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’शुचेर्भावः शौचम्’ शुचिता अर्थात् पवित्रता का नाम शौच है। शौच के साथ लगा ’उत्तम’ शब्द सम्यग्दर्शन की सत्ता का सूचक है। अतः सम्यग्दर्शन के साथ होने वाली वीतरागी पवित्रता ही उत्तम शौचधर्म है।

शौचधर्म की विरोधी लोभकषाय मानी गई है। लोभ को पाप का बाप कहा जाता है, क्योंकि जगत में ऐसा कौनसा पाप है जिसे लोभी न करता हो। लोभी क्या नहीं करता? उसकी प्रवृत्ति जैसे भी हो, येन-केन-प्रकारेण धनादि भोग-सामग्री इक्ट्ठी करने की ही रहती है।

लोभी व्यक्ति की प्रवृत्ति का चित्रण पं. टोडरमलजी ने इसप्रकार किया है-

’’जब इसके लोभकषाय उत्पन्न हो तब इष्ट पदार्थ के लाभ की इच्छा होने से, उसके अर्थ अनेक उपाय सोचता है। उसके साधनरूप वचन बोलता है, शरीर की अनेक चेष्ट करता है, बहुत कष्ट सहता है, सेवा करता है, विदेश गमन करता है; जिसमें मरण होना जाने यह कार्य भी करता है। जिनमें बहुत दुःख उत्पन्न हो ऐसे आरंभ करता है। तथा लोभ होने पर पूज्य व इष्ट का भी कार्य हो, वहां भी अपना प्रयोजन साधता है, कुछ विचार नहीं रहता तथा जिस इष्ट वस्तु की प्राप्ति न हो या इष्ट का वियोग हो तो स्वयं बहुत संवापवान होता है, अपने अंगों का घात करता है तथा विष आदि से मर जाता है। ऐसी अवस्था लोभ होने पर होती है।1’’

आ. शुभचन्द्र ने तो ’ज्ञानार्णव’ के उन्नीसवें सर्ग में यहां तक लिखा है -

स्वामिगुरूबन्धुवृद्धानबलाबालांश्च जीर्णदीनादीन्।
व्यापद्य विगतशंको लोभार्तों वित्तमादत्ते।।71।

1 मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ 53

ये केचित्सिद्धान्ते दोषाः श्वभ्रस्य साधकाः प्रोक्ताः।
प्रभवन्ति निर्विचारं ते लोभादेव जन्तूनाम्।।71।।

इस लोभकषाय से पीडि़त हुआ व्यक्ति अपने मालिक, गुरू, बंधु, वृद्ध, स्त्री, बालक, तथा क्षीण, दुर्बल, अनाथ, दीनादि को भी निःशंकता से मार कर धन को ग्रहण करता हैं नरक ले जाने वाले जो-जो दोष सिद्धान्तशास्त्रों में कहे गये हैं, वे सब लोभ से प्रकट होते हैं।

पैसे का लोभी व्यक्ति सदा जोड़ने में ही लगा रहता है, भोगने का उसे समय ही नहीं मिलता। पशुओं का लोभ पेट भरने तक ही सीमित रहता है, पेट भर जाने पर वह कुछ समय को ही सही, संतुष्ट हो जाता है; पर मानव की समस्या मात्र पेट भरने तक सीमित नहीं रहती वह पेटी भरने के चक्कर में सदा ही असन्तुष्ट बना रहता है।

दिन-रात हाय पैसा! हाय पैसा!! उसे पैसो के अतिरिक्त कुछ दिखाई ही नहीं देता। वह यह नही समझता कि अनेक प्रयत्न करने पर भी पुण्योयद के बिना धानादि अनुकूल संयोगों को प्राप्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि धनादि संयोगों की प्राप्ति पूर्वकृत पुण्य का फल हैं

इसी बात की ओर ध्यान आकर्षित करने हेतु ’भगवती आराधना’ में लिखा है -

लोभे कए वि अत्थो ण् होइ पुरिसस्त अपडिभोगस्स।
अकएवि हवदि लोभे अत्थो पडिभेगवंतस्स।।1436।।

लोभ करने पर भी पुण्यरहित मनुष्य को द्रव्य मिलता नहीं है और लोभ न करने पर भी पुण्यवान को धन की प्राप्ति होती है।

अतः धन की प्राप्ति में लोभ - आसक्ति कारण नहीं, परंतु पुण्य ही कारण है। ऐसा विचार कर लोभ का त्याग करना चाहिए।

इसके बाद उच्छिष्ट धन के लोभ के त्याग की प्रेरणा देते हुए लिखा है-

सव्वे वि जए अत्था परिगहिदा ते अणंत खुत्तो में
अत्थेसु इत्थ को मज्झ विभओ गहिदविजडेसु।।1437।।
इह य परत्तए लोए दोसे बहुए य आवहइ लोभो।
इदि अप्पणों गणित्ता णिज्जेदव्वो हवदि लोभो।।1438।।
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इस लोक में अनन्तबार धन प्राप्त किया है, अतः अनन्तबार ग्रहणकार त्यागे हुए इस धन के विषय में आश्चर्यचकित होना व्यर्थ है।

इस लोक व परलोक में यह लोभ अनेक दोष उत्पन्न करता है - ऐसा जानकर लोभ पर विजय प्राप्त करना चाहिए।

आज की दुनिया में रूपये-पैसे के लोभ को ही लोभ माना जाता है। कोई विषय-कषाय में ही क्यों न खर्चे, पर दिल खोलकर खर्च करनेवालों को दरियादिल एवं कम खर्च करनेवालों को लोभी कहा जाता है।

किसी ने आपको चाय-नाश्ता करा दिया, सिनेमा दिखा दिया तो वह आपकी दृष्टि में निर्लोभी हो गया और यदिउसके भी चाय-नाश्ते का बिल आपको चुकाना पड़ा या सिनेमा के टिकट आपको खरीदने पड़े तो आप कहने लगेंगे - हाय राम! बड़ा लोभी से पाला पडा।

इसीप्रकार धर्मार्ध संस्था के लिए ही सही, आप चन्द मांगने गये और किसी ने आपकी कल्पना से कम चंदा दिया या न दिया तो लोभी; और यदि कल्पना से अधिक दे दिया तो निर्लोभी, चाहे उसने यश के लोभ में ही अधिक चंदा क्यों न दिया हो। इसप्रकार यश के लोभियों को प्रायः निर्लोभी मान लिया जाता है। ऊपर से उदार दिखने वाला अंदर से बहुत बड़ा लोभी भी हो सकता है; इस बात की ओर हमारा ध्या नही नहीं जाता।

अरे भाई! पैसे का ही लोभ सब-कुछ नहीं है, लोभ तो कई प्रकार का होत है। यश का लोभ, रूप का लोभ, नाम का लोभ, काम का लोभ आदि।

वस्तुतः तो पांचों इन्द्रियों के विषयों की एवं मानादि कषायों की पूर्ति का लोभ ही लोभ है। पैसे का लोभ तो कृत्रिम लोभ है। यह तो मनुष्य भव की नई कमाई है। लोभ तो चारो गतियों में होता है, किंतु रूपये-पैसे का व्यवहार तो चारो गतियों में नहीं है। यदि रूपये-पैसे के लोभ को ही लोभ मानें तो अन्य गतियों में लोभ की सत्ता सम्भव न होगी, जबकि कषायों की बहुलता का वर्णन करते हुए आचार्यों ने लोभ की अधिकता देवगति में बताई है।

नारकियों में क्रोध, मनुष्यों में मान, तिर्यंचों में माया और देवों में लोभ की प्रधानता होती है। देवगति में पैसे का व्यवहार नहीं है, अतः लोभ को पैसो की सीमा में कैसे बांधा जा सकता है?

पैसा तो विनिमय का एक कृत्रिम साधन है। रूपये-पैसे में ऐसा कुछ नहीं है जो जीव को लुभाए। लोग न उसके रूप पर लुभाते हैं, न रस पर।

जिन कागज के नोटों परयह मानव मर मिटने को फिर रहा है, यदि वे नोट गाय के सामने रखो तो वह सूंघेगी भी नहीं; जबकि घास पर झपट पड़ेगी। गाय की दृष्टि में नोटों की कीमत घास के बराबर भी नहीं, पर यह अपने को सभ्य कहने वाला मानव उनके पीछे दिन-रात एक किए डालता है। ऐसा क्या जादू है उनमें?

उनके माध्यम से पंचेन्द्रियों के विषयों की प्राप्ति होती है, मानादि कषायों की पूर्ति होती है। यही कारण है कि मानव उनके प्रति लुभा जाता है। यदि उनके माध्यम से भोगों की प्राप्ति सम्भव न हो, यशादि की प्राप्ति संभव न हो, तो उनको कोई भटे (बेंगन) के भी भाव न पूछे।

पैसे की प्रतिष्ठा आरोपित है, स्वयं की नहीं; अतः पैसों का लोभ भी आरोपित है।

रूप के लोभी, नाम के लोभी रूपये-पैसों को पानी की तरह बहाते कहीं भी देखें जा सकते हैं। कहीं कोई सुंदर कन्या देखी और राजा साहब लुभा गये। फिर क्या? कुछ भी हो, वह कन्या मिलनी चाहिए। ऐसे सैंकड़ों उदाहण मिल जावेंगे पुराणों में, इतिहास में। राजा श्रेणिक चेलना के, पवनंजय अंजना के रूप पर ही तो लुभाए थे।

नाम के लोभी यह कहते मिलेंगे - भाई! सबको एक दिन मरना ही है, कुछ करके जावें तो नाम अमर रहेगा। आत्मा को मरणशील और नाम को अमर मानने वाले और कौन हैं? नाम के लोभी ही तो है। क्या दम है नाम की अमरता में? एक नाम के अनेक व्यक्ति होते हैं, भविष्य में कौन जानेगा यह किसका नाम था?

नाम की अमरता के लिए पाटियों का नाम लिखानेवालों! जरा यह तो सोचो कि भरत चक्रवर्ती जब अपना नाम लिखने गये तो वहां चक्रवर्तियों के नाम से शिला भरी पाई। एक नाम मिटाकर अपना नाम लिखना पड़ा। वे सोचने लगे कि आगे आने वाला चक्रवर्ती मेरा नाम मिटाकर अपना नाम लिखेगा।

और न जाने कितने-कितने प्रकार के लोभी होते हैं? चार प्रकार के लोभ तो आचार्य अकलंकदेव ने ही ’राजवार्तिक’ में गिनाए हैं - जीव-लोभ, आरोग्य-लोभ, इन्द्रिय-लोभ और उपभोग-लोभ।

आचार्य अमृतचन्द्र ने भी ’तत्वार्थसार’ में चार प्रकार के लोभ की चर्चा की है। वे उसमें लिखते हैं -

परिभोगोपभोगत्वं जीवितेन्द्रियभेदतः।
चतुर्विधस्य लोभस्य निवृत्तिः शौचमुच्यते।।17।।
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भोग, उपभोग, जीवन एवं इन्द्रियें के विषयों का - इसप्रकार लोभ चार प्रकार का होता है। इन चारों प्रकार के लोभ के त्याग का नाम शौचधर्म है।

उक्त दोनों प्रकारों में मात्र इतना ही अन्तर है कि अकलंकदेव ने उपभोग में भेग और उपभोग दोनों सम्मिलित कर लिये हैं तथा अरोग्य का लोभ अलग से ले लिया है।

लोभ के उक्त प्रकारों में रूपये-पैसे का लोभ कहीं भी नहीं आता है।

लोभ के उक्त प्रकारों पर ध्यान दे तो पंचेन्द्रियों के विषयों के लोभ की ही प्रमुखता दिखाई देती है। भोग और उपभोग इन्द्रियों के विषय ही तो हैं। शारीरिक आरोग्य भी इन्द्रियों की विषय-ग्रहण शक्ति से ही सम्बन्धित है; क्योंकि पांच इन्द्रियों के अतिरिक्त और शरीर क्या है? इन्द्रियों के समुदाय का नाम ही तो शरीर है। जीवन का लोभ भी शरीर के संयोग बने रहने की लालसा के अतिरिक्त क्या है? इसप्रकार हम देखते हैं कि पंचेन्द्रियों के विषयों में उक्त सभी प्रकार समा जाते हैं।

पंचेन्द्रियों के विषयों के लोभ में फंसे जीवों की दुर्दशा का चित्रण कर लोभ के त्याग की प्रेरणा देते हुए परमात्मप्रकाशकार इसप्रकार लिखते हैं -

रूवि पयंगा सद्दि मय गय फासहि णासंति।
अलिउल गंधइँ मच्छ रसि किम अणुराउ करंति।।2/112।।
जोइय लोहु परिच्चयहि लेहु ण भल्लउ होई।
लोहासत्तउ सयलु जगु दुक्खु सहंतउ जोइ।।2/113।।।

रूप के लोभी पतंगे दीपक पर पड़कर, कर्णप्रिय शब्द के लोभी हिरण शिकारी के बाण में बिंधकर, स्पर्श (काम) के लोभी हाथी हथिनी के लोभ से गड्डे में पड़कर, गंध के लोभी भौंरे कमल में बंधकर और रस के लोभी मच्छ धीवर के कांटे में बिंधकर या जाल में फंसकर दुःख उठाते हैं, नाश को प्राप्त होते हैं। हे जीव! ऐसे विषयों का क्यों लोभ करते हो, उनसे अनुराग क्यों करते हो? हे योगी/ तू लोभ को छोड़। यह लोभ किसी प्रकार अच्छा नहीं। क्योंकि सम्पूर्ण जगत इसमें फंसा हुआ दुःख उठा रहा है।

आत्मस्वभाव को आच्छन्न करनेवाली शौचधर्म की विरोधी लोभकषाय जब अपनी तीव्रता में होती है तो अन्य कषायों को भी दबा देती है। लोभी व्यक्ति मानापमान का विचार नहीं करता। वह क्रोध को भी पी जाता है।

लोभ दूसरी कषायों को काटता ही है, स्वयं को भी काटता है। यश का लोभी धन का लोभ छोड़ देता है।

हिंदी के प्रसिद्ध विद्वान् आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लोभियों की वृत्ति पर व्यंग करते हुए लिखते हैं।

’’लोभियों का दमन योगियों के दमन से किसी प्रकार कम नहीं होता। लोभ के बल से वे काम और क्रोध को जीतते हैं, सुख की वासना का त्याग करते हैं, मान-अपमान में समान भाव रखते हैं। अब और चाहिए क्या? जिससे वे कुछ पाने की आशा रखते हैं, यदि उन्हें द गालियां भी देता है तो उनकी आकृति पर न रोष का कोई चिन्ह प्रकट होता है और न मन में ग्लानि होती है। न उन्हें मक्खी चूसने में घृणा होती है और न रक्त चूसने में दया। सुन्दर रूप देखकर अपनी एक कौड़ी भी नहीं भूलते। करूण से करूण स्वर सुनकर वे अपन एक पैसा भी किसी के यहां नहीं छोड़ते। तुच्छ से तुच्छ व्यक्ति के सामने हाथ फैलाने में लज्जित नहीं होते।1’’

1. चिन्तामणि, भाग 1, पृष्ठ 58

वे और भी लिखते हैं - ’’पक्के लोभी लक्ष्यभ्रष्ट नहीं होत, कच्चे हो जो हैं। किसी वस्तु को लेने के लिए कई आदमी खींचतान कर रहे हैं, उनमें से एक क्रोध में आकर वस्तु को नष्ट कर देता है, उसे पक्का लोभी नहीं कह सकते; क्योंकि क्रोध नेउसके लोभ को दबा दिया, वह लक्ष्यभ्रष्ट हो गया।1।।

लालसा, लालच, तृष्णा, अभिलाषा, चाह आदि लोभ के अनेक नाम हैं। प्रेम या प्रीति भी लोभ के ही नामान्तर हैं। जब लोभ किसी वस्तु के प्रति होता है तो उसे लोभ या लालच कहा जाता है, पर जब वही लोभ किसी व्यक्ति के प्रति होता है तो उसे प्रीति या प्रेम नाम दिया जाता है।

पंचेन्द्रियों के विषयों के प्रति प्रेम लोभी ही तो है। पंचेन्द्रियों के विषय चेतन भी हो सकते हैं और अचेतन भी। चेतन विषयों के प्रति हुए रागात्मक भाव को प्रेम एवं अचेतन पदार्थों के प्रति हुए रागात्मक भाव को लोभ कह दिया जाता है। पुरूष के स्त्री के प्रति आकर्षण को प्रेम की संज्ञा ही दी जाती है।

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इस सम्बंध में भी शुक्लजी के विचार और द्रष्टव्य हैं -

’’पर साधारण बोल-चाल में वस्तु के प्रति मन की जो ललक होती है उसे ’लोभ’ और किसी भी व्यक्ति के प्रति जो ललक होती है उसे ’प्रेम’ कहते हैं। वस्तु और व्यक्ति के विषय-भेद से लोभ के स्वरूप और प्रवृत्ति में बहुत भेद पड़ जाता है, इससे व्यक्ति के लोभ को अलग नाम दिया गया है। पर मूल में लोभ और प्रेम दोनों एक ही हैं।2’’

परिष्कृत लोभ को उदात्त प्रेम, वात्सल्य आदि अनेक सुन्दर-सुन्दर नाम दिये जाते हैं; पर वे सब आखिर हैं तो लोभ के रूपानतर ही। माता-पिता, पुत्र-पुत्री आदि के प्रति होनेवाले राग को पवित्र ही माना जाता है।

कुछ लोभ तो इतना परिष्कृत होता है कि वह लोभ-सा ही नहीं दिखता। उसमें लोगों को धर्म का भ्रम हो जाता है। स्वर्गादि का लोभ इसीप्रकार का होता है।

1. चिन्तामणि भाग 1, पृष्ठ 49

2. वही, पृष्ठ 59

बात बुन्देलखण्ड की है, बहुत पुरानी। एक सेठ साहब को उनके स्नही पंडितजी लोभी कहा करते थे। एक बार सेठ साहन ने पंडितजी से पंचकल्याणक प्रतिष्ठा करवाने एवं गजरथ चलवाने का विचार व्यक्त किया तो पंडित तपाक से बोले - तुम जैसे लोभी क्या गजरथ चलायेंगे, क्या पंचकल्याणक करायेंगे?

सेठ साहब के बहुत आग्रह करने पर उन्होंने कहा - अच्छा, आप करवाना ही चाहते हैं तो पांच हजार रूपया मंगाइये। पंडितजी का कहना था कि सेठ साहब ने तत्काल हजार-हजार रूपयों की पांच थैलियां लाकर पंडितजी के सामने रख दीं। उस समय नोटों का प्रचलन बहुत कम था। एक-एक थैली का वनज 10-10 किलो से भी अधिक था।

पंडितजी के कहने पर पांच मजदूर बुलवाये गये तथा उनको थैलियां देकर बेतवा नदी के किनारे चलने को कहा। साथ में सेठजी और पंडितजी भी थे।

गहरी धार के किनारे पहुंचकर पंडितजी ने सेठजी से कहा कि इन रूपयों को नदी की गहरी धार में फेंक दो और घर चलकर गजरथ की तैयारी करो। जब सेठजी बिना मीन-मेख किये रूपये फेंकने को तैयार हो गये तो पंडितजी ने रोक दिया और कहा अब तुम पंचकल्याण करा सकते हो। तात्पर्य यह है कि यह समझो कि पांच हजार तो पानी में गये, अब और हिम्मत हो तो आगे बात करो।

उस समय के पांच हजार आज के पांच लाख के बराबर थे। पंडितजी सेठजी का हृदय देखना चाहते थे। बाद में बहुत जोरदार पंचकल्याणक हुआ। सेठजी ने दिल खोलकर खर्च किया।

अंत में ’अब आप मुझसे एक बार और लोभी कहिये’ - कहकर सेठ साहब पंडितजी की ओर देखकर मुस्कुराने लगे।

तब पंडितजी ने कहा - ’लोभी, लोभी और महालोभी।’

क्यों और कैसे?’ - ऐसा पूछने पर वे कहने लगे - ’इसलिए कि जब आपसे यह धन यहां न भोगा जा सका तो अगले भव में ले जाने के लिए यह सब कुछ कर डाला। अगले भव तक के लिए भोगों का इन्तजाम करने वाले महालोभ नही तो क्या निर्लोभी होंगे?

स्वार्गादि के लोभ में धर्म के नाम पर सब-कुछ करना यद्यपि लोभ ही है, तथापि ऐसे लोभी जगत में धर्मात्मा-से दिखते हैं।

आचार्यों ने तो माक्ष के चाहनेवालों को भी लोभियों में ही गिना है; क्योंकि आखिर चाह लोभ ही तो है, चाहे किसी की भी क्यों न हो।

आचार्य परमेष्ठी का स्वरूप स्पष्ट करते हुए पंडित टोडरमलजी ने ’धर्म के लोभी’ शब्द का भी प्रयोग किया है, जो इसप्रकार है -

’’कदाचित धर्म के लोभी अन्य जीव-याचक उनको देखकर राग अंश के उदय से करूणाबुद्धि हो तो उनको धर्मोपदेश देते हैं।1’’

आचार्य अमृतचन्द्र ने ज्ञेय के लोभियों की भी चर्चा की है।2

धर्म और धर्मात्माओं के प्रति उत्पन्न हुए राग को तो धर्म तक कह दिया जाता है, वह भी जिनवाणी में भी; पर वह सब व्यवहार का कथन होता है। उसमें ध्यान रखने की बात यह है कि राग लोभान्त-कषाों का ही भेद है, वह अकषायरूप नहीं हो सकता। जब अकषायभाव-वीतरागभाव का नाम धर्म है, तो रागभाव-कषायभाव धर्म कैसे हो सकता है? अतः यह निश्चितरूप से कहा जा सकता है कि लोभादिकषायरूपतामक है स्वरूप जिसका, ऐसा राग चाहे वह मन्द हो चाहे तीव्र चाहे शुभ हो चाहे अशुभ, चाहे अशुभ के प्रति हो चाहे शुभ के प्रति; वह धर्म नहीं हो सकता; क्योंकि है तो आखिर वह राग (लोभ) रूप ही।

यह बात सुनकर चैंकिये नहीं, जरा गंभीरता से विचार कीजिए। शास्त्रों में लोभ की सत्ता दश्वें गुणस्थान तक नहीं। तो क्या छठवें गुणस्थान से लेकर दशवें गुणस्थान तक विचरण करने वाले परमपूज्य भावलिंगी मुनिराजों को विषयों के प्रति लोभ होता होगा? नहीं, कदापि नहीं। उनके लोभ का आलम्बन धर्म और धर्मात्मा ही हो सकते हैं।

1. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ 4

2. समयसार गाथ 15 की आत्मख्याति टीका में

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आप कह सकते हैं कि जिनके तन पर धागा भी नहीं, जो सर्वपरिग्रह के त्यागी हैं - ऐसे कुन्दकुन्द आदि मुनिराज के भी लोभ? कैसी बातें करते हो? पर भाइ! ये बातें मैं नहीं कर रहा, शास्त्रों में हैं और सभी शास्त्राभ्यासी इन बातों को अच्छी तरह जानते हैं।

अतः जब लोभ का वास्तविक अर्थ समझना है तो उसे व्यापक अर्थ में ही समझना होगा। उसे मात्र रूपये-पैसे तक सीमित करने से काम नहीं चलेगा।

आप यह भी कह सकते हैं कि अपनी बात तो करते नहीं, मुनिराजों की बात करने लगे। पर भाई! यह क्यों भूल जाते हो कि यह शौचधर्म के प्रसंग में बात चल रही है और शौचधर्म का वर्णन शास्त्रें में मुनियों की अपेक्षा ही आया है। उत्तमक्षमादि दशधर्म तत्वार्थसूत्र में गुप्ति-समितिरूप मुनिधर्म के साथ ही वर्णित हैं।

बहुत-सा लोभ जिसे आचार्यों ने पाप का बाप कहा है, आज धर्म बन के बैठा है। धर्म के ठेकेदार उसे धर्म सिद्ध करने पर उतारू हैं। उसे मोक्ष का कारण तक मान रहे हैं और नहीं माननेवालों को कोस रहे हैं।

पच्चीस कषाएं राग-द्वेष में गर्भित हैं। उनमें चार प्रकार का क्रोध, चार प्रकार का मान, अरति, शोक, भय एवं जुगुप्सा - ये बारह कषाएं द्वेष हैं; और चर प्रकार की माया, चार प्रकार का लोभ, तीन प्रकार के वेद, रति एवं हास्य-ये तेरह कषाएं राग हैं।

इसप्रकार जब चारों प्रकार का लोभ राग में गर्भित है, तब राग को धर्म मानने वालों को सोचना चाहिए कि वे लोभ को धर्म मान रहे हैं; पर लोभ तो पाप नहीं, पाप का बाप है।

राग चाहे मन्द हो, चाहे तीव्र; चाहे शुभ हो,चाहे अशुीा; वह होगा तो राग ही और ज बवह राग है तो वह या तो माया या लोभ या वेद या रति या हास्य। इनके अतिरिक्त तो राग का ओर कोई प्रकार है ही नहीं शास्त्रों में। हो तो बतायें? ये तेरह कषाएं ही राग हैं। अतः राग को धर्म मानने का अर्थ है कषाय के धर्म मानना, जबकि धर्म तो अकषायभाव का नाम है।

चारित्र ही साक्षत् धर्म है और वह मोह तथा मोक्ष (राग-द्वेष) से रहित अकषयभावरूप आत्मपरिणाम ही है। दशधर्म भी चारित्र के ही रूप हैं। अतः वे भी अकषायरूप ही हैं।

शौचधर्म- उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव से भी बड़ा धर्म है; क्योंकि शौचधर्म की विरोधी लोभकषाय का अन्त क्रोध, मान, माया आदि समस्त कषायों के अंत में होता है। अतः जिसका लोभ पूर्णतः समाप्त हो गया, उसके क्रोधादि पूरे चले जाएं तब भी लोभ रह सकता है, पर लोभ के पूर्णतः चले जाने पर क्रोधदि की उपस्थिति भी सम्भव नहीं है।

यही कारण है कि सबसे खतरनाक कषाय लोभ है और सबसे बड़ा धर्म शौच है। कहा भी है -

’शौच सदा निरदोष, धर्म बड़ो संसार में।’

उक्त कथन से एक बात यह भी प्रतिफलित होती है कि शौचधर्म मात्र लोभकषाय के अभाव का ही नाम नहीं, वरन् लोभानत कषायों के अभाव का नाम है। क्योंकि यदि पवित्रता का नाम ही शौचधर्म है तो क्या सिर्फ लोभकषाय ही आत्मा को अपवित्र करती है, अन्य कषायें नहीं? यदि सभी कषायें आत्मा को अपवित्र करती है, तो फिर समस्त कषायों के अभाव का नाम ही शौचधर्म होना चाहिए।

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यदि अप कहं कि क्रोध का अभाव तो क्षमा है, मान का अभाव मार्दव है और मया का अभाव आर्जव है; अब लोभ ही बचा, अतः उसका अभाव शौच हो गया। तब मैं कहूंगा कि क्या क्रोध, मान, माया और लोभ ही कषायें हैं; हास्य, रति, अरति कषायें नहीं; भय, जुगुप्सा और शौक कषायें नहीं; स्त्रीवेद, पुरूषवेद और नपुंसकवेद कषायें नहीं? - ये भी तो कषायें हैं। क्या ये आत्मा को अपवित्र नहीं करतीं?

यदि करती है तो फिर पच्चीस कषायों के अभाव को शौचधर्म कहा जाना चाहिए, न कि मात्र लोभ के अभाव को।

अब आप कहते हैं कि भाई! हमने थोड़े ही कहा है - शास्त्रों में लिखा है, आचार्यों ने कहा है।

पर भाई साहब! यही तो मैं कहता हूं क शास्त्रों में लोभ के अभाव को शौच का है और लोभ के पूर्णतः अभाव होने के पहिले सभी कषायों का अभाव हो जाता है; अतः स्वतः ही सिद्ध हो गया कि सभी प्रकार के कषायभावों से आत्मा अपवित्र होता है और सभी कषायों के अभाव होने पर शौचधर्म प्रकट होता है।

लोभानत माने लोभ है अंत में जिनके - ऐसी सभी कषायें। चूंकि लोभ पच्चीसों कषायों के अंत में समाप्त होता है, अतः लोभान्त में पच्चीसों कषायें आ जाती है।

यह पूर्ण शौचधर्म की बात है। अंशरूप में जितना-जितना लोभान्त कषायों का अभाव होगा, उतना-उतना शौचधर्म प्रकट होता जावेगा।

यहां एक प्रश्न संभव है कि जब क्रोधदि सभी कषायें आतमा को अपवित्र करती है तो क्रोध के जाने पर भी आत्मा में कुछ न कुछ पवित्रता प्रकट होगी ही, अतः क्रोध के अभाव को या मान के अभाव को शौचधर्म क्यों नहीं कहा; लोभ के अभाव को ही क्यों कहा?

इसका भी कारण है और वह यह कि क्रोध के पूर्णतः चले जाने पर भी आत्मा में पूर्ण पवित्रता प्रकट नहीं होती, क्योंकि लोभ तब भी रह जाता है। पर लोभके पूर्णतः चले जाने पर कोई भी कषाय नहीं रहती। अतः पूर्ण पवित्रता को लक्ष्य में रखकर ही लोभ के अभाव को शौचधर्म कहा है। अंशरूप से जितना कषायभाव कम होता है, उतनी शुचता आत्मा में प्रकट होती ही है।

लोभकषाय सबसे मजबूत कषाय है। यही कारण है कि वह सबसे अंत तक रहती है। जब इसका भी अभाव हो जाता है, तब शौचधर्म प्रकट होता है; अतः वहमहान धर्म है।

इस महान शौचधर्म को लोगों के नहाने-धोने तक सीमित कर दिया है। नहाना-धोना बुरा है - यह मैं नहीं कहता; पर उसमें वास्तविक शुचिता नहीं, उससे शौचधर्म नहीं होता। शौचधर्म का जैसा प्रकर्ष अस्नानव्रती मुनिराजों के होता है, वैसा दिन में तीन-तीन बार नहाने वाले गृहस्थों के नहीं।

पूजनकार ने कहा भी है -

प्राणी सदा शुचि शील जप तप, ज्ञान ध्यान प्रभावतें।
नित गंगजमुन समुद्र नहाये, अशुचि दोष सुभावतें।।
ऊपर अमल मल भरयों भीर, कौन विधि घट शुचि कहै।
बहु देह मैली सुगुन थैली, शौच गुन साधु लहै।।

स्वभाव से तो आत्मा परम पवित्र है ही; पर्याय में जो मोह-राग-द्वेष की अपवित्रता है, वह नहाने-धोने से जाने वाली नहीं। वह आत्मज्ञान, आत्मध्यान, शील-संयम, जप-तप के प्रभाव से ही जायेगी। देह तो हाड़ मासं से बनी होने से स्वभावतः ही अशुचि है। यह गंगा-जमुना में मल-मलकर नहाने से पवित्र होने वाली नहीं है। यह देह तो उस घडे के समान है, जो ऊपर से निर्मल दिखाई देता है, पर जिसके भीतर मन भरा हो। ऐसे घड़े को कितना ही मल-मलकर शुद्ध करो, वह पवित्र होने वाला नहीं। उसीप्रकार यह शरीर है; इसकी कितनी ही सफाई करो, जब यह मैल से ही बना है तो पवित्र कैसे हो सकता है?

यद्यपि यह देह मैली है, तथापि इसमें अनन्तगुणों का पिण्ड आत्मा विद्यमान है; अतः एक प्रकार से यह सुगुणों की थैली है। यही कारण है कि देह की सफाई पर ध्यान भी न देने वाले मुनिराज आत्मगुणों का विकास करके शौचधर्म कोप्रकट करते हैं।

दूसरी बात यह भी तो है कि शौचधर्म आत्मा का धर्म है, शारीरिक अपवित्रता से उसको क्या लेना-देनाद्य फिर शरीर तो मैल का ही बना है। खून, मांस, हड्डी आदि के अतिरिक्त और शरीर में ही क्या? जब ये सभी पदार्थ अपवित्र हैं तो फिर इस सबके समुदायरूप शरीर को पवित्र कैसे कहा जा सकता है?

इसी बात को स्पष्ट करते हुए मैंने बहुत पहले लिखा था -

यदि हड्डी अपवित्र है, तो वह तेरी नाँही।
और खून भी अशुच है, वह पुद्गल परछाँहि।।
तेरी शुचिता ज्ञान है, और अशुचिता राग।
राग-आग को त्याग कर, निज को निज में पाग।।
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खून, मांस और हड्डी की अपवित्रता तो देह की बात है। आत्मा की अपवित्रता तो मोह-राग-द्वेष हैं तथा आत्मा की पवित्रता ज्ञानानन्दस्वभाव एवं सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र है।

अतः आत्मा को अपवित्र करने वाले मोह-राग-द्वोष को कम करने के लिए अपने को जानिये, अपने को पहचानिये और अपने में ही समा जाइये। ’जिन को निज में पाग’ का यही आशय है।

राग-द्वेष में पच्चीसों कषायों आ जाती है, इनमें लोभकषाय राग में आती है; यह सब पहले ही स्पष्ट किया जा चुक है।

जरा विचार तो करो! ये राग-द्वेषभाव हड्डी-खून-मांस आदि से भी अधिक अपवित्र हैं; क्योंकि हड्डी-खून-मांस उपस्थित रहते हैं, फिर भी पूर्ण पवित्रता, केवलज्ञान और अनन्तसुख प्रकट हो जाते हैं, आत्मा अमल हो जाता है। किंतु यदि रंचमात्र भी राग रहे; चाहे वह मंद से मंदतर एवं मंदतम ही क्यों न हो, कितना भी शुभ क्यों न हो, केवलज्ञान व अनन्तसुा नहीं हो सकता।

आत्मा पहिले वीतरागी होता है फिर सर्वज्ञ। सर्वज्ञ होने के लिए वीतरागी होना जरूरी है; वीतदेव नहीं, वीतहड्डी नहीं, वीतखून भी नहीं। इससे सिद्ध है कि रागभाव हड्डी और खून से भी अधिक अपवित्र है। इस पर भी हम उसे धर्म माने बैठे हैं।

मूल बात यह है कि खून और हड्उी चाहे पवित्र हों या अपवित्र, उनका आत्मा की पवित्रता से कोई सम्बन्ध नहीं है। खून और हड्डियाँ एक-सी होने पर भी आव्रती-मिथ्यादृष्टि अपवित्र हैं और सम्यग्दृष्टि व्रती-महाव्रती पवित्र हैं।

इससे यहसहज सिद्ध है कि आत्मा की पवित्रता वीतरागता में है और अपवित्रता मोह-राग-द्वेष में; खून-मांस-हड्डी का उससे कोइ्र सम्बंध नहीं।

वादिराज मुनिराज के शरीर में कोढ हो गया था, फिर भी वे परम पवित्र थे, शौचधर्म के धनी थे। गृहस्थावस्था में सनतकुमार चक्रवर्ती की जब कंचन जैसा काया थी, जिनके सौन्र्द की चर्चा इन्द्रसभा में भी चलती थाी, जिसे सुनकर देवगण उनके दर्शनार्थ आते थे; तब तो उनके उस स्तर का शौचधर्म नहीं था, जिस स्तर का मुनि अवस्था में था। जबकि मुनि अवस्था में उनके शरीर में कोढ़ हो गया था, जो सात सौ वर्ष तक रहा। उस कोढ़ी दशा में भी उनके तीन कषाय के अभावरूप शौचधर्म मौजूद था।

जरा विचार तो करो कि शौचधर्म क्या है? इसे शरीर की शुद्धि तक सीमित करना तत्सम्बंधी अज्ञान ही है।

व्यवहार से उसे भी कहीं-कहीं शौचधर्म कह दिया जाता है, पर वस्तुतः लोभान्त कषायों का अभाव ही शौचधर्म है। दूसरे शब्दों में वीतरागता ही वास्तविक शौचधर्म है।

पूर्ण वीतरागता और केवलज्ञान प्रतिदिन नहानेवालों को नहीं, जीवनभर नहीं नहाने की प्रतिज्ञा करनेवालों को प्राप्त होते हैं।

लोग कहते हैं - हड्डी आदि अपवित्र पदार्थों के छू जाने पर तो नहाना ही पड़ता है?

हाँ! हाँ!! नहाना पडता है, पर कसे? हड्डियों को ही न? आत्मा तो अस्पर्शस्वभावी है, उसे ते पानी छू भी नहीं सकता है। हड्डियाँ ही नहाती हैं।

यदि ऐसी बात है तो फिर मुनिराज नहाने का त्याग क्यों करते हैं।

मुनिराज नहाने का नहीं, नहाने के राग का त्याग करते हैं और जब नहाने का राग ही उन्हें नहीं रहा, तो फिर नहाना कैसे हो सकता है?

कैसी विचित्र बात है कि इस हड्डियों के शरीर को हड्डी छू जाने से नहाना पड़ता है। हम सब मुंह से रोटी खाते हैं, दांतों से उसे चबाते हैं। दाँत क्या हैं? हड्डियाँ ही तो हैं। जब तक दांत मुंह में हैं, छूत हैं; अपने स्थान से हटते ही अछूत हो जाते हैं। इस पर लोग कहते हैं - यह जीवित हड्डी और वह मरी हड्डी। उनकी दृष्टि में हड्डियां भी जीवित औरमरी - दो प्रकार की होती है।

जो कुछ भी हो, ये सब बातें व्यवहार की हैं। संसार में व्यवहार चलता ही है और जबतक हम संसार में हैं तबतक हमस ब व्यवहार निभाते ही हैं, निभाना भी चाहिए; पर मुक्तिमार्ग में उसका कोई स्थान नहीं है।

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यही कारण है कि मुक्ति के पथिक मुनिराज इन व्यवहारों से अतीत होते हैं; वे व्यवहारातीत होते हैं।

अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान - इन तीन कषायों के अभावरूप वास्तविक शौचधर्म - निश्चयारूढ़ - व्यवहारातीत मुनिराजों के ही होता है; क्योंकि उन्होंने परमपवित्र ज्ञानानन्दस्वभावी निजात्मा का अति उग्र आश्रय लिया है। वे आत्मा में ही जम गये हैं,उसी में रम गये हैं।

अनन्तानुबंधी व अप्रत्याख्यान इन दो कषायों के अभाव में एवं मात्र अनन्तानुबंधी के अभाव में होने वाला शौचधर्म क्रमशः देशव्रती व अव्रती सम्यग्दृष्टि श्रावकों के होता है। सम्यग्दृष्टि और देशव्रती श्रावकों के होनेवाला शौचधर्म यद्यपि वास्तविक ही है; तथापि उसमें वैसी निर्मलता नहीं हो पाती, जैसी मुनिदशा में होती है। पूर्णतः शौचधर्म तो वीतरागी सर्वज्ञों के ही होता है।

स्वभाव से तो सभी आत्माएं परमपवित्र ही हैं, विकृति मात्र पार्यय में है। पर जब पर्याय परमपवित्र आत्मस्वभाव का आश्रय लेती है तो वह भी पवित्र हो जाती है। पर्याय के पवित्र होने का एकमात्र उपाय परमपवित्र आत्मस्वभाव का आश्रय लेना है। ’पर’ के आश्रय से पर्याय में अपवित्रता और ’स्व’ के आश्रय से पवित्रता प्रकट होती है।

समयसार गाथा 72 की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र आत्मा को अत्यंत पवित्र एवं मोह-राग-द्वेषरूप आस्त्रव भावों को अपवित्र बताते हैं। उन्होंने आस्त्रवतत्व को अशुचि लिखा है, जीवतत्व और अजीवतत्व को नहीं आत्मा जीव है शरीर अजीव है -दोनों ही अपवित्र नहीं; अपवित्र तो आस्त्रव हैं, जो लोभादि कषायोंरूप है।

स्वभाव की शुचिता में ऐसी सामथ्र्य है कि उस पर जो पया्रय झुके, उसको जो पर्याय छुए, वहउे पवित्र बना देती है। पवित्र कहते ही उसे हैं,जिसको छूने से छूने वाला पवित्र हो जाय। वह कैसा पवित्र, जो दूसरों के छूने से अपवित्र हो जाय? पारस तो उसे कहते हैं, जिसके छूने पर लोहा सोना हो जाय। जिसके छूने से सोना लोहा सोना हो जाय, वह थोड़े पारस कहा जायगा। इसीप्रकार जो अपवित्र पर्याय के छूने से अपवित्र हो जाय, वह स्वभाव कैसा? स्वभाव तो उसका नाम है, जिसके आश्रय से पर्याय भी पवित्र हो जावे।

पवित्र स्वभाव को छूकर जो पर्याय स्वयं पवित्र हो जाय, उस पर्याय को नाम ही शौचधर्म है।

आत्मस्वभाव के स्पर्श बिना अर्थात् आत्मा के अनुभव बिना शौचधर्म क आरंभ भी नहीं होता। शौचधर्म का ही क्या, सभी धर्मों का आरंभ आत्मानुभूति से ही होता है। आत्मानुभूति उत्तमक्षमादि सभी धर्मों की जननी है।

अतः जिन्हें पर्याय में पवित्रता प्रकट करती हो अर्थात् जिन्हें शौचधर्म प्राप्त करना हो, वे आत्मानुभूति प्राप्त करने का यत्न करें, आत्मोन्मुख हों।

सभी आत्माएं आत्मोन्मुख होकर अपनी पर्याय में परमपवित्र शौचधर्म को प्राप्त करें, इस पवित्र भावना के साथ विराम लेता हूँ।

सत्पुरूष कौन है?

सत्पुरूष की सच्ची पहिचयन ही यही है कि जो त्रिकाली धु्रवरूप निज परमात्मा का स्वरूप बताये और उसी की शरण् में जाने की प्रेरणा दे, वही सत्पुरूष है। दुनियादारी में उलझाने वाले, जगत के प्रपंच में फंसानेवाले पुरूष कितने ही सज्जन क्यों न हो, सत्पुरूष नहीं हैं, इस बात को अच्दी तरह समझ लेना चाहिए।

- निमित्तोपादान, पृष्ठ 52