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श्री रत्नत्रय पूजा विधान
रत्नत्रय विधान - सम्यक्चारित्र पूजा
-स्थापना (शंभु छंद)-
आत्मा की सब सावद्ययोग से, जब विरक्ति हो जाती है।
वह त्याग की श्रेणी ही सम्यक्चारित्ररूप हो जाती है।।
वह पंच महाव्रत पंचसमिति, त्रयगुप्ति सहित कहलाता है।
तेरह प्रकार का यह चारित, शिवपद को प्राप्त कराता है।।१।।
-दोहा-
आह्वानन स्थापना, सन्निधिकरण महान।
पूजन हेतू मैं यहाँ, आया हूँ भगवान।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं स्थापनं।
-अष्टक-
तर्ज-देख तेरे संसार की हालत...........
सम्यक्चारित के पालन से होता आत्म विकास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।टेक.।।
पूजन में जल की महिमा है।
जन्म मृत्यु उससे हरना है।।
यथाशक्ति चारित पालन से बढ़ता है अभ्यास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।१।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक्चारित के पालन से होता आत्म विकास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।टेक.।।
चन्दन से चर्चन करना है।
भव आताप शांत करना है।।
यथाशक्ति चारित पालन से बढ़ता है अभ्यास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।२।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक्चारित के पालन से होता आत्म विकास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।टेक.।।
पूजन में अक्षत को चढ़ाया।
मिलेगी अक्षय पद की छाया।।
यथाशक्ति चारित पालन से बढ़ता है अभ्यास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।३।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक्चारित के पालन से होता आत्म विकास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।टेक.।।
पुष्प माल पूजन में चढ़ाऊँ।
कामबाण विध्वंस कराऊँ।।
यथाशक्ति चारित पालन से बढ़ता है अभ्यास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।४।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक्चारित के पालन से होता आत्म विकास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।टेक.।।
पूजन में नैवेद्य चढ़ाऊँ।
क्षुधा रोग हर निज सुख पाऊँ।।
यथाशक्ति चारित पालन से बढ़ता है अभ्यास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।५।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक्चारित के पालन से होता आत्म विकास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।टेक.।।
घृत दीपक का थाल सजाऊँ।
मोहतिमिर को दूर भगाऊँ।।
यथाशक्ति चारित पालन से बढ़ता है अभ्यास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।६।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक्चारित के पालन से होता आत्म विकास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।टेक.।।
अगर तगर की धूप जलाऊँ।
पूजन कर निज कर्म जलाऊँ।।
यथाशक्ति चारित पालन से बढ़ता है अभ्यास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।७।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक्चारित के पालन से होता आत्म विकास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।टेक.।।
आम अनार बदाम चढ़ाऊँ।
पूजन करके शिवफल पाऊँ।।
यथाशक्ति चारित पालन से बढ़ता है अभ्यास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।८।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक्चारित के पालन से होता आत्म विकास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।टेक.।।
अर्घ्य ‘चन्दनामती’ चढ़ाऊँ।
पद अनर्घ्य पूजन से पाऊँ।।
यथाशक्ति चारित पालन से बढ़ता है अभ्यास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।९।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक्चारित के पालन से होता आत्म विकास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।टेक.।।
जल ले शांतीधार करूँ मैं।
विश्वशांति का भाव करूँ मैं।।
यथाशक्ति चारित पालन से बढ़ता है अभ्यास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
सम्यक्चारित के पालन से होता आत्म विकास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।टेक.।।
पूजन में पुष्पांजलि कर लूँ।
गुणपुष्पों को मन में भर लूँ।।
यथाशक्ति चारित पालन से बढ़ता है अभ्यास,
मानो मिलता सूर्य प्रकाश।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
अथ प्रत्येक अर्घ्य
-दोहा-
सम्यक्चारित का वलय, है तृतीय विख्यात।
पुष्पांजलि करके यहाँ, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।।१।।
इति मण्डलस्योपरि तृतीयवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-सखी छंद-
नहिं मन से हिंसा करना, दुर्गति जाने से डरना।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं मनोविशुद्ध्याकृतहिंसाविरतिरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं हिंसक वचन उचरना, रसना इन्द्रिय वश करना।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।२।।
ॐ ह्रीं वचनfिवशुद्ध्याकृतहिंसाविरतिरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तन से भी न हिंसा करना, सर्वदा अहिंसक बनना।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।३।।
ॐ ह्रीं कायविशुद्ध्याकृतहिंसाविरतिरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं झूठ का चिन्तन करना, व्रत सत्य का पालन करना।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।४।।
ॐ ह्रीं मनोविशुद्ध्याकृतसत्यमहाव्रतपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हितमियप्रिय वचन उचरना, व्रत सत्य का पालन करना।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।५।।
ॐ ह्रीं वचनविशुद्ध्याकृतसत्यमहाव्रतपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं तन से प्रेरित करना, व्रत सत्य का पालन करना।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।६।।
ॐ ह्रीं कायविशुद्ध्याकृतसत्यमहाव्रतपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मन से न चोरी करना, अस्तेय महाव्रत धरना।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।७।।
ॐ ह्रीं मनोविशुद्ध्याकृतअस्तेयमहाव्रतपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चोरी के वचन न कहना, अस्तेय का पालन करना।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।८।।
ॐ ह्रीं वचनविशुद्ध्याकृतअस्तेयमहाव्रतपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं काय से चोरी करना, अस्तेय महाव्रत धरना।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।९।।
ॐ ह्रीं कायविशुद्ध्याकृतअस्तेयमहाव्रतपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मन से न कुशील करूँ मैं, ब्रह्मचारी शीघ्र बनूँ मैं।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।१०।।
ॐ ह्रीं मनोविशुद्ध्याकृतब्रह्मचर्यमहाव्रतपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं वचन कुशील के बोलूँ, सुवचन से शिवपथ खोलूँ।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।११।।
ॐ ह्रीं वचनविशुद्ध्याकृतब्रह्मचर्यमहाव्रतपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तन से हो शील का पालन, आत्मा का रहे नित साधन।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।१२।।
ॐ ह्रीं कायविशुद्ध्याकृतब्रह्मचर्यमहाव्रतपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परिग्रह का भाव भी मन में, नहिं किंचित हो चिन्तन में।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।१३।।
ॐ ह्रीं मनोविशुद्ध्याकृत-अपरिग्रहमहाव्रतपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परिग्रह है पाप का कारण, वचनों से भी न हो साधन।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।१४।।
ॐ ह्रीं वचनविशुद्ध्याकृत-अपरिग्रहमहाव्रतपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तन से विशुद्ध रहना है, परिग्रह को नहिं रखना है।
इस व्रत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, सम्यक्चारित पा जाऊँ।।१५।।
ॐ ह्रीं कायविशुद्ध्याकृत-अपरिग्रहमहाव्रतपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
ईर्यासमिती पाल कर, निज मन करूँ पवित्र।
अर्घ्य चढ़ाऊँ समिति को, हो विशुद्ध मम चित्त।।१६।।
ॐ ह्रीं मनसाकृतईर्यासमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
साधु वचन से पालते, ईर्यासमिति पवित्र।
अर्घ्य चढ़ाऊँ समिति को, हो विशुद्ध मम चित्त।।१७।।
ॐ ह्रीं वचनविशुद्ध्याकृतईर्यासमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तन से ईर्यासमिति को, पालें साधु पवित्र।
अर्घ्य चढ़ाऊँ समिति को, हो विशुद्ध मम चित्त।।१८।।
ॐ ह्रीं कायविशुद्ध्याकृतईर्यासमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मन से कोमल वचन जो, बोलें भाषा शुद्ध।
अर्घ्य चढ़ाकर समिति को, हों इक दिन वे मुक्त।।१९।।
ॐ ह्रीं मनोविशुद्ध्याकृतभाषासमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भाषा समिती वचन से, पालें हों वच शुद्ध।
अर्घ्य चढ़ाकर समिति को, हों इक दिन वे मुक्त।।२०।।
ॐ ह्रीं वचनविशुद्ध्याकृतभाषासमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कायशुद्धियुत वचन को, बोलें भाषा शुद्ध।
अर्घ्य चढ़ाकर समिति को, हों इक दिन वे मुक्त।।२१।।
ॐ ह्रीं कायविशुद्ध्याकृतभाषासमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोषरहित एषणसमिति, मुनि पालें मन शुद्ध।
अर्घ्य चढ़ा इस समिति को, करूँ समिति निज शुद्ध।।२२।।
ॐ ह्रीं मनोविशुद्ध्याकृतएषणासमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वचनों से भी जो रखें, मुनि भिक्षा की शुद्धि।
अर्घ्य चढ़ा इस समिति को, करूँ समिति निज शुद्ध।।२३।।
ॐ ह्रीं वचनविशुद्ध्याकृतएषणासमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
काया से आहार की, रखें सदा जो शुद्धि।
अर्घ्य चढ़ा इस समिति को, करूँ समिति निज शुद्ध।।२४।।
ॐ ह्रीं कायविशुद्ध्याकृतएषणासमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लेन-देन जो वस्तु का, दयाभाव मनयुक्त।
उस समिती की अर्चना, करती भाव विशुद्ध।।२५।।
ॐ ह्रीं मनोविशुद्ध्याकृतआदाननिक्षेपणसमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दयायुक्त वच से करें, रखें उठावें वस्तु।
उस समिती की अर्चना, करती भाव विशुद्ध।।२६।।
ॐ ह्रीं वचनविशुद्ध्याकृतआदाननिक्षेपणसमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दयाभावयुत काय से, रखें उठावें वस्तु।
उस समिती की अर्चना, करती भाव विशुद्ध।।२७।।
ॐ ह्रीं कायविशुद्ध्याकृतआदाननिक्षेपणसमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दयायुक्त मन से करें, क्षेपण मल मूत्रादि।
उस समिती युत साधु की, पूजन हरती व्याधि।।२८।।
ॐ ह्रीं मनोविशुद्ध्याकृतउत्सर्गसमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वचनशुद्धि युत भी करें, क्षेपण मल मूत्रादि।
उस समिती युत साधु की, पूजन हरती व्याधि।।२९।।
ॐ ह्रीं वचनविशुद्ध्याकृतउत्सर्गसमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कायशुद्धि युत जो करें, क्षेपण मल मूत्रादि।
उस समिती युत साधु की, पूजन हरती व्याधि।।३०।।
ॐ ह्रीं कायविशुद्ध्याकृतउत्सर्गसमितिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-शंभु छंद-
जो धीर-वीर मुनि मनोगुप्ति का, पालन करते जीवन में।
वे स्थिरचित्त आत्मध्यानी, मनमर्वâट करते हैं वश में।।
मन को अनुशासित कर मैं भी, यह मनोगुप्ति पाना चाहूँ।
मनगुप्ती को अब अर्घ्य चढ़ा, शुद्धातम में आना चाहूँ।।३१।।
ॐ ह्रीं मनोविशुद्ध्याकृतमनोगुप्तिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन महातपस्वी मुनियों के भी, वचनगुप्ति प्रगटित होती।
उनके बिन वचन उचारे ही, वचनों की रिद्धि प्रगट होती।।
रसना इन्द्रिय अनुशासित कर, मैं यह गुप्ती पाना चाहूँ।
वचगुप्ती को अब अर्घ्य चढ़ा, शुद्धातम में आना चाहूँ।।३२।।
ॐ ह्रीं वाक्विशुद्ध्याकृतवचनगुप्तिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कायोत्सर्ग में स्थित हो जो, कायगुप्ति पालन करते।
आचार्य वीरसागर सम शल्य-चिकित्सा में सुस्थिर रहते।।
निज तन अनुशासित कर मैं भी, यह कायगुप्ति पाना चाहूँ।
इस कायगुप्ति को अर्घ्य चढ़ा, शुद्धातम में आना चाहूँ।।३३।।
ॐ ह्रीं कायविशुद्ध्याकृतकायगुप्तिपालनरूपसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
जो पाँच महाव्रत पाँच समिति, त्रयगुप्तिरूप चारित्र कहा।
इनका पालन करने वाले, मुनिराज जगत में पूज्य महा।।
निज में इनको प्रगटित करने, हेतू पूर्णार्घ्य चढ़ाता हूँ।
मन-वचन-काय को स्थिर कर, चारित्र को शीश झुकाता हूँ।।१।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय नम:।
जयमाला
तर्ज-बार-बार तोहे क्या समझाऊँ.......
सम्यक्चारित की पूजन से, होगा बेड़ा पार।
पूर्णाघ्र्य ले हाथों में, गाते हैं हम जयमाल।।टेक.।।
सुनी है हमने देव-शास्त्र-गुरु की महिमा।
पढ़ी है ग्रंथों में इनकी गौरव गरिमा।।
नग्न दिगम्बर मुनियों में, चारित्र दिखे साकार।
पूर्णाघ्र्य ले हाथों में, गाते हैं हम जयमाल।।१।।
पाँच महाव्रत को मन-वच-तन से पालन करते हैं।
पूर्ण ब्रह्मचारी रहकर जीवनयापन करते हैं। ।
‘‘चारित्तं खलु धम्मो’’ का वे, सूत्र करें साकार।
पूर्णाघ्र्य ले हाथों में, गाते हैं हम जयमाल।।२।।
देख-शोधकर चलना-खाना, आदि समितियाँ पालें।
मुनिसम ही आर्यिका मात, उपचार महाव्रत पालें।।
इन गुरुओं का वन्दन करके, हो भव से उद्धार।
पूर्णाघ्र्य ले हाथों में, गाते हैं हम जयमाल।।३।।
तीन गुप्तियों का पालन बस, महामुनी करते हैं।
बड़े-बड़े उपसर्गों को वे, सहन तभी करते हैं।।
व्रत-समिती-गुप्ती में ही, चारित्र का है भण्डार।
पूर्णाघ्र्य ले हाथों में, गाते हैं हम जयमाल।।४।।
यथाशक्ति चारित्र को धारण, हम सबको है करना।
उससे ही ‘चन्दनामती’, भवसिन्धु से पार उतरना।।
सुर पदवी ले परम्परा से, मिले मुक्ति का द्वार।
पूर्णार्घ्य ले हाथों में, गाते हैं हम जयमाल।।५।।
ॐ ह्रीं पंचमहाव्रतपंचसमितित्रयगुप्तिरूपत्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य रत्नत्रय की पूजा सदा करें।
त्रयरत्न प्राप्ति का प्रयत्न ही सदा करें।।
वे रत्नत्रय धारण के फल को प्राप्त करेंगे।
तब ‘चन्दनामती’ वे आत्मतत्त्व लहेंगे।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।