दशलक्षण महापर्व के तत्काल बाद बनाया जानेवाला क्षमावाणी पर्व एक ऐसा महापर्व है, जिसमं हम वैर-भाव को छोड़कर एक-दूसरे से क्षमायाचना करते हैं; एक दूसरे के प्रति क्षमाभाव धारण करते हैं। इसे क्षमापना भी कहा जाता है।
मनोमालिन्य धो डालने में समर्थ यह महापर्व आज मात्र शिष्टाचार बनकर रह गया है। यह बात नहीं कि हम इसे उत्साह से न मानते हों, इससे उदास हो गये हों। आज न हम इससे उदास हुए है; तथा मात्र उत्सा से ही नहीं इसे अति उत्सा से मानते हैं।
इस अवसर पर सारे भावतवर्ष में लाखों रूपयों के बहुमूल्य कार्ड छपाये जाते हैं, उन्हें चित्रित सुन्दर लिफाफों में रखकर हम इष्टमित्रों को भेजते हैं; लोगों से गले लगकर मिलते हैं, क्षमायाचना भी करते हैं; पर यह सब यंत्रवत् चलता है। हमारे चेहरे पर मुस्कान भी होती है, पर बनावटी। हमारी असलियत न मालूम कहां गायब हो गई है? विमान-परिचारिकाओं की भांति हम भी नकली मुस्कराने में ट्रेन्ड हो गये हैं।
हम माफी मांगते हैं; पर उनसे नहीं, जिनसे मांगना चाहिये, जिनके प्रति हमने अपराध किए हैं; उनजाने में ही नहीं, जानबूझकर, हमें पता भी है उनका, पर................। हम क्षमावाणी कार्ड भी भेजते हैं, पर उन्हें नहीं, जिन्हें भेजना चाहिए; चुन-चुनकर उन्हें भेजते हैं, जिनके प्रति न तो हमने कोई अपराध किए हैं औन न जिन्होंने हमारे प्रति ही कोई अपराध किया है। आज क्षम भी उन्हीं से मांगी जाी है, जिनसे हमारे मित्रता के संबंध हैं; जिनके प्रति अपराध-बोध भी हमें कभी नहीं हुआ है। बतायें जरा, वास्तविक शत्रुओं से कौन क्षमा मांगते है? उन्हें कौन-कौन क्षमावाणी काड्र डालते हैं? क्षमा करने-कराने के वास्तविक अधिकारी तो वे ही हैं। पर उन्हें कौन पूछता है?
बड़े कहलाने वाले बहुधंधी लोगों की स्थिति तो औरभी विचित्र हो गई है। उनके यहां एक लिस्ट तैयार रहती है, जिसके अनुसार शादी के निमंत्रण कार्ड भेजे जाया करते हैं; उसी लिस्ट के अनुसार कर्मचारीणी क्षमावाणी कार्ड भी भेज दिया करते हैं। भेजने वाले को पता ही नहीं रहता कि हमने किस-किस से क्षमायाचना की है।
यही हाल उनका भी रहता है - जिनके पास वे कार्ड पहुंचते हैं। उनके कर्मचारी प्राप्त कर लेते हैं। यदि कभी फुर्सत हुई तो वे भी एक निगाह डाल लेते हैं कि किन-किन के क्षमावाणी कार्ड आये हैं। उनमें क्या लिखा है, यह पढ़ने का प्रयत्न वे भी नहीं करते। करें भी क्यों? क्या कार्ड डालने वाले को भी पता है उसमें क्या लिखा है? क्या उसने भी वह कार्ड पढ़ा है? लिखने की बात तो बहुत दूर।
बाजार से बना-बनाया ड्राफ्ट और छपा-छपाा कार्ड लाया गया है, पते अवश्य लिखने पड़े हैं। यदि वे भी किसी प्रकार छपे-छपाये मिल जाते होते तो उन्हीं भी लिखने का कष्ट कौन करता? कदाचित यदि उसमें प्रेस की गलती से गालियां छप जावे तो भी कोई चिंता की बात नहीं है। चिन्ता तो तब हो जब कोई उसे पढ़े। जब उसे कोई पढ़ने वाला ही नहीं; सब उसका कागज, प्रिंटिंग, गेटअप ही देखेंगे, फिर चिन्ता किस बात की?
करे भी क्या, आज का आदमी इतना व्यस्त हो गया है कि उसे कहां फुर्सत है - यह सब करने की? स्वयं पत्र लिखे भी तो कितनों को? व्यवहार भी तो इतना बढ़ गया है कि जिसका कोई हिसाब नहीं। बस सब-कुछ यों ही चल रहा है।
क्षमायाचना जो एकदम व्यक्तिगत चीज थी, आज बाजारू बन गई है। क्षमायाचना या क्षमाकरना एक इतना महान कार्य है, इतना पवित्र धर्म है कि जो जीव का जीवन बदल सकता है। बदल क्या सकता है, सहीरूप में क्षमा करने और क्षमा मांगनेवाले का जीवन बदल जाता हे। पर न मालूम आज का यह दोपाया कैसे चिकना घड़ा हो गया है कि इस पानी ठहरता ही नहीं; इसकी ’कारि कमरर’ पर कोई दूसरा रंग चढ़ता ही नहीं।
बडे-बडे महपर्व आते हैं, बडे-बड़े महान संत आते हैं, और यों ही चले जाते है; उनका इस पर कोई पड़ता। यह बराबर अपनी जगह जमा रहता है। इसने बीसों क्षमावादी मना डाली, फिर भी अभी बीस-बसी वर्ष पुरानी शत्रओं वैसी की वैसी कायम है,उसमें जरा भी तो हीनता नहीं आई है।
धन्य है इसकी विरता को। कहता है ’क्षमा वीरस्य भूषणम! ’ अनेकों क्षमावाणियां बी गईं पर इसकी वीरता नहीं बीती। अभी भी ताल ठोककर तैयार है लड़ने के लिए मरने के लएि। अैर तो और, क्षमा मांगने के मुद्दे पर भी लड सकता है, क्षमा मांगने को बाध्य भी कर सकता है।
इसमें न मालूम कैसा विचित्र सामर्थ पैदा हो गया है कि काफी मांगकर भी आकडा रह सकता है, माफ केरके भी फोन नहीं, कर सकता है। कभी कभी तो काफी भी अकडकर मांगता है और भाफी मंगवार भी अकड़ा रह जाता है।
मेरे एक सहपाठी की विचित्र आदत थी। वह बड़ी अकड़ के सथ, बडे गौरव से काफी मांगा करता है था बोली-’गलती की तो क्या हो गया? माफी भी तो मांगग ली हे, अब कडता क्यों? हैं? गलती की तो क्या आप साजायेगा माफी भी तो मांग ली है, अब अडकता क्यों है
इस तरह बात सकते हैं। - ’’गलनती की तो क हो गया भूमि कर बहुत बड़ा अहसास किय है। उस अहसान को आपको अहसानमन्द हो नचाहिए।
जिने झागड़ा हो तोख्स एक तो हम लोग उन लोगों से क्षमायाना करते ही हैं। अदाचि हमारे इष्ट मि़ साद!दााग
इस तरह बात करत है कि जैसे उसने मांग कर बहुत बड़ा अहसास किया है। उस महवसन कर अपने हमत्नदात्द होना चहिए। निसे भी तो हम अने प्रति रहे खाते है। काफी भी तो गांग ली है, अब अकडता क्यों है? व्यतिक्त का आपाको दहसाननमछन होना चाहिए।
वह कहना- ‘गलीती की तो क्या होगा? काफी भी तो बांग ली है, उब कडता क्यों ही?
बह बात बात करता है मोगों का व्ययाचना करते हनीं। दातिच हमारे दष्टवित्र सुदभाव बनाने के लिए उनसे क्षमा मांगने की प्रेरणा मिलती है।जिनसे झगड़ हुआ है।
जिनसे झगड़ा हुआ हो, एक तो हम लोगा उन लोगों से क्षमायाचना करते ही नहीं। कदाचित् हमारे इष्टमित्र सद्भाव बनाने के लिए उनसे क्षमा मांगने की प्रेरणा देते हैं, बाध्य करते हैं, तो हम अनेक शर्तें रख देते हैं। कहते हैं - ’’उससे भी तो पूछो किवह भी क्षमा मांगने या क्षमा करने को तैयार है या नहीं?’’
यदि वह भी तैयार हो जाता है तो फिर इस बात पर बाप अटक जाती है कि पहिले क्षमा कौन मांगे? इसका भी कोई रास्ता निकाल लिया जावे तो फिर क्षमा मांगने और करने की विधि पर झगड़ा होने लगता है - क्षमा लिखित मांगी जावे या मौखि।
यदि यह मसाला भी किसी प्रकार हल कर लिया जावे तो फिर क्षमा मांगने की भाषा तय करना कोई आसान काम नहीं है। मांगने वाला इस भाषा में क्षमा मांगेगा कि ’मैने कोई गलती तोकी नहीं है, फिर भी आप लोग नहीं मानते हैं तो मैं क्षमा मांगने को तैयार हूं ’लेकिन...............’ कहकर कोई नई शर्त जोड़ देता है।
इस पर क्षमादान करने वाला अकड़ जाएगा - ’’पहिले अपराध स्वीकार करो, बाद में माफ करूंगा।’’
इसप्रकार लोग कभी न किये गये अपराध के लिए क्षमा मांगेगें और क्षमा करने वाला अस्वीकृत अपराध को क्षमा करने के लिए तैयार न होगा। यदि कदाचित भाषा के महापण्डित मिल-जुलकर कोई ऐसा ड्राफ्ट बना लावें कि जिससे सांप भी मर जावे और लाठी भी न टूटे, तो फिर इस बात पर झगड़ा हो सकता है कि क्षमा के आदान-प्रदान का स्थान कौनसा हो?
इन सब बातों को निपटाकर यदि क्षमायाचना या क्षमाप्रदान कार्यक्रम समारोह सानन्द सम्पन्न भी हो जावे, तो भी क्या भरोसा कि यह क्षमाभाव कब तक कायम रहेगा? कायम रहने का प्रश्न ही कहां उठता है? जब हृदय में क्षमाभाव आया ही नहीं, सब-कुछ कागज में या वाणी में ही रह गया है।
इसप्रकार की क्षमावाणी क्या निहाल करेंगी? - यह भी एक विचार करने की बात है।
’क्षमा करना, क्षमा करना’ रटते लोग तो पग-पग पर मिल जावेंगे; किंतु हृदय से वास्तविक क्षमायाचना करने वाले एवं क्षमा करने वालों के दर्शन आज दुर्लभ हो गये हैं। क्षमावाणी का सही रू पतो यह होना चाहिए कि हम अपनी गलतियों का उल्लेख करते हुए विनयपूर्वक आमने-सामने या पत्र द्वारा शुद्ध हृदय से क्षमायाचना करें एवं पवित्र भाव से दूसरों को क्षमा करें अर्थात क्षमाभाव धारण करें।
आप सोच सकते हैं किइस पावन अवसर पर मैं भी क्या बात ले बैठा? पर मैं जानता हूं कि क्या कभी आपने क्षमावाणी के बाद - जबकि आपने अनेकों को क्षमा किया है, अनेकों से क्षमा मांगी है - आत्मनिरीक्षण किया है? यदि नहीं, तो अब करके देखिये कि क्या आपके जीवन में भी कोई अंतर आया है या जैसा का तैसा ही चल रहा है? यदि जैसा का तैया ही चल रहा है तो फिर मेरी बात की सत्यता पर एक बार गंभीरता से विचार कीजिए, उसे ऐसे ही बातों में न उड़ा दीजिए। क्या मैं आशा करूं कि आप इस ओर ध्यान देंगे? देंगे तो कुछ लाभ उठायेंगे, अन्यथा जैसा चल रहा है वैसा तो चलता ही रहेगा, उसमें तो कुछ आना-जाना है नहीं।
क्षमावाणी का वास्तविक भाव तो यह था कि पर्वराज पर्यूषण में दशधर्मों की आराधना से हमारा हृदय क्षमाभाव से आकण्ठ-आपूरित हो उठना चािहए और जिसप्रकार घड़ा जब आकण्ठ-आपूरित हो जाता है तो फिर उबलने लगता है, छलकने लगता है; उसीप्रकार जब हमारा हृदयघट क्षमाभवदिजल से आकण्ठ-आपूरित हो उठे, तब यही क्षमाभाव वाणी में भी छलकने लगे, झलकने लगे; तभी वह वस्तुतः वाणी की क्षमा अर्थात् क्षमावाणी होगी। किंतु आज तो क्षमा मात्र हमारी वाणी में रह गई, अंतर से उसका सम्बंध ही नहीं रहा है।
हम ’क्षमा-क्ष्मा ’ वाणी से तो बोलते हैं, पर क्षमाभाव हमारे गले के नीचे नहीं उतरता। यही कारण है कि हमारी क्षमायाचना कृत्रिम हो गई है; उसमें वह वास्तविकता नहीं रह गई है, जे होनी चाहिए थी या वास्तविक क्षमाधारी के होत है।
ऊपर-ऊपर से हम बहुत मिठबोले हो गये हैं। हृदय में द्वेषभाव कायम रखकर हम छल से, ऊपर-ऊपर से क्षमायाचना करने लगे हैं।
मायाचारी के क्रोध, मान वैसे प्रकट नहीं होते जैसे कि सरलस्वभावी के हो जाते हैं। प्रकट होने पर उनका बहिष्कार, परिष्कार संभव है; पर अप्रकट की कौन जाने? अतः क्षमाधारक को शांत और निरभिमानी होने के साथ सरल भी होना चाहिए।
कुटिल व्यक्ति क्रोध-मान को छिपा तो सकता है, पर क्रोध-मान का अभाव करना उसके वश की बात नहीं है। क्रोध-मान को दबाना और बात है तथा हटाना और। क्रोध-मानादि को हटाना क्षमा है, दबाना नहीं।
यहां आप कह सकते हैं कि क्षमा तो क्रोध के अभाव का नाम है; क्षमाधारक को निरभिमानी भी होना चाहिए, सरल भी होना चाहिए आदि शर्तें क्यों लगाते जाते हैं?
यद्यपि क्षमा क्रोध के अभाव का नाम है; तथा क्षमावाणी का संबंध मात्र क्रोध के अभावरूप क्षमा से ही नहीं, अपितु क्रोध-मानादि विकारों के अभावरूप क्षमा-मार्दवादि दशों धर्मों की आराधना एवं उससे उत्पन्न निर्मलता से है।
क्षमा मांगने में बाधक क्रोधकषाय नहीं, अपितु मानकषाय है। क्रोधकषाय क्षमा करने में बाधक हो सकती है, क्षमा मांगने में नहीं।
जब हम कहते हैं -
सब जीवों को मैं क्षमा करता हूँ, सब जीव मुझे क्षमा करें। सब जीवों से मेरा मैत्रीभाव है, किसी से भी बैरभाव नहीं है।’’
तब हम ’मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ’ कहकर क्रोध के त्याग का संकल्प करते हैं या क्रोध के त्याग की भावना भाते हैं तथा ’सब जीव मुझे क्षमा करें’ कहकर मान के त्याग का संकल्प करते हैं या मान के त्याग की भावना भाते हैं। इसीप्रकार सब जीवों से मित्रता रखने की भावना मायाचार के त्यागरूप सरलता प्राप्त करने की भावना है।
इसलिए क्षमावाणी को मात्र क्रोध के त्याग तक सीमित करना उचित नहीं।
एक बात यह भी तो है कि इस दिन हम क्षमा करने के स्थान पर क्षमा मांगते अधिक हैं। भले ही उक्त छनद में ’मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ’ वाक्य पहले हो, पर सामान्य व्यवहार में हम यही कहते हैं - ’क्षमा करना’। यह कोई कहता दिखाई नहीं देता कि ’क्षमा किया’। इसे ’क्षमायाचाना’ दिवस के रूप में भी देखा जाता है, ’क्षमाकरना’ दिवस के रूप में नहीं।
क्षमायाचना मानकषय के अभव में होने वाली प्रवृत्ति है। अतः क्यों न इसे मार्दववाणी कहा जाये? पर सभी इसे क्षामवाणी ही कहते हैं।
एक प्रश्न यहा भी हो सकताहै कि दशलक्षमण महापर्व के बाद मानया जानेवाला यह उत्सव प्रतिवर्ष क्षमादिवस के रूप में ही क्यां मनाया जाता है? एक वर्ष क्षमादिवस, दूसरे वर्ष मार्दवदिवस, तीसरे वर्ष आर्जवदिवस आदि के रूप में क्यों नहीं? क्योंकि धर्म तो दशों ही एक समान हैं। क्षमा को ही इतना अधिक महत्व क्यों दिया जाता है?
भाई! यह प्रश्न तो तब उठाया जा सकता है जबकि क्षमावाण का अर्थ मात्र क्षमावाणी हो। क्षमावाणी का वास्तविक अर्थ तो क्षमादिवाणी है। क्षमा आदि दशों धर्मों की आराधना से आत्मा में उत्पन्न निर्बैरता, कोमलता, सरलता, निर्लोभता, सत्यता, संयम, तप, त्याग, आकिंचन और ब्रह्मलीनता से उत्पन्न समग्र पवित्रभाव का वाणी में प्रकटीकरण ही वास्तवकि क्षमावाणी है। जब तक भूमिकानुसार दशों धर्म हमारी परिणति में नहीं प्रकटेंगे, तबतक क्षमावाणी का वास्तविक लाभ हमें प्राप्त नहीं होगा।
अब रह जाती है मात्र यह बात कि फिर इसका नाम अकेली क्षमा पर ही क्यों रखा गया है? सो इसका समाधान यह है कि क्य इताना बडा नाम रखने का प्रयोग सफल होता है? क्या इतना बड़ा नाम सहज ही सबकी जबान पर चढ़ सकता था? नहीं, बिल्कुल नहीं।
अतः जिसप्रकार अनेक भाईयों या भागीदारों का बराबर भाग रहने पर भी फर्म या कम्पनी का नाम प्रथम भाई के नाम पर रख दिया जाता है, एक भाई का नाम रहने पर भी सबके स्वामित्व में कोई अंतर नहीं पड़ता; उसीप्रकार क्षमा का नाम रहने पर क्षमावाणी में दशों धर्म समा जाते हैं।
यहां एक प्रश्न यह भी संभव है कि जिसके नाम की दुकान होगी, सामान्य लोग तो यही समझेंगे कि दुकान उसी की है।
यह बात ठीक है, स्थूलबुद्धि वालों को ऐसा भ्रम प्रायः हो जाता है; पर समझदान लोग सह सही ही समझते हैं। इसीकारण तो क्षमावाणी को स्थूलबुद्धि वाले मात्र क्षमावाण्ी ही समझ लेते हैं, क्षमादिवाणी नही समझ जाते।पर बज समझदान लोग समझाते हैं तो सामान्य लोगों की भी समझ में आ जाता है। इसीलिए तो इतना स्पष्टीकरण किया जा रहा हे। यदि इस भ्रम की संभवना नहीं होती तो इतने स्पष्टीकरण की आवश्यकता क्यों रहती?
दुनियादारी में तो आज का आदमी बहुत चतुर हो गया है। क्या देश में जितने भी मिल, दुकानें गांधी के नाम पर है, उन सबके मालिक गांधीजी हैं? नहीं बिल्कुल नहीं; आरै यह बात सब अच्छी तरह समझते भी हैं। पर न मालूम आध्यात्मिक मामलों में इस प्रकार के भ्रमों में क्यों उलझ जाते हैं?
वस्तुतः बात तो यह है कि आध्यात्मिक मामलों में कोई भी व्यक्ति दिमा पर वनज ही नहीं डालना चाहता। गहराई से सोचता ही नहीं है तो समझ में कैसे आवे? यदि सामान्य व्यक्ति भी थोड़ा-सा गहराई से विचार करे तो सब समझ में आ सकता है।
दशलक्षण महापर्व के समान क्षमावाणी उत्सव भी वर्ष में तीन बार मनाया जाना चाहिए; पर जब दशलक्षणपर्व भी तीन बार नहीं मानाया जाता है तो फिर इसे कौन मनावेत्र अस्तु जो भी हो, पर वर्ष में एक बाार तो हम बड़े उत्साह से मनाते ही हैं। इसकारण भी इसका महत्व और अधिक बढ जाता है; क्योंकि मनोमालिन्य और बैरभाव धोने-मिटाने का अवसर एक बार ही प्राप्त होता हैं
वर्ष में तीन बार क्षमावाणी आने का ही कारण है। और वह यह कि अप्रत्याख्यान कषय छह मान से अधिक नहीं रहती। यदि अधिक रहे तो समझना चाहिए किवह अनन्तानुबंधी है। अनन्तानुबंधी कषाय अनन्त संसार का कारण है। अतः यदि क्षमावाणी छ मान के भीतर ही हो जावे और उसके निमित्त से हम छह माह के भीतर ही क्रोध-मानादि कषायभावों को धो डालें तो बहुत अच्छा हरे। बैरभाव तो एक दिन भी रहने की वस्तु नहीं है। प्रथम तो वैरभाव धारण ही नहीं करनाचाहिए। यदि कदाचित हो भी जावे तो उसे तत्काल मिटा देना चाहिए। इसक बादभी यदि रह जायए तो फिर क्षमावाणी के दिन तो मन साफ हो ही जाना चाहिए।
इसमें एक बात औरभी विचारणीय है। वह यह कि इसे हमने मनुष्यों तक ही सीमित कर रखा है, जबकि आचार्यों ने इसे जीवमात्र तक विस्तार दिया है। वे यह नहीं लिखते -
बल्कि यह लिखते हैं -
खमेमि सव्व जीवणं, सव्वे जीवा खमन्तु में।’
वे सब जैनियों य सर्व मनुष्यों मात्र से क्षम मांगने या क्षमा करने की बात न करनके सब जीवों को क्षमा करने और सब जीवों से क्षमा मांगने की बात करते हैं। इसीप्रकार वे मात्र जैनियों या मनुष्यों से मिता नहीं चाहते, किंतु प्राणीमात्र से मित्रता की कामना करते हैं। उनका दृष्टिकोण संकुचित नहीं, विशाल हैं
यहां एक प्रश्न संभव है जब कोई जीव हमसे क्षमा मांगे ही नहीं, तो हम उसे कैसे क्षमा करें? तथ हम उससे क्या क्षमा मांगे, जो हमारी बात समझ ही नहीं सकता। जो हमारी बात समझ ही नहीं सकता, वह हमें क्या क्षमा करेगा, कैसे क्षमा करेगा? - इसप्रकार एकेन्द्रियादि जीवों से क्षमा मांगना और उन्हें क्षमा काना कैसे संभव है?
क्षमायाचान या क्षमाकरना दो प्राणियों की सम्मिलित क्रिया नहीं है। यह एकदम व्यक्तिगत चीज है, स्वाधीन क्रिया है। क्षमावाणी एक धार्मि परिणति है, आध्यात्मिक क्रिया है। उसमे पर के सहयोग एव स्वीकृति की आवश्यकता नहीं होती। यदि हम क्षमाभाव धारण करना चाहते हैं, तो उकसे लिए यह आवश्यक नहीं कि जब कोई हमसे क्षमायाचना करे, तब ही हम क्षमा कर सकें अर्थात क्षमा धारण कर सकें। अपराधी द्वारा क्षमायाचना नहीं किये जाने पर भी उसे क्षमा किया जा सकता है। यदि ऐसा नहीं होता तो फिर क्षमा धारण करना भी पराधीन हो जाता।
यदि किसी ने हमसे क्षमा याचना नहीं कि तो उसने स्वयं ही मानकषाय का त्याग नहीं किया और यदि हमने उसके द्वारा क्षमायाचना किए बिना ही क्षमा कर दिया तो हमने अपने क्रोधभाव का त्याग कर उसका नहीं, अपना ही भला किया है। इसीप्रकार हमारे द्वारा क्षमायाचना करने पर भी यदि कोई क्षमा नहीं करता है, तो क्रोध का त्याग नहीं करने से उसका ही बुरा होगगा। हमने तो क्षमायाचना द्वारर मान का त्याग कर, अपने में मार्दवधर्म प्रकट कर ही लिया हैं उसके द्वारा क्षमानहीं करने से, क्षमा मांगने से होने वाले लाभ से हम वंचित नहीं रह सकते।
यही कारण है कि आचायो्रं ने अन्य जीवों द्वारा क्षमायाचना की प्रतीक्षा किए बिना ही सब जीवों को अपनी ओर से क्षमा करके तथा ’कोई क्षमा करेगा या नहीं’ - इस विकल्प के बिना ही सबसे क्षमायाचना करके अपने अन्तःस्थल में उत्तमक्षमा-मार्दवादि धर्मों को धारण कर लिया।
कोई जीव हमसे क्षमा मांगे, चाहे नहीं; हमें क्षमा करे, चाहे नहीं; हम तो अपनी ओर से बसको क्षमा करते हैं और सबसे क्षमा मांगते हैं - इसप्रकार हम तो अब किसी के शत्रु मानो तो मानो, जानो तो जानो; हमें इससे क्या? और हमारा दूसरे की मान्यता पर अधिकार भी क्या है? हम तो अपनी मान्यता सुधार कर अपने में जाते हैं, जगत की जगत जाने - ऐसी वीतराग परिणति का नाम ही सच्चे अर्थों में क्षमावाणी है।
क्षमावाणी का सही स्वरूप नहीं समझ पाने के कारण उसके प्रस्तुतीकरण में भी अनेक विकृतियां उत्पन्न हो गई है।
कुछ दिन पूर्व एक चित्र-प्रतियोगिता हुई थी, जिसमें क्षमावाणी को चित्र के माध्यम से प्रस्तुत करना था। सर्वोत्तम चित्र के लिए प्रथम पुरस्कार प्राप्त चित्र का जब प्रदर्शन किया गया, तब चित्रकार के साथ-साथ निर्णायकों की समझ र भी तर आये बिना न रहा।
’क्षमा वीरस्य भूषणम्’ के प्रतीकरूप में दिखाए गए चित्र में एक पौराणिक महापुरूष द्वारा एक अपराधी का वध चित्रित था। उसका जो स्पष्टीकरण किया जा रहा था, उसका भाव कुछ इसप्रकार था -
’’उक्त महापुरूष ने अपराधी के सौ अपराध क्षमा कर दिये, पर जब उसने एक सौा एकवां अपराा किया तो उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।’’
क्षमा के चित्रण में हत्या के प्रदर्शन का औचित्स सिद्ध करते हएु कहा जा रहा था -
’’यदि वे एक सौा एकवें अपराध के बाद भी उसको नहीं मारते तो फिर वे कायर समझे जाते। कायर की क्षमा नहीं है; क्योंकि क्षमा तेा वीर का भूषण है। सौ अपराधों को क्षमा करने से तो क्षमा सिद्ध हुई और मार डालने से वीरता। इसप्रकार यह ’क्षमा वीरस्य भूषणम्’ का सर्वोत्कृष्ट प्रस्तुतीकरण है। यही कारण है कि इन्हें क्षमावाणी के अवसर पर तदर्थ प्रथम पुरस्कार दिया जा रहा है।’’
क्षमा के साथ हिंसा की संगति ही नहीं, औचित्य सिद्ध करनेवालों से मुझे कुछ नहीं कहना है। मैं तो मात्र यह कहना चाहता हूं किइस पौराणिक आख्यान को क्षमा का रूपक देने वालेां ने इस तथ्य की ओर ध्यान क्यों नहीं दिया कि उनकी क्षमा क्रोधादि कषायों के अभावरूप परिणति का परिणाम नहीं थी, वरन् वे सौ उपराधों को क्षमा करने के लएि वचनबद्ध थे। उनकी वचनपालन की दृढ़ता और तत्सम्बन्धी धैर्य तो प्रशंसनीय हैं, परंतु उसे उत्तमक्षमा का प्रतीक कैसे माना जा सकता है?
दूसरे बात यह भी तो है कि क्या सच्चे क्षमाधाकर की दृष्टि में कोई दूसरा भी अपराध हो सकता है? जब उसने प्रथम अपराध क्षमा ही कर दिया, तब अगला अपराध दूसरा कैसे कहा जा सकता है? यदि उसे दूसरा कहें तो पहले को वह भूला कहां? जब प्रथम अपराध को क्षमा करने के बाद भीउसे भूल नहीं पाया तो फिर क्षमा ही क्या किया?
वस्तुतः बात यह है कि हमारी परिणति तो क्रोधादिमय हो रही है और शास्त्रों में क्षमादि को अच्दा कहा है; अतः हम शास्त्रानुसार अच्छा बनने के लिए नहीं, वरन् अच्छा दिखने के लिए क्रोध के ही किसी रूप को क्षमा का नाम देकर क्षमाधरी बनना चाहते हैं। क्षमाभाव का सर्वोत्कृष्ट चित्रण तो -
अरि-मित्र, महल-मसान, कंचन-कांच, निंदन-थुति करन।
ऐसी स्थिति को प्राप्त समताधरी मुनिराज का चित्रण ही हो सकता है।
क्षमा कायरता नहीं, क्षमा धारण करने कायरों का काम भी नहीं; पर वीरता भी तो मात्र दूसरों को मारने का नाम नहीं है। दूसरों को जीतने का नाम भी नहीं। अपनी वासनों को, कषायों को मारना; विकारों को जीतना ही वास्तविका वीरता है। युद्ध के मैदान में दूसरों को जीतने वाले, मारने वाले युद्धवीर हो सकते है; धर्मवीर नहीं। धर्मवीर ही क्षमाधारक हो सकता है; युद्धवीर नहीं।
वीरता के क्षेत्र को भी हमने संकुचित कर दिया है। अब वीरता हमें युद्धों में ही दिखाई देती है। शांति के क्षेत्र में भी वीरता प्रस्फुटित हो सकती है। यह हमारी समझ में ही नहीं आता। यही कारण है कि हमें ’क्षमा वरीसरू भूषणम्’ को स्पष्ट करने के लिए हत्या दिखाना आवश्यक लगता है। हत्या दिखाये बिना वीरता का प्रस्तुतिकरण हमें सम्भव ही नहीं लगता।
जिस महापुरूष की लेखनी से यह महाकाव्य प्रस्फुटित हुआ होगा, उसने सोचा भी न होगा कि इसकी ऐसी भी व्याख्या की जावेगी। एक हत्या भी क्षमा का एवं वीरता का प्रतीक बन जावेगी।
एक बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि जिन दशधर्मों की आराधना के बाद यह क्षमावाणी महापर्व आता है,उनकी चर्चा आचार्य उमास्वामी ने मुनिधर्म के प्रसंग में की है। दशधर्मों की आराधना का समग्र प्रतिफलन जिस क्षमावाणी में पस्फुटित होता है, वह क्षमावाणी कैसी होती होगी या होनी चाहिए - यह गम्भीरता से विचारने की वस्तु है।
उसे मुनिराज पाश्र्वनाथ की उस उपसर्गावस्था में भली-भांति देखा जा सकता है, जिसमें कमठ का उपसर्ग और धरणेन्द्र द्वारा उपसर्क निवारण किया जा रहा था और पाश्र्वनाथ का दोनों के प्रति समभाव था। कहा भी है -
अथवा उन मुनिराज के रूप में चित्रित की जा सकती है जो कि गले में मरा सांप डालनेवाले राजा श्रेणिक और उस उपसर्ग को दूर करने वाली रानी चेलन को एक-सा आशीर्वातद देते हैं।
क्षमा के वास्तवकि पौराणिकरू पतो ये हैं। क्या पाश्र्वनाथ की वीरता में शंका की जा सकती है? नहीं, कदापि नहीं। इसीप्रकार वे मुनिराज भी क्या कम धीर-वीर थे, जो उपसर्ग विजयी रहे। उपसर्गों में भी समता धारण किए रहना क्या कायरों का काम है? ’क्षमा कायरों का धर्म न कहा जाने लगे’ ‘ इस भय से कहीं ऐसा न हो जावे कि हम उसे क्षमा ही न रहने दें।
जिस अपराध के लिए क्षमायाचना की गई है, यदि वही अपराध हम निरन्तर दुहराते रहे तो फिर उस क्षमायाचना से भी क्या लाभ? जिस अपराध के लिए क्षमायाचना कर रहे हैं, वह अपराध हमसे दुबारा न हो - इसके लिए यदि हम प्रतिज्ञाबद्ध न भी हो सकें तो संकल्पशील या कम से कम प्रयत्नशील तो होना ही चाहिए। अन्यथा यह सब गजस्नानवत् निष्फल ही रहेगा।
क्षमायाचना और क्षमादान- ये दोनों की वृत्तियां हृदय को हल्का करने वाली उदात्त वृत्तियां हैं, वैरभाव को मिटाकर परमशांति प्रदान करने वाली हैं। प्रदान करने वाली भी क्या, अंतर में प्रकट शांति का प्रतिफलन ही हैं।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है किइस अज्ञान ने दूसरों से तो अनेकों बार क्षमायाचना की है, दूसरों को ही अनेकों बार क्षमा प्रदान भी की है, पर आज तक स्वयं से न तो क्षमायाचना ही की है और न स्वयं को क्षमा ही किया है। इसलए अनन्त दुःखी भी है।
यहां आप कह सकते हैं कि स्वयं से क्या क्षमा मांगना और स्वयं को क्षमा करना भी क्या? पर भाई साहब! आप यह क्यों भूल जाते हैं कि क्या आपने अपने प्रति कम अपराध किये हैं? कम अन्याय किये हैं? क्या अपने प्रति आपने कुछ कम क्रोध किया है? क्या आपने अपना कुछ कम अपमान किया है? इस तीनलो के नाथ को विषयों का गुलाम और दर-दर का भिखारी नहीं बना दिया है? इसे अनन्त दुःख नहीं दिये हैं? क्या इसकी आपने आज तक सुध भी ली है?
ये हैं वे कुछ महान् अपराध जो आपने अपनी आत्मा के प्रति किए हैं और जिनकी सजा आप स्वयं अनन्तकाल से भोग रहे हैं। जबतक आप स्वयं अपने आत्मा की सुध-बुध नहीं लेंगे, उसे नही जानेंगे, नहीं पहिचानेंगे, उसमें ही नही जम जायेंगे, नहीं रम जायेंगे; जबतक इन अपराधों के फल आकुलता और अशांति से मुक्ति मिलने वाली नहीं है।
निजात्मा के प्रति अरूचि ही उसके प्रति अनन्त क्रोध है। जिसके प्रति हमारे हृदय में अरूचि होती है, उसके उपेक्षा हमसे सहज ही होती रहती हैं अपनी आत्मा को क्षमा करने और उससे क्षमा मांगने का मात्र आशय यही है कि हम उसे जानें, पहिचाने और उसी में रम जायें। स्वयं को क्षमा करने और स्वयं को क्षमा मांगने के लिए वाणी की औपचारिकता की आवश्यकता नहीं है। निश्चयक्षमावाणी तो स्वंय के प्रति सजग हो जाना ही है। उसमें पर की अपेक्षा नहीं रहती। तथा आत्मा के आश्रय से क्रोधादिकषायों के उपशांत हो जाने से व्यवहारिक्षमावाणी भी सहज ही प्रस्फुटित होती हैं
अतः दूसरों से क्षमायाचना करने एवं क्षमा करने के साथ-साथ हम स्वयं को क्षमाकर स्वयं में ही जम जायं, रम जांय और अनन्त शान्ति के सागर निजशुद्धात्मतत्व में निमग्न हो अनन्तकाल तक अनन्त आनन्द में मग्न रहें - इस पवित्र भावना के साथ विराम लेता हूँ।