ध्यान- किसी एक आलम्बन पर मन को केन्द्रित करना ध्यान है। ध्यान के चार भेद हैं- आर्त ध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान।
आर्त का अर्थ है- पीड़ा या दु:ख। प्रिय व्यक्ति या वस्तु के वियोग और अप्रिय व्यक्ति या वस्तु के संयोग से होनेवाली मानसिक विकलता की स्थिति में जो चिन्तन होता है, वह आर्तध्यान कहलाता है। वेदनाजनित आकुलता और विषयसुख की प्राप्ति के लिए किया जानेवाला दृढ़ संकल्प भी इसी ध्यान का अंग है। व्याकुलता, छटपटाहट और अधीरता आर्त्तध्यान की निष्पत्तियाँ हैं। आर्त्तध्यान के चार भेद हैं-
१. इष्टवियोग- प्रिय व्यक्ति या वस्तु के वियोग होने पर उसकी प्राप्ति के लिए होनेवाली वियोगजन्य विकलता।
२. अनिष्टसंयोग- अप्रिय व्यक्ति या वस्तु के संयोग होने पर उसे दूर करने के लिए होनेवाली संयोगजन्य विकलता।
३. पीड़ाचिन्तन- वेदनाजन्य आतुरता, छटपटाहट।
४. निदान- भावी भोगों की आकांक्षाजन्य आतुरता।
रुद्र का एक अर्थ क्रूर है। क्रूर परिणामो से अनुबन्धित ध्यान रौद्रध्यान है। भौतिक विषयों की सुरक्षा के लिए तथा हिंसा, असत्य, चोरी, क्रूरता आदि दुष्प्रवृत्तियों से अनुबन्धित चित्तवृत्ति का नाम रौद्रध्यान है। इस ध्यान से प्रभावित व्यक्ति ध्वंसात्मक भावों का अर्जन करता है और उसकी प्रेरणा से अवांछित कार्यों में प्रवृत्त होता है। हिंसा, झूठ, चोरी और विषय-संरक्षण के निमित्त से रौद्रध्यान चार प्रकार का है- हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और विषयसंरक्षणानन्दी।
इनका अर्थ इनके नामों से ही स्पष्ट है।
इस प्रकार आर्त और रौद्रध्यान बिना प्रयत्न के ही हमारे संस्कारवश चलता रहता है। ये दोनों ध्यान दुर्गति के हेतु हैं। मोक्षमार्ग में इनका कोई स्थान नही है, न ही ऐसे ध्यान तप की श्रेणी में आते हैं। ये दोनों संसार के हेतु हैं। इन अशुभ विकल्पों से चित्त को हटाकर शुभ में लगाना ही ध्यान-तप है।
पवित्र विचारों में मन का स्थिर होना धर्मध्यान है। इसमें धार्मिक चिन्तन की मुख्यता रहती है। धर्मध्यान मूलतजो मुख्यत: चार प्रकार का है-
१.आज्ञा विचय २. अपाय विचय ३. विपाक विचय और ४. संस्थान विचय। यहाँ विचय का अर्थ विचारणा है। आगमानुसार तत्त्वों का विचार करना आज्ञाविचय है, अपने तथा दूसरों के राग-द्वेष-मोह आदि विकारों को नाश करने का चिन्तन करना अपायविचय कहलाता है, अपने तथा दूसरों के सुख-दुःख को देखकर कर्मप्रकृतियों के स्वरूप का चिन्तन करना विपाकविचय एवं लोक के स्वरूप का विचार करना संस्थानविचयक नामक धर्मध्यान है।
इस धर्मध्यान के अन्य प्रकार से भी चार भेद हैं- १. पिंडस्थ, २. पदस्थ, ३. रूपस्थ और ४. रूपातीत।
शरीर स्थित आत्मा का चिन्तन करना पिण्डस्थ ध्यान है। यह आत्मा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध से रागद्वेषयुक्त है और निश्चयनय की अपेक्षा यह बिल्कुल शुद्ध ज्ञान-दर्शन चैतन्यरूप है। निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध अनादिकालीन है और इसी सम्बन्ध के कारण यह आत्मा अनादिकाल से इस शरीर में आबद्ध है। यों तो यह शरीर से भिन्न अमूर्तिक, सूक्ष्म और चैतन्यगुणधारी है, पर इस सम्बन्ध के कारण यह अमूर्तिक होते हुए भी कथञ्चित् मूर्तिक है। इस प्रकार शरीरस्थ आत्मा का चिन्तन पिण्डस्थ ध्यान में सम्मिलित है। इस ध्यान को सम्पादित करने के लिए पाँच धारणाएँ वणित हैं- १. पार्थिवी, २. आग्नेय, ३. वायु, ४. जलीय और ५. तत्त्वरूपवती।
इस धारणा में एक मध्यलोक के समान निर्मल जल का बड़ा समुद्र चिन्तन करें, उसके मध्य में जम्बूद्वीप के तुल्य एक लाख योजन चौड़ा और एक सहस्र पत्रवाले तपे हुए स्वर्ण के समान वर्ण के कमल का चिन्तन करें। कर्णिका के बीच में सुमेरू पर्वत सोचें। उस सुमेरू पर्वत के ऊपर पाण्डुकवन में पाण्डुक शिला का चिन्तन करें। उस पर स्फटिक मणि का आसन विचारें। उस आसन पर खड्गासन या पद्मासन लगाकर यह विचार करें कि मैं कमों के क्षय के लिये बैठा हूँ, इतना चिन्तन बार-बार करना पार्थिवी धारणा है।
उसी सिंहासन पर बैठे हुए यह विचार करे कि मेरे नाभिकमल के स्थान पर भीतर ऊपर को उठा हुआ सोलह पत्तों का एक श्वेत रंग का कमल है। उस पर पीत वर्ण के सोलह स्वर लिखे हैं। अ आ, इ ई, उ ऊ, ऋ ऋ, ल ल, ए ऐ, ओ औ, अं अः, इन स्वरों के बीच में "हे" लिखा है। फिर नाभिकमल के ऊपर हृदयस्थल पर आठ पत्तों का अधोमुखी एक दूसरे कमल का विचार करना चाहिए। इस कमल के आठ पत्तो को ज्ञानवरणादि आठ कर्म रूप विचार करें।
पश्चात् नाभि-कमल के बीच में जहाँ "ह" लिखा है, उसके रेफ से धुंआ निकलता हुआ सोचें, पुन: अग्नि की शिखा उठती हुई विचार करें। यह लौ ऊपर उठकर आठ कर्मो के कमल को जलाने लगी। कमल के बीच से फूटकर अग्नि की लौ मस्तक पर आ गई। इसका आधा भाग शरीर के एक ओर और आधा भाग शरीर के दूसरी ओर निकलकर दोनों के कोने मिल गये। अग्निमय त्रिकोण सब प्रकार से शरीर को वेष्टित किये हुए है। इस त्रिकोण में र र र र र र र अक्षरों को अग्निमय फैले हुए विचारे अर्थात् इस त्रिकोण के तीनों कोण अग्निमय र र र अक्षरों के बने हुए हैं। इसके बाहरी तीनों कोणों पर अग्निमय साथिया तथा भीतरी तीनों कोणों पर अग्निमय 'ऊँ' लिखा सोचें। पश्चात् विचार करे कि भीतरी अग्नि की ज्वाला कर्मों को और बाहरी अग्नि की ज्वाला शरीर को जला रही है। जलते-जलते कर्म और शरीर दोनों ही जलकर राख हो गये हैं तथा अग्नि की ज्वाला शान्त हो गई है अथवा पहले के रेफ में समाविष्ट हो गई है, जहाँ से उठी थी। इतना अभ्यास करना “अग्निधारणा" है।
तदनन्तर साधक चिन्तन करे कि मेरे चारों ओर बड़ी प्रचण्ड वायु चल रही है। इस वायु का एक गोला मण्डलाकार बनकर मुझे चारों ओर से घेरे हुए है। इस मण्डल में आठ जगह "स्वॉय स्वॉय" लिखा हुआ है। यह वायुमण्डल कर्म तथा शरीर के रज को उड़ा रहा है। आत्मा स्वच्छ और निर्मल होती जा रही है। इस प्रकार का चिन्तन करना वायु धारणा है।
तत्पश्चात् चिन्तन करें कि आकाश में मेघों की घटाएँ आच्छादित हैं। विद्युत् चमक रही है। बादल गरज रहे हैं और घनघोर वृष्टि हो रही है। पानी का अपने ऊपर एक अर्ध चन्द्राकर मण्डल बन गया है। जिस पर प प प प कई स्थानों पर लिखा है। जल-धाराएँ आत्मा के ऊपर लगी हुई हैं और कर्मरज प्रक्षालित हो रहा है, इस प्रकार चिन्तन करना जल धारणा है।
इसके आगे साधक चिन्तन करे कि अब मै सिद्ध, बुद्ध, सर्वज्ञ, निर्मल, कर्म और शरीर से रहित चैतन्यस्वरूप आत्मा हूँ। पुरुषाकार चैतन्यधातु की बनी शुद्ध मूर्ति के समान हूँ। पूर्ण चन्द्रमा के तुल्य ज्योतिस्वरूप हूँ।
क्रमश. इन पाँच धारणाओं द्वारा पिंडस्थ ध्यान का अभ्यास किया जाता है। यह ध्यान आत्मा के कर्मकलङ्कपङ्क को दूरकर ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य गुणों का विकास करता है।
मन्त्रपदों के द्वारा अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु तथा आत्मा के स्वरूप का चिन्तन करना पदस्थ ध्यान है। किसी नियत स्थान-नासिकाग्र या भृकुटि के मध्य में मन्त्र को अॅकित कर उसको देखते हुए चित्त को एकाग्र करना पदस्थ ध्यान के अन्तर्गत है। इस ध्यान में इस बात का चिन्तन करना भी आवश्यक है कि शुद्ध होने के लिए जो शुद्ध आत्माओं का चिन्तन किया जा रहा है, वह कर्मरज को दूर करनेवाला है। इस ध्यान का सरल और साध्य रूप यह है कि हृदय में आठ पत्राकार कमल का चिन्तन करें और इन आठ पत्रों में से पाँच पत्रों पर "णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं," लिखा चिन्तन करें तथा शेष तीन पत्रों पर क्रमश: “सम्यग्दर्शनाय नम:, सम्यग्ज्ञानाय नमः और सम्यक्चारित्राय नमः" लिखा हुआ विचारें। इस प्रकार एक-एक पत्ते पर लिखे हुए मन्त्र का ध्यान जितने समय तक कर सकें, करें।
समवशरण में विराजमान अर्हन्त परमेष्ठी के स्वरूप का चिन्तन रूपस्थ ध्यान है। इस ध्यान में बारह सभाओं के मध्य विराजित अष्ट प्रातिहार्य और अनन्त चतुष्टयों से युक्त अर्हन्त परमेष्ठी के वीतराग स्वरूप का चिन्तन किया जाता है। वीतराग जिनेन्द्र की प्रतिमाओं का ध्यान भी रूपस्थ ध्यान के अन्तर्गत है।
सिद्ध परमेष्ठी के गुणों का चिन्तन करना रूपातीत ध्यान है। इस ध्यान में ध्याता सिद्धों के गुणों का चिन्तन करते हुए यह विचार करता है कि सिद्ध अमूर्तिक, अष्टकर्मरहित, सम्यक्त्वादि अष्ट गुणों से सहित, निर्लेप, निर्विकार, निष्कलंक, लोकाग्र-निवासी, परमशान्त और कृतकृत्य हैं। इस प्रकार सिद्धों के गुणों में तन्मय होता हुआ आगे चलकर वह स्वयं के सिद्ध, बुद्ध, निरज्जन, कर्मरहित, स्वरूप में लीन हो जाता है।
धर्मध्यान के अन्य प्रकार से भी दश भेद किये गये हैं। वे हैं क्रमश:आज्ञाविचय, अपायविचय, उपायविचय, जीवविचय, अजीवविचय, भवविचय, विपाकविचय, विरागविचय, हेतुविचय और संस्थानविचय।
१. आज्ञाविचय - वीतरागी पुरुषों की धर्म-सम्बन्धी आज्ञाओं का चिन्तन।
२. अपायविचय- संसारी जीवों का दुःख दूर कैसे हो इस प्रकार का करुणा पूर्ण चिन्तन अपायविचय है।
३. उपायविचय- आत्म कल्याण के उपायों का चिन्तन ।
४. जीवविचय- जीव के स्वरूप का चिन्तन।
५. अजीवविचय- अजीव द्रव्यों के स्वरूप का चिन्तन।
६. भवविचय- संसार के दुःखमय स्वरूप का चिन्तन।
७. विपाकविचय- कर्म के स्वरूप और उसके फल का चिन्तन।
८. विरागविचय- वैराग्य की अभिवृद्धि के लिए संसार, शरीर और भोगों की असारता का चिन्तन।
9. हेतुविचय- तर्क द्वारा विशेष उहापोहपूर्वक स्याद्वाद सिद्धांत को श्रेयस्कर मान उसकी उपादेयता का विचार।
१०. संस्थानविचय- लोक के आकार, द्रव्य, गुण और पर्याय आदि का चिन्तन।
मन की अत्यन्त निर्मलता होने पर जो एकाग्रता होती है, वह शुक्लध्यान है। यह परिपूर्ण समाधि की स्थिति है। इसी ध्यान से आत्मानुभूति के द्वार खुलते हैं। शुक्ल-ध्यान की चार अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं-
पृथक्त्व-वितर्क-वीचार- श्रुतज्ञान के आधार पर अनेक द्रव्य, गुण और पर्यायों का योग, व्यंजन एवं ध्येयगत पदार्थ के परिवर्तनपूर्वक चिन्तन पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्ल ध्यान है। यहाँ पृथक्त्व का अर्थ विविधता/भेद है। वितर्क का अर्थ द्वादशांगात्मक श्रुतज्ञान तथा वीचार का मतलब-अर्थ व्यञ्जन और योगों की सङ्क्रान्ति है। ध्येयगत परिवर्तन अर्थ सङ्क्रान्ति है।श्रुतज्ञानात्मक शब्दों/श्रुतवाक्यों का परिवर्तन व्यञ्जन सङ्क्रान्ति हैं तथा मन,वचन, काय योगों का परिवर्तन योग सङ्क्रान्ति है। पृथक्त्व,विर्तक और वीचार से युक्त होने के कारण यह पृथक्त्वविर्तकवीचार ध्यान कहलाता है।
यह ध्यान उपशमश्रेणी अथवा क्षपकश्रेणी में आरोहण करनेवाले, पूर्वधारी साधक श्रुतज्ञान के आलम्बनपूर्वक करते हैं। इस ध्यान में ध्याता परमाणु आदि जड़ द्रव्यों तथा आत्मा आदि चेतन द्रव्यों का चिन्तन करता है। यह चिन्तन कभी द्रव्यार्थिक दृष्टि से करता है, तो कभी पर्यायार्थिक दृष्टि से। द्रव्यार्थिक दृष्टि के चिन्तन में पुद्गल आदि विविध द्रव्यो के पारस्परिक साम्य का चिन्तन करता है तथा पयार्यार्थिक दृष्टि में वह उनकी वर्तमानकालीन विविध अवस्थाओं का विचार करता है। द्रव्यार्थिक ओर पर्यायार्थिक रूप चिन्तन की इस विविधता को पृथक्त्व कहते हैं। इसमें अर्थ, व्यञ्जन और योगों में भी परिवर्तन होता रहता है। इस ध्यान में ध्याता द्रव्य को ध्याता हुआ पर्याय को और पर्याय को ध्याता हुआ द्रव्य का ध्यान करता है। इस प्रकार द्रव्य से पर्याय और पर्याय से द्रव्य में बार-बार परिवर्तन होता रहता है।
ध्येयगत इसी परिवर्तन को अर्थ सङ्क्रान्ति कहते हैं। व्यञ्जन का अर्थ है- शब्द/श्रुतवाक्य इस ध्यान में ध्याता शब्द से शब्दान्तर का आलम्बन लेता रहता है अर्थात् कभी वह श्रुत ज्ञान के किसी शब्द के आलम्बन से चिन्तन करता है, तो कभी उसे छोड़कर दूसरे शब्द के आलम्बन से। इसी प्रकार वह कभी मनोयोग, कभी वचनयोग और कभी काययोग का आश्रय लेता है। अर्थात् योग से योगान्तर को प्राप्त होता रहता है। इतना होने पर भी उसका ध्यान नहीं छूटता, क्योकि उसमें चिन्तन सातत्य बना रहता है। तात्पर्य यह है कि इस ध्यान में श्रुतज्ञान के आलम्बनपूर्वक विविध दृष्टियों से विचार किया जाता है तथा इसमें अर्थ व्यञ्जन और योगों में परिवर्तन होता रहता है। इसलिए यह पृथक्त्वविर्तकवीचार कहलाता है। यहाँ यह द्रष्टव्य है कि ध्येयों का यह परिवर्तन सहज,निष्प्रयास और अबुद्धि पूर्वक होता है।
एकत्व-विर्तक-अवीचार- जिस शुक्लध्यान में श्रुतज्ञान के आधार पर किसी एक ही द्रव्य, गुण या पर्याय का योग और श्रुतवाक्यों के परिवर्तन से रहित चिन्तन होता है, वह एकत्ववितर्कवीचार ध्यान कहलाता है। पृथक्त्व और वीचार से रहित इस ध्यान में ध्याता श्रुतज्ञान के आलम्बनपूर्वक किसी एक द्रव्य या पर्याय का चिन्तन करता है। इसमें द्रव्य, पर्याय, शब्द या योग में परिवर्तन नहीं होता। तात्पर्य यह है कि ध्याता जिस द्रव्य, पर्याय, शब्द और योग का आलम्बन लेता है, अन्त तक उसमें परिवर्तन नहीं होता। ध्येयगत विविधता और वीचार से रहित होने के कारण इसे एकत्ववितर्क अवीचार ध्यान कहते हैं। मोहनीय कर्म के क्षय के उपरान्त क्षीणकषाय गुणस्थान को प्राप्त साधक यह ध्यान करते हैं। इसी ध्यान के बलपर आत्मा शेष घातिया कमों के क्षयपूर्वक वीतरागी सर्वज्ञ और सदेह परमात्मा बनता है।
सूक्ष्मक्रिया-प्रतिपाति- वितर्क और वीचार से रहित इस ध्यान में मन, वचन और कायरूप योगों का निरोध हो जाता है। यहाँ तक कि श्वासोच्छवास जैसी सूक्ष्म-क्रिया भी इस ध्यान से निरुद्ध हो जाती है। सूक्ष्म क्रियाओं के भी निरोध से उपलब्ध होने के कारण इसे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति कहते है। यह ध्यान जीवन-मुक्त सयोग केवली के अपनी आयु के अन्तर्मुहूर्त शेष बचने पर होता है।
व्युपरतक्रिया-निवृत्ति- वितर्क और वीचार से रहित यह ध्यान क्रिया से भी रहित हो जाता है। इस ध्यान में आत्मा के समस्त प्रदेश निष्प्रकम्प हो जाते हैं। अत: आत्मा अयोगी बन जाता है। इस ध्यान में किसी भी प्रकार की मानसिक, वाचिक और कायिक क्रियाएँ नहीं होती। योगरूप क्रियाओं से उपरत हो जाने के कारण इस ध्यान का नाम व्युपरतक्रिया-निवृत्ति है। इस ध्यान के प्रताप से शेष सर्व कर्मों का नाश हो जाता है तथा आत्मा, देहमुक्त होकर अपनी स्वाभाविक ऊर्ध्वगति से लोक के अग्रभाग तक जाकर शरीरातीत अवस्था के साथ वहाँ स्थिर हो जाता है। तात्पर्य यह है कि इसी ध्यान के बल से सिद्ध अवस्था प्राप्त होती है और दुःखो से सदा के लिए मुक्ति मिल जाती है।