जैन धर्म की वैज्ञानिकता- पिछले प्रकरणो मे जैन धर्म की मान्यताएँ मक्षेप में बतलाई जा चुकी है। ध्यानपूर्वक उन्हे पढने से जैन धर्म मे, अन्य धर्मो की अपेक्षा जो विशेपताएँ है, उनका आभास मिल सकता है। किन्तु उनकी ओर विगेप स्पसे ध्यान आकर्षित करने के लिए उनका पृथक् उल्लेख कर देना ही उचित होगा।
तत्त्व का ज्ञान तपस्या एव सावना पर निर्भर है। सत्य की उपलब्धि इतनी सरल नहीं है कि अनायास ही वह हाय लग जाय । जो निष्ठावान् माधक जितनी अधिक तपस्या, ग्रार साधना करता है, उसे उतने ही गुह्य-तत्त्व की उपलब्धि होती है।
पूर्ववर्ती तीर्थकरो की बात छोड दे और चरम तीर्थकर भगवान् महावीर के ही जीवन पर दृष्टिपात करे तो स्पप्ट विदित होगा कि उनकी तपस्या और साधना अनुपम और असाधारण थी। भ० महावीर साढे बारह वर्षों तक निरन्तर कठोर तपश्चर्या करते रहे। उस असाधारण तपश्चर्या का फल भी उन्हे असाधारण ही मिला। वे तत्वबोध की उस चरम सीमा का स्पर्श करने में सफल हो सके, जिसे साधारण साधक प्राप्त नहीं कर पाते । वास्तव मे जैनधर्म के सिद्धान्तो मे पाई जाने वाली खूवियाँ ही उनका रहस्य है । जैन मान्यताएँ यदि वास्तविकता की सुदृढ नीव पर अवस्थित और विज्ञानसम्मत है तो उनका रहस्य भगवान् महावीर का तपोजन्य परिपूर्ण तत्त्वज्ञान ही है।
सृष्टि रचना- उदाहरण के लिए सृष्टि रचना के ही प्रश्न को ले लीजिये, जो दार्शनिक जगत् मे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आधारभूत है। विश्व मे कोई दर्शन या मत न होगा, जिसने इस गम्भीर प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास न किया हो। क्या प्राचीन, और क्या नवीन, सभी दर्शन इस प्रश्न पर अपना दृष्टिकोण प्रकट करते है। मगर वैज्ञानिक विकास के इस युग मे उनमे अधिकाश उत्तर कल्पनामात्र प्रतीत होते है। इस मबध मे महात्मा बुद्ध विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिन्होने बिना किसी सकोच या झिझक के स्पष्ट कह दिया कि लोक का प्रश्न अव्याकृत है-अनिर्णीत है। इसका पागय यही लिया जा सकता है कि लोक-व्यवस्था के सबब मे निर्णयात्मक रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
इस स्पष्टोक्ति के लिए गौतम बुद्ध धन्यवाद के पात्र है, मगर लोक के विषय मे हमारे अन्त करण मे जिज्ञासा सहज रूप से उदित होती है, उसकी तृप्ति इस उत्तर से नहीं हो पाती।
और जब हम जिज्ञासा तृप्ति के लिए इस विषय के विभिन्न दर्शनो के उत्तर की ओर ध्यान देते है, तब भी निराशा का सामना करना पडता है।
मुष्टि रचना के विपय मे अनेक प्रश्न हमारे समक्ष उपस्थित होते है। प्रथम यह कि सृष्टि का विधिवत् निर्माण हुआ है या नही ? अगर निर्माण हुआ है, तो इसका निर्माता कौन है ? यदि निर्माण नहीं हुआ तो सृष्टि कहाँ से आई ? सृष्टि-निर्माण से पहले क्या स्थिति थी?
इन प्रश्नो पर दार्शनिक कभी सहमत नही हो सके। एक कहता है-- सृष्टि देव' के द्वारा उत्पन्न की गई है। तो दूसरा कहता है---"ब्रह्म या ब्रह्मा नं इसकी रचना की है।' किसी का मत है कि ईश्वर इसका निर्माता है, और किसी के मतानुसार प्रकृति से सृष्टि बनी है। कोई स्वयभू को सृष्टि का कर्ता कहते है। कोई अडे से उसकी उत्पत्ति बतलाते है। उनकी मान्यता के अनुसार यह चराचर विश्व, अडे से उत्पन्न हुआ है। जब ससार मे कोई भी वस्तु नही थी तब ब्रह्मा ने पानी मे एक अडा उत्पन्न किया। बढ़ते-बढते वह बीच मे से फट गया। उसके दो भागो मे से एक से ऊर्ध्व-लोक की और दूसरे से अधोलोक की उत्पत्ति हुई।
कोई स्वभाव से सृष्टि की उत्पत्ति स्वीकार करते है, कोई काल से, कोई नियनि मे और कोई यदृच्छा से ।
शृष्टि से पहले कौन-सा तत्त्व था, इस विषय मे भी विभिन्न दर्शनो मे मर्नक्य नहीं है। किसी के मन्तव्य के अनुसार सृष्टि से पहले जगत् असत् था-- "असहा इदमन ग्रासीत् ।" दूसरे कहते है-“सदेव सोम्येदमन ग्रासीत्" अर्थात् हे मौम्य जगत् मृष्टि से पहले सत् था। किसी का कहना है-"आकाशः परायणम्" अर्थात् सृष्टि से पूर्व आकाश-तत्त्व विद्यमान था। कोई इस मन्तव्य के विरुद्ध कहते है -
नवेह किञ्चनाग्र आसीत् ।" "मृत्युनवेदमावतमासीत्"
शृष्टि से पहले कुछ भी नही या, सभी कुछ मृत्यु से व्याप्त था, अर्थात् प्रलय के समय नष्ट हो चुका था।
अभिप्राय यह है कि जैसे सृष्टि-रचना के सबध मे अनेक मान्यताएँ है, उसी प्रकार सृष्टिपूर्व की स्थिति के सबध मे भी परस्पर विरुद्ध मन्तव्य हमारे समक्ष उपस्थित है।
सृप्टिप्रक्रिया सबधी इन परस्पर विरुद्ध मन्तव्यो की आलोचना जैनदर्शन मे विस्तारपूर्वक की गयी है। उसे यहाँ प्रस्तुत करने का अवकाश नही । तथापि यह समझने में कोई कठिनाई नही हो सकती कि इन कल्पनामो के पीछे कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। यदि सृष्टि से पूर्व जगत् सत् मान लिया जाय तो उसके नये सिरे से निर्माण का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। जो सत् है वह तो है ही। यदि सृष्टि से पूर्व जगत् एकान्त असत् था और असत् से जगत् की उत्पत्ति मानी जाये तो शून्य से वस्तु का प्रादुर्भाव स्वीकार करना पडेगा, जो तर्क और बुद्धि से असगत है। इसी प्रकार सृष्टिनिर्माण की प्रक्रिया भी तर्कसंगत नही है ।
इस विपय मे जैन धर्म की मान्यता ध्यान देने योग्य है। जैन धर्म के अनुसार जड़ और चेतन का समूह यह लोक सामान्य रूप से नित्य और विशेष रूप से अनित्य है। जड और चेतन मे अनेक कारणो से विविध प्रकार के रूपान्तर होते रहते है। एक जड पदार्थ जब दूसरे जड पदार्थ के साथ मिलता है तब दोनो में रूपान्तर होता है, इसी प्रकार जड के सम्पर्क से चेतन मे भी रूपान्तर होता रहता है। रूपान्तर की इस अविराम परम्परा मे भी हम मूल वस्तु की सत्ता का अनुगम स्पष्ट देखते है। इस अनुगम की अपेक्षा से जड और चेतना अनादिकालीन है, और अनन्त काल तक स्थिर रहने वाले है। गत् का शून्य रूप मे परिणमन नही हो सकता, और शून्य से कभी सत् का प्रादुर्भाव या उत्पाद नही हो सकता है। । पर्याय की दृष्टि से वस्तुप्रो का उत्पाद और विनाग अवश्य होता है । परन्तु उसके लिए देव. ब्रह्म, ईश्वर या स्वयभ की कोई आवश्यकता नहीं होती, अतएव न तो जगत् का कभी मर्जन होता है, न प्रलय ही होता है। अतएव लोक नाश्वत है। प्राणीशास्त्र के विशेपन माने जाने वाले श्री जे० बी० एम० हाल्डेन का मत है कि ---"मेरे विचार मे जगत् की कोई आदि नही है। सृष्टिविषयक यह सिद्वान्त अकाट्य है, और विज्ञान का चरम विकास भी कभी इसका विरोध नहीं कर सकता।"
पृथ्वी का आधार- प्राचीन काल के दार्शनिको के सामने एक जटिल समस्या और खडी रही है। वह है इस भूतल के टिकाव के सबध में, यह पृथ्वी क्रिम प्रावार पर टिकी है। इस प्रश्न का उत्तर अनेक मनीपियो ने अनेक प्रकार से दिया है। किसी ने कहा-“यह गेपनाग के फण पर टिकी है।" कोई कहते है, "कछुए की पीठ पर ठहरी हुई है", तो किसी के मत के अनुसार “वराह की दाढ पर।" इन मव करपनामो के लिए ग्राज कोई स्थान नहीं रह गया है।
जैनागमो की मान्यता इस सबध मे भी वैज्ञानिक है। इस पृथ्वी के नीचे बनोदवि (जमा हुआ पानी) है. उसके नीचे तनु-बात है और तनुवायु के नीचे प्राकाग है। प्राकाश स्वप्रतिष्ठित है, उसके लिए किसी ग्राधार की आवश्यकता नही है।
लोकस्थिति के इस स्वरूप को समझाने के लिए एक बड़ा ही सुन्दर उदाहरण दिया गया है। कोई पुरुष चमड़े की मगक को वायु भर कर, फुला दे और फिर मगक का मुंह मजबूती के साथ बाँध दे। फिर मगक के मध्य भाग को भी एक रस्मी से कस कर बांध दे। इस प्रकार करने से मगक की पवन दो भागो मे विभक्त हो जायेगी और मशक डुगडुगी जैसी दिखाई देने लगेगी। तत्पश्चात् मशक का मुंह खोल कर ऊपरी भाग का पवन निकाल दिया जाय और उसके स्थान पर पानी भर कर पुन मगक का मुंह कस दिया जाय, फिर बीच का बन्धन खोल दिया जाय, ऐसा करने पर मगक के ऊपरी भाग मे भरा हुआ जल ऊपर ही टिका रहेगा, वाय के आधार पर ठहरा रहेगा, नीचे नही जाएगा, क्योकि मशक के ऊपरी भाग मे भने पानी के लिए वायु प्राधार रूप है। इसी प्रकार वायु के आधार पर पृथ्वी आदि ठहर हुए है।
-भगवती सूत्र श० १, उ० ६ ॥
स्थावरजीव- जैन धर्म वनस्पति पथ्वी, जल, वाय और तेज मे चैतन्य नविन स्वीकार करके उन्हें स्थावर जीव मानता है। श्री जगदीशचन्द्र वसू ने अपने वैज्ञानिक परीक्षणो दाग बनम्पति की मजीवता प्रमाणित कर दी है। उसके पटनान विज्ञान पथ्वी की जीवत्वशक्ति को स्वीकार करने की ओर अग्रसर हो रहा है। विन्यान भगर्भ वैज्ञानिक श्री फ्रासिम ने अपनी दशवीय भूगर्भयात्रा के मम्मरण लिखते हुए Ten years under earth नामक पुस्तक में लिया है कि-
"मैंने अपनी इन विवित्र यात्रानो के दौगन मे पृथ्वी के ऐसे-ऐसे म्वरूण दे है जो आधनिक पदार्थविज्ञान में विरोधी थे। वे स्वरूप वर्तमान वैज्ञानिक मुनिश्चिन नियमो द्वाग समझाये नहीं जा सकते !"
इसके पश्चात् वे अपने हृदय के भाव को अभिव्यक्त करते हुए कहते है-
"नो प्राचीन विद्वानो ने पृथ्वी मे जीवत्वशक्ति की जो कल्पना की थी, गा वह मत्य है ?"
श्री फ्रामिन्न भूगभ मववो अन्वेपण कर रहे हैं। एक दिन वैज्ञानिक जगन् पृथ्वी की नजीवता स्वीकृत कर लेगा, ऐसी पागा की जा सकती है।
जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक प्रात्मा मे अनन्त ज्ञानशक्ति विद्यमान है, परन्तु जब तक वह कर्म द्वारा पाच्छादित है, तब तक अपने अमली स्वरूप में प्रकट नहा हो पाती। जब कोई सबल पात्मा प्रावरणो को नि शेष कर देती है, तो भूत आर भविष्य वर्तमान की भॉति माफ दिखाई देने लगते हैं।
सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डा० जे० बी० राइन ने अन्वेषण करके अनेक आश्चर्यजनक तथ्य घोपित किये है। उन तथ्यो को भौतिकवाद के पक्षपाती वैज्ञानिक स्वीकार करने मे हिचक रहे है, मगर उन्हे अमान्य भी नहीं कर सकते है। एक दिन वे तथ्य अन्तिम रूप मे स्वीकार किये जायेगे, और उस दिन विज्ञान प्रात्मा तथा सम्पूर्ण ज्ञान (केवल जान) की जैन मान्यता पर अपनी स्वीकृति की मोहर लगाएगा।
लोकोत्तर ज्ञान- ध्यान और योग जैन-साधना के प्रधान अग है । जैन धर्म की मान्यता के अनुसार ध्यान और योग के द्वारा विस्मयजनक आध्यात्मिक गक्तियो की अभिव्यक्ति की जा सकती है। आधुनिक विज्ञान भी इस मान्यता को स्वीकार करने के लिए अग्रसर हुअा है। इस सबध मे प्रसिद्ध विद्वान् डा० ग्रेवाल्टर की The leaving brain नामक पुस्तक पठनीय है। वे कहते है –
दर्शन नास्त्र का उद्देश्य शुद्ध बोध की उपलब्धि और उसके द्वारा समस्त बधनो से विमुक्ति पाना है। मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य मुक्ति है, क्योकि मुक्ति के विना गाश्वत बान्ति की प्राप्ति नही हो सकती। बोव मुक्ति का साधन है, मगर यह भी स्मरणीय है कि वह दुवारी खड्ग है । जान के साथ अगर नम्रता है, उदारता है, निष्पक्षता है, सात्विक जिज्ञासा है, सहिष्णुता है, तो ही जान, आत्मविकास का माधन बनता है। इसके विपरीत जान के साथ यदि उद्दडता, सकीर्णता, पअपान एव अमहिष्णुता उत्पन्न हो जाती है तो वह अध पतन का कारण बन जाता है। मानवीय दाबल्य से उत्पन्न यह अवाछनीय पत्तियाँ अमृत को भी विष बना देती है।"
जैनधर्म ने उस कला का प्राविष्कार किया है, जो ज्ञान को विपाक्त बनने से रोकती है। वह कला जान को सत्य, गिव, और सुन्दर बनाती है, उम कला को जनदर्शन ने अनेकान्तदप्टि का नाम दिया है, जिसका निरूपण पहल किया जा चुका है। यह दृष्टि पररपर विरोधी वादो का साधार समन्वय करने वाला, परिपूर्ण सत्य की प्रतिष्ठा करने वाली और बद्धि मे उदारता, नम्रता, महिष्णुता और सात्त्विकता उत्पन्न करने वाती है । दार्शनिक जगत् के लिए यह एक महान् बरदान है।
मानव जाति को मामभक्षण की अवाछनीयता एव अनिप्टकरता समझा कर मासाहार से विमुख करने का सूत्रपात जैन धर्म ने ही किया है। समस्त धर्मों का आधारभूत और प्रमुख सिद्धान्त अहिंसा ही है। यह मन्तव्य बनाने का अवकाश जन वर्म न ही दिया है। जैनधर्म ने अहिसा को इतनी दृढता और सवलता के साथ अपनाया, और जैनाचार्यों ने अहिसा का स्वरूप इतनी प्रखरता के साथ निरूपण किया, कि धीरे-धीरे वह सभी धर्मों का अंग बन गई। जैन धर्मोपदेगको की यदि मवये बड़ी एक सफलता मानी जाय, तो वह् अहिंसा की साधना ही है। उनकी बदौलत ही ग्राज अहिंसा विश्वमान्य सिद्धान्त है। देश-काल के अनुसार उसकी विभिन्न गाग्वाएं प्रस्फुटित हो रही है। जैन धर्म की, अहिंसा के रूप मे एक महान् देन है, जिसे विश्व के मनीषी कभी भूल नही सकते।
यो तो भगवान् ऋषभदेव के युग मे ही अहिमा तत्त्व, प्रकाश में आ चुका था मगर जान पड़ता है कि मध्यकाल में पुन हिसा-वृत्ति उत्तेजित हो उठी।
तब बाईसवे नीयंकर भगवान् अरिष्टनेमि ने अहिंसा की प्रतिष्ठा के लिए जोरदार प्रयास किया। उन्होने विवाह के लिए श्वसुरगृह के द्वार तक पहुँच कर भी पशुपक्षियो की हिंसा के विरोध मे विवाह करना अस्वीकार करके तत्कालीन क्षत्रियवर्ग मे भारी मनमनी पैदा कर दी। वासुदेव कृष्ण के भाई अरिष्टनेमि का वह गाहमपूर्ण उन्मर्ग नायक हया और समाज में पगो और पक्षियो के प्रति व्यापक महान भनि जागी। उनके पश्चात् तीर्थकर पार्श्वनाथ ने सर्प जैसे विपैले प्राणियो पर अपनी करणा की वर्षा करके, लोगो का ध्यान दया की ओर आकर्षित किया। फिर भी धर्म के नाम पर जो हिमा प्रचलित थी, उसे निग्गेप करने के लिए चरम नीर्थकर भगवान् महावीर ने प्रभावशाली उपदेश दिया। आज यद्यपि हिसा प्रचलित है, फिर भी विचारवान् लोग उसे धर्म या पुण्य का कार्य नहीं समझते, बल्कि पाप मानते है। इस दृष्टिपरिवर्तन के लिए जैन-परम्पग को बहुत उद्योग कन्ना पड़ा।
जैन धर्म के विशिष्ट सिद्धान्तो पर विचार करते समय एक वान अनायास ही ध्यान मे आ जानी है। वह है उसके अवतारवाद की मान्यता।
आत्मा की चरम और विगढ़ स्थिति क्या है, यह दर्शनशास्त्र के चिन्तन का एक प्रधान प्रश्न रहा है। विभिन्न दर्शनो ने इस पर विचार किया है और अपनाअपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है।
बौद्वदर्शन के अनुसार चित्त की परम्परा का अवरुद्ध हो जाना, आत्मा की चरम स्थिति है। इस मान्यता के अनुसार दीपक के निर्वाण की भाँति आत्मा शून्य में विलीन हो जाता है।
कणाद मुनि का वैगे पिकदर्शन प्रात्मा की अन्तिम स्थिति मुक्ति स्वीकार करता है, पर उसकी मुक्ति का स्वरूप कुछ ऐसा है कि उसे समझ लेने पर अन्त - करण मे मुक्ति प्राप्त करने की प्रेरणा जागृत नहीं होती। कणाद ऋपि के मन्तव्य के अनुसार मुक्त पात्मा ज्ञान और सुख से सर्वथा वंचित हो जाता है। ज्ञान और मुख ही प्रात्मा के अमाधारण गुण है और जब इनका ही समूल उच्छेद हो गया तो फिर क्या आकर्षण रह गया मुक्ति मे? ससार मे जितने अनादिमुक्त एकेश्वरवादी सम्प्रदाय है, उनके मन्तव्य के अनुसार कोई भी प्रात्मा, ईश्वरत्व की प्राप्ति करने में समर्थ नही हो सकता। ईश्वर एक अद्वितीय है। जीव जाति से वह पृथक् है। मसार मे अधर्म की वृत्ति और धर्म का हाम होने पर मकामनार में मानण होता है। उसनमय कर परमात्मा में प्रात्मा का स्प ग्रहण करता है। जैन धर्म अवतारवाद की उम मान्यता को स्वीकार नहीं करता। जैन धर्म प्रत्येक ग्रात्मा को पन्मात्मा बनने का अधिकार प्रदान करता है। और परमात्मा बनने का मार्ग भी प्रस्तुत करता है, किन्तु परमात्मा के पुन भवावतरण का विरोध करता है। इस प्रकार हमारे समक्ष उच्च से उच्च जो प्रादगं सभव है, उसकी उपलब्धि का याश्वासन और पयप्रदर्शन जैनधर्म मे मिलता है। वह आत्मा के अनन्त विकास की भावनायो को हमारे समक्ष उपस्थित करता है। जैन धर्म का यह प्रत्येक नर को नारायण, और भक्त को भगवान, बनने का अधिकार देना ही उसकी मौलिक मान्यता है।
जैनधर्म मदेव गुणपूजा का पक्षपाती रहा है। जाति, कुल, वण गथवा बाह्य वेष के कारण वह किमी व्यक्ति की महत्ता अगीकार नहीं करता। भारतवर्ष मे प्राचीन काल मे एक ऐसा वर्ग चला पाता है जो वर्णव्यवस्था के नाम पर अन्य वर्गों पर अपनी मत्ता स्थापित करने के लिए, तथा स्थापित की हुई मत्ता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए एक अम्बण्ड मानव जाति को अनेक ग्बडो मे विभक्त करता है। गण और कर्म के आधार पर, ममा । की मुव्यवस्था का ध्यान रखते हुए विभाग किया जाना नो उचित है, जिसमें व्यक्ति के विकास को अधिक-सेअधिक अवकाश हो परन्तु जन्म के आधार पर किसी प्रकार का विभाग करना मर्वथा अनुचित है।
एक व्यक्ति दुनील, अज्ञान और प्रकृति मे तमोगुणी होने पर भी अमुक वर्ण वाले के घर में जन्म लेने के कारण समाज मे पूज्य आदरणीय, प्रतिष्ठित और ऊँचा समझा जाय. और दूसरा व्यक्ति सुशील ज्ञानी और सतोगुणी हान पर भी केवल अमक कुल में जन्म लेने के कारण नीच और, तिरस्करणीय माना जाय, यह व्यवस्था ममाज-वातक है। इतना ही नहीं, ऐमा मानने से न केवल समाज के एक बहुमख्यक भाग का अपमान होता है। प्रत्युत यह गद्गुण और सदाचार का भी घोर अपमान है। इस व्यवस्था को अगीकार करने से दुराचार, सदाचार मे ऊँचा उठ जाता है, अनान, जान पर विजयी होता है और तमोगण मतोगण के सामने प्रादगम्पद बन जाता है। यही ऐसी स्थिति है जो गुणग्राहक विवेकी जनो को मह्य नही हो सकती।" (निर्ग्रन्य प्रवचन भाष्य, पृष्ठ २८६) अतएव जैन धर्म की मान्यता है कि गुणो के कारण, कोई व्यक्ति आदर गीय होना चाहिए और अवगुणो के कारण अनादरणीय एव अप्रतिष्ठित होना चाहिए। इस मान्यता के पोपक जैनागमो के कुछ वाक्य ध्यान देने योग्य है-
मस्तक मुडा लेने से ही कोई श्रमण नही हो जाता, ओकार का जाप करने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं बन सकना, अरण्यवास करने से ही कोई मुनि नही होता और बुग-बीर के परिवानमात्र से कोई तपस्वी का पद नही पा सकता ।
(उत्नगध्ययन अ० २५ सूत्रकृताग १ श्रु०, अ० १३, गा० ६, १०, ११) ।
समभाव के कारण श्रमण, ब्रह्मचर्य का पालन करने से ब्राह्मण, जान की उपामना करने के कारण मुनि, और तपश्चर्या मे निरत रहने वाला तापम कहा जा सकता है।
कर्म (आजीविका) से ब्राह्मण होता है. कर्म मे क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है, और कर्म मे शूद्र होता है।
मनुष्य-मनुप्य में जाति के आधार पर कोई पार्थक्य दृष्टिगोचर नहीं होता मगर तपस्या (मदाचार) के कारण अवश्य ही अन्तर दिखाई देता है।
-(उत्तराध्ययन)
उन उद्धरणो से स्पष्ट होगा कि जैन धर्म ने जन्गगत वर्णव्यवस्था एव जातिपाति की क्षुद्र भावनायो को प्रश्रय न देकर गुणो को ही महत्त्व प्रदान किया है। इमी कारण जैन मघ ने मनुष्य-मात्र का वर्ण एव जाति का विचार न कगते हुए समान-भाव मे स्वागत किया है। वह आत्मा और परमात्मा के बीच मे भी कोई अलव्य दीवार स्वीकार नहीं करता तो आत्मा-आत्मा और मनुप्य-मनुष्च के बीच कमे स्वीकार कर सकता है।
मसार का कोई भी धर्म पग्ग्रिह को स्वर्ग या मोक्ष का कारण नही मानता है। किन्तु सब धर्म एक स्वर मे इसे हेय घोपित करते है। ईसाई धर्म की प्रसिद्ध पुस्तक बाइबिल का यह उल्लेख प्राय सभी जानते है कि ---"सूई की नोक मे से ऊँट कदाचित् निकल जाय, परन्तु धनवान् स्वर्ग में प्रवेश नहीं कर सकता।"
परिग्रह की यह कडी-मे-कडी आलोचना है। इधर भारतीय धर्म भी परिग्रह को समस्त पापो का मूल और आत्मिक पतन का कारण कहते है। किन्तु जैन धर्म मे अपरिग्रह को व्यवहार्य रूप प्रदान करने की एक बहुत मुन्दर प्रणाली निर्दिष्ट की गई है।
जैन संघ मुख्यतया दो भागो मे विभक्त है-त्यागी और गृहस्थ । त्यागी वर्ग के लिए पूर्ण अपरिग्रही, अकिंचन रहने का विधान है। जन त्यागी सयमसाधना के लिए अनिवार्य कतिपय उपकरणो के अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु अपने अधिकार मे नहीं रखता। यहाँ तक कि अगले दिन के लिए भोजन भी अपने पास नहीं रख सकता। उसके लिए अपरिग्रह महाव्रत का पालन करना अनिवार्य है।
गृहस्थवर्ग अपरिग्रही रहकर संसार-व्यवहार नहीं बना सकता और इस कारण उसके लिए पूर्ण परिग्रहत्याग का विधान नहीं किया गया है, उसे सर्वधा अनियन्त्रित भी नही छोडा गया है। गृहस्थ को श्रावक की कोटि में पाने के लिए अपनी तृष्णा, ममता एवं लोभ-वृत्ति को सीमित करने के लिए परिग्रह का परिमाण कर लेना चाहिए। परिग्रह-परिमाण धावक के पॉच मूल व्रतों में अन्यतम है। इस व्रत का समीचीन रूप से पालन करने के लिए श्रावक को दो व्रत और अंगीकार करने पड़ते है, जिसका भोगोपभोग परिमाण और अनर्थदंड-त्याग के नाम से गृहस्थधर्म के प्रकरण मे उल्लेख किया जा चुका है। परिमित परिग्रह का व्रत तभी ठीक तरह से व्यवहार में आ सकता है, जब मनुप्य अपने भोग और उपयोग के योग्य पदार्थों की एक सीमा बना ले और माथ ही निरर्थक पदार्थों से अपना संबंध विच्छेद कर ले। इस प्रकार अपरिग्रह व्रत के लिए इन सहायक व्रतो की बडी आवश्यकता है।
अर्थतप्णा की आग में मानव-जीवन भस्म न हो जाय, जीवन का एकमात्र लक्ष्य धन न वन जाय, जीवन-चक्र द्रव्य के इर्द-गिर्द ही न घूमता रह, आर जीवन का उच्चतर लध्य ममत्व के अधकार में विलीन न हो जाय, इसके लिए अपरिग्रह का भाव जीवन मे आना ही चाहिए। यदि अपरिग्रह भाव जावन म आ जाय, और सामूहिक रूप मे आ जाय तो अर्थवैषम्यजनित सामाजिक समस्याएं स्वत ही समाप्त हो जाती हैं। उन्हें हल करने के लिए समाजवाद या साम्यवाद या अन्य किमी नवीन वाद की आवश्यकता ही नही रहती।
जैन धर्म का यह अपरिग्रहवाद आधुनिक युग की ज्वलन्त समस्याओं का सुन्दर समाधान है, अतएव समाजशास्त्रियों के लिए अध्ययन करने योग्य हैं। इससे व्यक्ति का जीवन भी उच्च और प्रगस्त बनता है और साथ ही समाज की समस्याएँ भी सुलझ जाती है।