उपाध्याय श्री मधुकर मुनि
सांसारिक संरचना के मौलिक आधार दो हैं-अजीव और जीव । इनमें से अजीव ज्ञेय है। वह ज्ञाता के ज्ञान के द्वारा जाना, देखा जाता है और प्रयोग-व्यवहार में आता है। यह सामर्थ्य उसमें नहीं है कि कभी भी जानने देखने आदि की योग्यता, क्षमता प्राप्त कर सके । जबकि जीव ज्ञाता है, विश्व के सम्पूर्ण पदार्थों का ज्ञाता, दृष्टा और उनको अपने व्यवहार में उपयोग करने का अधिकारी है।
अवस्था की दृष्टि से जीव के भी दो भेद हैं, संसारी और मुक्त । मुक्त जीव तो त्रिकालवर्ती पदार्थों के स्वतन्त्रज्ञाता-दृष्टा हैं । लेकिन संसारी जीवों को तो अपने प्रत्येक व्यवहार में पदार्थों का आश्रय लेना पड़ता है। वे बिना उनके अपना व्यवहार नहीं चला सकते हैं। पदार्थ के बिना लेन-देन नहीं होता है, जानना देखना नहीं होता। इसका तात्पर्य यह हुआ कि समूचा व्यवहार पदार्थ-आश्रित है । लेकिन पदार्थ अनेक हैं। उनका एक साथ व्यवहार नहीं होता है । वे अपनी-अपनी पर्यायों से पृथक्-पृथक् हैं अतः उनकी पहिचान भी अलग-अलग होनी चाहिए।
संसारी जीवों में मानव श्रेष्ठतम है । उसे अनुभति और अभिव्यक्ति करने की विशेष क्षमता प्राप्त है। पशु अनुभति तो करते हैं, लेकिन भाषा की स्पष्टता न होने से वे उसे यथार्थरूप में अभिव्यक्त नहीं कर पाते हैं। जबकि मानव अपनी अनुभूति-विचारों को भाषा के माध्यम से सम्यक् प्रकारेण व्यक्त कर सकता है। विश्व का कोई भी व्यवहार बिना भाषा के नहीं चल सकता। पारस्परिक व्यवहार को अच्छी तरह से चलाने के लिये भाषा का अवलम्बन एवं शब्द प्रयोग का माध्यम अनिवार्य है। विश्व में हजारों भाषायें हैं और उन-उनके अपने लाखों शब्द हैं। अतः भाषा के ज्ञान के लिये शब्दज्ञान और शब्दज्ञान के लिये भाषा का परिज्ञान होना जरूरी है। किसी भी भाषा का सही बोध तभी हो सकता है जब हम उनके शब्दों का समुचित प्रयोग करना सीखें कि यह शब्द किस आशय को व्यक्त करने के लिये प्रयुक्त हुआ है।
शब्दप्रयोग पदार्थ के लिये किया जाता है। स्वरूप की दृष्टि से पदार्थ और शब्द में कोई तादात्म्य नहीं है। दोनों अपनी-अपनी स्थिति में स्वतन्त्र हैं। लेकिन किस शब्द से कौन-सा पदार्थ समझना, इस समस्या को सुलझाने के लिये संकेत पद्धति का विकास हुआ, पदार्थों का नामकरण हुआ। कहने के लिये पदार्थ में शब्द की और शब्द में पदार्थ की स्थापना हुई। जिससे शब्द और अर्थ परस्पर सापेक्ष बन गये। समस्याओं के समाधानार्थ दोनों परस्पर कड़ी से कड़ी जैसे एक-दूसरे से जुड़कर शृंखलाबद्ध हो गये। दोनों का आपस में वाच्य-वाचक सम्बन्ध बन गया कि अमुक शब्द इस पदार्थ का वाचक और यह पदार्थ इस शब्द का वाच्य है।
शब्द और अर्थ का यह वाच्य-वाचक सम्बन्ध भिन्नाभिन्न है । भिन्न इसलिये है कि अग्नि पदार्थ और अग्नि शब्द एक नहीं है । क्योंकि अग्नि शब्द का उच्चारण होने पर जीम में दाह नहीं होता । अभिन्न इसलिये है कि अग्नि शब्द से अग्नि पदार्थ का ही बोध होता है, अन्य पदार्थ का नहीं। भेद स्वभाव-कृत है और अभेद संकेत-जन्य । लेकिन संकेत शब्द और पदार्थ को एकसूत्र में जोड़ देता है। अतः वक्ता द्वारा प्रयुक्त शब्द का नियत अर्थ क्या है ? किस पदार्थ के लिये यह शब्द प्रयुक्त हुआ है ? इसको ठीक रूप में समझने का कार्य निक्षेप पद्धति है।
'निक्षेप' यह जनदर्शन का एक लाक्षणिक शब्द है। पदार्थबोध के कारणों में से निक्षेप भी एक कारण है। अतः जैनदार्शनिकों ने विविध प्रकार से निक्षेप की लक्षणात्मक व्याख्यायें की हैं। जैसे कि 'युक्ति मार्ग से प्रयोजन वशात् जो वस्तु को नाम आदि चार भेदों में क्षेपण कर स्थापित करे उसे निक्षेप कहते हैं।' अथवा वस्तु का नाम आदिक में क्षेप करने या धरोहर रखने को भी निक्षेप कहते हैं । अथवा संयम, विपर्यय और अनध्यवसाय में अवस्थित वस्तु को उनसे निकाल कर जो निश्चय में क्षेपण करता है, उसे भी निक्षेप कहते हैं । अर्थात् जो अनिर्णीत वस्तु का नामादिक द्वारा निर्णय कराये, वह निक्षेप है। अथवा अप्रकृत का निराकरण करके प्रकृत का निरूपण करना निक्षेप कहलाता है । अथवा शब्द का अर्थ में और अर्थ का शब्द में आरोप करना यानी जो शब्द और अर्थ को किसी एक निश्चय या निर्णय में स्थापित करता है, उसे निक्षेप कहते हैं।
उक्त सभी लक्षणों का सारांश यह है कि जिसके द्वारा वस्तु का ज्ञान में क्षेपण किया जाये या उपचार से वस्तु में जिन प्रकारों से आक्षेप किया जाये, उसे निक्षेप कहते हैं। क्षेपण क्रिया के दो रूप हैं-प्रस्तुत अर्थ का बोध देने वाली शब्द रचना या अर्थ का शब्द में आरोप करता। यह कार्य वक्ता के अभिप्राय विशेष पर आधारित है।
निक्षेप का पर्यायवाची शब्द 'न्यास५ है। जिसका प्रयोग तत्त्वार्थसूत्र में हुआ है और तत्त्वार्थ राजवातिक में 'न्यासो निक्षेप: इन शब्दों द्वारा उसका स्पष्टीकरण किया गया है । न्यास (निक्षेप) का लक्षण इस प्रकार है-
उपायो न्यास उच्यते । नामादिक के द्वारा वस्तु में भेद करने के उपाय को न्यास या निक्षेप कहते हैं ।
निक्षेप का आधार पदार्थ है। चाहे फिर वह पदार्थ प्रधान, अप्रधान, कल्पित या अकल्पित कैसा भी क्यों न हो । भाव अकल्पित दृष्टि है। अतः वह प्रधान होता है, जबकि शेष तीन निक्षेप कल्पित होने से अप्रधान हैं। क्योंकि नाम में वस्तु की पहिचान होती है । स्थापना में आकार की भावना होती है, गुण की वृत्ति नहीं होती है । द्रव्य में मूल वस्तु नहीं, किन्तु इसकी पूर्व या उत्तर दशा या उससे सम्बन्ध रखने वाली अन्य कोई वस्तु होती है । इसमें भी मौलिकता नहीं है अतः ये तीनों अमौलिक हैं, मौलिक नहीं।
जगत में मौलिक अस्तित्त्व यद्यपि द्रव्य का है और परमार्थ अर्थ संज्ञा भी इसी गुण-पर्याय वाले द्रव्य को दी जाती है लेकिन व्यवहार केवल परमार्थ मात्र से नहीं चल सकता। अतः व्यवहार के लिये पदार्थों का शब्द, ज्ञान और अर्थ इन तीन प्रकारों से निक्षेप किया जाता है। शब्दात्मक अर्थ का आधार है पदार्थ का नामकरण मात्र और तदाकार सद्भावरूप या अतदाकार-असद्भाव रूप में पदार्थ की स्थापना करना। ज्ञानात्मक अर्थ, स्थापना-निक्षेप में और शब्दात्मक अर्थ नामनिक्षेप में अन्तभूत होता है। लेकिन परमार्थ अर्थ द्रव्य और भाव हैं। जो पदार्थ की कालिक पर्याय में होने वाले व्यवहार के आधार बनते हैं तथा शाब्दिक व्यवहार शब्द से। इस प्रकार समस्त शब्द, कहीं अर्थ और कहीं स्थापना अर्थात् ज्ञान से चलते हैं। इसीलिये निक्षेप पदार्थ और शब्द प्रयोग की संगति का सूत्राधार है। इसे समझे बिना भाषा के वास्तविक अर्थ को समझा नहीं जा सकता । जिससे उस स्थिति में अयुक्त पदार्थ युक्त और युक्त पदार्थ अयुक्त प्रतीत होता है। किस शब्द का क्या अर्थ है, यह निक्षेपविधि द्वारा विस्तार से बतलाया जाता है।
दूसरी बात यह है कि श्रोता तीन प्रकार के होते हैं-अव्युत्पन्न श्रोता, सम्पूर्ण विवक्षित पदार्थ को जानने वाला श्रोता और एक देश विवक्षित पदार्थ को जानने वाला श्रोता।
उक्त तीनों प्रकार के श्रोताओं में से अव्युत्पन्न श्रोता यदि पर्याय (विशेष) को जानने का इच्छुक है तो उसे प्रकृत विषय की व्युत्पत्ति के द्वारा अप्रकृत विषय के निराकरण के लिये अथवा वह द्रव्य (सामान्य) को जानने का इच्छुक है तो प्रकृत विषय के प्ररूपण हेतु तथा दूसरे व तीसरे प्रकार के श्रोताओं को यदि पदार्थ के बारे में संदेह या विपर्याय हो तो संदेह दूर करने व निर्णय के लिये निक्षेपों का कथन किया जाता है।
निक्षेप भाषा और भाव, वाच्य और वाचक की संगति है। इसे जाने बिना भाषा के यथार्थ आशय को अधिगत नहीं कर सकते । अर्थ सूचक शब्द के पीछे पदार्थ की स्थिति को स्पष्ट करने वाला जो विशेषण लगता है यही निक्षेप पद्धति की विशेषता है । निक्षेप के द्वारा पदार्थ की स्थिति के अनुरूप शब्द रचना या शब्द प्रयोग की जो शिक्षा मिलती है. वही वाणी-सत्य का महान तत्व है। इसीलिये दूसरे शब्दों में इसे सविशेषण भाषा प्रयोग भी कह सकते हैं। भले ही अधिक अभ्यास दशा में विशेषण का प्रयोग न भी किया जाये। किन्तु वह विशेषण गभित अवश्य रहता है। यदि इस अपेक्ष्य दृष्टि की ओर ध्यान न दें तो कदम-कदम पर असत्य भाषण का प्रसंग आ सकता है। जैसे कि जो कभी राज्य करता था वह आज भी राजा है-यह प्रयोग असत्य माना जायेगा और भ्रामक भी। अतएव निक्षेप दृष्टि की अपेक्षाओं को विस्मृत नहीं किया जा सकता। यह विधि अपने में जितनी गम्भीरता लिये हुए है, उतनी ही व्यावहारिक भी है। जैसे कि-
नाम- एक निर्धन व्यक्ति को लक्ष्मीनारायण कहते हैं ।
स्थापना- एक पाषाण प्रतिमा को भी लोग देव कहते हैं ।
द्रव्य- जिसमें कभी घी रखा जाता था, उसे आज भी घी का घड़ा कहते हैं, अथवा भविष्य में कभी घी रखा जाएगा या घी रखने का घड़ा बनने वाला है, वह भी घी का घड़ा कहलाता है। एक व्यक्ति वैद्य है, चिकित्सा करने में निपुण है किन्तु वर्तमान में व्यापार करता है, तो भी लोग उसे वैद्य कहते हैं ।
भाव- भौतिक ऐश्वर्य का अधिपति संसार में इन्द्र नाम से और आत्म ऐश्वर्य का अधिकारी लोकोत्तर जगत में इन्द्र कहलाता है । इस तरह के सम्पूर्ण व्यवहार का कारण निक्षेप पद्धति है।
पदार्थ के सम्यग् ज्ञान को प्रमाण और ज्ञाता के अभिप्राय विशेष को नय कहते हैं । प्रमाण के द्वारा सम्पूर्ण वस्तु जानी जाती है और नय वस्तु के एक देश को जानता है। किन्तु इन दोनों द्वारा निर्णीत, ज्ञात पदार्थ निक्षेप का विषय है । निक्षेप नामादिक के द्वारा वस्तु के भेद करने का उपाय है । प्रमाण, नय और निक्षेप में विषय-वियीभाव और वाच्य-वाचक सम्बन्ध है। यानी प्रमाण, नय विषयी हैं और निक्षेप उनका विषयवाच्य है । प्रमाण व नयों के द्वारा पदार्थों में नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव रूप से जो एक प्रकार का आरोप किया जाता है, वह निक्षेप हैं । शब्द और अर्थ में जो वाच्य-वाचकता का सम्बन्ध है, उसमें पदार्थ को स्थापित करने की क्रिया का नाम निक्षेप है कि अमुक शब्द के द्वारा यही पदार्थ वाच्य है, ग्रहण करने योग्य है आदि की वृत्ति निक्षेप द्वारा ही होती है। प्रमाण, नय ज्ञानात्मक हैं और निक्षेप ज्ञयात्मक । प्रमाण, नय के द्वारा जो जाना जाता है, उस पदार्थ के अस्तित्व की अभिव्यक्ति निक्षेप द्वारा होती है कि नामादि प्रकारों में से वह किसी-न-किसी रूप में अवश्य है।
अप्रस्तुत अर्थ को दूर कर प्रस्तुत अर्थ को प्रकट करना, उसका बोध कराना निक्षेप का फल होता है। इसीलिए अनुयोगद्वार की टीका में कहा गया है-निक्षेप पूर्वक अर्थ का निरूपण करने से उसमें स्पष्टता आती है, अत: अर्थ की स्पष्टता उसका प्रकट फल है। अप्रस्तुत का निराकरण करके प्रस्तुत का बोध कराने से संशय आदि दोषों का निराकरण और तत्त्वार्थ का अवधारण होता है-यथार्थ निश्चय होता है।° उपाध्याय श्रीयशोविजयजी ने निक्षेप के आशय को स्पष्ट करते हुए कहा है कि शब्द की अप्रतिपत्यादिव्यवच्छेदक अर्थ रचना को निक्षेप कहते हैं। यानी निक्षेप का फल अप्रतिपत्तिसंशय, विपर्यय, अनध्यवसाय, अज्ञान आदि का व्यवच्छेद-निराकरण होता है। दूसरे शब्दों में कहें कि निक्षेप का आश्रय लेने से संशय का नाश, अज्ञान का क्षय होता है और विपर्यय अनध्यवसाय तो रहता ही नहीं है।
प्रमाण के द्वारा सम्पूर्ण वस्तु और नय के द्वारा वस्तु-अंश जाना जाता है, तत्त्वार्थ का निश्चय होता है, लेकिन निक्षेप की आवश्यकता इसलिये है कि वह शब्द के नियत अर्थ को समझने-समझाने की एक पद्धति है । शब्द का उच्चारण होने पर उसके अप्रकृत (अनभिप्रेत, अनिच्छित, आवांच्छनीय) अर्थ के निराकरण और प्रकृत अर्थ के निरूपण में निक्षेप की उपयोगिता है। प्रमाण और नय के द्वारा यदि अप्रकृत अर्थ को जान भी लिया जाये तो भी वह व्यवहार में उपयोगी नहीं हो सकता है । क्योंकि मुख्य अर्थ और गौण अर्थ का विभाग होने पर भी व्यवहार की सिद्धि होती है । और मुख्य तथा गौण का भेद समझना नाम आदि निक्षेपों के बिना सम्भव नहीं है। इसलिये निक्षेप के बिना तत्वार्थ का ज्ञान नहीं हो सकता ।
भट्ट अकलंक ने निक्षेप विधि की उपयोगिता और उसके फल के बारे में विचार करते हए 'सिद्धि विनिश्चय' ग्रन्थ में स्पष्ट कहा है-"किसी धर्मी में नय के द्वारा जाने हए धर्मों की योजना करने को निक्षेप कहते हैं।" निक्षेप के अनन्त भेद हैं, क्योंकि पदार्थ अनन्त धर्मात्मक है, किन्तु संक्षेप में कहा जाये तो उसके चार भेद हैं। अप्रस्तुत का निराकरण करके प्रस्तुत का निरूपण करना उसका उद्देश्य है । द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक नय के द्वारा जीव-अजीव आदि तत्त्वों को जानने का कारण निक्षेप है । निक्षेप के द्वारा सिर्फ तत्त्वार्थ का ज्ञान ही नहीं होता, अपितु संशय-विपर्यय आदि भी नष्ट हो जाते हैं । निक्षेपों को तत्त्वार्थ के ज्ञान का हेतु इसलिए कहा जाता है कि वह शब्दों में, यथाशक्ति उनके वाच्यों में भेद की रचना करता है। इसीलिए ज्ञाता के श्रुत विषयक विकल्पों की उपलब्धि के उपयोग में आने वाले निक्षेप प्रयोजनवान, फलप्रद हैं ।
पदार्थ की अनन्त अवस्थाएँ होने से यदि विस्तार में जायें तो कहना होगा कि वस्तु-विन्यास के जितने भी क्रम हैं उतने ही निक्षेप हैं, लेकिन संक्षेप में कम-से-कम चार भेद हैं-
१. नाम, २. स्थापना, ३. द्रव्य, ४. भाव ।४
इन चारों में उन अनन्त निक्षेपों का अन्तर्भाव हो जाता है । १५ अर्थात् संक्षेप में निक्षेप के पूर्वोक्त नाम आदि चार भेद हैं और विस्तार से अनन्त । षटखण्डागम के वर्गणा निक्षेप प्रकरण में नाम-वर्गणा, स्थापना-वर्गणा द्रव्यवर्गणा, क्षेत्रवर्गणा, कालवर्गणा, भाववर्गणा के भेद से निक्षेप के छह भेद बतलाये हैं। लेकिन ये विशेष विवेचन के विस्तार की अपेक्षा से भेद किये गये हैं। सामान्यतया तो नाम, स्थापना द्रव्य, भाव ये चार भेद ही माने जाते हैं ।
पहले यह बताया जा चुका है कि नय और निक्षेप का विषय-विषयी भाव सम्बन्ध है। नय ज्ञानात्मक है और निक्षेप ज्ञयात्मक । अतः नाम, स्थापना और द्रव्य ये तीन निक्षेप द्रव्याथिक नय के विषय हैं और भाव निक्षेप पर्यायाथिक नय का विषय है । क्योंकि भाव निक्षेप पर्याय (विशेष) रूप है, जिससे उसे पर्यायाथिक नय का विषय माना जाता है, जबकि शेष तीन द्रव्य (सामान्य) रूप होने से द्रव्याथिक नय के विषय हैं।
नैगम, संग्रह और व्यवहार इन तीन द्रव्यार्थिक नयों में चारों निक्षेप तथा ऋजुसूत्र नय में स्थापना के अतिरिक्त तीन निक्षेप सम्भव हैं। जबकि तीनों शब्द नयों (शब्द, समभिरूढ़, एवंभूत) में नाम और भाव ये दो ही निक्षेप होते हैं।
यद्यपि भावनिक्षेप पर्यायाथिक नय का विषय है, लेकिन कथंचित् वह द्रव्याथिक नय का भी विषय माना जा . सकता है। यद्यपि शुद्ध द्रव्याथिक नयों में तो भावनिक्षेप नहीं बन सकता है, क्योंकि भाव निक्षेप में वर्तमान काल को छोड़कर अन्य काल प्राप्त नहीं है, परन्तु जब व्यंजन पर्यायों की अपेक्षा भाव में द्रव्य का सद्भाव स्वीकार कर लिया जाता है तब अशुद्ध द्रव्याथिक नयों में भाव निक्षेप बन जाता है। इसीलिए उपचार से भावनिक्षेप को द्रव्याथिक नय का विषय भी कह सकते हैं परन्तु मुख्य रूप से वह भी पर्यायाथिक नय का विषय है।
इस प्रकार से निक्षेप पद्धति के सम्बन्ध में विचार करने के बाद अब उसके नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव, इन चारों भेदों के लक्षणों व उनके उत्तर भेदों को बतलाते हैं।
नाम निक्षेप: संज्ञा के अनुसार जिसमें गुण नहीं है ऐसी वस्तु में व्यवहार के लिए अपनी इच्छा से की गई संज्ञा को नामनिक्षेप कहते हैं । १७ अर्थात् व्यवहार की सुविधा के लिए वस्तु का जो इच्छानुसार नामकरण किया जाता है, वह नाम निक्षेप है। नाम सार्थक और निरर्थक दोनों प्रकार का हो सकता है। जैसे कि सार्थक नाम इन्द्र है और निरर्थक नाम दिस्थ है । नाम मूल अर्थ से सापेक्ष भी व निरपेक्ष भी, दोनों प्रकार का हो सकता है, किन्तु जो नामकरण संकेत मात्र के लिए होता है, जिसमें जाति, गुण, द्रव्य, क्रिया आदि की अपेक्षा नहीं होती, वह नाम निक्षेप है। जैसे कि 'एक निरक्षर व्यक्ति का नाम विद्यासागर रख दिया। एक निर्धन व्यक्ति का नामकरण लक्ष्मीपति कर दिया। लेकिन विद्यासागर और लक्ष्मीपति का जो अर्थ होना चाहिए वह उनमें नहीं मिलता है। उन दोनों व्यक्तियों में इन दोनों शब्दों का आरोप किया गया है । विद्यासागर का अर्थ है--विद्या का समुद्र और लक्ष्मीपति का अर्थ है धन-सम्पत्ति का स्वामी । विद्या का सागर होने से किसी को विद्यासागर कहा जाये और जो लक्ष्मी ऐश्वर्य आदि का पति है उसे लक्ष्मीपति कहा जाये तो यह नाम निक्षेप नहीं है। किन्तु जो ऐसे नहीं हैं, उनका नामकरण करना नामनिक्षेप है। यदि नाम के साथ इसी प्रकार के गुण भी विद्यमान हों तो हम उनको 'भाव विद्यासागर' और 'भाव लक्ष्मीपति' कहेंगे। 'नाम विद्यासागर' और पति' ऐसी शब्द रचना हमें बताती है कि ये व्यक्ति नाम से विद्यासागर और लक्ष्मीपति हैं। यदि नाम निक्षेप नहीं होता तो हम विद्यासागर, लक्ष्मीपति आदि नाम सुनकर अगाध विद्वत्तासम्पन्न एवं धनधान्य, ऐश्वर्य युक्त व्यक्ति को ही समझ लेने को बाध्य होते, परन्तु ऐसा होता नहीं है। क्योंकि संज्ञामूलक शब्द के पीछे नाम विशेषण लगते ही सही स्थिति सामने आ जाती है कि इन शब्दों का वाच्य जब गुण की विवक्षापूर्वक अर्थानुकूल नहीं होता, तब नाम निक्षेप ही विवक्षित समझना चाहिए।
नाम निक्षेप के बारे में यह ध्यान रखना चाहिए कि व्यक्ति का जो नामकरण किया जाता है, उसी से उसे सम्बोधित करते हैं, किन्तु उसके पर्यायवाची अन्य शब्दों से उसका कथन नहीं होता । जैसे किसी व्यक्ति का नाम यदि 'इन्द्र' रखा गया तो उसे सुरेन्द्र, देवेन्द्र आदि पर्यायवाची नामों से सम्बोधित नहीं करेंगे और न वह व्यक्ति भी इन शब्दों को सुनकर अपने को सम्बोधित किया गया समझ सकेगा।
जो अर्थ तद्रूप नहीं है, उसे तद्रूप मान लेना स्थापना निक्षेप है । अर्थात् यह वही है इस प्रकार अन्य वस्तु में बुद्धि के द्वारा अन्य का आरोपण करना स्थापना निक्षेप है।
स्थापना दो प्रकार की होती है-तदाकार और अतदाकार । अतः स्थापना निक्षेप के भी दो भेद हैं-तदाकार स्थापना निक्षेप, अतदाकार स्थापना निक्षेप । इन्हें सद्भाव-साकार स्थापना और असद्माव-अनाकार स्थापना भी कहते हैं। वास्तविक पर्याय से परिणत वस्तु के समान बनी हुई अन्य वस्तु में उसकी स्थापना करना तदाकार स्थापना है। जैसे कि एक व्यक्ति अपने गुरु के चित्र को गुरु मानता है, देवदत्त के चित्र को देवदत्त मानता है तो यह तदाकार स्थापना है। असली आकार से शून्य वस्तु में 'यह वही है' ऐसी स्थापना कर लेने को अतदाकार स्थापना कहते हैं जैसे कि शतरंज के मोहरों में हाथी, घोड़ा आदि की कल्पना करना अतदाकार स्थापना है।
नाम और स्थापना निक्षेप दोनों यद्यपि वास्तविक अर्थ से शून्य होते हैं, लेकिन दोनों में यह अन्तर है कि स्थापना में नाम अवश्य होगा क्योंकि बिना नामकरण के स्थापना नहीं हो सकती, परन्तु जिसका नाम रखा है, उसकी स्थापना हो भी और न भी हो । नाम और स्थापना दोनों निक्षेपों में संज्ञा देखी जाती है, बिना नाम रखे स्थापना हो ही नहीं सकती है तो भी स्थापना में स्थापित वस्तु के प्रति जो आदर, सम्मान, अनुग्रह आदि की प्रवृत्ति होती है, उस प्रकार की प्रवृत्ति केवल नाम में नहीं होती।
अतीत, अनागत और अनुपयोग अवस्था, ये तीनों विवक्षित क्रिया में परिणत नहीं होती हैं इसलिए इनको द्रव्य निक्षेप कहते हैं। लोक व्यवहार में वाचनिक प्रयोग विचित्र और विविध प्रकार का होता है। अतः वर्तमान पर्याय की शून्यता के उपरान्त भी जो वर्तमान पर्याय से पहचाना जाता है यही इसमें द्रव्यता का आरोप है, जिससे किसी समय भूतकालीन स्थिति का वर्तमान में प्रयोग किया जाता है तो किसी समय भविष्यकालीन स्थिति का वर्तमान में प्रयोग होता है। जैसे कि भविष्य में राजा बनने वाले बालक को राजा कहना अथवा जो राजा दीक्षित होकर श्रमण अवस्था में विद्यमान है, उसे भी राजा कहना, यह द्रव्य निक्षेप का प्रयोग है। इस प्रकार के वचन प्रयोग हम दैनिक जीवन में देखते हैं। वे प्रयोग असत्य नहीं माने जाते। उनकी सत्यता का नियामक द्रव्य निक्षेप है।
द्रव्य निक्षेप का क्षेत्र अत्यन्त विशाल, विस्तृत है। अतः इसके मूल भेद, उनके अवान्तर भेद और उनके भी उत्तर भेदों की अपेक्षा से अनेक भेद हैं, लेकिन सामान्य रूप में द्रव्य निक्षेप के आगम द्रव्य निक्षेप और नोआगम द्रव्य निक्षेप---यह दो मूल भेद हैं । जो जीवविषयक या मनुष्य जीव विषयक शास्त्र या अन्य किसी शास्त्र का ज्ञाता है, किन्तु वर्तमान में उस उपयोग से रहित है उसे आगम द्रव्य निक्षेप कहते हैं, तथा पूर्वोक्त आगम द्रव्य की आत्मा का उसके शरीर में आरोप करके उस जीव के शरीर को ही जो आगम द्रव्य कह दिया जाता है, यह नोआगम द्रव्य निक्षेप है। अर्थात् आगम द्रव्य निक्षेप में उपयोग रूप आगम ज्ञान नहीं होता है, किन्तु लब्धिरूप (शक्तिरूप) होता है और नोआगम द्रव्य निक्षेप में दोनों प्रकार का आगम ज्ञान-उपयोग और लब्धि रूप-नहीं होता है सिर्फ आगम ज्ञान का कारणभूत शरीर होता है। आगम द्रव्य में जीव द्रव्य का ग्रहण होता है और नोआगम में उसके आधारभूत शरीर का। क्योंकि जीव में आगम संस्कार होना सम्भव है किन्तु शरीर में वह सम्भव नहीं है। यही आगम और नोआगम द्रव्य निक्षेप में अन्तर है।
नोआगम द्रव्य निक्षेप के तीन भेद हैं-१ ज्ञशरीर (ज्ञायक शरीर) २ भव्य शरीर ३ तद् व्यतिरिक्त ।
नोआगम द्रव्य निक्षेप के भेद-प्रभेदों का कथन इस प्रकार किया है-मूल में तीन भेद हैं-ज्ञायक शरीर, भावी, तद्व्यतिरिक्त । ज्ञायक शरीर के तीन भेद-भूत, वर्तमान, भावी । भूत ज्ञायक शरीर के तीन भेद-च्युत, च्यावित व त्यक्त । त्यक्त ज्ञायक शरीर तीन प्रकार का है-भक्त प्रत्याख्यान, इंगिनी, पादपोपगमन ।
आगम द्रव्य निक्षेप के नौ भेद-स्थित, जिन, परिचित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रन्थसम, नामसम, छोषसम ।
जिस शरीर में रहकर आत्मा जानता-देखता, ज्ञान करता था वह 'ज्ञ शरीर' या ज्ञापक शरीर है । जैसे किसी विद्वान ज्ञानी पंडित के मृत शरीर को देखकर उसे ज्ञानी कहा तो वह 'ज्ञ शरीर' नोआगम द्रव्य निक्षेप का प्रयोग है।
जिस शरीर में रहकर आत्मा भविष्य में जानने वाली है, वह भव्य शरीर या भावी शरीर है। जैसे किसी बालक के विलक्षण शारीरिक लक्षणों को देखकर उसे ज्ञानी या त्यागी कहना 'भव्य शरीर' नोआगम द्रव्य निक्षेप है।
तद्व्यक्तिरिक्त में शरीर नहीं किन्तु शारीरिक क्रिया को ग्रहण किया जाता है, जबकि प्रथम दो भेदों में शरीर का ग्रहण किया गया है। अतः शारीरिक क्रिया को तद् व्यतिरिक्त कहते हैं। इसमें वस्तु की उपकारक सामग्री में भी वस्तु वाची शब्द का व्यवहार किया जाता है। जैसे कि किसी मुनिराज का धर्मोपदेश के समय होने वाली हस्त आदि की चेष्टायें। नोआगम तव्यतिरिक्त को क्रिया की अपेक्षा द्रव्य कहते हैं। यह तीन प्रकार का है-
लौकिक, कुप्रावचनिक, लोकोत्तर ।२०
१ लौकिक मान्यतानुसार 'श्रीफल' (नारियल) मंगल है । २ कुप्रावनिक मान्यतानुसार विनायक मंगल है। ३ लोकोत्तर मान्यतानुसार ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप धर्म मंगल है।
इस प्रकार भाव शून्यता, वर्तमान पर्याय की शून्यता होने पर भी वर्तमान पर्याय से पहिचानने के लिए जो द्रव्यता का आरोप किया जाता है. यही द्रव्य निक्षेप का हार्द है।
वर्तमान पर्याय से युक्त वस्तु को भाव कहते हैं२१ और शब्द के द्वारा उस पर्याय या क्रिया में प्रवृत्त वस्तु का ग्रहण होना भाव निक्षेप है। इस निक्षेप में पूर्वापर पर्याय को छोड़कर वर्तमान पर्याय से उपलक्षित द्रव्य का ही ग्रहण किया जाता है।
भाव निक्षेप के भी द्रव्य निक्षेप के समान मूल में दो भेद हैं--१. आगम भाव, २. नोआगम भाव ।
जो आत्मा जीव विषयक शास्त्र को जानता है और उसके उपयोग से युक्त है, वह आगम भाव निक्षेप है। अर्थात् अध्यापक, अध्यापक शब्द के अर्थ में उपयुक्त हो, कार्यशील हो तब वह आगम भाव निक्षेप से अध्यापक कहलाता है।
क्रिया-प्रवृत्त ज्ञाता की क्रियाएं नोआगम से भाव निक्षेप हैं। जैसे कि अध्यापक अपने अध्यापन कार्य में लगा हुआ हैं तो उस समय उसके द्वारा होने वाली हस्त आदि की चेष्टाएं-क्रियाएं नोआगम से भाव निक्षेप हैं।
आगम भाव निक्षेप और नोआगम भाव निक्षेप में यह अन्तर है कि जीवादि विषयों के उपयोग से सहित आत्मा तो उस जीवादि आगम भाव रूप कहा जाता है और उससे भिन्न नोआगम भावरूप है जो कि जीव आदि पर्यायों से आविष्ट सहकारी पदार्थ आदि स्वरूप से व्यवस्थित हो रहा है।
नोआगम भाव निक्षेप में 'नो' शब्द देशवाची है। क्योंकि यहाँ अध्यापक की क्रिया रूप अंश नोआगम है । इसके भी तीन रूप हैं-लौकिक, कुप्रावचनिक और लोकोत्तर ।
नोआगम तद् व्यतिरिक्त द्रव्य निक्षेप के लौकिक आदि तीन भेद बताये हैं और नौआगम भाव निक्षेप भी उक्त लौकिक आदि तीन रूप कहे हैं। परन्तु इन दोनों में यह अन्तर है कि द्रव्य निक्षेप का निषेध प्रदर्शित करता है जबकि भाव निक्षेप में 'नों' शब्द का एक देश से निषेध का संकेत है। द्रव्य तव्यतिरिक्त का क्षेत्र तो केवल क्रिया है । और भावतव्यतिरिक्त का क्षेत्र ज्ञान और क्रिया दोनों हैं। अध्यापक हाथ का संकेत करता है, पुस्तक का पृष्ठ पलटता है आदि, यह क्रियात्मक अंश ज्ञान नहीं है। इसलिए भाव में 'नौ' शब्द से देशनिषेधवाची है। भाव निक्षेप का सम्बन्ध केवल वर्तमान पर्याय से ही है-अत: इसके द्रव्य निक्षेप के समान ज्ञायक शरीर आदि भेद नहीं होते हैं।
द्रव्य निक्षेप और भाव निक्षेप में यह अन्तर है कि दोनों के संज्ञा लक्षण आदि पृथक्-पृथक हैं । दूसरी बात यह है कि द्रव्य तो भाव रूप परिणत होगा क्योंकि उस योग्यता का विकास जरूर होगा परन्तु भाव, द्रव्य हो भी और न भी हो, क्योंकि उस पर्याय में आगे अमुक योग्यता रहे भी और न भी रहे । भाव निक्षेप वर्तमान की विशेष पर्याय रूप ही है जिससे वह निर्बाध रूप से भेद ज्ञान को विषय कर रहा है जबकि अन्वय ज्ञान का विषय द्रव्य निक्षेप है। उसमें भूत-भविष्यत् पर्यायों का संकलन होता है और भाव निक्षेप में केवल वर्तमान पर्याय का ही आकलन । यही द्रव्य और भाव निक्षेप में अन्तर है।
विश्व में विद्यमान सभी पदार्थ कम-से-कम नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव से चतुष्पर्यायात्मक होते हैं। ऐसी कोई भी वस्तु नहीं जो केवल नाममय हो या केवल स्थापनामय हो, अथवा द्रव्यताश्लिष्ट हो अथवा भावात्मक हो । अतएव ये चारों एक ही वस्तु के अंश माने जाते हैं। यद्यपि वस्तु विन्यास के जितने क्रम हैं, उतने ही निक्षेप हैं और ये निक्षेप प्रत्येक वस्तु पर घटित किये जा सकते हैं । ऐसा नहीं कि किसी पर घटित हों और किसी पर नहीं। यह की संख्या कहीं अधिक और कहीं न्यन हो सकती हैं, तो भी नाम आदि चार निक्षेप सर्वत्र घटित होते हैं। क्योंकि किसी वस्तु की संज्ञा नाम निक्षेप है। उसकी आकृति स्थापना निक्षेप, उस वस्तु का मूल द्रव्य या भूत-भविष्यात् पर्याय द्रव्य निक्षेप और उसकी वर्तमान पर्याय भाव निक्षेप है ।
निक्षेप विवेचन के कथन का सारांश यह है कि हमारा समस्त व्यवहार पर्यायाश्रित है और पदार्थ की अभिव्यक्ति का साधन भाषा है। अतः भाषा को नियतार्थक और पदार्थ को नियत शाब्दिक बनाने के लिए निक्षेप पद्धति का सहारा लिया जाता है। पदार्थ और शब्द को सापेक्ष बनाने के लिए ही निक्षेप पद्धति का विकास हुआ है । निक्षेप पद्धति का सर्वांगीण विश्लेषण सम्भव हुआ तो यथासमय करने का प्रयास किया जायेगा।