डॉ. श्री रवीन्द्रकुमार जैन
अनादि-अनन्त णमोकार महामन्त्र के माहात्म्य का अर्थ है उसकी महती आत्मा (आत्मशक्ति) अर्थात् अंतरंग और मूलभूत शक्ति । इसी को हम उस मन्त्र का गौरव, यश और महत्ता कहकर भी समझते हैं । यह मूलतः आत्म-शक्ति का, आत्म-शक्ति के लिए और आत्म-शक्ति के द्वारा अपरिमेय काल से कालजयी होकर, समस्त सृष्टि में जिजीविषा से लेकर मुमुक्षा तक की सन्देश तरंगिणी का महामन्त्र है । इस मन्त्र की महिमा का जहाँ तक प्रश्न है वह तो हमारे समस्त आगमों में बहुत विस्तार के साथ वर्णित है । यह मन्त्र हमारी आत्मा की स्वतन्त्रता अर्थात् उसकी सहजता को प्राप्त कराकर उसे परमात्मा बनाने का सब से बड़ा, सरलतम और सुन्दरतम साधन है । यही इसकी सब से बड़ी महत्ता है | इस के पश्चात् हमारी समस्त सांसारिक उलझनें तो इस मन्त्र के द्वारा अनायास ही सुलझती चली जाती हैं । पारिवारिक कलह, शारीरिकमानसिककरुणता, निर्धनता, अपमान, अनादर, सन्तानहीनता आदि बातें भी इस महामन्त्र के द्वारा अपना समाधान पाती हैं | आशय यह है कि यह मन्त्र मानव को धीरे धीरे संसार में रहकर संसार को कैसे जीतना है यह सिखाता है और फिर मानव में ही ऐसी आन्तरिक शक्ति उत्पन्न करता है कि मानव स्वतः निर्लिप्त और निर्विकार होने लगता है । उसे स्वात्मा में ही परम तृप्ति का अनुभव होने लगता है । अतः इस महामन्त्र के भी शारीरिक और आत्मिक धरातलों को पूरी तरह समझकर ही हम इसकी सम्पूर्ण महत्ता को समझ सकते हैं।
णमोकार महामन्त्र द्वादशाङ्ग, जिनवाणी का सार है | वास्तव में जिनवाणी का मूल स्रोत यह मन्त्र है ऐसा समझना न्यायसंगत है | यह मन्त्र बीज है और समस्त जैनागम वृक्ष-रूप हैं | कारण पहले होता है और कार्य से छोटा होता है | यह मन्त्र उपादान कारण है।
प्रायः समस्त जैन शास्त्रों के प्रारम्भ में मंगलाचरण के रूप में प्रत्यक्षतः णमोकार महामन्त्र को उद्धृत कर आचार्यों ने उसकी लोकोत्तर महत्ता को स्वीकार किया है, अथवा देव, शास्त्र और गुरु के नमन द्वारा परोक्ष रूप से उक्त तथ्य को अपनाया है । यहाँ कुछ प्रसिद्ध उद्धारणों को प्रस्तुत करना पर्याप्त होगा ।
इस महामन्त्र की महिमा और उपकारकता पर यह प्रसिद्ध पद्य द्रष्टव्य है –
एसो पंच णमोकारो, सव्वपावप्पणासणो । ' मंगलाणं च सव्वेसिं, पढ़मं हवइ मंगलं॥
अर्थात् यह पंच नमस्कार-मन्त्र समस्त पापों का नाशक है, समस्त मंगलों में पहला मंगल है, इस नमस्कार मन्त्र के पाठ से समस्त मंगल होंगे । वास्तव में मूल महामन्त्र तो पंचपरमेष्ठियों के नमन से सम्बन्धित पाँच पद ही हैं । यह पद्य तो उस महामन्त्र का मंगलपाठ या महिमा-गान है । धीरे-धीरे भक्तों में यह पद्य भी णमोकार मंत्र का अंग सा बन गया और इसके आधार पर महामन्त्र को नवकार मन्त्र अर्थात नौ पदोंवाला मन्त्र भी कहा जाता है।
इसी महत्वाङ्कन की परम्परा में मंगलपाठ का और भी विस्तार हुआ है | चार मंगल, चार लोकोत्तर और चार शरण का मंगलपाठ होता ही है । ये चार हैं - अरिहन्त, सिद्ध, साधु और केवली-प्रणीत धर्म । इसमें आचार्य और उपाध्याय को धर्म प्रवर्तक प्रचारक वर्ग के अन्तर्गत स्वीकार कर लिया गया है अतः खुलासा उल्लेख नहीं है । कभी कभी अल्पज्ञता और अदूरदर्शिता के कारण ऐसा भी कतिपय लोगों को भ्रम होता है कि आचार्य और उपाध्याय को संसारी समझकर छोड़ दिया गया है । वास्तव में ये दो परमेष्ठी धर्म की जड़ जैसी महत्ता रखते हैं। इन्हें कैसे छोड़ा जा सकता है? पाठ द्रष्टव्य है –
चार - मंगल : चत्तारि मंगलं, अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवली पण्णत्ता धम्मो मंगलं ॥
चार-लोकोत्तम : चत्तारि लोगोत्तमा, अरिहंता लोगोत्तमा, सिद्धा लोगोत्तमाः साहू लोगोत्तमा, केवली पण्णत्तो धम्मो लोगोत्तमा।।
चार - शरण : चत्तारि शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं पवज्जामि सिद्धा शरणं पवज्जामि । साहू शरणं पवज्जामि, केवली पण्णत्तं धम्मं शरणं पवज्जामि ॥
अर्थात् - चार चार का यह त्रिक जीवन का सर्वस्व है ।
चार मंगल हैं - ये हैं - अरिहंत परमेष्ठी, सिद्ध परमेष्ठी, साधु परमेष्ठी और केवली प्रणीत धर्म।
चार लोकोत्तम हैं - अरिहंत परमेष्ठी, सिद्ध परमेष्ठी, साधु परमेष्ठी और केवली प्रणीत धर्म।
चार – शरण - इस संसार से पार होना है तो ये चार ही सबलतम शरण (रक्षा के आधार हैं ।) - अरिहंत, परमेष्ठी, साधु-परमेष्ठी और केवली प्रणीत धर्म ।
एसो पञ्चणमोकारो - गाथा की व्याख्या आचार्य सिद्धचन्द्र गणि ने इस प्रकार की है - एषः पञ्चनमस्कारः प्रत्यक्षविधीयमानः पञ्चानामर्हदादीनां नमस्कारः प्रणामः ।। स च कीदृशः सर्वपाप प्रणाशनः । सर्वाणि च तानि पापानि च सर्वपापानि इति कर्मधारयः । सर्व पापानां प्रकर्षेण नाशनो विध्वंसकः सर्वपाप प्रणाशनः, इति तत्पुरुषः । सर्वेषां द्रव्यभाव भेदभिन्नानां मंगलानां' प्रथममिदमेव मङ्गलम् ।
पुनः सर्वेषां मङ्गलानां - मङ्गलकारकवस्तू नां दधिदूर्वाऽक्षतचन्दननारिकेल पूर्णकलश स्वस्तिकदर्पण भद्रासनवर्धमान मत्स्ययुगल श्रीवत्स नन्द्यावर्तादीनां मध्ये प्रथमं मुख्य मंगलं मङ्गल कारको भवति । यतोऽस्मिन् पठिते जप्ते स्मृते च सर्वाण्यपि मङ्गलानि भवन्तीत्यर्थः। अर्थात् - यह पंच नमस्कार मन्त्र सभी प्रकार के पापों को नष्ट करता है । अधमतम व्यक्ति भी इस मन्त्र के स्मरण मात्र से पवित्र हो जाता है । यह मन्त्र दधि, दुर्वा, अक्षत, चन्दन, नारियल, पूर्णकलश, स्वस्तिक, दर्पण, भद्रासन, वर्धमान, मस्त्ययुगल, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त आदि मंगल वस्तुओं में सर्वोत्तम है । इसके स्मरण और जप से अनेक सिद्धियां प्राप्त होती हैं।
स्पष्ट है कि इस परम मंगलमय महामन्त्र में अद्भुत लोकोत्तर शक्ति है । यह विद्युत तरंग की भांति भक्तों के शारीरिक, एवं आध्यात्मिक संकटों को तुरन्त नष्ट करता है और अपार विश्वास और आत्मबल का अविरल संचार करता है । वास्तव में इस महामन्त्र के स्मरण, उच्चारण या जप से भक्त की अपनी अपराजेय चैतन्य शक्ति जग जाती है । यह कुंडलिनी (तेजस् शरीर) के माध्यम से हमारी आत्मा के अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान और अनन्त वीर्य को शाणित एवं सक्रिय करता है । अर्थात् आत्मसाक्षात्कार इससे होता है।
पंच परमेष्ठियों की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए उनसे .जन-कल्याण की प्रार्थना इस प्रसिद्ध शार्दूल विक्रीडित छन्द में की गयी है –
"अर्हन्तो भगवन्त इन्द्र महिताः सिद्धाश्च सिद्धिस्थिताः । आचार्याजिनशासनोन्नतिकराः पूज्या उपाध्यायकाः ॥ श्री सिद्धान्त सुपाठका मुनिवरा रत्नत्रयाराधका: पंचैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं कुर्वन्तु नो मङ्गलम्" ।
जिनशासन में अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु, इन पाँचों की परमेष्ठी संज्ञा है । ये परम पद में स्थित हैं अतः परमेष्ठी कहे जाते हैं | चार घातिया कर्मों का क्षय कर चुकनेवाले, इन्द्रादि द्वारा पूज्य, केवल ज्ञानी, शरीरधारी होकर भी जो विदेहावस्था में रहते हैं, तीर्थङ्कर पद जिनके उदय में हैं, ऐसे अरिहन्त परमेष्ठी हमारा सदा मंगल करें | अष्ट कर्मों के नाशक, अशरीरी, परम निर्विकार सिद्ध परमेष्ठी हमारा सदा मंगल करें । जिन शासन की सर्वतोमुखी उन्नति जिनके द्वारा होती है और जो स्वयं शास्त्रीय मर्यादा के अनुसार चरित्र पालन करते हैं" ऐसे आचार्य परमेष्ठी तथा समस्त शास्त्रों के ज्ञाता और श्रेष्ठतम प्राध्यापक परम गुरु उपाध्याय परमेष्ठी हम सब का सदा मंगल करें । समस्त मुनि संघ के ये सर्वोच्च अध्यापक होते हैं । रत्नत्रय (सम्यक् दर्शन - ज्ञान - चारित्र्य) की निरन्तर आराधना में लीन परम अपरिग्रही साधु परमेष्ठी हम सब का मंगल करें।
किसी भी व्यक्ति या वस्तु की महानता उसमें निहित गुणों के कारण ही मानी जाती है। फिर ये गुण जब स्व से भी अधिक पर कल्याणकारी अधिक होते हैं तभी उनकी प्रतिष्ठा होती है । इस कसौटी पर पंच परमेष्ठी बिल्कुल खरे उतरते हैं । जन्म, मरण, रोग, बुढ़ापा, भय, पराभव, दारिद्र्य एवं निर्बलता आदि इस महामन्त्र के स्मरण एवं जाप से क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं । णमोकार मन्त्र के माहात्म्य वर्णन को समझ लेने पर फिर और अधिक समझने की आवश्यकता नहीं रह जाती है –
अपवित्रः पवित्रो वा, सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा । ध्यायेत् पंच नमस्कारं, सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥१॥ अपवित्रः पवित्रो वा, सर्वावस्थां गतोऽपि वा । यःस्मरेत् परमात्मानं स बाह्याम्यन्तरः शुचिः ।। २ ॥ अपराजित मन्त्रोऽयं सर्वविघ्नविनाशनः । मंगलेषु च सर्वेषु प्रथमं मंगलं मतः || ३ || विघ्नौधाः प्रलयं यान्ति शाकिनीभूतपन्नगाः । विषो निर्विषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे ।। ४ ॥ मंत्रं संसार सारं त्रिजगदनुपमं सर्वपापारि मन्त्रं, संसारोच्छेद मन्त्रं विषम विषहरं कर्म निर्मूल मन्त्रम् । मन्त्रं सिद्धि प्रदानं शिव सुख जननं केवलं ज्ञान मन्त्रम् । मन्त्रं श्रीजैन मन्त्र जप जप जपितं जन्म निर्वाण मन्त्रम् ।। ५ ॥ । आकृष्टिं सुर - सम्पदां विदधते मुक्तिश्रियो वश्यतां, उच्चाट विपदां चतुर्गतिभुवां विद्वेषमात्मैनसाम् । । स्तम्भं दुर्गमनंप्रति प्रयततो मोहस्य सम्मोहनम्, । पायात् पंचनमक्रियाक्षरमयी साराधना देवता ।। ६ ।। अहमित्यक्षरं ब्रह्मम् वाचकं परमेष्ठिनः सिद्ध चक्रस्य सद्बीजं सर्वतः प्रणमाम्यहम् ॥ ७ ॥ अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम । तस्मात् कारुण्य भावेन रक्ष रक्ष जिनेश्वर ।। ८ ॥ ************************************************************************** वंदों पांचों परम गुरु सुर गुरु वन्दन जास । विघ्न हरन मंगल करन, पूरन परम प्रकाश ।। ९ ।।
उक्त पद्यों का मथितार्थ यह है -
पंच नमस्कार महामन्त्र का स्मरण अथवा पाठ करनेवाला श्रद्धालु भक्त पवित्र हो, अपवित्र हो, सोता हो, जागता हो, उचित आसन में हो, न हो फिरभी वह शरीर और मन के (बाहरी-भीतरी) सभी पापों से मुक्त हो जाता है । उसका शरीर और मन अद्भुत पवित्रता से भर जाता है। मानव का यह शरीर लाख प्रयत्न करने पर भी सदा अनेक रूपों में अपवित्र रहता ही है, प्रयल यह होना चाहिए कि हमारी ओर से पवित्रता के प्रति सावधान रहा जाए। इस शरीर से भी हजार गुना मन चंचल होता है और पाप प्रवृत्ति में लीन रहकर अपवित्र रहता है । केवल णमोकार मन्त्र की पवित्रतम शरण ही इस जीव को शरीर और मन की पवित्रता प्रदान करती है। यह मन्त्र किसी भी अन्य मन्त्र या शक्ति से पराजित नहीं हो सकता, बल्कि सभी मन्त्र इसके आधीन हैं । यह मन्त्र समस्त विघ्नों का विनाशक है । समस्त मंगलों में प्रथम मंगल के रूप में सर्व-स्वीकृत है । महत्ता और कालक्रम से इसकी प्रथमता सुनिश्चित है । इस मन्त्र के प्रभाव से विघ्नों का दल, शाकिनी, डाकिनी, भूत, सर्प, विष आदि का भय क्षण भर में प्रलय को प्राप्त हो जाता है।
यह मन्त्र समस्त संसार का सार है | त्रैलोक्य में अनुपम है और समस्त पापों का नाशक है। विषम विष को हरनेवाला और कर्मों का निर्मूलक है । यह मन्त्र कोई जादू टोना या चमत्कार नहीं है, परन्तु इसका प्रभाव निश्चित रूप से चमत्कारी होता है । प्रभाव की तीव्रता और अनुपमता से भक्त आश्चर्यचकित होकर रह जाता है । यह मन्त्र समस्त सिद्धियों का प्रदाता, मुक्ति सुख का दाता है, यह मन्त्र साक्षात् केवल ज्ञान है । विधिपूर्वक और भाव सहित इसका जाप या स्मरण करने से भी सभी प्रकार की लौकिकअलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं । इससे समस्त देव सम्पदा वशीभूत हो जाती है | मुक्तिवधू वश में हो जाती है | चतुर्गति के सभी कष्टों को भस्म करनेवाला यह मन्त्र है । मोह का स्तम्भक और विषयासक्ति को समाप्त करने वाला है। आत्मविश्वास को प्रबलता देनेवाला तथा सभी स्थितियों में जीव मात्र का परम मित्र है । “अहँ" यह अक्षर युगल साक्षात् ब्रह्म है । और परमेष्ठी का वाचक है | सिद्धियों की माला का सद्बीज है । मैं इसको मन, वचन और काय की समग्रता से प्रणाम करता हूँ | हे जिनेश्वर रूप महामन्त्र मुझे आपके अतिरिक्त कोई अन्य उबारनेवाला नहीं है । आप ही मेरे परम रक्षक हैं। इसलिए पूर्ण करुणाभाव से हे देव! मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए।
सम्पूर्ण निबन्ध का सार यह है कि महामन्त्र णमोकार पर भक्तों का अटूट विश्वास है - तर्कातीत शंकातीत विश्वास है । उनके मन्त्र संबंधी अनुभव तार्किकों और नास्तिकों को मिथ्या अथवा आकस्मिक लग सकते हैं ।
मैं केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि हम मनो-विज्ञान - और अध्यात्म को तो मानते ही हैं । कम से कम मानसिकता औरभावनात्मकता को तो मानते ही है। साहित्य के श्रृंगार. करुण. वीर, रौद्र, आदि नव रसों को भी अपने जीवन में घटित होते देखते ही हैं | यह सब मूलतः और अन्ततः हमारे मनोजगत के अर्जित एवं सर्जित भावों का ही संसार है।
मन्त्रों को और विशेषकर इस महामन्त्र को यदि हम पारलौकिक शक्ति से न भी जोडें तो भी इतना तो हमें मानना ही होगा कि हमें चित्त की स्थिरता, दृढ़ता और अपराजेयता के लिए स्वयं में ही गहरे उतरना होगा और दूसरों के गुणों और अनुभवों से कुछ सीखना होगा। बस महामन्त्र से हम स्वयं की शक्तियों को अधिक बलवती एवं चैतन्य युक्त बनाने की प्रेरणा पाते हैं। मन्त्र हमारा आदर्श है - हमारी भीतरी शक्तियों को जगाने और क्रियाशील बनाने वाला।
हम अपने नित्यप्रति के संसार में जब किसी बीमारी, राजनीतिक संकट, शीलसंकट, पारिवारिक संकट एवं ऐसे ही अन्य संकटों से घिर जाते हैं और घोर अकेलेपन का, असहायता का अनुभव करते हैं, तब हम क्या करते हैं? रोते हैं, चीखते हैं और कभी-कभी घुटकर आत्महत्या भी कर लेते हैं। या फिर राक्षस भी बन जाते हैं। पर ऐसी स्थिति में एक और विकल्प है अपने रक्षकों और मित्रों की तलाश । अपनी भीतरी ऊर्जा की तलाश । हम मित्रों को याद करते हैं, पुलिस की सहायता लेते हैं - आदि आदि । इसी अकेलेपन के सन्दर्भ में - सहायता और आत्म-जागरण की तलाश में हम अपने परम पवित्र ऋषियों, मुनियों एवं तीर्थंकरों के महान कार्यों और आदर्शों से प्रेरणा लेते हैं । मन्त्र तो अन्ततः अनादि अनन्त हैं। तीर्थंकरों ने भी इनसे ही अपना तीर्थ पाया है । जब हमें किसी मंगल की, किसी लोकोत्तम की शरण लेनी है, तो स्वाभाविक है कि हम महानतम को ही अपना रक्षक और आराध्य बनायेंगे और हमारा ध्यान - हमारी दृष्टि महामन्त्र णमोकार पर ही जाएगी।
स्वयं की संकीर्णता और सांसारिक स्वार्थान्धता को त्यागकर हमें अपने ही विराट् में उतरना होगा-तभी महामन्त्र से हमारा भीतरी नाता जुड़ेगा। महामन्त्र तक पहुँचने के लिए हमें मन्त्र (शुद्ध-चित्त) तो बनाना ही होगा। अन्ततः इस महामन्त्र के माहास्य एवं प्रभाव के विषय में अत्यन्त प्रसिद्ध आर्षवाणी प्रस्तुत है –
"हरइ दुहं, कुणइ सुहं, जणइ जसं सोसए भव समुदं । इह लोए पर लोए, सुहाण मूलं णमुक्कारो।"
अर्थात् यह नवकार मन्त्र दुःखों का हरण करनेवाला, सुखों का प्रदाता, यश दाता और भवसागर का शोषण करने वाला है । इस लोक और परलोक में सुख का मूल यही नवकार है।
"भोयण समये समणे, वि बोहणे - पवेसणे- भये- बसणे। पंच नमुक्कारं खलु, समरिज्जा सव्वकालंपि ।"
अर्थात् भोजन के समय, सोते समय, जागते समय, निवास स्थान में प्रवेश के समय, भय प्राप्ति के समय कष्ट के समय इस महामन्त्र का स्मरण करने से मन वांछित फल प्राप्त होता है।
महामन्त्र णमोकार मानव ही नहीं अपितु प्राणी मात्र के इहलोक और परलोक का सब से बड़ा रक्षक एवं निर्देष्टा है । इस लोक में विवेक पूर्ण जीवन जीते हुए मानव अपना अन्तिम लक्ष्य - आत्मा की विशुद्ध अवस्था इस मन्त्र से प्राप्त कर सकता है - यही इस मन्त्र का चरम लक्ष्य भी है।
"जिण सासणस्स सारो, चदुरस पुण्याण जे समुद्धारो। जस्स मणे नव कारो, संसारो तस्स किं कुणइ।"
अर्थात् नवकार जिन शासन का सार है चौदह पूर्व का उद्धार है । यह मन्त्र जिसके मन में स्थिर है संसार उसका क्या कर सकता है? अर्थात् कुछ नहीं बिगाड़ सकता।