।। णमोकार-मन्त्र-कल्प ।।

श्री युगेश जैन

सुदूर अतीत से निरन्तर विकासमान श्रमण-संस्कृति-परम्परा के अनुपम रत्न आचार्य श्री १०८ देशभूषण जी महाराज के तपः पूत व्यक्तित्व के चरणों में सभी व्यक्ति अनायास नतमस्तक हो जाते हैं। सरस्वती के वरद पुत्र आचार्य जी ने संस्कृत, तमिल, कन्नड़ आदि अनेक भारतीय भाषाओं के भक्ति-साहित्य तथा सिद्धान्त-ग्रन्थों को हिन्दी में अनूदित करके उत्तर-दक्षिण भारत के रागात्मक सम्बन्धों की वृद्धि में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है । आचार्य जी की पुनीत प्रेरणा से अनेक धर्म-ग्रन्थों का प्रणयन तथा अनुवाद सम्पन्न हुआ है। इन्हीं ग्रन्थों की परम्परा में अन्यतम कृति है.---'णमोकार-मन्त्र-कल्प' आद्य वक्तव्य के अनुसार इस संग्रह-ग्रन्थ की एक प्राचीन हस्तलिखित प्रति ला० मनोहर लाल जौहरी (पहाड़ी धीरज, दिल्ली) ने पूज्य आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज को अवलोकनार्थ दी थी। महाराज जी की प्रेरणा से यह महत्त्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित होकर सर्वसुलभ हो गई है।

पुस्तक के आरम्भ में मथुरा-संग्रहालय-स्थित स्तूपद्वार पर विभूषित पंचपरमेष्ठी-मन्त्र का चित्र प्रदर्शित है । अन्यत्र, प्राचीन आयाग-पट्ट के मध्य स्थित मंगल-पाठ का चित्र भी प्रकाशित है। प्रस्तुत संग्रह-ग्रंथ के मुख्य विषय निम्नलिखित हैं ।

जैन-रक्षा-स्तोत्रम्

इस स्तोत्र के २२ पद्यों में चौबीस तीर्थंकरों से प्रार्थना की गई है कि वे भक्त के विभिन्न अंगों मस्तक, सिर, नेत्र, नाक, जिह्वा, कान, गरदन, हाथ, हृदय, पेट, नाभि, कमर, जंघा, घटनों आदि की रक्षा करें। तदनन्तर स्तोत्र-पाठ की विधि बताई गई है और स्तोत्र के महत्त्व का वर्णन किया गया है। द्वितीय जैन-रक्षा-स्तोत्रम् (वयपंचरकवचम्) इसमें चीबीस तीर्थंकरों का स्मरण करके उनसे सभी अंगों की रक्षा के लिए प्रार्थना की गई है। इस स्तोत्र का पाठ करने वाला व्यक्ति चिरायु, सुखी तथा आधि-व्याधि-मुक्त होकर विजयी होगा। वह पापों से लिप्त नहीं होता और उसे सभी सिद्धियों, भोगों तथा मुक्ति की प्राप्ति होगी।

रक्षा-मन्त्र

इसमें आपदा-नाशन-मन्त्र, सर्वरक्षा-मन्त्र, ऋषभ-देव-रक्षा मन्त्र तथा आत्म-रक्षा-मन्त्र दिए गए हैं।

पंचपरमेष्ठी स्तोत्रम्

आरम्भ में 'पंचपरमेष्ठी-स्तोत्रम्' में पांच परमेष्ठियों का वर्णन किया गया है। पंच महाव्रतों का पालक, तपस्या में लीन, आहार तथा जल में विवेकशील, देह एवं भोगों से विरक्त तथा २८ मूल गुणों का धारक व्यक्ति मुनि कहलाता है। जो स्वयं ११ अंगों और १४ पूर्वो को स्वयं पढ़ते हों और दूसरों को पढ़ाते हों, वे उपाध्याय कहलाते हैं। निर्विकल्प समाधि के धारक तथा आत्मानुभव रूपी अमत का अवगाहन करने वाले साधक आचार्य विवेक की अंजलि द्वारा ज्ञान का आस्वादन करते हैं।

घाति कर्मों का क्षय करके अघाति कर्मों को जली हुई रस्सी के समान करने वाले तथा ४६ गुणों से युक्त महापुरुष 'अर्हत्' कहलाते हैं तथा वे सम्यक्त्वादि अष्टगुणों से युक्त होकर संसार के आवागमन से मुक्त हो जाते हैं और सिद्ध-पद प्राप्त करते हैं।

पंच-परमेष्ठी-स्वरूप-वर्णन के अनन्तर सम्यग्ज्ञान का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। सम्यग्ज्ञानी जीव उन्हीं कार्यों में स्वानुभवपरिणति द्वारा कर्म-निर्जरा प्राप्त करता है जिनसे अज्ञानी रागान्ध होकर 'बन्ध' को प्राप्त करता है, अतः मिथ्यात्व रूपी विष को त्याग कर सम्यक्त्व रूपी अमृत का पान करना चाहिए।

श्री पंच नमस्कृतिस्तवनम्

इसमें पंच नमस्कार-मन्त्र की स्तुति करके इसका महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। यह मन्त्र अज्ञान रूपी अन्धकार को नष्ट करके संसार के मायाजाल को छिन्न-भिन्न करता है। स्वयम् अष्ट सिद्धियों काधारक यह मन्त्र साधक को अनन्त सिद्धियां प्रदान करता है। राजा आदि अन्य व्यक्ति तो अनुकूल होने पर ही भुक्ति (भोग) देते हैं परन्तु यह मन्त्र उल्टा पढ़ने पर भी मुक्ति देता है। इस अद्भुत राजा की फत्कार (फॅक) से ही शत्रु भाग जाते हैं । अणिमा, महिमा आदि सिद्धियां इसमें निहित हैं। इसके प्रयोग से धूलि-कण भी संसार का निर्माण कर लेते हैं।

जो नवीन साधक इस मन्त्र का जाप करता है, वह सभी विघ्नों का विनाश करके संसार-सागर को पार कर लेता है और परम शान्ति को प्राप्त करता है। इसके स्मरण से कर्म-ग्रन्थि नष्ट होती है, बिजली, जल, अग्नि, राजा, सर्प, चोर, शत्र, महामारी आदि के भय दर हो जाते हैं और इच्छित फल प्राप्त होते हैं। इसकी विधिपूर्वक आराधना करके इसके एक लाख जाप द्वारा उदारबुद्धि व्यक्ति पापों से मक्त होकर 'अर्हत' पद प्राप्त करता है। यह ऐहिक (सांसारिक भोगों) फलों के इच्छुक व्यक्तियों के लिए आठ कर्मों का बन्ध करता है और मोक्षार्थी व्यक्ति के लिए आठों कर्मों का विनाश करता है । यह १४ पूर्वो का पुंज, सम्पूर्ण विद्याओं की आद्य-विद्या तथा बीजाक्षरों का उदगम है। मत्य के समय क्षण भर भी इसका ध्यान करके जीव सुगति प्राप्त करता है। यह मन्त्र चमत्कारी है। इसके प्रभाव से श्रेष्ठिनन्दन ने स्वर्ण-पुरुष की सिद्धि की, महासती सोमा के लिए घड़े में रखा हुआ सांप भी माला बन गया, श्राद्धपुंगव ने मातुलिंग-वन के अमर को नमस्कार-मन्त्र से सम्बोधित करके अपने और दूसरों के प्राण बचाए, हुंडिक यक्ष बन गया, चण्ड पिंगल कुलीन बना और सुदर्शन ने सुदर्शन वन में गुण-गरिमा को प्राप्त किया।

यह मन्त्र माता, पिता, गुरु, मित्र, वैद्य है तथा प्राणरक्षक है। इसका प्रभाव वाणी आदि इन्द्रियों द्वारा अवर्णनीय है।

नमस्कार-क्रमणिका

इसमें भगवान् शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ आदि तीर्थंकरों की वन्दना करके श्रेष्ठ साधुओं, भगवती शारदा और गणधर गौतम को नमस्कार किया गया है। मूलसंघ के भवन को प्रकाशित करने वाले दीपक के समान मुनीश्वर पद्मनंदी जैन-शासन के लिए सूर्य थे। इसी पट्ट-परम्परा में श्री जिनचन्द्र, श्री शुभचन्द्र, मुनि सिंहकीर्ति, श्री धर्मकीर्ति, मुनि सुशीलभूषण, मुनि ज्ञानभूषण, मुनि जगद्भूषण तथा मुनि श्री विश्वभूषण हुए । मुनि श्री विश्वभूषण तीर्थंकर भगवान् सम्भवनाथ की पूजा-प्रतिष्ठा के लिए किसी पवित्र नगर में गए और वहां उन्होंने भगवान की प्रतिष्ठा कराई। उनके नाम, गुणों तथा पवित्र मन्त्र का स्मरण हम नित्य करते हैं।

पचनमस्कारस्तोत्रम्

श्री उमास्वामि-कृत इस स्तोत्र में मन्त्रराज 'णमोकार मन्त्र' की वन्दना की गई है। यह मन्त्र कर्मराशि का विनाशक है और संसाररूपी पर्वतों के लिए वज्र के समान है। यह चराचर-जगत के लिए संजीवन है और स्वर्ग तथा मोक्ष की प्राप्ति में उत्पन्न सभी विघ्नों को दूर करता है । यदि तराजू के एक पलड़े में इस मन्त्र को रखा जाए और दूसरे पलड़े में तीनों लोकों को रखा जाए तो भी इस पंचपरमेष्ठी-मन्त्र का पलड़ा अधिक भारी रहेगा। जो व्यक्ति उठते हुए, चलते हुए, सोते हुए सभी कालों में इसका स्मरण करता है, वह सभी वांछित पदार्थों को प्राप्त करता है। इसके स्मरण से संग्राम, सागर, हाथी, सर्प, सिंह, दुष्ट व्याधियों, अग्नि, शत्रु और बन्धन से उत्पन्न सभी भय (चोर, ग्रहपीड़ा, निशाचर, शाकिनियां) आदि नष्ट हो जाते हैं । जो साधक भगवान् जिनेन्द्र में हृदय-वृत्तियों को एकाग्र करके अपने ध्येय के प्रति श्रद्धा से पूर्ण होकर वर्ण-क्रमों का स्पष्ट उच्चारण करता है, इस मन्त्र का विधिपूर्वक जाप करता है और एक लाख सुगन्धित पुष्पों से इसकी पूजा करता है, वह तीर्थंकर-पद पाता है । हिंसक, मिथ्याभाषी, पराए धन का हर्ता, परस्त्रीगामी तथा घोर पापी जीव भी मृत्यु के समय इस मन्त्र का जाप करके देव-पद प्राप्त कर सकता है । वस्तुतः तीर्थंकरों के मोक्ष-गमन के पश्चात् यही मन्त्र लोकोद्धार के लिए इस संसार में भगवान् जिनेन्द्र के मन्त्रात्मक शरीर के रूप में सुशोभित है।

नमस्कार-मन्त्र-स्तवनम्

श्रीमानतुंगाचार्य-विरचित इस स्तोत्र में चौबीस तीर्थंकरों के रूप में पंचपरमेष्ठियों की वन्दना की गई है। अर्हत प्रणत-जनों के लिए मोक्ष-पद प्रदान करें। सिद्ध तीनों लोकों को वश में करें। आचार्य जल, अग्नि आदि सोलह विघ्नों का स्तम्भन करें। उपाध्याय सब भयों को दूर करें तथा साधु पापों के उच्चाटन, मारण आदि में सहायक हों। हमें पंच तत्त्वों में पंचपरमेष्ठियों का ध्यान करना चाहिए । अर्हत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, और मुनि इनके पंचाक्षरों से निष्पन्न ओंकार ही पंचपरमेष्ठी हैं।

अर्हत, त्रिकोणाकार सिद्ध, लोष्टकाकार आचार्य, द्वितीया तिथि की चन्द्रकला के समान आकारधारी उपाध्याय तथा दीर्घकलाकार साधु सभी भक्तों के लिए सुखकर हों। वर्ण-क्रम (स्वर) में अ-आ के रूप में अर्हत्, इ-ई-उ-ऊ के रूप में सिद्ध, ए-ऐ के रूप में आचार्य, ओ-औ के रूप में उपाध्याय तथा अं-अः के रूप में मूनि जयशाली हैं। इसी प्रकार नव-ग्रहों, वर्णों (रंगों), रसों, तिथियों, सात दिनों (वारों), मासों, नक्षत्रों तथा राशियों के रूप में पंच परमेष्ठियों का ध्यान करना चाहिए। पंचनमस्कार-मन्त्र के स्मरण, पाठ, उच्चारण तथा ध्यान से सभी सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं और जीव आत्म-कल्याण करके सम्यग्ज्ञान प्राप्त करता है।

श्री पंचपरमेष्ठि मन्त्र-प्रभाव-फलम

पंचबीज रूप पंचपरमेष्ठि-मन्त्र के पाठ के अनन्तर इस अपराजित मन्त्र के महान् प्रभाव का वर्णन है। इसी मन्त्र के समाराधन और प्रभाव से रत्नत्रय का पालन करके योगी मुनि संसार-बन्ध से मुक्त होकर परम-पद मुक्ति को प्राप्त करते हैं । संसार-सागर में मग्न तथा व्यसन के पाताल में प्रविष्ट मनुष्य का भी उद्धार इस मन्त्र से हो जाता है । मन-वचन-काय द्वारा इसका १०८ जाप करना चाहिए। यह धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों का फल प्रदान करता है। सोलह अक्षरों तथा पंचपरमेष्ठी-रूप गुरुओं से युक्त यह मन्त्र सभी इच्छाओं को पूर्ण करता है। अतः सदैव मन-वचन-काय-गुप्ति की अवस्था में मौनपूर्वक इस मन्त्र का ध्यान करना चाहिए।

चञपंजरस्तोत्रम्

पंचपरमेष्ठी-नमस्कार मन्त्र नवपदात्मक है। यह सभी मन्त्रों का सारभूत है। यह हमारे सिर, कन्धों, मुख आदि सभी अंगों की रक्षा करे। यह सभी उपद्रवों, भयों, आधि-व्याधि तथा सभी विघ्न-बाधाओं का नाश करके आत्मा की रक्षा करता है।

इसी प्रकार 'भस्मपंजरस्तव राज' स्तोत्र का अर्थ समझना चाहिए।

जिनपंजर स्तोत्रम्

पंचनमस्कार-मन्त्र का महत्त्व वर्णित करके मुनि श्री सूरीन्द्र ने इस स्तोत्र में मन्त्र-पाठ की विधि लिखी है। साधक ब्रह्मचर्यव्रत धारण करे, पृथ्वी पर शयन करे, क्रोध एवं लोभ का त्याग करे तथा मन-वचन-काय द्वारा देवताओं का ध्यान करे। इस प्रकार वह छह मासों में इष्ट फल प्राप्त करता है। साधक मस्तक पर 'अर्हत्' को, चक्षु एवं ललाट में सिद्ध को, दोनों कानों के मध्य भाग में आचार्य को, नासिका में उपाध्याय को, और मुखाग्र में साधुओं को भावनापूर्वक स्थापित करे। पंचपरमेष्ठी सभी अंगों तथा दिशाओं में साधकों की रक्षा करें। चौबीस तीर्थंकर साधकों के सभी अंगों की रक्षा करें। राजद्वार, श्मशान, संग्राम, शत्रु-संकट, चोर, सर्प, भूत-प्रेत, अकाल मृत्यु, विपत्ति, दरिद्रता, ग्रहपीडा आदि सभी प्रसंगों में इस मन्त्र का ध्यान करना चाहिए। इसके पाठ से साधक कमलप्रभा-नामक लक्ष्मी को प्राप्त करता है।

तत्वार्थसारदीपके पदस्थ-भावना-प्रकरणम

भट्टारक श्री सकलकीति-विरचित 'तत्वार्थसार-दीपक' में से पदस्थ-भावना-प्रकरण को उद्धृत किया गया है । सिद्धान्त के बीज-भूत सार-पदों के अवलम्बन से जो ध्यान योगियों द्वारा किया जाता है, वह ‘पदस्थ ध्यान' कहलाता है। इसमें वर्णमातृका (सिद्ध-मातृका) के ध्यान की विधि का वर्णन है। आदिनाथ भगवान के मुख से उत्पन्न, सकल आगमों की विधायिका तथा अनादि सिद्धान्त में विख्यात वर्ण-मातृकाओं का विधिपूर्वक ध्यान करने वाला साधक श्रुत-सागर के पार हो जाता है।

हन नामक गणाधीश मन्त्र सभी तत्त्वों का मुख्य नायक है। देव तथा असुर - सभी इसे नमस्कार करते हैं। सूर्य के समान यह मिथ्याज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करता है । ब्रह्मा, विष्ण, शिव, बुद्ध आदि नामों से प्रसिद्ध इस मन्त्र में स्वयं सर्वत्र तथा सर्वव्यापी देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान विराजमाज हैं। जिसने एक बार भी इस मन्त्र का उच्चारण कर लिया अथवा हृदय में स्थिर कर लिया, उसने मोक्ष के लिए श्रेय पाथेय का संग्रह कर लिया।

अर्हत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा मुनि इन परमपूज्य पंचपरमेष्ठियों के पदों के प्रथम अक्षरों (अ-अ-आ-उ-म - ॐ) से ॐ कार नामक परम मन्त्र का निष्पादन हुआ। यह मन्त्र सभी कामनाओं तथा प्रयोजनों की पूर्ति करता है, चिन्तामणि के समान अभीष्ट सिद्धियां प्रदान करता है तथा कर्म रूपी शत्रुओं का विनाश करता है। अतः बुद्धिमान् व्यक्ति बड़ी युक्ति से कमल जाप से चंचल मन को वश में करके इसका विधिपूर्वक ध्यान करे। यहां मन्त्र-सिद्धि की विधि विस्तारपूर्वक समझाई गई है । मन्त्र के प्रभाव का वर्णन करते हुए कहा गया है कि इस मन्त्र के जाप से उपवास न करने पर भी उपवास का फल मिलता है, दुष्कर्म नष्ट हो जाते हैं, दुष्ट, शत्रु, राजा, चोर आदि से उत्पन्न विघ्न दूर हो जाते हैं, ग्रह, व्यंन्तर, शाकिनी आदि दुष्ट देवता उपद्रव नहीं कर सकते, नाग, व्याघ्र हाथी आदि कीलित हो जाते हैं, सभी उपसर्ग तथा रोग क्षण-मात्र में नष्ट हो जाते हैं और क्रूर जीव भी अपनी क्रूरता छोड़ देते हैं। इस कारण सुख-दुःख, मार्ग, दुर्ग, युद्धभूमि आदि में सभी कालों और स्थानों में हजारों, लाखों, और करोड़ों की संख्या में "णमो अरहंताणं, णमो सिद्धागं णमो आइरियाणम, णमो उवज्झायाणं, णमोलोए, सव्व साहूणं"--इस मंत्र का जाप करना चाहिए।

अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः

उपर्युक्त महाविद्या पंचपरमेष्ठियों के नाम से निष्पन्न, सोलह अक्षरों से सुशोभित तथा समस्त प्रयोजनों की सिद्धि के लिए जगद्विद्या है। दो सौ बार इसका एकाग्र ध्यान करके मनुष्य को उपवास का फल (न चाहने पर भी) प्राप्त होता है। 'अरहंत-सिद्ध' छ: वर्गों से उत्पन्न इस विद्या का ध्यानी लोग सदा ध्यान करें। मन, वचन और काय की शुद्धिपूर्वक इस विद्या के तीन सौ बार जाप से संवरपूर्वक उपवास का फल मिलता है।

“ॐ ह्रां ह्रीं ह्र ह्रीं ह्रः अ-सि-आ-उ-सा नम:” उपर्युक्त विद्या पंचपरमेष्ठियों के नाम के प्रथमाक्षरों से निष्पन्न तथा ह्रांकार आदि पांच महातत्त्वों एवं ॐ कार से उपलक्षित है। जो मनुष्य इस विद्या का चार सौ बार जप करता है, वह एक उपवास का फल पाता है। इससे मनुष्यों के कर्म-बन्धनों सहित जन्म-मरण तथा वृद्धावस्था आदि नष्ट हो जाते हैं।

चत्तारि मंगलं । अरिहंता मंगलं । सिद्धा मंगलं । साह मंगलं । केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगत्तमा। अरिहंता लोगत्तमा। सिद्धा लोगत्तमा। साह लोगत्तमा। केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगत्तमो। चत्तारि सरणं पवज्जामि । अरिहंते सरणं पवज्जामि । सिद्धे सरणं पवज्जामि। साह सरणं पवज्जामि। केवलिपण्णत्तं धम्म सरणं पवज्जामि।

उपर्युक्त 'चत्तारि मंगल' मन्त्र के ध्यान से प्रत्येक पग पर मंगल का उदय होता है, तीनों लोकों की सम्पदा एवं धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूपी चारों पुरुषार्थ प्राप्त होते हैं और सभी विपत्तियां नष्ट हो जाती हैं।

ॐ अरहन्त-सिद्ध-सयोगिकेवली स्वाहा

उपर्युक्त विद्या अर्हन्त, सिद्ध और सयोगी केवलियों के अक्षर से उत्पन्न और पन्द्रह सुन्दर वर्णों से सुशोभित है। गुणस्थान की प्राप्ति के लिए इस विद्या का ध्यान करना चाहिए। मुक्ति के महल में शीघ्र पहुंचने के लिए यह सीढ़ियों के समान है । “ॐ ह्रीं अहँ नमः" यह मन्त्र सम्पूर्ण ज्ञान और सुखों का साम्राज्य देने में कुशल है और सभी मन्त्रों में चूड़ामणि है। मोक्ष-प्राप्ति के लिए ‘णमो सिद्धाणं' मन्त्र का निरन्तर जाप करना चाहिए । यह सम्पूर्ण कर्म-कलंक समूह रूपी अन्धकार के विनाश के लिए सूर्य के समान है।

"ॐ नमोऽहते केवलिने परमयोगिने अनन्त विशुद्ध परिणाम विस्फुरच्छुक्लध्यानाग्निनिर्दग्धकर्मबीजाय प्राप्तानन्तचतुष्टयाय सौम्याय शान्ताय मंगलवरदाय अष्टादशदोषरहिताय स्वाहा।" ।

उपर्युक्त मन्त्र के जाप से तीर्थंकर भगवान् की सम्पत्तियां तथा सुख क्रमशः प्राप्त हो जाते हैं । यह मन्त्रराज सम्पूर्ण क्लेश रूपी अग्नि के लिए मेघ के समान है, भोग और मोक्ष देता है और भव्य प्राणियों की रक्षा करता है।

"ॐ नमो अरहंताणं । ह्रीं" इस मन्त्र के विधिपूर्वक जाप से संसार के सभी संकट तथा पाप दूर हो जाते हैं।

इसी प्रकार 'इवीं', णमो अरहंताणं', 'ऊँ अहं', श्रीमवृषभादि वर्धमानान्तेभ्यो नमः ।" 'नमः सर्वसिद्धेभ्यः' आदि विविध मन्त्रों के जप की विधियों और महत्त्व का प्रतिपादन किया गया है।

पंचनमस्कृति-दीपक-सन्दर्भ

श्री सिंहनन्दि-भट्रारक-विरचित इस प्रकरण में सर्वप्रथम देवाधिदेव भगवान् जिनेन्द्र तथा णमोकार-मन्त्र की वन्दना की गई है। भगवान् जिनेन्द्र ने कर्म-रूपी ईंधन के धुएँ को नष्ट कर दिया है, सम्पूर्ण लक्ष्मी उनमें स्वयं सुशोभित होती है, इन्द्रादि के द्वारा भी उनका प्रभाव अवर्णनीय है, उनके स्मरण-मात्र से विघ्न, चोर, शत्रु, महामारी, शाकिनी आदि सभी नष्ट हो जाते हैं । तदनन्तर णमोकार-मन्त्र-कल्प का वर्णन किया गया है।

णमोकार-मन्त्र के पांच अधिकार हैं-साधन, ध्यान, कर्म, स्तवन तथा फल। यही गायत्री मन्त्र, अष्टक तथा पंचक आदि नामों से प्रसिद्ध हैं। दुष्ट और मिथ्यादृष्टि मनुष्यों को इसे नहीं देना चाहिए। पार्श्वचक्र, वीर-चक्र, सिद्ध-चक्र, त्रिलोक-चक्र, कर्म-चक्र, योग-चक्र, ध्यान-चक्र, भूत-चक्र, तीर्थचक्र, जिन-चक्र, मोक्ष-चक्र, श्रेयश्चक्र, वृद्धमृत्युंजयचक्र, लघुमृत्युंजयचक्र, ज्वालिनी-चक्र, अम्बिका-चक्र, चक्रेश्वरीचक्र, शान्ति-चक्र, यज्ञ-चक्र, भैरव-चक्र आदि कई चक्र नमस्कार मन्त्र की सिद्धि के बिना सिद्ध नहीं होते। अतः सर्वप्रथम इसी मन्त्रराज को सिद्ध करना चाहिए।

फल-वर्णन में कहा गया है कि णमोकार-मन्त्र के स्मरण मात्र से वरांग के हाथी का भय दूर हो गया तथा सेठ सुदर्शन का संकट दूर हो गया। मोक्षदायक यह मन्त्र सभी इच्छित पदार्थों को प्रदान करता है। साधन के अन्तर्गत इस मन्त्र की सिद्धि के लिए विहित विधि का विस्तृत वर्णन किया गया है । इस अनादि मन्त्र के ही कारण भव्य जीवों को मुक्ति प्राप्त होती है । इस मन्त्र का शुद्ध पाठ निम्नलिखित है-

ऊँ नमः अर्हद्भ्यः ।
ॐ नम: सिद्धेभ्यः ।
ॐ नमः आचार्येभ्यः।
ऊँ नमः उपाध्यायेभ्यः ।
ॐ नमः सर्वसाधुभ्यः।

इसके अनन्तर हिन्दी में णमोकार-मन्त्र की स्तुति तथा नवकार-मन्त्र-स्तोत्र का पाठ दिया गया है।

मन्त्र-साधन-विधान

णमो अरहंताणं । णमो सिद्धाणं । णमो आयरियाणं ।
णमो उवज्झायाणं । णमो लोए सव्व साहणं।।

उपर्युक्त णमोकार-मन्त्र के प्रथम पद में सात, द्वितीय पद में पांच, तृतीय पद में सात, चतुर्थ पद में सात तथा पंचम पद में नौ अक्षर हैं। इस प्रकार इसमें पैंतीस अक्षर हैं। लौकिक कार्यों की सिद्धि के लिए विविध बीजाक्षरों को कहीं पहले, कहीं पीछे और कहीं बीच में जोड़ने से इसके छियालीस स्वरूप (मन्त्र) बनते हैं। इसके स्मरण-मात्र से सभी प्रकार के विघ्न नष्ट हो जाते हैं और साधक को मोक्ष प्राप्त होता है।

इसके पश्चात् हिन्दी-भाषा में मन्त्र-साधन की विधि का विस्तृत वर्णन किया गया है । धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष-इन पुरुषार्थों की सिद्धि के अतिरिक्त, पुत्र-प्राप्ति, विघ्न-शान्ति, दुष्टों के स्तम्भन तथा कीलन, शत्रुओं का उच्चाटन, वशीकरण आदि लौकिक कार्यों की पूर्ति के लिए भी इस मन्त्र की सिद्धि का विधान किया गया है । मन्त्र की निविघ्न तथा अमोघ सिद्धि के लिए रक्षा-मन्त्र का जाप आवश्यक है जिससे उपसर्ग तथा उपद्रव न हों।

णमोकार-मन्त्र के जाप्य-विधान के उपरान्त उपवास की विधि का वर्णन किया गया है। मानसिक, वाचिक तथा कायिक इन तीन प्रकार के जापों में मानसिक जाप सर्वश्रेष्ठ है।

यन्त्र-मन्त्र भाग में विभिन्न यन्त्रों तथा मन्त्रों की विधि एवं चित्रों सहित व्याख्या की गई है। अन्त में अनेक रक्षा-मन्त्रों, रोगनिवारण-मन्त्र, ताप-निवारण मन्त्र, शिरो-पीड़ा-निवारण-मन्त्र, बन्दी-गह-निवारण-मन्त्र, अग्नि-निवारण-मन्त्र, चोर-शत्रु-निवारण-मन्त्र, भूत-प्रेत-निवारण-मन्त्र, द्रव्य-प्राप्ति मन्त्र आदि अनेक मन्त्रों का पाठ तथा विधि दी गई है।

लौकिक तथा पारलौकिक सुखों की प्राप्ति तथा मोक्ष-लाभ के लिए णमोकार-मन्त्र के स्मरण, पाठ, साधन तथा वन्दन से अधिक उपयोगी कोई अन्य मन्त्र या उपाय नहीं है। णमोकार-मन्त्र की सिद्धि के लिए प्रस्तुत पुस्तक 'णमोकार-मन्त्र-कल्प' अवश्यमेव पठनीय तथा संग्रहणीय है।