संयम जीवन का सौन्दर्य है । मन का माधुर्य है, आत्म-शोधन की प्रक्रिया है और मुक्ति का मुख्य हेतु है ।
आत्मा पृथक है, शरीर पृथक है । इन दोनों का आधार-आधेय सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध को वास्तविक समझना अज्ञान है ।
सत्य एक प्रज्वलित प्रदीप है, जो जन-जीवन को दिव्य प्रकाश प्रदान करता है।
जहाँ अहिंसा है, वहीं जीवन है। अहिंसा के अभाव में जीवन का सद्भाव सम्भव नहीं।
सत्य का जन्म सर्वप्रथम मन में होता है, वह वाणी के द्वारा व्यक्त होता है तथा आचरण के द्वारा वह साकार रूप लेता है।
क्षमा एक ऐसा सुदृढ़ कवच है जिसे धारण करने के पश्चात् क्रोध के जितने भी तीव्र प्रहार हैं वे सभी निरर्थक हो जाते हैं।
तप अध्यात्म-साधना के विराट और व्यापक रूप का बोध कराता है। उसके अभाव में मानव के जीवन में साधना का मंगल-स्वर मुखरित नहीं हो सकता।
तप के अभाव में अहिंसा और संयम में तेज प्रकट नहीं होता। तप साधना रूपी सुरम्य प्रासाद की आधारशिला है।
तप अग्नि-स्नान है। जो इस तप रूपी अग्नि में कूद पड़ता है उसके समग्र कर्म-मल दूर हो जाते हैं, वह निखर उठता है।
जो साधक राग-द्वेष की ज्वालाओं को शान्त करता है, मन की गाँठे खोलता है, वही धर्म का सम्यक्-रूप से आराधन कर सकता है।
अहिंसा वह सरस संगीत है, जिसकी मधुर स्वरलहरियाँ जन-जीवन को ही नहीं वरन् सम्पूर्ण प्राणी जगत को आनन्द विभोर कर देती हैं।
सत्य एक ऐसी आधारशिला है जिस पर मानव अपना जीवन व्यवस्थित रूप से अवस्थित कर सकता है।
धर्म वस्तुतः मंगलमय है वह विश्व का कल्याणकारी और सम्पूर्ण प्राणी जगत के योग-क्षेम का संवाहक है।
सत्य का पावन-पथ ऐसा पथ है जिस पर चलने वाले को न माया ही परेशान करती है न अहंकार सताता है।
समता लहराता हुआ परम-निर्मल सागर है । जो साधक उसमें स्नान कर लेता है वह राग-द्वेष के कर्दम से मुक्त हो जाता है।
मन पवन की भाँति चंचल है। ध्यान उसकी चंचलता को समाप्त कर देता है।
सदाचार मानव-जीवन रूपी सुमन की मधुरमहक है। जिसमें यह महक नहीं है वह जीवन ज्योति-विहीन दीपक के समान है।
कर्म और उसका फल इन दोनों का सम्बन्ध कारण और कार्यवत् है । कारण की उपस्थिति कार्य को अवश्य ही अस्तित्व में लाती है। अतः आत्मा को कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है।
मन वस्तुतः मानव जीवन का मेरुदण्ड है । मेरुदण्ड की स्वस्थता पर ही जीवन की स्वस्थता अवलम्बित है।
ज्ञान दिव्य-ज्योति है। जिसमें व्यक्ति अपने हित और अहित का, कर्तव्य और अकर्तव्य का, कुमार्ग और सन्मार्ग का निर्णय करता है।
ज्ञान-आत्मा का मौलिक स्वभाव है। वह मोह के संसर्ग से अशुद्ध हो जाता है, जिसे हम अज्ञान कहते हैं।
मोह आत्मा का प्रबल शत्रु है । मोह के कारण ही ज्योति-स्वरूप आत्मा निज भाव को भूलकर पर भाव में लिप्त रहती है, जिससे दुःख व क्लेश उसे प्राप्त होता है।
मैं एक बार पतझड़ से मधुवन में परिवर्तित होने वाले वृक्ष को देख रही थी, उसे देख विचार आया कि यह कितनी प्रबल प्रेरणा प्रदान कर रहा है-कि हे मानव! घबरा मत । एक दिन तुम्हारे जीवन में भी आनन्द का बसन्त खिल उठेगा ।
संसार अनित्य है । यह मोह, माया का विकट जाल है। जो इसमें आसक्त-फंसा हुआ रहता है वह कदापि शांति नहीं पा सकता।
जो मानव उच्च से उच्च तप करता है, उन से उग्र चारित्र का पालन करता है उसके लिए आध्यात्मिक अभ्युदय के चरम-द्वार खुले हुए हैं ।
सन्तोष आन्तरिक सद्गुण है, धैर्य एवं विवेक के अवलम्बन पर ही इसका विकास होता है।
मानव के अन्तर्-मन में जब संतोष का सागर लहराने लगता है तब चित्तवृत्तियों में जो विषमता की ज्वालाएं धधक रही होती हैं, वे शान्त हो जाती हैं।
कर्म स्वयं ही अपना फल देता है। अतः जैसा फल इच्छित हो उसी के अनुरूप ही कर्म करो।
क्रोध भयंकर अग्नि है जो स्वयं को तो जलाती ही है जिनके प्रति क्रोध किया जाता है उनको भी संतापित करती है।
आत्मा में अनन्त अक्षय दिव्य-ज्योति निहित है, उसे प्राप्त करने के लिए प्रबल पुरुषार्थ की नितान्त आवश्यकता है।
मानव ! तू न शरीर है, न इन्द्रियाँ है, और न ही मन है। तू तो वस्तुतः एक अच्छेद्य, अभेद्य, अमृत्य, अखण्ड, अमर, अलौकिक, आलोक पुज, आत्मा है।
मानव ! आत्मा न कभी जन्मती है, न कभी मरती है। जन्म-मरण शरीर का होता है। इस सनातन सत्य को सदैव स्मरण रख ।
आत्मा ज्ञानमय है। वह, एक अखण्ड, दिव्यप्रकाश से मण्डित होकर विश्व के समस्त प्राणियों में अभिनव आलोक का संचार करती है ।
अज्ञान का सघन अन्धकार जीवन का सबसे बड़ा भयंकर अभिशाप है । जिसके फलस्वरूप मानव को अपना यथार्थ बोध नहीं हो पाता है।
अहंकार अध्यात्म-साधना का वह दोष है-जो साधना को दुषित कर देता है।
आसक्ति, ममता एवं तृष्णा का सर्वथा परित्याग ही सच्ची साधना है।
जो मानव मन को अपने वश में कर लेता है, मन रूपी मातंग पर ज्ञान का अंकुश लगा देता है वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विजय प्राप्त करता है।
सम्यग्-दर्शन एक ऐसी शक्ति है जिसकी प्राप्ति होने पर मनुष्य के दिव्य-नेत्र खुल जाते हैं।
आत्मा को बन्धन की बेड़ियों में डालने वाला व मुक्ति में पहुँचाने वाला मन ही है ।
सम्यग्दर्शन वास्तव में एक अक्षय ज्योति है, उसका अचिन्त्य-प्रभाव हमारी कल्पना से परे है, मति से अगोचर है।
मन ही मन का शत्रु है, और मन ही मन का मित्र है । जीवन को दुगुणों में डालकर मन उसका शत्र, बन जाता है और मन ही जीवन को सद्गुणों की ओर ले जाकर उसका मित्र बन जाता है।
सम्यग्दर्शन अक्षय अनन्त सुख का मूल स्रोत है । वह आत्मा की अमूल्य निधि है । इस निधि को प्राप्त कर आत्मा पर-भाव से विमुख होकर निज ‘भाव की ओर उन्मुख होती है।
मानव-जीवन संग्राम में मन ही सेनापति है, इन्द्रियाँ उसकी आज्ञा में चलने वाली सेना हैं ।
मन रूपी सेनापति पराजित हो गया, जीवन के संग्राम में उसने विकारों-वासनाओं के हथियार डाल दिए तो सारी सेना की हार है।
मन एक अपार महासागर की भाँति है जिसमें इच्छाओं की लहरें उठती रहती हैं।
राग प्रियात्मक अनुभूति है, और द्वेष अप्रियात्मक अनुभूति है । इन दोनों अनुभूतियों से परे जो है वह समभाव है।
सत्य अपने आप में परिपूर्ण है और वह अनन्त है, अक्षय है, शब्दों के माध्यम से उसकी अभिव्यक्ति पूर्ण रूप से नहीं हो सकती है।
'ध्यान' अनुभूति का विषय है। उसे अभिव्यक्ति का रूप देना कथमपि सम्भव नहीं ।
हमारा जीवन 'वन' नहीं 'उपवन' होना चाहिए जिसमें सद्गुणों की सौरभ प्रतिपल, प्रतिक्षण रहे, किन्तु दुर्गुणों के कंटक अपना अस्तित्व न रखें।
'शिक्षा' एक ऐसी गरिमापूर्ण कला है जिससे जीवन संस्कारमय बनता है।
आत्मा स्वभावतः प्रकाशमान सूर्य है पर उस पर कर्म-मेघ आच्छादित हैं । अतः उसका दिव्य तेज पूर्णतः प्रकट नहीं हो पाता।
'मोह' दो अक्षर का लघु शब्द है, पर इसके प्रभाव से व्यक्ति बहिर्मुखी बनता है। मोह का जिसमें अभाव होता है, वही माहन भगवान बनता है।
'संयम' जीवन का प्राणभूत तत्व है जिसके सद्भाव में मानव महामानव बनता है।
'स्वार्थ' और 'परमार्थ' इन दोनों में पर्याप्त अन्तर है । स्वार्थ जीवन की चादर को कलुषित कर देता है और परमार्थ उसे उज्ज्वल बनाता है ।
मेरी आत्मा स्वतन्त्र है, शाश्वत है, आनन्द से परिपूर्ण है, तन, मन और इन्द्रियों से परे है।
ज्ञान एक ऐसा शाश्वत प्रकाश है, जिसमें स्व का अवलोकन किया जाता है, स्व में ही रमण किया जाता है, स्व सम्बन्धी जो भ्रान्ति एवं मूढ़ता है, उसका निरसन हो जाता है।
ज्ञान के अभाव में जो क्रिया की जाती है उसमें विवेक का प्रकाश नहीं होता।
आत्मा और शरीर तलवार तथा म्यान की तरह पृथक-पृथक अस्तित्व वाले हैं, दोनों के स्वरूप में कोई साम्य नहीं।
आचार, विचार का क्रियात्मक मूर्त रूप है। जब विचार में महत्वपूर्ण परिवर्तन होता है तो उसका असर न होना असम्भव है।
जो ज्ञाता है, द्रष्टा है, पर-भाव से शून्य है, स्वभाव से पूर्ण है-वह मैं हूँ।
आत्मा अमूर्त है, शरीर मूर्त है, शरीरयुक्त जो आत्मा है वह न मूर्त है, न अमूर्त है किन्तु मूर्त और अमूर्त दोनों है।
हमारी आत्मा समूचे शरीर में व्याप्त है। जहाँ शरीर है, वहाँ आत्मा है, जहाँ आत्मा है वहाँ ज्ञान है, जहाँ ज्ञान है वहाँ संवेदना है ।
ज्ञान और दर्शन मेरा स्वभाव है आवरण मेरा स्वभाव नहीं है, जो मेरा विभाव नहीं है, वह मैं हूँ।
जो स्वभाव को एक क्षण भी नहीं छोड़ता और परभाव को ग्रहण नहीं करता है, वह मैं हूँ ।
जीवन में जब सन्तोष आता है तब मनुष्य की आशाएँ, तृष्णाएँ समाप्त हो जाती हैं । उसके जीवन में सुख-शान्ति का सागर ठाउँ मारने लगता है।
जिस मानव ने अपने मन के पात्र को कदाग्रहों से, दूषित विचारों से, और मेरे तेरे के संघर्षों से रिक्त कर दिया है, वह अपने जीवन को प्रकाशमान बना देता है।
सागर जिस प्रकार अगाध है, अपार है, मन भी उसी प्रकार अगाध एवं अपार है। उसमें विचार-लहरों की कोई थाह नहीं है, कामनाओं, इच्छाओं का कोई पार नहीं है।
आत्मा सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। वह परम ज्योति स्वरूप है। जिसने निज स्वरूप को जान लिया, एक आत्मा को जान लिया तो सब कुछ जान लिया।
सम्यग्दर्शन आत्मा की एक ज्योतिमय चेतना है जो व्यामोह के सघन आवरणों के नीचे दब गई है। इन आवरणों को हटा देने से ही वह अनन्तज्योति प्रकट हो जायेगी।
आत्मा कोटि-कोटि सूर्यों से भी अधिक प्रकाशमान है । चन्द्रमा से भी अधिक शीतल है, सागर से भी अधिक गम्भीर है, आकाश से भी अधिक विराट है । वस्तुतः ये आत्मा के परिमापक पदार्थ नहीं हैं।
आत्म-तत्व ज्ञान स्वरूप है । आत्मा ज्ञाता है। जो कुछ ज्ञान है, वही आत्मा है और जो कुछ आत्मा है, वह ज्ञान ही है। आत्मा और ज्ञान में भिन्नता नहीं है।
प्राणी जगत में मानव सबसे अधिक विकसित एवं पूर्ण प्राणी है । वस्तुतः मानव जीवन महत्वपूर्ण है। परन्तु उससे भी महत्वपूर्ण है जीवन-यात्रा को संयमपूर्वक गतिशील बनाये रखना।
आत्मा ही एक ऐसा तत्व है जो ज्ञान और दर्शन से युक्त है । ज्ञान और दर्शन के अतिरिक्त जितने भी भाव हैं वे सभी बाह्य-भाव हैं।
संसार कानन में परिभ्रमण करने का प्रधान कारण मोह है । मोह से मुग्ध मानव जो वस्तुएँ नित्य नहीं है उन्हें नित्य मानता है।
मैं अकेला हूँ, एक हूँ, इस संसार में मेरा कोई नहीं है और मैं भी किसी का नहीं हूँ, मैं शुद्ध स्वरूपी हैं, अरूपी हूँ।
माता-पिता, पुत्र-पुत्री ये सभी मेरे से पृथक हैं यहाँ तक कि यह शरीर भो मेरा नहीं है, वह भी आत्मा से भिन्न है।
सत्य स्वयं अनन्त शक्ति है । इसे किसी के आश्रय की किंचित् मात्र भी अपेक्षा नहीं रहती है।
सत्य का सूर्योदय होते हो असत्य का सघन अंधेरा तिरोहित हो जाता है ।
श्रद्धा मानव-मन में सद्विचारों की सुधा और सत्कार्यों की प्रबल-प्रेरणा का अभिसंचार भी करती है।
जीवन एक यात्रा है । एक ऐसी यात्रा जिसका संलक्ष्य ही आगामी विशिष्ट यात्रा हेतु तैयारी करना है । जिसमें यह तैयारी पूर्ण-रूप से हो गयी वह जीवन सफल है।
धर्म मनुष्य-जीवन को सुखी, स्वस्थ और प्रशान्त बनाने के लिए एक वरदान लेकर पृथ्वीमण्डल पर अवतरित हुआ है।
असत्य वास्तव में अशक्त है अपने अस्तित्व के लिए असत्य को भी सत्य का छद्मरूप धारण करना पड़ता है।
धर्म मानव मन में छिपी (घुसी) हुई दानवीय-वृत्तियों को निकालता है और मानवता की पावन प्रतिष्ठा करता है।
ब्रह्मचर्य जीवन का अद्भुत सौन्दर्य है, जिसके बिना बाहरी और कृत्रिम सौन्दर्य निरर्थक है।
सत्य वस्तुतः वह पारसमणि है जिसके संस्पर्श मात्र से ही मनुष्य जीवन रूपी लोहा सोना बनकर निखर उठता है।
धर्म का जीवन के सभी क्षेत्रों में सार्वभौम रूप से प्रवेश होने पर ही आनन्द का निर्मल निर्झर प्रवाहित हो सकता है ।
जिस मानव के जीवन में सत्य का प्रकाश जगमगाने लगता है वह सत्य के पीछे सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार हो जाता है।
धर्म मानव जीवन के विकास का अभिनव प्रयोग है, जीवनयापन की अतीव विशिष्ट कला है।
सत्य मनुष्य जीवन की कसौटी अवश्य करता है, जो सत्य की कसौटी पर खरा उतर जाता है वह मानव से महामानव बन जाता है।
धर्म का रहस्य जानिए, उसे परखिए, अपने जीवन को धर्म से परिष्कृत कीजिए, इसी में 'मानवजीवन' की सफलता है।
जब मानव के मन, वाणी तथा कर्म में सत्पुरुषार्थ, न्याय-नीति एवं सत्य का दिव्य-आलोक जगमगाता है तभी मानव जीवन की सार्थकता है ।
धर्म मानव-जीवन की शुद्धि, बुद्धि की एक अतीव सुन्दर प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया मानव को कष्ट, व्यथा के जाल से मुक्त करती है।।
साहस एक ऐसी नौका है जिस पर आरूढ़ व्यक्ति आपदाओं के अथाह समुद्र को पार कर लेता 'क्रोध' एक ऐसी अन्धी आँधी है जिसमें व्यक्ति को हित और अहित का परिबोध नहीं होता है।
'ब्रह्मचर्य व्रत नहीं महावत है, व्रतों का राजा है । जीवन रूपी मणि माला का दीप्तमान सुमेरु है।
संगठन एक ऐसा स्वर्णिम-सूत्र है जिसमें आबद्ध व्यक्ति अपनी शक्ति को शतगुणित कर देता है।
'सम्यग्दर्शन' अध्यात्मसाधना का आधारभूत स्तम्भ है। जिस पर चारित्रिक समुत्कर्ष का सुरम्य प्रासाद अवलम्बित है।
'परोपकार' एक ऐसी प्रशस्त प्रवृत्ति है जिसमें स्व और पर का हित निहित है।
'त्याग' जीवन रूपी मन्दिर का चमकता हुआ कलश है जिसकी शुभ्र आभा को कोई भी धूमिल नहीं कर सकता।
'वैराग्य' त्याग की नींव है। जितना वैराग्य सुदृढ़ होगा उतना ही त्याग अपना अस्तित्व बनाये रखेगा।
तप एक ऐसी अक्षय ऊर्जा है जो जीवन को प्राणवान बनाती है।
ज्ञान एक दिव्य ज्योति है जो हमारे जीवन में छाये हुए अज्ञान अन्धकार को तिरोहित कर देता है।
अहिंसा एक ऐसी उर्वर भूमि है जिस पर सत्य का पौधा उग सकता है और पनप सकता है।
जो मानव सत्य धर्म की आराधना करता है उसका आत्मबल अवश्य बढ़ जाता है।
जब मानव सत्य को दृढ़ता से अपना लेता है, उसे आत्मसात् कर लेता है तो जो पाप कर्म उसे घेरे हुए हैं, उन सबको वह दूर कर देता है।
सत्य मानव-जीवन की अक्षय ज्योति है, अनमोल विभूति है उससे बढ़कर कोई धर्म नहीं है।
सचमुच सत्य ज्ञान में अन्य सभी ज्ञान का अन्तर्भाव हो जाता है। यदि सत्य का सम्पूर्ण रूप से पालन हो सका तो सहज ही सारा ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
परिग्रह एक प्रकार का पाप है वह मानव-जीवन को पतन के गहरे गर्त में डाल देता है ।
पाप और सांप ये दोनों ही हानिप्रद हैं । सांप से भी बढ़कर पाप है।
आत्मा चेतन है, अनन्त शक्तिसम्पन्न है । ज्ञाता और दृष्टा है। इसका चरम और परम विकास परमात्मा है।
मानव-जीवन केवल संग्रह और उपभोग के लिए नहीं है इसमें उपभोग के साथ त्याग भी अनिवार्य है।
भोग इस लोक में ही नहीं परलोक में भी कष्टप्रद है वह नरक तक की यात्रा भी करा देता है।
जो व्यक्ति भोगों का गुलाम है वह अपने जीवन को दुःखमय बना देता है।
मानव मन के अधीन न बनकर इसको अपने आज्ञाधीन बनाये।
आत्मशक्ति का यथार्थ विकास त्याग में है, भोग में नहीं; साधना में है, विराधना में नहीं।
धार्मिक मर्यादा में जीवन को चलाने के लिए मनुष्य को मानव-तन के साथ मानव-मन को जोड़े रखना चाहिए जिसे भी मानव-तन के साथ मानवीय अन्तःकरण जब भी मिल जाता है तब उसके जीवन का प्रत्येक पहलू आनन्द और उल्लास से खिल उठता है।
मनुष्य-जीवन के लिए प्रतिज्ञा एक पाल है, एक बाँध है, एक तटबन्ध है, जो स्वच्छन्द बहते हुए जीवन प्रवाह को नियन्त्रित कर देता है, मर्यादित कर देता है।
'संयम' एक ऐसा अंकुश है जो हमारे मन रूपी गज को वश में कर लेता है।
जिसके जीवन में संयम का प्रकाश है वह जीवन वस्तुतः विशिष्ट जीवन है ।
जीवन एक प्रकार का संग्राम है और मानव एक योद्धा है, यदि वह विघ्न-बाधाओं को देखकर लड़खड़ाता नहीं है, गिड़गिड़ाता नहीं है तो वह जीवन संग्राम में कदापि पराजित नहीं हो सकता ।
जीवन एक प्रदीप है और ज्ञान उसका दिव्यप्रकाश है।
जीवन जन्म और मृत्यु के मध्य की कड़ी है। जब जन्म हुआ तब से जीवन यात्रा प्रारम्भ हुई और जब मृत्यु हुई तब जीवन लीला समाप्त हुई।
जीवन एक सरिता है उसका प्रथम छोर जन्म है और अन्तिम छोर मृत्यु ।
जीवन एक महाग्रन्थ है जिसका हर पृष्ठ अनुभवपूर्ण है।
प्रत्येक मानव अपने जीवन में सुख और दुःख का अनुभव करता है किन्तु जो उन्हें समान रूप से मान लेता है वह समदर्शी कहलाता है ।
मानव के जीवन में सुख का फूल भी खिलता है और दुःख के कंटक भी उसके साथ आते हैं ।
मानव ! अपने जीवन में कभी भी मान के गज पर आरूढ मत बनो, विनयशील बनो, यही तुम्हारे जीवन विकास का मूलमन्त्र है।
मानव ! संयम अमृत है और असंयम जहर है अतः विष को छोड़कर सुधा का पान करो।
मानव ! सुख और दुःख यह तो एक चक्र है और वह घूमता ही रहता है उसे समभाव से देखते रहो, सुख ज्योति को देखकर हर्ष से फूल की तरह न फूलो और दुःख के अन्धकार को देखकर मुरझाओ नहीं।