।। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा का महत्त्व ।।

जैन सिद्धान्त के अनुसार कोई भी भव्य जीव तीर्थकर प्रकृति का बंध करके तीर्थकर भगवान् के रूप में अवतार ले सकता है और अवतारी महापुरुषों में अपना नाम अंकित करा सकता है।

पंचकल्याणक- कोई भी जीव कालादि लब्धियों के बल से सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर देव और मनुष्यों के उत्तम-उत्तम सुखों को भोगते हुए कदाचित् तीर्थकर, केवली या श्रुतकेवली के पादमूल में सोलहकारण भावनाओं को भाते हुए अत्यन्त विशुद्धि को प्राप्त करके अपायविचय धर्म्यध्यान के बल से तीर्थकर प्रकृति का बंध कर लेता है। पुनः अंतकाल में सन्यास विधि से मरण करके स्वर्गों के विमान में उपपाद शय्या से जन्म लेकर वहाँ के दिव्य सुखों का चिरकाल तक अनुभव करता है। अनंतर स्वर्ग में स्थित उस इन्द्रपद के धारी महापुरुष की जब छह माह आयु शेष रह जाती है तब सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर उनके जन्म लेने योग्य नगरी की उत्तम शोभा करके तीर्थकर होने वाले महापुरुष की माता के आंगन में रत्नों की वर्षा प्रारंभ कर देता है। छह मास के अनंतर माता सोलह स्वप्न देखती हैं पश्चात् अपने गर्भ में उस महापुरुष को धारण करती हैं। उस समय इन्द्रादि देवगण इस मर्त्यलोक में आकर होनहार भगवान के मातापिता की पूजा करके भगवान के गर्भ कल्याणक महोत्सव को मनाकर चले जाते हैं। यह प्रथम कल्याणक कहलाता है।

नव माह पूर्ण हो जाने पर माता जिनबालक को जन्म देती हैं। उसी क्षण चारों निकाय के देवों के यहाँ बिना बजाये वाद्य बजने लगते हैं। इन्द्रों के मुकुट झुक जाते हैं, उनके सिंहासन कंपित हो उठते हैं, इत्यादि कारणों से अपने अवधिज्ञान के द्वारा तीर्थकर प्रभु का जन्म हो गया है, ऐसा समझकर वे इन्द्रगण महावैभव के साथ वहाँ से आकर जिनबालक को सुमेरुपर्वत पर ले जाकर वहाँ की पाण्डुकशिला पर जन्मजात शिशु का १००८ कलशें द्वारा अभिषेक करके जन्मकल्याणक महोत्सव मनाते हैं। यह द्वितीय कल्याणक कहलाता है।

कोई-कोई तीर्थकर युवावस्था में माता-पिता की प्रेरणा विशेष से सुयोग्य कन्या के साथ विवाह करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते हैं और मंडलीक, महामंडलीक, चक्रवर्ती आदि साम्राज्य को प्राप्त कर प्रजा का पालन करते हैं। अनंतर किसी समय किसी कारणवश वैराग्य को प्राप्त कर जैनेश्वरी दीक्षा लेकर तपश्चरण में रत हो जाते हैं।

कोई-कोई तीर्थकर वैवाहिक बंधन और राज्य को न स्वीकार कर विरक्त होकर दीक्षा के अभिमुख हो जाते हैं। जब तीर्थकर को वैराग्य होता है तो उसी समय लौकांतिक देव आकर उनकी प्रशंसा स्तुति करते हुए अपना नियोग पूरा करते हैं पुनः सौधर्म इन्द्र आदि देवगण आकर प्रभु का दीक्षा अभिषेक करके पालकी में विराजमान कर उन्हें वन में ले जाते हैं, वहाँ पर भगवान् वस्त्राभरणों का त्यागकर पंचमुष्टि केशलोंच करके ध्यान में लीन हो जाते हैं। यह तृतीय कल्याणक कहलाता है।

भगवान को दीक्षा लेते ही अन्तर्मुहूर्त के बाद मनःपर्ययज्ञान प्रकट हो जाता है और कुछ दिन के तपश्चरण के अनंतर उन्हें केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। उस समय इन्द्र समवसरण की रचना कराके प्रभु का केवलज्ञान कल्याणक महोत्सव मनाते हैं। यह चतुर्थ कल्याणक कहलाता है।

बहुत काल तक पृथ्वी पर विहार करते हुए भगवान अपनी दिव्यध्वनि के द्वारा असंख्य भव्य जीवों को मोक्ष का मार्ग दिखाते हुए सच्चे मोक्षमार्ग के नेता कहलाते हैं पुनः आयु के अंत में योग निरोध कर सर्व कर्मों को नि:शेष कर निर्वाणधाम को प्राप्त कर लेते हैं। उस समय भी इन्द्रादि देवगण अतीव वैभव के साथ यहाँ आकर प्रभु का निर्वाण कल्याणक मनाते हैं। यह पाँचवाँ कल्याणक कहलाता है।

इस प्रकार से ये पाँच कल्याणक कहलाते हैं। मध्यलोक में ५ भरत, ५ ऐरावत और १६० विदेह इस तरह कुल ५+५+१६=१७० कर्मभूमियाँ हैं। इन कर्मभूमियों के आर्यखण्ड में तीर्थकर महापुरुषों का अवतार होता रहता है। विदेह क्षेत्र में सर्वदा और सर्वथा चतुर्थकाल की व्यवस्था होने से वहाँ पर सदैव तीर्थकर पुरुष जन्मते रहते हैं किन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्रों में षट्काल परिवर्तन के होते रहने से जब इनमें चतुर्थ काल वर्तन करता है तभी इनमें तीर्थकर पुरुषों का जन्म होता है इसलिए भरत और ऐरावत क्षेत्र में चतुर्थकाल में चौबीस तीर्थकरों का अवतार होता है। ये तीर्थकर पंचकल्याणक के स्वामी ही होते हैं।

स्थापना निक्षेप- ये सभी तीर्थकर भाव निक्षेप से तीर्थकर कहलाते हैं और साक्षात् पंचकल्याणक के अधिनायक माने जाते हैं। इन तीर्थकरों का विहार सतत न होने से अथवा अकृत्रिम चैत्यालयों की जो अकृत्रिम प्रतिमाएं हैं उनके सदृश कृत्रिम प्रतिमाओं को बनवाकर उनको पूज्य बनाने के लिए पंचकल्याणक प्रतिष्ठाएं की जाती हैं। यह प्रतिष्ठा विधि स्थापना निक्षेप है, इस स्थापना निक्षेप से पाषाण या धातु की प्रतिमाएँ साक्षात् जिनेन्द्र भगवान के सदश पज्य हो जाती हैं।

"इस स्थापना निक्षेप में पूज्यता कैसे आ जाती है?"

"पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के ग्रंथों के आधार से प्रतिष्ठाचार्य विद्वान पंद्रह दिन में या कम से कम नव दिन में विधिवत विधि विधान के अनष्ठान द्वारा प्रतिमा को संस्कारित करते हैं। केवलज्ञान कल्याणक के दिन प्रतिमा में गुणारोपण के साथ-साथ नेत्रोन्मीलन विधि, अंकन्यास विधि, प्राणप्रतिष्ठा विधि और सृरिमंत्र के द्वारा उसे अतिशय युक्त चमत्कारिक बना देते हैं।"

इस विधि विधान के प्रसंग में प्रतिष्ठाचार्य विद्वान यदि विधि-विधान में विशारद, पापभीरू और सदाचारी होते हैं तो वे उतनी ही अच्छी क्रिया करते कराते हैं और तभी प्रतिमाओं की प्रतिष्ठाएं सही ढंग से होती हैं जो कि उन्हें तीन जगत में पूज्य बना देती हैं।

प्रतिष्ठाचार्य के साथ-साथ प्रतिष्ठाकारक जो श्रावक सौधर्म इन्द्र आदि बनते हैं, वे भी न्याय से धन कमाने वाले, सदाचारी, विद्वान्, पापभीरू और क्रियाकाण्ड विधि के परम श्रद्धालु होना चाहिए तभी वे प्रतिष्ठाचार्य के अनुकूल क्रियाओं को करते हुए सम्यक् विधि से उन पाषाण आदि की प्रतिमाओं को पूज्य ही नहीं बना देते हैं बल्कि अपनी संसार परम्परा को भी समाप्त कर लेते हैं। जैसे-साक्षात् तीर्थकर के पंचकल्याणक महोत्सव को करने वाला सौधर्म इन्द्र नियम से एक भवावतारी होता है और उसकी शची इन्द्राणी भी एक ही भवावतारी हो जाती है। वैसे ही सम्यग्दर्शन से शुद्ध हुआ श्रावक सौधर्म इन्द्र बनकर उत्कट श्रद्धा और भक्ति के साथ-साथ सम्पूर्ण क्रियाओं को करते हुए निश्चित ही अपना एक भव शेष कर लेता है, इसमें कोई संदेह नहीं है और उस इंद्र की इन्द्राणी भी सम्यग्दर्शन से सहित होकर आगम के अनुकूल सम्पूर्ण क्रियाओं में इन्द्र की सहचारिणी होते हुए अपना एक भव शेष कर लेती है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं करना चाहिए।

इस प्रकार पंचकल्याणक प्रतिष्ठा विधि से संस्कारों द्वारा संस्कारित हुई अचेतन भी पाषाण, धातु आदि की प्रतिमाएँ सचेतन के समान पूज्य होकर भव्यों को मनवांछित फल को देने वाली हो जाती हैं।

जिस प्रकार से मंत्रों से मंत्रित हुआ जल मनुष्यों के विष को दूर करने में समर्थ हो जाता है अथवा चिंतामणि रत्न या कल्पवृक्ष अचेतन होकर भी मनचिंतित और याचित फल को देने में समर्थ होते हैं अथवा चुंबक धातु लोहे को अपनी ओर खींच लेता है। उसी प्रकार से मंत्रों से मंत्रित हुई प्रतिमाएँ भव्यों के पापकर्मों को दूर करने में समर्थ हो जाती हैं अथवा चिंतामणि और कल्पवृक्ष के सदृश अचेतन होते हुए भी चिंतित और मनोवांछित फलों को देने में भी सक्षम होती हैं तथा निकट भव्य के मन को अपनी ओर खींच लेती हैं।

यह है पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं का महत्व। देखिए मंदिर और प्रतिमाओं की महिमा का वर्णन पुराण ग्रंथों में-

भवनं यस्तु जैनेन्द्र निर्मापयति मानवः।
तस्य भोगोत्सव: शक्यः केन वक्तुं सुचेतसः।।१७२।।
प्रतिमा यो जिनेन्द्राणां कारयत्यचिरादसौ।
सुरासुरोत्तमसुखं प्राप्य याति परं पदम्।।१७३।।
व्रत ज्ञानतपोदानैर्यान्युपात्तानि देहिनः।
सर्वैस्त्रिष्वपि कालेषु पुण्यानि भुवनत्रये।।१७४।।
एकस्मादपि जैनेन्द्रबिंबाद् भावेन कारितात्।
यत्पुण्यं जायते तस्य न सम्मान्त्यतिमात्रतः ।।१७५।।

जो मनुष्य जिनमंदिर बनवाता है, उस सुमना के भोगोत्सव का वर्णन कौन कर सकता है? जो मनुष्य जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा बनवाता है वह शीघ्र ही सुर तथा असुरों के उत्तम सुख प्राप्त कर परम निर्वाण पद को प्राप्त कर लेता है। तीनों कालों में और तीनों लोकों में व्रत, ज्ञान, तप और दान के द्वारा मनुष्य के जो पुण्यकर्म संचित होते हैं वे भावपूर्वक एक प्रतिमा के बनवाने से उत्पन्न हुआ जो पुण्य है, उसकी बराबरी नहीं कर सकते हैं।

यही कारण है कि रामचंद्र आदि महापुरुषों ने सैकड़ों जिनमंदिर बनवाए थे और हजारों जिनप्रतिमाओं का निर्माण कराया था। देखिए-

तत्र वंशगिरौ राजन् रामेण जगदिन्चुना।
निर्मापितानि चैत्यानि जिनेशानां सहस्रशः।।२७।।
सततारब्ध निःशेषरम्यवस्तु महोत्सवाः।
विरेजुस्ता रामीया जिनप्रासादपंक्तयः।।३१।।
रेजिरे प्रतिमास्तत्र सर्वलोकनमस्कृताः।
पंचवर्णा जिनेन्द्राणां सर्वलक्षणभूषिताः।।३२।।

गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! उस वंशगिरि पर्वत पर जगत के चंद्रस्वरूप रामचंद्र ने जिनेन्द्र भगवान् की हजारों प्रतिमाएँ बनवाई थीं। जिनमें सदा समस्त सुंदर वस्तुओं के द्वारा महोत्सव होते रहते थे, ऐसे रामचंद्र के द्वारा बनवाये हुए जिनमंदिरों की पंक्तियाँ उस पर्वत पर सर्वत्र सुशोभित हो रही थीं। उन मंदिरों में सब लोगों के द्वारा नमस्कृत तथा सब प्रकार के लक्षणों से युक्त पंचवर्ण की जिनप्रतिमाएं सुशोभित हो रही थीं।

इस तरह पुरातन से लेकर आज तक अपने यहाँ जिनमंदिर और जिनप्रतिमाओं के निर्माण की परम्परा चली आ रही है जो कि इस पुण्य, पवित्र कार्य को करने वाले, कराने वाले, अनुमति देने वाले और देखने वाले इन सभी के लिए सम्यक्त्ववर्धिनी क्रिया है और परम्परा से मोक्ष का कारण है। चूंकि मंत्र संस्कारों के द्वारा मूर्तियाँ साक्षात् जिनेन्द्र भगवान के स्वरूप को प्राप्त करके तीन जगत् में वंद्य हो जाती हैं। मनुष्य क्या सुर-असुर भी इन्हें भक्ति से नमस्कार करके अपने जीवन को धन्य समझ लेते हैं।