, तेज आवाज में कान भी बंद किये जा सकते हैं। आंख का भी बन्द करना संभव है। इसप्रकार आंख, नाक, कान, बन्द किये जा सकते हैं, पर स्पर्शन का क्या बंद करें? वह तो सदा सर्दी-गर्मी, रूखा-चिकना, कड़ा-नरक का अनुभव किया ही करती है।

रसना के विषय का सेवन भी सदा नहीं होता, रसना का आनन्द खाते समय ही आता है। इसीप्रकार घ्राण का सूंघते समय, चक्षु का देखते समय तथा कर्ण का मधुर वाणी सुनते समय ही योग होता है; पर स्पर्शन का विषय तो चालू ही है।

अतः स्पर्शन- इन्द्रिय क्षेत्र से तो अखण्ड है ही, काल से भी अखण्ड है। शेष चार इन्द्रियां न क्षेत्र से अखण्ड हैं, न काल से।

चारों इन्द्रियों के काल संबंधी खण्डपेन एवं स्पर्शन के अखण्डपने का एक कारण और भी है। वह यह कि स्पर्शन-इन्द्रिय का साथ तो अनादि से लेकर आज तक अखण्डपने है, कभी भी उसका साथ छूटा नहीं। कभी ऐसा नहीं हुआ कि आत्मा के साथ संसारदशा में स्पर्शन-इन्द्रिय न रहे; पर शेष चार इन्द्रियां अनादि की तो हैं ही नहीं; क्योंकि निगोद में थी ही नहीं, जब से उनका संयोग हुआ है, छूट भी अनेक बार गयी हैं। ये आनी-जानी हैं; आती है, चली जाती हैं, फिर आ जाती हैं। इनसे छूटना न तो कठिन है, और न लाभदायक ही; पर स्पर्शन-इन्द्रिय का छूटना जितना कठिन है, उससे अधिक लाभदायक भी; क्योंकि इसके छूट जाने पर जीव को मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। यह एक बार पूर्णतः छूट जावे तो दुबारा इसका संयोग नहीं होता।

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चार इन्द्रियों की गुलामी तो कभी-कभी ही करनी पड़ती है, पर इस स्पर्शन के गुलाम तो हमस ब अनादि से हैं। इसकी गुलामी छूटे बिना, गुलामी छूटती हीं नहीं। जबतक स्पर्शन- इन्द्रिय के विषय को जीतेंगे नहीं तबतक हम पूर्ण सुखी, पूर्ण स्वतंत्र नहीं हो सकेंगे। इस स्पर्शन- इन्द्रिय के विषय को अपना महान शत्रु, त्रैकालिक शत्रु, सार्वभौमिक शत्रु जानकर ही आचार्यों ने इसके विषय त्याग को ब्रह्मचर्य घोषित किया है, पर इसका आशय यह कदापि नहीं कि हम चार इन्द्रियों के विषयों को भोगते हुए सुखी हो जावेंगे; क्योंकि मर्म की बात तो यह है कि जबतक यह आत्मा आत्मा में लीन नहीं होगा, तबतक किसी न किसी इन्द्रिय का विषय चलता ही रहेगा अैर जब यह आत्मा आत्मा में लीन हो जावेगा तो किसी भी इन्द्रिय का विषय नहीं रहेगा।

अतः यह निश्चित हुआ कि पंचेन्द्रिय के विषयों के त्यागपूर्वक हुई आत्मलीनता ही ब्रह्चर्य हैं

पंचेन्द्रिय के विषय के भोगों के त्याग की बात तो यह जगत आसानी से स्वीकार कर लेता है; किंतु जब यह कहा जाता है कि पंचेन्द्रिय के माध्यम से जानना-देखना भी आत्म-रमणतारूप ब्रह्चर्य में साधक नहीं, बाधक ही है; जो सहज स्वीकार नहीं करता। उसे लगता है कि कहीं ज्ञान (इन्द्रियज्ञान) भी ब्रह्मचर्य में बाधक हो सकता है? पर वह यह विचार नहीं करता कि आत्मा तो अतीन्द्रिय महापदार्थ है, वह इन्द्रियों के माध्यम से कैसे जाना जा सकता है? स्पर्शन- इन्द्रिय के माध्यम से तो स्पर्शवान पुद्गन पकड़ने में आता है, आत्मा तो स्पर्शगुण से रहित है। इसीप्रकार रसना का विषय तो है रस और आत्मा है अरस, घ्राण का विषय तो है गंध और आत्मा है अगंध, चक्षु का विषय है रूप और आत्मा है अरूपी, कर्ण का विषय है शब्द और आत्मा है शब्दातीत, मन का विषय है विकल्प और आत्मा है विकल्पातीत - इसप्रकार सभी इन्द्रियां और अनिंद्रिय (मन) तो स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द विकल्प के ग्राहक हैं और आत्मा अस्पर्शी, अरस, अगंध, अरूपी एवं शब्दातीत और विकल्पातीत है।

अतः इन्द्रियातीत-विकल्पातीत आत्मा को पकड़ने में, जकड़ने में इन्द्रियां और मन अनुपयोगी ही नहीं, वरन् बाधक हैं, घातक हैं; क्योंकि जबतक यह आत्मा इन्द्रियों एवं मन के माध्यक से ही जानता-देखता रहेगा, तबतक आत्मदर्शन नहीं होगा। जब आत्मदर्शन ही न होगा तब आत्मलीनता का तो प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता।

इन्द्रियों की वृत्ति बहिर्मुखी है और आत्मा अन्तरोन्तुखी वृत्ति से पकड़ने में आता है। कविवर द्यानतरायजी ने दशलक्षण पूजन में भी कहा है -

’ब्रह्मभाव अन्तर लखो’

ब्रह्मस्वरूप आत्मा को देखना है तो अंतर में देखो। आत्मा अंतर में झांकने से दिखाई देता है; क्योंकि वह है भी अंतर में ही।

इन्द्रिय की वृत्ति बहिर्मुखी है; क्योंकि वे अपने को नहीं, पर को जानने-देखने में निमित्त हैं। सभी इन्द्रियों के दरवाजे बाहर को ही खुलते हैं, अन्दर को नहीं। आंख से आंख दिखाई नहीं देती, आंख के भीतर क्या है - यह भी दिखाई नहीं देता, पर बाहर क्या है - यह दिखाई देता है। इसीप्रकार रसना भी अन्दर का स्वाद नहीं लेती, वरन् बाहर से आनेवाले पदार्थों को चखती है। घ्राण भी क्या भीतर की दुर्गंध सूंघ पाती है? जब वही दुर्गंध किसी रास्ते से निकलकर नाक से बाहर से टकराती है, तब नाक उसे ग्रहण कर पानी है। कन भी बाहर की ही सुनते हैं। स्पर्शन- इन्द्रिय भी मात्र बाहर की सर्दी-गर्मी आदि के प्रति सतर्क दिखाई देती है। - इसप्रकार पांचों ही इन्द्रियां बहिर्मुख वृत्तिवाली हैं।

बहिर्मुखी वृत्तिवाली एवं रूपरसादि की ग्राहक इन्द्रियां अन्तर्मुखी वृत्ति का विषय एवं अरस, अरूपी आत्मा को जानने में सहायकत कैसे हो सकती है? यही कारण है कि इन्द्रियभोगों के समान ही इन्द्रियज्ञान भी ब्रह्चर्य में साधक नहीं, बाधक ही है।

लोग कहते हैं - ’झूठा है संसार, आंख खोलकर देखो’।

पर मैं तो यह कहना चाहता हूं - ’सांचा है आत्मा, आंख बंद करके देखो’। आत्मा आंखें खोलकर देखने की वस्तु नहीं, अपितु आंखें बंद करे देखने की चीज है। आंखों से ही क्या, पांचों इन्द्रियों से उपयोग हटाकर अपने में ले जाने से आत्मा दिखाई देता है।

फिर भी जब इन्द्रिय के भोगों के त्याग की बात करत हैं तो जगत कहता है - ’ठीक है, इन्द्रियभोग त्यागने योग्य ही है, आपने बहुत अच्छा कहा’ पर जब यह कहते हैं कि इन्द्रियज्ञान भी तो आत्मानुभूतिरूप ब्रह्मचर्य में सहायक नहीं; तो सामान्यजन एकदम भड़क जाते हैं; समाज में खलबली मच जाती है। कहा जाता अै - ’तो क्या हम आंख से देखें भीनहीं, शास्त्र भी नहीं पढ़े?’ और न जाने क्या-क्या कहा जाने लगता है। बात की गहराई से समझने की कोशिश न करके आरोप-प्रत्यारोप लगाये जाने लगते हैं; पर भाई! काम तो वस्तु की सही स्थिति समझने से चलेगा, चीखने-चिल्लाने से नहीं। अल्पज्ञ आत्मा एक समय मे एक को ही जान सकता है, एक में ही लीन हो सकता है। अतः जब यह पर को जानेगा, पर में लीन होगा; तब अपने को जानना, अपने में लीन होना संभव नहीं है। इन्द्रियों के माध्यम से पर को ही जाना जा सकता है, पर में ही लीन हुआ जासकता है; इनके माध्यम से न तो अपने को जाना ही जा सकता है, और न ही अपने में लीन ही हुआ जा सकता है। अतः इन्द्रियों के द्वारा परपदार्थों को भोगना तो ब्रह्चर्य का घातक है ही, इनके माध्यम से बाहर का जानना-देखना भी ब्रह्चर्य में बाधक ही है।

इसप्रकार इन्द्रियों के विषय-चाहे वे भोग्यपदार्थ हों, चाहे ज्ञेय पदार्थ; ब्रह्चर्य के विरोधी ही हैं; क्योंकि वे आखिर हैं तो इन्द्रियों के विषय ही। इन्द्रियों के दोनों प्रकार के विषयों में उलझना, उलझना ही है; सुलझना नहीं। सुलझने का उपाय तो एक आत्मलीनतारूप ब्रह्चर्य ही है।

यहां एक प्रश्न संभव है कि जब इन्द्रियज्ञान आत्मज्ञान में साधक नहीं है तो फिर शास्त्रों में ऐसा क्यों लिखा है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं आत्मलीनतारूप सम्यक्चारित्र अर्थात ब्रह्चर्य सैनी पंचेन्द्रय को ही होता है?

इसका आशय यह नहीं कि आत्मज्ञान के लिए इन्द्रियों की आवश्यकता है; पर यह है कि ज्ञान का इतना विकास आवश्यक है कि जितना सैनी पंचेन्द्रियों के होता है। यह तो ज्ञान के विकास का नाप है।

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यद्यपि यह पूर्णतः सत्य है कि सैनी पंचेन्द्रिय जीवों को ही धर्म का आरंभ होता है, तथापि यह भी पूर्णतः सत्य है कि इन्द्रियों से नहीं, इन्द्रियों के जीतने से, उनके माध्यम से काम लेना बंद करने पर धर्म का आरंभ होता है।

दूसरे जब यह आत्मा आत्मा में लीन नहीं होगा, तब किसी न किसी इन्द्रिय के विषय में लीन होगा; पर पांचों इन्द्रियों के विषय में भी यह एक साथ लीन नहीं हो सकता, एक समय मंउनमें से किसी एक में लीन होगा। इसीप्रकार पांचों इन्द्रियों के विषयों को एक साथ जान भी नहीं सकता; क्योंकि इन्द्रियज्ञान की प्रवृत्ति क्रमशः ही होती है, युगपत् नहीं। चाहे इन्द्रियों का भोगपक्ष हो या ज्ञानपक्ष -दोनों में क्रम पड़ता है। जब हम ध्यान से कोई वस्तु देख रहे हों तो कुछ सुनाई नहीं पड़ता। इसीप्रकार यदि ध्यान से सुन रहे हों तो कुछ दिखाई नहीं देता। पर इस चंचल उपयोग का परिवर्तन इतनी शीघ्रता से होता है कि हमें लगता है हम एक साथ देख-सुन रहे हैं, पर ऐसा होता नहीं।

जिसके पांच इन्द्रियां हैं, यदि वह उपयोग को आत्मा में नहीं लगाता है तो उसका उपयोग पांचों इन्द्रियों के विषयों में बंट जावेगा; पर जिसके चार ही इन्द्रियां हैं, उसका उपयोग चार इन्द्रियों के विषयों में ही बंटेगा। इसप्रकार तीन- इन्द्रिय जीव का तीन इन्द्रियों में और दो- इन्द्रिय जीव का दो इन्द्रियों में बंटेगा। पर एक‘- इन्द्रिय जीव का उपयोग एवं भोग बंटेगा ही नहीं, स्पर्शन- इन्द्रिय के विषय में ही अबाधरूप से उलझा रहेगा।

इस तरह जब उपयोग आत्मा में नहीं रहता है तब इन्द्रियों के विषयों में बंट जाता है। आत्मा तो एक ही है, उपयोग का उसमें रहने पर बंटने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। ज बवह सैनी पंचेन्द्रिय हो जाता है, तब बहिर्मुखी उपयोग पंचेन्द्रियों के विषयों में बंटा जाने से कमजोर हो जाता है।

इस स्थिति में ज्ञान के विकसित होने एवं इन्द्रियों के उपयोग की शक्ति बंटी हुई होने से आत्मज्ञान की शक्ति प्रकट हो जाती है। इसप्रकार हम देखते हैं कि पंचेन्द्रियों से ज्ञेय एवं भोग - दोनों प्रकार के विषयों के त्यागपूर्वक आत्मलीनता ही वास्तविकता अर्थात् निश्चयब्रह्मचर्य है।

अंतरंग अर्थात् निश्चयब्रह्मचर्य पर इतना बल देने का तात्पर्य यह नहीं है कि स्त्री - सेवनादि के त्यागरूप बाह्य अर्थात् व्यवहार-ब्रह्मचर्य उपेक्षणीय है। यहां निश्चयब्रह्चर्य का विस्तृत विवेचक तो इसलिए किया गया है कि - व्यवहारब्रह्मचर्य से तो सारा जगत परिचित है, पर निश्चयब्रह्चर्य की ओर जगत का ध्यान ही नहीं है। जीवन में दोनों का सुमेल होना आवश्यक है। जिसप्रकार आत्मरमणतारूप निश्चयब्रह्मचर्य की उपेक्षा करके मात्र कुशीलादि सेवन के त्यागरूप व्यवहारब्रह्मचर्य को ही ब्रह्मचर्य मान लेने के कारण उल्लिखित अनेक आपत्तियां आती हैं; उसीप्रकाार विषयसेवन के त्यागरूप व्यवहारब्रह्मचर्य की उपेक्षा से भी अनेक प्रश्न उठ खड़े होंगे।

उपदेशादि में प्रवृत्त भावलिंगी सन्तों को भी तात्कलिक आत्मरमणतारूप प्रवृत्ति के अभाव में ब्रह्मचारी कहना सम्भव न होगा; फिर तो मात्र सदा ही आत्मलीन केवली ही ब्रह्चारी कहला सकेंगे। यदि आप कहें कि उनके जो आत्मरमणतारूप ब्रह्चर्य है, उसका उपचार करके तब भी उन्हें ब्रह्चारी मान लेंगे, जबकि वे उपदेशादि क्रिया में प्रवृत्त हैं। तो फिर किंचित् ही सही, पर आत्मरमरणता के होने से अविरतसम्यग्दृष्टि को भी ब्रह्चारी मानना होगा, जो कि उचित प्रतीत नहीं होत; क्योंकि फिर तो छ्यानवे हजार पत्नियों के रहते चक्रवर्ती भी ब्रह्चारी कहा जायगा। अतः ब्रह्चारी संज्ञा स्वस्त्री के सेवनादि के त्यागरूप व्यावहारब्रह्चर्य के ही आधार पर निश्चित होती है; फिर भी आत्मरमणतारूप निश्चयब्रह्मचर्य के अभाव में मात्र स्त्रीसेवनादि के त्यागरूप ब्रह्मचर्य वास्तविक ब्रह्मचर्य नहीं है।

पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक के अनन्तानुबंधी एवं अप्रत्याख्यानावरण कषायों के अभावपूर्वक जो सातवीं प्रतिमा के योग्य निश्चयब्रह्मचर्य होता है, उसके साथ स्वस्त्री के सेवनादि के त्यागरूप बुद्धिपूर्वक जो प्रतिज्ञा होती है, वही वास्तव में व्यवहारब्रह्मचर्य है। इसप्रकार जीवन में निश्चय और व्यवहार ब्रह्मचर्य का सुमेल आवश्यक है। पूजनकार ने दोनों की ही संतुलित चर्चा की है -

शीलबाड़ नौ राख, ब्रह्मभाव अंतर लखो।
करि दोनों अभिलाख, करहु सफल नरभव सदा।।

हमें अपनी शील की रक्षा नवबाडपूर्वक करना चाहिए तथा अंतर में अपने आत्मा को देखना-अनुभवना चाहिये। दोनों ही प्रकार के ब्रह्चर्य का अभिलाषी होकर मनुष्यभव का वास्तविक लाीा लेना चाहिए।

जिसप्रकार खेत की रक्षा बाड़ लगाकर करते हैं; उसीप्रकार हमें अपने शील की रक्षा नौ बाड़ों से करना चाहिये। जितना अधिक मूल्यवान माल (वस्तु) होता है, उसकी रक्षा-व्यवस्था उतनी ही अधिक मजबूत करनी पड़ती है। अधिक मूल्यवान माल की रक्षा के लिये मजबूती के साथ-साथ एक के स्थान पर अनेक बाड़े लगाई जाती हैं।

हम रत्नों को कहीं जंगल में नहीं रखते। नगर के बीच में - मजबूत मकान के भी भीतर बीचवाले कमरे में लोहे की तिजोरी में तीन-तीन ताले लगाकर रखते हैं। शील भी एक रत्न है, उसकी भी रक्षा हमें नौ-नौ बाड़ो से करनी चाहिए। हम काया से कुशील का सवेन नहीं करे, कुशीलपोषक वचन भी न बोले, मन में भी कुशीलसेवन के विचार न उठने दें। ऐसा न हम स्वयं करें, न दूसरों से करावें, और न इसप्रकार के कार्यों की अनुमोदना ही करें।

इस प्रकार यद्यपि शास्त्रों में भी निश्चब्रह्मचर्य का सहचारी जानकार सत्रीसेवनादि के त्यागरूप व्यवहारब्रह्मचर्य की पर्याप्त चर्चा की गई है; तथापि आत्मरमणतारूप निश्चयब्रह्मचर्य के बिना मुक्ति के मार्ग मंे उसका विशेष महत्व नहीं है। निश्चयब्रह्मचर्य के बिना वह अनाथ-सा ही है।

मुनियों और गृहस्थों की कौनसी भूमिका में किस स्तर का अंतर्बाह्य ब्रह्मचर्य होता है - इसकी चर्चा चरणानुयोग के शास्त्रों में विस्तार से की गई हैं। जिज्ञासु बन्धुओं को इस विषय में विस्तार से वहां जानना चाहिए। उन सबका वर्णन इस लघु निबन्ध में सम्भव नहीं है।

ब्रह्मचर्य आत्मा का धर्म है; अतः उसका सीधा सम्बन्ध आत्महित से है। इसे किसी लौकि प्रयोजन की सिद्धि का माध्यम बनाना ठीक नहीं है; पर आप इसका प्रयोग एक उपाधि जैसा किया जाने लगा है। यह भी आजकल एक उपाधि बनकर रह गया है। जैसे - शास्त्री, न्यायतीर्थ, एम.ए., पी.एच.डी या वाणीभूषण, विद्यावाचस्पति या दानवीर, सरसेठ आदि उपाधियाँ व्यवह्यत होती है; उसीप्रकार इसका भी व्यवहार चल पड़ा है।

यह यश-प्रतिष्ठा का साधन बन गया है। इसका उपयोग इसी अर्थ में किया जाने लगा है। इसकारण भी इसक्षेत्र में विकृति आई है।

जिसप्रकार आज की सम्मानजनक उपाधियां भीड़-भाड़ में ली और दी जाती है, उसीप्रकार इसका भी आदान-प्रदान होने लगा है। अब इसका भी जुलूस निकलात है। इसके लिए भी हाथी चाहिये, बैंड चाहिये। यदि स्त्री-त्याग को भी बैंड‘-बाजे चाहिए तो फिर शादी-ब्याह का क्या होगा?

आज की दुनिया को क्या हो गया है? इसे स्त्री रखने में भी बैंड-बाजे चाहिए, स्त्री छोड़ने में भी बैंड-बाजे चाहिए। समझ में नहीं आता ग्रहण और त्याग में एक-सी क्रिया संभव है?

एक व्यक्ति भीड़-भाड़ के अवसर पर अपने श्रद्धेय गुरू के पास ब्रह्मचर्य लेने पहुंचा, पर जब उन्होंने मन कर दिया तो मेरे जैसे अन्य व्यक्ति के पास सिफारिश कराने के लिए आया। जब उससे कहा गया -

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’’गुरूदेव अभी ब्रह्मचर्य नहीं देना चाहते हैं तो मत लो;वे भी तो कुछ सोच-समझकर मना करते होंगे।’’

उसके द्वारा अनुनय-विनयपूर्वक बहुत आग्रह किये जाने पर जब उससे कहा गया कि ’’भाई! समझ में नहीं आत कि तुम्हें इतनी परेशानी क्यों हो रही है? भले ही गुरूदेव तुम्हें ब्रह्मचर्य व्रत न दें, पर वे तुम्हें ब्रह्मचर्य से रहने से तो रोक नहीं सकते; तुम ब्रह्मचर्य से रहो न, तुम्हें क्या परेशानी है? तुम्हें ब्रह्मचर्य से रहने से तो कोई नहीं रोक सकता।’’

इसके बाद भी उसे संतोष नहीं हुआ तो उससे कहा गया कि ’’अभी रहने दो, अभी छह मास अभ्यास करो। बाद में तुम्हें ब्रह्मचर्य दिला देंगे जल्दी क्या है?’’

तब वह एकदम बोला - ’’ऐसा अवसर फिर कब मिलेगा?’’

’’कैसा अवसर’’ - यह पूछने पर कहने लगा - ’’यह पंचकल्याणक मेला बार-बार थोड़े ही होगा।’’

अब आप ही बताइये कि उसे ब्रह्मचर्य चाहिये कि पचास हजार जनता के बीच ब्रह्मचर्य चाहिए। उसे ब्रह्मचर्य से नहीं, ब्रह्मचर्य की घोषण से मतलब था। उसे ब्रह्मचर्य नहीं, ब्रह्मचर्य की डिग्री चाहिये थी; वह भी सबके बीच घोषणापूर्वक, जिससे उसे समाज में सर्वत्र सम्मान मिलने लगे, उसकी भी पूछ होने लगे, पूजा होने लगे।

जैनधर्मानुसार तो सातवीं ब्रह्मचर्यप्रतिमा तक घर में रहने का अधिकार ही नहीं, कर्तव्य है; अर्थात बनाकर खाने की ही बात नहीं, कमाकर खाने की भी बात है; क्योंकि वह अभी परिग्रहत्यागी नहीं हुआ है, आरंभत्यागी भी नहीं हुआ है। उसे तो चादर ओढने की भी जरूरत नहीं है; वह तो धोती, कुत्र्ता, पगड़ी आदि पहनने का अधिकारी है; शास्त्रों में कहीं भी इसक निषेध नहीं हैं पर ब्रह्मचर्यप्रतिमा तो दूर, पहली भी प्रतिमा नहीं; कोरा ब्रह्मचर्य लिया, चादर ओढ़ी और चल दिये। कमाकर खाना तो दूर, बनाकर खाने में भी छुट्टी। मुझे इस बात की कोई तकलीफ नहीं कि उन्हें समाज क्यों खिलाता है? समाज की यह गुंणग्राहकता प्रशंसनीय ही नहीं, अभिनन्दनीय है। मेरा आश्य तो यह है कि जब उनकी व्यवस्था कहीं भी समाज नहीं कर पाती है, तब देखिये उनका व्यवहार; सर्वत्र उक्त समाज की बुराई करना मानो उनका प्रमुख धर्म हो जाता है। समाज प्रेम से उनका भार उठाये, आदर करे - बहुत बढिया बात है, पर बलात् समाज पर भार डालना शास्त्र-सम्मत नहीं है।

ब्रह्मचर्यधर्म तो एकदम अंतर की चीज है, व्यक्तिगत चीज है; पर वह भी आज उपधि बन गई है। ब्रह्मचर्य तो आत्मा में लीनता का नाम है, पर जब अपने को ब्रह्मचारी कहने वाले आत्मा के नाम से ही बिचकते हों तो क्या कहा जाय?

आत्मा के अनुभव बिना तो सम्यग्दर्शन भी नहीं होता, व्रत तो सम्यग्दर्शन के बाद होते हैं। स्वस्त्री का संगतो छठवीं प्रतिमा तक रहता है, सातवीं प्रतिमा में स्वस्त्री का साथ छूटता है। अर्थात् स्त्रीसेवन के त्याग के पहले आत्मा का अनुभवरूप ब्रह्मचर्य होता है, पर उसकी ओर किसी का ध्यान ही नहीं है।

यहां सम्यग्दर्शन के बिना भी बाह्य ब्रह्मचर्य का निषेध नहीं है; वह निवृति के लिए उपयोगी भी है। गृहस्थी संबंधी झंझटों के न होने से शास्त्रों के अध्ययन-मनन-चिनतन के लिये पूरा-पूरा अवसर मिलता है। पर बाह्य ब्रह्मचर्य लेकर स्वाध्यायादि में न लगकर मानादि पोषण में लगे तो उसने बाह्य ब्रह्मचर्य भी नहीं लिया; मान लिया है, सम्मान लिया है।

ब्रह्मचर्य की चर्चा करते समय दशलक्षण पूजन में एक पंक्ति आती है -

’संसार में विष-बेल-नारी, तज गये योगीश्वरा।’

आजकल जब भी ब्रह्मचर्य की चर्चा चलती है तो दशलक्षण पूजन की उक्त पंक्ति पर बहुत नाक-भौं सिकोड़ी जाती है। कहा जाता है कि इसमें नारियों की निन्दा की गई है। यदि नारी विष की बेल है तो क्या नर अमृत का वृक्ष है? नर भी तो विष-वृक्ष है।

यहां तक कहा जाता है कि पूजाएं पुरूषों ने लिखी हैं, अतः उसमें नारियों के लिए निन्दनीय शब्दों का प्रयोग किया गया है।

तो क्या नारियां भी एक पूजन लिखें और उसमें लिखदें कि:-

’संसार में विष-वृक्ष नर, सब तज गई योगीश्वरीं।’
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भाई ब्रह्मचर्य जैसे पावन विषय को नर-नारी के विवाद का विषय क्यों बनाते हो? ब्रह्मचर्य की चर्चा में पूजनकार का आशय नारी-निंदा नहीं है। पुरूषों को श्रेष्ठ बताना भी पूजनकार को इष्ट नहीं है। इसमें पुरूषों के गीत नहीं गाये हैं, वरन् उन्हें कुशील के विरूद्ध डांटा है, फटकारा है।

नारी शब्द में तो सभी नारियां आ जाती हैं; जिनमें माता, बहिन, पुत्री आदि भी शामिल हैं। तो क्या नारी को विष-बेल कहकर माता, बहिन और पुत्री को विष-बेल कहा गया है।

नहीं, कदापि नहीं।

क्या इस छनद में ’नारी’ के स्थान पर ’जननी’, ’भगिनी’ या ’पुत्री’ शब्द का प्रयोग संभव है?

नहीं, कदापि नहीं; क्योंकि फिर उसका रूप निम्नानुसार हो जावेगा, जो हमें कदापि स्वीकार नहीं हो सकता -

’’संसार में विष-बेल जननी, तज गये योगीश्वरा।’
या
’संसार में विष-बेल भगिनी, तज गये योगीश्वरा।’
या
’संसार में विष-बेल पुत्री, तज गये योगीश्वरा।’

यदि नारी शब्द से कवि का आशय माता, बहिन य पुत्री नहीं हैं तो फिर क्या है? स्पष्ट है कि ’नारी’ शब्द का आशय नर के हृदय में नारी के लक्ष्य से उत्पन्न होने वाले भोग के भाव से है। इसीप्रकार उपलक्षण से नारी के हृदय में नर के लक्ष्य से उत्पन्न होने वले भेग के भाव भी अपेक्षित हैं।

यहां विपरीत सेक्स के प्रति आकर्षण के भाव को ही विष-बेल कहा गया है, चाहे वह पुरूष के हृदय में उत्पन्न हुआ हो, चाहे स्त्री के हृदय में। ओर उसे त्यागने वाले को योगीश्वर कहा गया है; चाहे वह स्त्री हो, चाहे पुरूष। मात्र शब्दों पर न जाकर, शब्दों की अदला-बदली का अनर्थक प्रयास छोड़कर, उनमें समाये भावों को हृदयंगम करने का प्रयत्न किया जाना चाहिए।

यदि हम शब्दों की हेरा-फेरी के चक्कर में पड़े तो कहां-कहां बदलेंगे, क्या-क्या बदलेंगे? हमें अधिकार भी क्या है दूसरों की कृति में हेरा-फेरी करने का।

उक्त पंक्तियों में कवि का परम पावन उद्देश्य आत्मार्थियों को अब्रह्म से हटाकर ब्रह्म में लीन होने की प्रेरणा देने का है। हमें भी उनके भाव को पवित्र हृदय से ग्रहण करना चाहिए।

ब्रह्मचर्य अर्थात् आत्मरमणता साक्षात् धर्म है, सर्वोत्कृष्ट धर्म है। सभी आत्माएं ब्रह्म के शुद्धस्वरूप को जानकर, पहिचानकर; उसी में जम जाएं, रम जाएं और अनन्तकाल तक तद्रूप परिणमित रहकर अनन्त सुखी हों; इस पवित्र भावना के साथ विराम लेता हूँ।