जैन धर्म भारत का एक प्राचीन धर्म है, जैन धर्म के २४ तीर्थकर इसी भारत-भूमि में उत्पन्न हुए है। जन-समाज भारतीय समाज के साथ सदा अभिन्न रहा है, आर्यत्व के नाते जैन और जैन तीर्थकर आर्यवश मे ही पैदा हुए हैं। जैन धर्म प्रारम्भ से ही कोई जातिगत धर्म नहीं बना, वह सदा से एक चिन्तनात्मक मुक्ति मार्ग के रूप में ही स्थित रहा है । सासारिक, राजनीतिक तथा गासनिक अहभावना अथवा अधिकार-एपणा का उसने कभी पोपण नही किया। भारतीय सभ्यता और आर्यसंस्कृति को जैनो की बहुत महत्त्वपूर्ण देन है । पर वह पार्यत्व के अगभूत होने के नाते पराई नहीं, और न ही आक्रामक रूप से बलात् थोपी गई है, अपितु जैन-धर्म के नाते निम्रन्थ पथ का अन्दुवायी है, तथा जाति, वश, सभ्यता सस्कृति और रक्त के सम्बन्ध रो पार्य है। जैन और जैनेदरो मे परम्परा से विवाह सम्बन्ध होते आये है, क्योकि जैन धर्म सामाजिक सम्बन्धो मे हस्तक्षेप नहीं करता, अत जैन गिप्टाचार और सभ्यता मे व भारतीय सभ्यता मे कोई मौलिक अन्तर नही है। फिर भी जैन धर्म के विचारो, सिद्धान्तो का जो अनुयायियो पर प्रभाव पडा है, उमसे कतिपय विशेषतायो को जन्म मिला है। इसका कारण है जैन धर्म की विनयगीलता। जैन धर्म मे विनय और समता पर अत्यधिक बल दिया है, प्रायश्चित्त, विनय, तथा बैयात्म (सेवाधर्म) को तप का अन्तर-स्वस्प बताया है। प्रायश्चित्त से अहभाव का नाग होता है, और विनय मे नम्रता तथा विवेक को बल मिलता है! जैन शिष्टाचार का अर्थ है विनय ।'
ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र के प्रति श्रद्धा रखना और इन गुणो के बारक के प्रति आदर रखना जैनागम मे बहुत बड़ा तप बताया है।
मन, वचन, तथा काया को अप्रगस्त, पापकारी तथा वणाकारक कार्य से हटाकर प्रशस्त, पुण्य-कारक तथा उपयोगपूर्वक उठने-बैठने की सभ्यता की ओर उन्मुख होना महान् तप बताया गया है ।
जैनागम मे लोकव्यवहार को ठीक ढंग से सावने के लिए भी लोकोपचार विनय का उल्लेख किया है।
अध्यापक-गुरु की आज्ञापालन, आदर के साथ गुरु से व्यवहार करना, जानदान निमित्त नम्रतापूर्वक दान देना, दुखी जीवो के प्रति कोमल भाव रखना, देशकाल की विज्ञता और सब से प्रेममय आत्मीयपन के अनुकूल रूप से स्नेहभरा व्यवहार करना भी जैनधर्म के अनुसार धर्म की प्रधानतम सेवा है।
साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, अरिहंत, सिद्ध, देव, धर्म, तथा गुरु के प्रति अशातना-अनादरभाव नही रखना ही जैन साधु और श्रावको का परम कर्तव्य है।
जैनशास्त्रों मे अशातना का बहुत विस्तृत वर्णन है, गुरु की प्रशासना ३२ प्रकार की बताई जाती है। गुरु के आगे खडा होना, गुरु के आसन पर बठ जाना, गुरु के आगे चलना, तुकार का प्रयोग करना, आदि अनादर भावो का उल्लेख किया गया है।
इसी प्रकार विशिष्ट व्यक्तियो के प्रति भी जैनो के शिष्टाचार का ढग नियत है जैसे कि –
१. देव और गुरु के प्रति :-- जैन श्रमणोपासक जब तीर्थकर भगवान् को उपदेश सभा मे अथवा साधु के निवास स्थान पर जाता है, तो उसे पॉच बाते करनी चाहिएँ, जो जैन परिभाषा मे पाँच अभिगम के नाम से प्रसिद्ध है। वे ये है--
१ फूलमाला सचित्त श्रादि वस्तुस्रो को हटा देना आवश्यक है। २ अचित्त वस्तुओ का त्याग ग्रावश्यक नहीं। ३ छत्र-चवर आदि ऐश्वर्य के चिह्न तथा जूता, छतरी आदि पदार्थ न ले जाना। ४ तीर्थकर या साधु पर दृष्टि पडते ही हाथ जोड़ना। ५ मन की चचलता त्याग कर एकाग्र होना। (भगवती सूत्र)
२ बन्दनापाठ- तीर्थकर या साधु के समक्ष पहुँच कर निम्नलिखित पाठ पढ कर उन्हे वन्दना की जाती है-
"तिक्खुत्तो आयाहिण, पयाहिण करेमि, वदामि नमसामि, सक्कारेमि, समाणेमि, कल्लाण मगल देवय चेइय पज्जुवासामि, मत्थएण वदामि ।"
-अावश्यक सूत्र, सामायिक पाठ।
अर्थात्----भगवन् । मै तीन बार दक्षिण से प्रारभ करके प्रदक्षिणा करता हूँ, वन्दना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ, सन्मान करता हूँ। आप कल्याण और मंगल के रूप है। देवता स्वरूप है, चैत्य-ज्ञान स्वरूप है। मै आपकी पुन -पुन. उपामना करता हूँ। मस्तक झुका कर वन्दना करता हूँ।
३ भमणों का पारस्परिक शिष्टाचार- जैन संघ मे वन्दनीयता का अाधार पर्यायज्येष्ठता है। अर्थात् प्रत्येक मुनि अपने से पूर्व दीक्षित मुनि को नमस्कार करता है। इसमे उम्र आदि किसी अन्य बात का विचार नही किया जाता । पुत्र यदि पहले दीक्षित हो चुका है और पिता पश्चात् दीक्षित हुआ है तो पिता अपने पुत्र को नमस्कार करेगा। सूत्रकृताग अ० २, उ० २ सूत्र मे बतलाया है कि चक्रवर्ती राजा भी यदि बाद मे मुनि दीक्षा ग्रहण करे तो उसका कर्तव्य है कि वह पूर्वदीक्षित अपने दास के दास को भी लज्जा और सकोच न करता हया वन्दना करे।
मुनि बन जाने पर मनुष्य का गृहस्थ जीवन समाप्त हो जाता है और एक नवीन ही जीवन का सूत्रपात होता है ।
४ श्रावकों का पारस्परिक शिष्टाचार- शास्त्रीय उल्लेखो से पता चलता है कि प्राचीन काल मे श्राविकाएँ और श्रावक भी अपने से बडे श्रावक को बन्दना किया करते थे।
-भगवतीसूत्र, १२शतक, शख-पोक्खली सवाद।