डॉ. मायारानी आर्य
जैन - धर्म एक साधना - पद्धति में विश्वास करता है जिसमें शरीर पर विशेष ध्यान दिया जाता है और 'योग' में भी शरीर पर काबू करके अपने चरम लक्ष्य पर पहुंचने का आग्रह है । जैन धर्म में योग की प्रतिष्ठा भगवान महावीर के जीवनकाल से ही स्थापित हो चुकी थी। जैन आगम ग्रन्थों में तीर्थंकर प्रतिमाओं के निर्माण की पद्धति में जो विशेषध्यान आसन पर दिया गया है जिनमें पद्मासन, खड्गासन और पर्यंकासन प्रमुख हैं । जैन मूर्तिकला के प्रसिद्ध समीक्षक डॉ. वृन्दावन भट्टाचार्य ने लिखा है कि जैन मूर्तियाँ साधना पक्ष में व्यक्ति के मानसिक एवं शारीरिक उत्थान के साथ एकाकार होकर उसे निर्वाण या मोक्ष का मार्ग दिखाती हैं | यथार्थ में 'तीर्थंकर' बिम्ब के समक्ष साधक अपने शरीर एवं मन को एकाग्रचित्त करके मूर्ति में प्रकल्पित नासिकाग्र दृष्टि एवं भ्रूमध्य दृष्टि को टिकाकर उन सभी गुणों की प्रादुर्भूति अपने शरीर में लाने का प्रयास करता है।
जैन धर्म एवं दर्शन निवृत्तिप्रधान है, जिसमें शरीर को तपश्चर्या की ऊष्मा में तपाकर जीवन की समस्त भौतिक संपदा को नकारते हुए अपने अंतिम लक्ष्य तक पहुँचने की व्यावहारिक दीक्षा की सार्थकता को स्वीकारा गया है । ईसा पूर्व की छटी शताब्दी में चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर तक आते-आते शरीर को कठोर यातना देकर उसे अपने चरम लक्ष्य तक पहुँचाने का साधन स्वीकार कर लिया गया था । महावीर ने अपने जीवन काल में ऐसी कई यौगिक क्रियाओं का सतत अभ्यास किया था, जिनसे मन की चंचलता समाप्त होकर ध्यान की एकाग्रता आती थी । महावीर स्वयं खड्गावस्था में अपने दांये अंगूठे पर छःह माह तक स्थिर खडे रहे थे। बाद में बौद्ध धर्म में भी योग की क्रियाओं का विशेष सम्मान होता रहा। ऐतिहासिक कालक्रम में महावीर ही । योग के सर्वप्रथम उद्गाता थे । बाद में दूसरी शताब्दी ईसवी में पतंजलि ने योगदर्शन को व्यवस्थित किया ।
योग शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के 'युज् समाधौ' धातु में । 'घञ्' प्रत्यय लगाने से तथा 'युजिर् योगे' धातु में 'कर्तरि घञ्' प्रत्यय लगने से हुई है । इस प्रकार इस शब्द के सामान्य अर्थ हैं - 'समाधि' तथा 'जोड़नेवाला' | पतंजलि के "योगभाष्य" के अनुसार "योगः समाधिः स च सार्वभौमश्चित्तस्य धर्मः" अर्थात् योग समाधि को कहते हैं जो चित्त का सार्वभौमधर्म है । दूसरे शब्दों में । “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' अर्थात् चित्तवृत्तियों के निरोध का नाम ही योग है । गीता के अनुसार “समत्वंयोगउच्यते" अर्थात् जीवात्मा और परमात्मा के एकीकरण का नाम 'योग' है । तथा दूसरी व्याख्या गीताकार ने इसप्रकार दी है - "योगः कर्मसुकौशलम्" अर्थात् कौशल से किये कार्य को ही योग कहते हैं । इसी प्रकार प्रसिद्ध भारतीय दार्शनिक अरविंद ने कहा है - "योग का अर्थ केवल ईश्वर प्राप्ति ही नहीं हैं, अपितु योग उस क्रिया का नाम है, जिसके द्वारा आभ्यन्तर तथा बाह्य जीवनका ऐसा परिपूर्ण उत्सर्ग तथा परिवर्तन हो कि उसके द्वारा भगवान् चैतन्य की अभिव्यक्ति हो तथा वह स्वयं भी भगवत्-कर्म का एक अंग बन सके ।'
योग शब्द की उक्त परिभाषाओं तथा महापुरुषों द्वारा की गई विभिन्न व्याख्याओं का मूल आशय एक ही है और वह है - "योग उस क्रिया का नाम है जो जीवात्मा का परमात्मा से मिलन कराता है, अर्थात् जिस साधन द्वारा जीवात्मा और परमात्मा में एक्य स्थापित हो सके, वही 'योग' है।
जैनधर्म व दर्शन का प्रमुख सिद्धान्त 'स्याद्वाद' या 'अनेकांतवाद' है । जैन दर्शन के अनुसार वस्तु अनंत धर्मों से युक्त है और इन अनंत धर्मों का साक्षात्कार साधारण मानव नहीं कर सकता | कैवल्यज्ञानसंपन्न योगी ही कर सकता है | साधारण मानव को वस्तु का आंशिक या सापेक्ष ज्ञान ही प्राप्त होता है, अतः वह अपने इस ज्ञान के आधार पर यह नहीं कह सकता कि "वस्तु ऐसी ही है ।" यदि वह ऐसा कहेगा तो उसका यह कथन 'प्रमाण' की कोटि में न आकर 'दुर्णय' की कोटि में चला जायेगा इसीलिये 'स्याद्' पद जोड़कर उसके द्वारा यह प्रकट किया कि "वस्तु स्यात् अर्थात् संभवतः ऐसी है" या "ऐसी नहीं भी है।" । यह सिद्धान्त ही 'स्याद्वाद' है। जीव की अपनी तय्यारी और उसे सतत अभ्यास द्वारा अपने, दूसरों व ब्रह्माण्ड के विषय में जानकारी लेना ही जैनधर्म की मुख्य वैचारिकता है । योग के सिद्धान्त सर्वप्रथम जैनधर्म में ही | दृष्टिगोचर होते हैं | जब महावीर के जीवन काल में ही जीवंतस्वामी की प्रतिमा बनी तो उसे खड्गासन प्रकल्पित किया । समानुपतिकता | में तीर्थंकर प्रतिमा में शरीरयष्टि नितांत सधी हुई पुष्ट एवं इंद्रियजयी की शरीर छबि है | जैन प्रतिमाएँ साधक के लिए चिंतन । के लिए एक आदर्श व उससे अनुकरण कर अपनी शरीरस्थ इंद्रियों की तय्यारी है. ताकि उस तीर्थंकर प्रतिमा से अपने जीवन में व्यावहारिक ज्ञान उतारे, अपने को भी उसी भांति बनाने का प्रयास करे । साधक उस बिम्ब से अपना 'योग' करे और वैचारिक उच्चता के सोपान कर चढ़ने का प्रयास करे । इसीमें उसकी सार्थकता है।
वीतरागमुद्रा के विषय में आचार्य शुभचंद्र के "ज्ञानार्णव" एवं आचार्य हेमचंद्र के 'योगशास्त्र' में विस्तार से चर्चा की गई है । जहां साधक राग, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह आदि से विरत होने की अनुभूति करता है । मूर्ति रूप के अनुरूप साधक भी प्रशांत भाव से सुखासन में स्थित हो बांये हाथपर दांये हाथको रखे । देह के प्रति अनासक्ता रखे इससे जीवन में दिव्य शांति एवं समाधि दशा का अनुभव होगा।
जैनदर्शन में योग शब्द का विभिन्न अर्थों में प्रयोग हुआ है । उमास्वामी ने मन, वचन और कार्य की प्रक्रिया के अर्थ में योगशब्द का प्रयोग किया है ।' भट्ट अकलंक देव, वीरसेन आदि के ग्रन्थों में आत्म-प्रदेशों के हलनचलन और आत्म प्रदेशों के संकोच विकोच के अर्थ में 'योग' शब्द प्रयुक्त किया है । जैनधर्म में योगी के लिये आसन-विधान किया गया है । आचार्य शुभचंद्र ने पर्यंकासन, अर्द्धपर्यंकासन वज्रासन, वीरासन, सुखासन, कमलासन और कायोत्सर्गासन को ध्यान के योग्य बताया है । हेमचंद्र ने भद्रासन, दण्डासन, उत्कटासन, गोदोहिकासन भी बड़े उपयोगी बताये हैं ।
इन आसनों से इंद्रियाँ वश में होती हैं व समाधि की अवस्था की ओर बढ़ना सरल हो जाता है | जो साधक योग नहीं जानता उसे शरीर की स्थिर स्थिति नहीं प्राप्त होती । आसन करने वाले योगी को आसनजयी यानी आसनों में दक्ष होना चाहिये । आचार्य शुभचंद्र एवं आचार्य हेमचंद्र ने योग के लिए प्राणायाम की भी अनिवार्यता प्रतिपादित की है । रेचक, पूरक एवं कुंभक के साथ भस्त्रिका, भ्रामरी एवं योनिमुद्रा का भी उल्लेख किया है । प्राणायाम से मन जीता जाता है और उसे स्थिर भी किया जाता है । जैन, लेखक ब्रह्मदेव कहते हैं कि कुंभक से शरीर निरोग हो जाता है।
जैन तीर्थंकर अपने आचरण में एक ओर योगी थे तो दूसरी ओर धर्मोपदेशक | जैन मूर्तियों में यौगिक आसनों और मुद्राओं का ही प्रतिष्ठापन प्रतिबिम्बित होता है | जैन प्रतिमा - विज्ञान द्वारा भी यह आसन पुष्ट हुए हैं कि साधक इन आसनों में बनी प्रतिमाओं के समक्ष बैठकर ध्यान करे व अपने को भी तीर्थंकर के बताये योगमार्ग का अनुसरणकर्ता बनावे ।
तत्वार्थ सूत्र ६/१ तत्वार्थ वार्तिक ६।१।१०
जैन प्रतिमाओं में तीन आसनों का अधिक उल्लेख हुआ है व उनका प्रकलन भी हुआ है वे हैं –
(१) पर्यंकासन - इसे पद्मासन मुद्रा भी कहा गया है । यौगिक ग्रन्थों के अनुसार इसमें पैरों को इसप्रकार मोड़कर बैठा जाता है कि दाहिना पैर बांयी जंघा पर और बांयाँ दाहिनी जंघा पर रहता है, नेत्र नासाग्र पर स्थित रहते हैं। महावीर, ऋषभनाथ तथा नेमिनाथ की प्रतिमाएँ इसी मुद्रा में बनाने का विधान किया गया-
"वीरः ऋषभः नेमिः एतेषां जिनानां पर्यङ्कासनम् शेषजिनानां उत्सर्ग-आसनम् ।"
(२) अर्द्धपर्यंकासन - इसमें एक पैर नीचे लटकता रहता है तथा दूसरा पहले पैरकी जंघा पर रखा रहता है । इसे ललितासन भी कहते हैं । जिन-प्रतिमाओं में यह आसन नहीं दिखाया जाता किन्तु उनके यक्ष एवं यक्षी या यक्षिणी इस मुद्रा में बनाये जाते हैं।
(३) खड्गासन - यह ध्यान की खड़ी मुद्रा है इसमें पैरों के मध्य सामने की ओर लगभग तीन अंगुल की जगह रहती है, भुजाएँ दोनों ओर घुटनों के नीचे तक स्पर्श करती रहती हैं या कभी स्पर्श नहीं करती झूलती रहती हैं । तीर्थंकरों की खड़ी प्रतिमाएँ इसी आसन में दर्शायी गई हैं । इस प्रकार योग का जैनधर्म में अत्यधिक महत्व निरूपित किया गया है । साधक इन आसनों को मर्तिशिल्प से सीख सकता है । जैन तीर्थंकर - प्रतिमाएँ मानव को योग की ओर प्रवृत्त करने में सहायक हैं।