राष्ट्रसंत आचार्य श्री आनन्द ऋषिजी
'पुद्गल' शब्द दार्शनिक चिन्तन के लिये अनजाना नहीं है । न्याय-वैशेषिक दर्शन जिसे भौतिक तत्व और सांख्य प्रकृति नाम से कहते हैं, उसे जैनदर्शन में पुद्गल संज्ञा दी है। बौद्धदर्शन में पुद्गलशब्द का प्रयोग आलयविज्ञान, चेतना-संतति के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । जैनागमों में भी उपचार से पुद्गल युक्त (शरीरयुक्त) आत्मा को पुद्गल कहा गया है । परन्तु सामान्यतया प्रमुखता से पुद्गल शब्द का प्रयोग अजीव मूर्तिक द्रव्य के लिये हुआ है । विज्ञान के क्षेत्र में भी पुद्गल मैटर (Matter) और इनर्जी (Energy) शब्दों द्वारा जाना समझा जाता है । विज्ञान के समग्र विकास, संशोधन आदि का आधार पुद्गल ही है । परमाणु के रूप में जो पुद्गल का ही भेद है, तो पुद्गल ने आज समस्त विश्व मानस पर अपना अधिकार जमा लिया है। परमाणु की प्रगति ने तो विश्व को उसकी शक्ति, सामर्थ्य आदि से परिचित होने के लिये जिज्ञासाशील बना दिया ।
दर्शन के क्षेत्र में पदगल के विषय में क्या. कैसा, चिन्तनमनन और निर्णय किया गया एवं विज्ञान के क्षेत्र में पुद्गल परमाणु के रूप में कब आया, उसका आविष्कर्ता कौन था और अब तक विकास के कितने सोपानों को पार कर किस मंजिल तक पहुँच सका है ? आदि इन दोनों पक्षों को एक साथ यहाँ प्रस्तुत करते हैं।
पाश्चात्य जगत की यह धारणा रही है कि पुद्गल परमाणु सम्बन्धी पहली बात डेमोक्रेट्स (ई० पू० ४६०३७०) नामक वैज्ञानिक ने कही थी। लेकिन पौर्वात्य दर्शनों और उनमें भी भारतीय दर्शनों का अवलोकन करें तो भारतवर्ष में परमाणु का इतिहास इससे भी सैकड़ों वर्ष पूर्व का मिलता है । चिन्तन और मनन की दृष्टि से काल गणना का निर्णय किया जाये तो उसे सुदूर प्रागैतिहासिक काल में भी आगे तक मानना पड़ेगा। वैशेषिक दर्शन में परमाणु का उल्लेख अवश्य है, लेकिन वह नहीं जैसा है, उसमें क्रमबद्ध विचार प्रणाली का अभाव है, लेकिन जैनदर्शन में पुद्गल और परमाणु के विषय में सुव्यवस्थित विवेचन किया गया है।
जैनधर्म और दर्शन की प्रागैतिहासिक प्राचीनता स्वयं सिद्ध है और अब ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह सर्वानुमोदित हो चुका है कि जैनधर्म वैदिक और बौद्ध धर्म से भी प्राचीन है। इस प्रकार परमाणु का अस्तित्व जैनदर्शन के साथ बहुत प्राचीन सिद्ध हो जाता है। फिर भी हम वर्तमान जैनदर्शन का सम्बन्ध तीर्थंकर महावीर से माने तो उनका काल ई० पू० ५६८ से लेकर ५२६ तक का है जो डेमोक्रेटस् से कुछ अधिक सौ वर्ष पूर्वकालिक है। अतः यह सिद्ध हो जाता है कि पाश्चात्य जगत में डेमोक्रेट्स ने परमाणु शब्द का प्रयोग किया है लेकिन वह उसका आविष्कर्ता नहीं था।
'पुद्गल' जैन पारिभाषिक शब्द है । बौद्धदर्शन में अवश्य पुद्गल शब्द का प्रयोग हुआ है लेकिन उसका नितान्त भिन्न अर्थ में प्रयोग होने से विज्ञान सम्मत पदार्थ (Matter) के आशय से मेल नहीं खाता है। जबकि जैनदर्शन का पुद्गल शब्द विज्ञान के पदार्थ का पर्यायवाची है । तथा पारिभाषित होते हुए रूढ़ नहीं किन्तु व्योत्पत्तिक है-- पूरणात् पुत् गलयतीति गलपूरण-गलनान्वर्ष संजत्वात् पुद्गला:-अर्थात् पूर्ण स्वभाव से पुत् और गलन स्वभाव से गल इन दो अवयवों के मेल से पुद्गल शब्द बना है, यानी पूरण और गलन को प्राप्त होने से पुद्गल अन्वर्थ संज्ञक है।
जो वस्तु दूसरी वस्तु (द्रव्य या पर्याय) से मिलती रहे, मिले और गले, पृथक् हो इस प्रकार के गलन-मिलन स्वभाव वाली वस्तु को पुद्गल कहते हैं।
गलन और मिलन स्वभाव को इस प्रकार समझा जा सकता है कि बड़े स्कन्धों में से कितने ही परमाणु दूर होते हैं और कितने ही नवीन परमाणु जुड़ते हैं, मिलते हैं, जबकि परमाणु में से कितनी ही वर्णादि पर्यायें विलग हो जाती हैं, हट जाती हैं और कितनी ही आकर मिल जाती हैं । इसीलिए सभी स्कन्धों और परमाणुओं को पुद्गल कहते हैं और उनके लिये पुद्गल कहना सार्थक, अन्वर्थक है।
जैनागमों में पदगल की स्वरूपात्मक व्याख्या करते हए बताया है कि भाव की अपेक्षा पुदगल वर्ण, गन्ध रस. स्पर्श वाला है । वह पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस और आठ स्पर्श वाला होता है । द्रव्य की अपेक्षा पुद्गल अनन्त है, क्षेत्र की अपेक्षा लोक प्रमाण है । काल की अपेक्षा कभी नहीं था, नहीं है, नहीं रहेगा, ऐसा नहीं है, किन्तु सदैव उसका अस्तित्व है। अतीत अनन्तकाल में था, वर्तमान काल में है और अनागत अनन्तकाल में रहेगा। वह ध्रव, नियत, शाश्वत अक्षय, अव्यय, अवस्थित तथा नित्य है । गुण की अपेक्षा ग्रहण गुण वाला है । जीव द्वारा पुद्गल का ग्रहण होता भी है, वर्णादि वाला होने से स्पर्शन आदि पाँचों इन्द्रियों का विषय ज्ञय है।
पुद्गल द्रव्य के अपेक्षानुसार भेद किये गये हैं। जैसे, पुद्गल के दो भेद हैं.-अणु और स्कन्ध । स्वभाव पुद्गल और विभाव पुद्गल, यह दो भेद भी पुद्गल द्रव्य के किये गये है तथा चार भेद भी हैं--(१) स्कन्ध, (२) स्कन्ध देश, (३) स्कन्ध प्रदेश, (४) परमाणु ।
स्कन्ध- दो से लेकर यावत् अनन्त परमाणुओं का एक पिंड रूप होना स्कन्ध है। कम से कम दो परमाणुओं का स्कन्ध होता है जो द्विप्रदेशी स्कन्ध कहलाता है और कभी-कभी अनन्त परमाणुओं के स्वाभाविक मिलन से एक लोकव्यापी महास्कन्ध भी बन जाता है। इस महास्कन्ध की अपेक्षा पुद्गल द्रव्य सर्वगत है और शेष पुद्गलों की अपेक्षा असर्वगत है ।
स्कन्ध देश- स्कन्ध एक इकाई है। उस इकाई का बुद्धिकल्पित एक भाग स्कन्ध देश है। अथवा स्कन्ध के आधे भाग को स्कन्ध देश कहते हैं।
स्कन्ध प्रदेश- जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक स्कन्ध की मूल भित्ति परमाणु है । जब तक यह परमाणु स्कन्धगत है, तब तक वह स्कन्धप्रदेश कहलाता है । अथवा पूर्वोक्त आधे भाग के भी आधे भाग को स्कन्धप्रदेश कह सकते हैं।
परमाणु- स्कन्ध का वह भाग, जो विभाजित हो ही नहीं सकता है, उसे परमाणु कहते हैं । जब तक वह स्कन्धगत है, तब तक वह स्कन्धप्रदेश कहलाता है और अपनी पृथक् अवस्था में परमाणु ।
परमाणु के स्वरूप को शास्त्रकारों ने विभिन्न प्रकार से स्पष्ट किया है । जैसे कि परमाणु पुद्गल अविभाज्य, अच्छेद्य, अभेद्य, अदाह्य व अग्राह्य है। किसी भी उपाय, उपचार या उपाधि से उसका भाग नहीं हो सकता है। परमाणु पुद्गल अनर्थ है, अमध्य है, अप्रदेशी है, सार्ध नहीं है, समध्य नहीं है । परमाणु की न लम्बाई है, न चौड़ाई है, न गहराई है, यदि वह है तो स्वयं एक इकाई रूप है । सूक्ष्मता के कारण वह स्वयं ही आदि मध्य और अन्त है ।
प्रथम अणु और स्कन्ध यह जो दो भेद बताये गये हैं उनमें और स्कन्ध आदि इन चार मेदों में संक्षेप और विस्तार की अपेक्षा अन्तर अवश्य है, लेकिन मूल लाक्षणिक भेद नहीं है । स्कन्ध के अतिरिक्त स्कन्ध देश और स्कन्ध प्रदेश यह स्कन्ध के दो अवान्तर भेद कर लेने से पुद्गल द्रव्य के चार भेद होते हैं।
सूक्ष्मता और स्थूलता को लेकर दूसरे प्रकार से पुद्गल द्रव्य के निम्नलिखित छह भेद भी हैं (१) स्थूलस्थूल (२) स्थूल, (३) स्थूलसूक्ष्म, (४) सूक्ष्मस्थूल, (५) सूक्ष्म, (६) सूक्ष्मसूक्ष्म ।
स्थूल स्थूल- जिस पुद्गल स्कन्ध का छेदन, भेदन तथा अन्यत्र वहन सामान्य रूप से हो सके। जैसे-भूमि, पत्थर, पर्वत आदि।
स्थूल- जिस पुद्गल स्कन्ध का छेदन भेदन, न हो सके किन्तु अन्यत्र वहन हो सके । जैसे-घी, तेल, पानी आदि।
स्थूल सूक्ष्म- जिस पुद्गल स्कन्ध का छेदन, भेदन, अन्यत्र वहन कुछ भी न हो सके । जैसे—छाया, आतप आदि।
सूक्ष्म स्थूल- वे इन्द्रिय को छोड़कर शेष स्पर्शन आदि चार इन्द्रियों के विषयभूत पुद्गल स्कंध । जैसे वायु तथा अन्य प्रकार की गैसें।
सूक्ष्म- वे सूक्ष्म पुद्गल स्कन्ध जो अतीन्द्रिय हैं। जैसे मनोवर्गणा, भाषावर्गणा, कायवर्गणा आदि ।
सूक्ष्म सूक्ष्म- ऐसे पुद्गल स्कन्ध जो भाषावर्गणा, मनोवर्गणा के स्कन्धों से भी सूक्ष्म है जैसे द्वि प्रदेशी स्कन्ध आदि।
यह छह भेद भी स्कन्ध पुद्गल की अपेक्षा से होते हैं । परमाणु पुद्गल के भेद नहीं होते हैं । जिसका स्पष्टीकरण पूर्व में परमाणु के लक्षण में किया जा चुका है।
जीव और पुद्गल की पारस्परिक परिणति और स्वयं पृद्गल के स्वभाव की अपेक्षा उसके तीन भेद भी हैं-
प्रयोग परिणत- ऐसे पुद्गल जो जीव द्वारा ग्रहण किये गये हों । जैसे इन्द्रिय, शरीर आदि।
मिश्रपरिणत- जो पुद्गल जीव द्वारा परिणत होकर पुनः मुक्त हो चुके हों। जैसे कटे हुए नख, केश, मल, मूत्र आदि।
विलसा परिणत- ऐसे पुद्गल जो जीव की सहायता के बिना स्वयं स्वभावतः परिणत है । जैसे बादल, इन्द्रधनुष आदि।
जनदर्शन में पुद्गल के पूर्वोक्त भेद प्रभेदों के अतिरिक्त कुछ और भी भेद-प्रभेद (पर्याय) माने गये हैं जैसेशब्द, बन्ध, सौम्य, स्थौल्य, भेद, तम, छाया, आतप, उद्योत आदि । इनमें से कुछ ऐसे पर्याय हैं जिन्हें प्राचीन काल के अन्य दार्शनिक पुद्गल रूप में स्वीकार नहीं करते थे, किन्तु अब उनमें से बहुतों को आधुनिक विज्ञान ने पुद्गल रूप में स्वीकार कर लिया है। वे हैं-शब्द, अन्धकार, छाया, आतप उद्योत आदि ।
शब्द- अन्य दार्शनिकों ने शब्द को आकाश का गुण माना है । लेकिन जैनदर्शन की मान्यतानुसार लोक व्यापी समस्त पुद्गल द्रव्य की तेईस प्रकार की वर्गणाओं (समान जातीय वर्गों) में से एक भाषा वर्गणा है। उसके भिद्यमान अणुओं के ध्वनि रूप परिणाम को शब्द कहते हैं। यह श्रोत्रेन्द्रिय का विषय होने से मूर्त और पौद्गलिक है । इसके दो भेद हैं—भाषा रूप और अभाषा रूप । अभाषात्मक दो प्रकार के हैं--प्रायोगिक और वैनसिक । प्रायोगिक शब्द तत, वितत, घन, सुषिर के भेद से चार प्रकार का है। तत, वितत, धन, सुषिर, घोष और भाषा के भेद से शब्द छह प्रकार का है । भाषात्मक शब्द दो प्रकार के हैं---साक्षर और अनक्षर । अथवा आमन्त्रिणी, आज्ञापनी आदि के भेद से भाषात्मक शब्द के अनेक भेद किये जा सकते हैं। इन सब भेदों में सामान्य से समझने के लिये शब्द के दो मुख्य भेद हैं-प्रायोगिक और वैनसिक । प्रयोग पूर्वक उत्पद्यमान ध्वनि प्रायोगिक और मेघादि जन्य स्वाभाविक ध्वनि वैस्रसिक शब्द कहलाते हैं। प्रायोगिक शब्द भाषात्मक और अभाषात्मक हैं। अर्थ प्रतिपादक ध्वनि भाषात्मक और जिस ध्वनि से अर्थ प्रतिपादक भाषा की अभिव्यक्ति न हो वह अभाषात्मक शब्द है। तत (नगाड़े आदि की ध्वनि) वितत (वीणा आदि जन्य ध्वनि) घन (घण्टा आदि की ध्वनि) और सुषिर (बांसुरी, शंख जन्य ध्वनि) के भेद से वह चार प्रकार का है।
अन्धकार- प्रकाश आदि- कृष्ण वर्ण बहुल पुद्गलों का परिणाम अन्धकार है। सूर्य, दीपक आदि के उष्ण प्रकाश को आतप कहते हैं। प्रतिबिम्ब रूप पुद्गल परिणाम छाया है और चन्द्र मणि आदि का अनुष्ण प्रकाश उद्योत कहलाता है।
स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, मूर्तत्व और अचेतनत्व ये छह पुद्गल द्रव्य के विशेष गुण हैं । यद्यपि अचेतन रूप गुण अन्य धर्म अधर्म आदि अजीव द्रव्यों में भी पाया जाता है लेकिन यहाँ जीव (सचेतन) से पृथक् अस्तित्व बताने के लिए अचेतन तत्व को पुद्गल द्रव्य के विशेष गुणों में ग्रहण किया गया है। इनके अतिरिक्त अस्तित्व, नास्तित्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, प्रमेयत्व, द्रव्यत्व आदि अनेक सामान्य गुण हैं । इन सामान्य गुणों की संख्या इक्कीस है।
आकृति को संस्थान कहते हैं। संस्थान दो प्रकार का होता है-इत्थंस्थ और अनित्थंस्थ । नियत आकार वाले को इत्थंस्थ और अनियत आकार वाले को अनित्थंस्थ संस्थान कहते हैं। त्रिकोण, चतुष्कोण, आयतन, परिमंडल आदि नियत आकार इत्थंस्थ संस्थान हैं और बादल आदि की अनियताकार आकृतियां अनित्थंस्थ संस्थान हैं।
पुद्गल के गुणों का सामान्यतः पूर्व में संकेत किया है और उसके लाक्षणिक पारिभाषिक स्वरूप की भी रूपरेखा बतायी जा चुकी है। इन्हीं दोनों बातों का और अधिक स्पष्टतापूर्वक विवेचन करते हुए भगवतीसूत्र में बताया है कि पुद्गल पाँच वर्ण (कृष्ण, नील, पीत, लोहित और शुक्ल), दो गंध (सुगंध और दुर्गध) पांच रस (तिक्त, कटु अम्ल, कषाय और मधुर) और आठ स्पर्श (मृदु, कठिन, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और सूक्ष्म) से युक्त होता है । ये पांच वर्ण आदि किसी भी स्थूल स्कंध में मिलेंगे किन्तु परमाणु में तो एक वर्ण, एक गंध, एक रस और दो स्पर्श स्पर्शों की अपेक्षा स्कंधों के दो भेद हो जाते हैं-चतुर्पी स्कंध और अष्टस्पर्शी स्कंध । सूक्ष्म से सूक्ष्म पुद्गल स्कन्ध चतुस्पर्शी स्कन्ध वाला है। चतुर्पी स्कन्ध में आठ स्पर्शों में से शीत, उष्ण, स्निग्ध सूक्ष्म ये चार स्पर्श मिलेंगे और परमाणु में उक्त चारों में से कोई दो स्पर्श होंगे। कोई परमाणु शीत या उष्ण होगा, स्निग्ध या सूक्ष्म होगा । मदु कठिन, गुरु, लघु इन चार स्पर्शों में से कोई भी स्पर्श अकेले परमाणु में प्राप्त नहीं होता है। क्योंकि ये चार स्पर्श मौलिक न होकर संयोगज हैं । जैन दार्शनिकों ने गुरुत्व और लघुत्व (भारीपन और हल्कापन) को मौलिक स्वभाव नहीं माना है किन्तु वे तो विभिन्न परमाणुओं के संयोगज-वियोगज परिणाम है। यदि स्कन्ध स्थूलत्व से सूक्ष्मत्व की ओर अवरोहण करते हैं तब उनमें लघुत्व और सूक्ष्मत्व से स्थूलत्व की ओर आरोहण करने पर गुरुत्व योग्यता उत्पन्न हो जाती है । इसीलिए पुद्गल को गुरु-लघु और अगुरु-लघु कहा गया है । कोई पुद्गल गुरुलघु है और कोई अगुरुलघु।
पुद्गल पुद्गलत्व की अपेक्षा अनादि पारिणामिक भाव है, सादि पारिणामिक भाव नहीं है । द्रव्य की अपेक्षा सप्रदेशी पुद्गल भी होते हैं और अप्रदेशी पुद्गल भी । परमाणु पुद्गल अप्रदेशी पुद्गल है और द्विप्रदेशी स्कंध से लेकर अनन्त प्रदेशी स्कंध पुद्गल सप्रदेशी है । इसी दृष्टि से जनदर्शन में पुद्गल द्रव्य के संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश कहे गये हैं। ... द्रव्य की तरह क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा सप्रदेशी भी होता है और अप्रदेशी भी। क्षेत्र की अपेक्षा अप्रदेशित्व इस प्रकार समझना चाहिए कि एक आकाश प्रदेश को अवगाहन करने वाला होने से अप्रदेशी एवं अनेक आकाश प्रदेशों को अवगाहन करने वाला होने से सप्रदेशी है । काल की अपेक्षा एक समय की स्थिति वाला होने से अप्रदेशी और अनेक समय की स्थिति वाला होने से सप्रदेशी है । यह स्थिति परमाणुत्व तथा स्कन्धत्व की अपेक्षा भी, अवगाहन तथा क्षेत्रान्तर की अपेक्षा भी और भाव गुणों की अपेक्षा भी हो सकती है । भाव की अपेक्षा एक गुण वाला होने से अप्रदेशी और अनेक अंश गुण वाला भी होने से सप्रदेशी है। जैसे कि कोई पुद्गल एक अंश काला वर्णगुण वाला भी होता है और अनेक अंश कालावर्ण गुण वाला भी होता है ।
पुद्गल द्रव्य का विभाजन पाँच प्रकार का होता है-उत्कट, चूर्ण, खंड अतर और अनुतटिका। उत्कट-मूंग की फली का टूटना । चूर्ण-गेहूं आदि का आटा । खंड-पत्थर के टुकड़े। अतर-अभ्रक के दल । अनतटिका--तालाब की दरारे।
विभिन्न परमाणुओं के संशिलष्ट होने, मिलने, चिपकने, जुड़ने को बंध कहते हैं । इस बंध के प्रमुख दो भेद हैं--प्रायोगिक और वैनसिक । प्रायोगिक बंध जीवप्रयत्न प्रयोग जन्य होता है और वह सादि है तथा वैससिक बंध में व्यक्ति के प्रयत्न की अपेक्षा नहीं रहती है, वह सहज स्वभावजन्य है। इसके दो प्रकार हैं-सादि वैनसिक और अनादि वैनसिक । सादि वस्रसिक बंध वह है जो बनता है बिगड़ता है और उसके बनने बिगड़ने में किसी व्यक्ति के प्रयत्न की अपेक्षा नहीं रहती है। जैसे बादलों में चमकने वाली बिजली, उल्का, मेघ, इन्द्रधनुष आदि । अनादि वैनसिक बंध तद्गत स्वभावजन्य है।
जब प्रत्येक परमाणु स्वतन्त्र इकाई है तब वे परस्पर मिलकर महाकाय स्कन्धों के रूप में कैसे परिणत हो जाते हैं ? यह एक विचारणीय स्थिति है। परमाणु रूप स्वतन्त्र इकाई अपना अस्तित्व कैसे बिलीन कर देती है और विलीन करने का कारण क्या है ? परमाणु के निर्माण में कोई रुकावट नहीं है, क्योंकि स्कन्ध के छिन्न-भिन्न होने से उसके खंड-खंड होते जाने से परमाणु का निर्माण होता है। यह बात आज के वैज्ञानिक प्रयोगों से स्पष्ट हो चुकी है। लेकिन स्कंध निर्माण की प्रक्रिया में अन्तर है। प्रायोगिक बंधजन्य स्कन्ध निर्माण की प्रक्रिया के लिए यह एक सामान्य बात है कि मकान आदि बनाते समय ईंटों को परस्पर जोड़ने के लिए चूना, सीमेण्ट आदि संयोजक द्रव्य का उपयोग होता है। परन्तु गलन-मिलन रूप वैनसिक प्रक्रिया के कारण अनन्त ब्रह्माण्ड में स्कंधों का संघटन और विघटन प्रतिक्षण स्वतः भी होता रहता है। जैसे निरभ्र आकाश थोड़े से समय में बादलों से भर जाता है, वहाँ बादल रूप स्कन्धों का जमघट लग जाता है और कुछ ही क्षणों में वह बादल विखरता भी देखा जाता है। इस प्रकार के स्वाभाविक स्कंधों के निर्माण का क्या हेतु है ? हमारे हाथों में जो पौद्गलिक वस्तु आती है और जो दृश्यमान महल, मकान आदि हैं वे सब तो परमाणुओं के समवायी परिणाम हैं । उनमें संख्यात, असंख्यात, अनन्त परमाणु हैं ।
जैनदर्शन में स्कंध निर्माण की एक समुचित रासायनिक प्रक्रिया बतलाई है । जो प्रायोगिक बंध की प्रक्रिया से भिन्न नहीं है। वह संक्षेप में इस प्रकार है-
पूर्व में यह संकेत किया गया है कि प्रत्येक परमाणु में एक वर्ण, एक गंध, एक रस तथा स्निग्ध-रूक्ष में से एक तथा शीत-उष्ण में से एक इस प्रकार कुल दो स्पर्श होते हैं । एक परमाणु दूसरे परमाणु के साथ जो स्कंधजनक संयोग करता है, उसमें परमाणुगत वर्ण, गंध रस तथा शीत या उष्ण स्पर्श का उपयोग नहीं होता है, किन्तु जो स्निग्ध या रूक्ष स्पर्श हैं उन्हीं का उपयोग होता है। जैसे कि निरभ्र आकाश में एकाएक बादलों के स्कंधों के छा जाने में नितान्त शान्त वातावरण में आंधी तूफान के रूप में वायु के स्कंधों के भर जाने में और थोड़ी ही देर में उन सबके बिखर जाने में कोई मनुष्य, देव या ईश्वर कारण नहीं है और न यह उन सबके द्वारा कृत है। किन्तु पोद्गलिक परमाणुगत स्निग्धरूक्ष स्पर्शों का स्वाभाविक संयोग और वियोग कारण है। इसीलिये इस स्कंध निर्माण की प्रक्रिया में स्निग्ध-रूक्ष स्पर्शों को मुख्य माना गया है । वर्ण आदि के जैसे गुणात्मक तारतम्य के अनन्त प्रकार (Degree) होते हैं, वैसे ही ये स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श भी एक गुण से लेकर अनन्त गुण प्रकार के हो सकते हैं।
स्कन्धों की उत्पत्ति तीन प्रकार से होती है—संघात, भेद और भेद-संघात । कोई स्कंध संघात, एकत्व परिपति, मिलने से उत्पन्न होता है । कोई भेद से और कोई एक साथ भेद-संघात दोनों के निमित्त से होता है । जब पृथक्पृथक् स्थित दो परमाणुओं के मिलने पर द्वि-प्रदेशी स्कंध होता है तब वह संघातजन्य कहलाता है। इसी प्रकार तीन, चार, संख्यात, असंख्यात, अनन्त यावत् अनन्तानन्त परमाणुओं के मिलने से जो द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी आदि अनन्तानन्त प्रदेशी स्कंध बनते हैं वे सब संघातजन्य हैं। किसी बड़े स्कंध के टूटने से जो छोटे-छोटे स्कंध बनते हैं, वे भेदजन्य हैं। ये भी द्विप्रदेशी से लेकर अनन्तानन्त प्रदेशी तक हो सकते हैं। जब किसी एक स्कन्ध के टूटने पर उसके अवयव के साथ उसी समय दूसरे किसी द्रव्य के मिलने से जो नया स्कंध बनता है तब वह नवीन स्कंध भेदसंघातजन्य है। ऐसे स्कंध भी द्वि-प्रदेशी से लेकर अनन्तानन्त प्रदेश वाले हो सकते हैं । इन सबके निर्माण में स्निग्धत्व और रूक्षत्व कारण है।
स्कन्ध निर्माण की उक्त सामान्य प्रक्रिया है । किन्तु अचाक्षुष स्कन्ध के चाक्षुष होने में भेद और संघात ये दो.ही हेतु हैं । अर्थात् सभी अतीन्द्रियक स्कन्धों के ऐन्द्रियक (इन्द्रिय ग्राह्य) बनने में भेद और संघात ये दो ही हेतु अपेक्षित हैं । क्योंकि जब किसी स्कन्ध में सूक्ष्मत्व परिणाम की निवृत्ति होकर स्थूलत्व परिणाम पैदा होता है तब कुछ नये परमाणु उसमें अवश्य मिलते हैं और इसी मिलने के साथ कुछ परमाणु उस स्कन्ध में से अलग भी हो जाते हैं। सूक्ष्मत्व परिणाम की निवृत्तिपूर्वक स्थूलत्व परिणाम की उत्पत्ति न केवल संघात परमाणुओं से होती है और न भेद के पृथक् होने मात्र से होती है और स्थूलत्व रूप परिणाम के अलावा कोई स्कन्ध चाक्षुष नहीं हो सकता है । इसीलिए चाक्षुष स्कन्ध की उत्पत्ति भेद और संघात दोनों से बताई है।
स्कन्ध निर्माण में कौनसा परमाणु किस परमाणु के साथ संयोग कर सकता है ? इसके लिए जैनदर्शन में कुछ नियम निर्धारित हैं। वे इस प्रकार हैं-
१. स्निग्ध और रूक्ष परमाणुओं के श्लेष (मिलन) से स्कन्ध बनते हैं । यह श्लेष दो प्रकार का हो सकता हैसदृश और विसदृश । स्निग्ध का स्निग्ध के साथ और रूक्ष का रूक्ष के साथ श्लेष होना सदृश श्लेष है और स्निग्ध का रूक्ष से श्लेष विसदृश श्लेष है। इसमें स्निग्ध परमाणु का स्निग्ध परमाणु के साथ मेल होने पर स्कन्ध का निर्माण अवश्य हो सकता है, लेकिन उसके लिए शर्त यह है कि उन दोनों परमाणुओं की स्निग्धता में कम से कम दो अंशों से अधिक अन्तर हो । इसी तरह रूक्षता के लिए भी समझना चाहिए । २. रूक्ष परमाणु का स्निग्ध परमाणु के साथ मेल होने से स्कन्ध का निर्माण होता है, बशर्ते कि उन दोनों परमाणुओं की स्निग्धता-रुक्षता में कम से कम दो अंशों से अधिक अन्तर हो। ३. स्निग्ध और रूक्ष परमाणुओं के मिलन से स्कन्ध निर्माण होता ही है, चाहे फिर वे विषम अंश वाले हों या सम अंश वाले अर्थात् एक परमाणु में स्निग्धता है और दूसरे में रूक्षता, तो ऐसे दो परमाणुओं का संयोग अवश्य होता है । चाहे फिर उन दोनों के समान गुण हों या विषम गुण हों। दो गुण स्निग्धता और दो गुण रूक्षता वाले परमाणुओं का भी स्कन्ध बनता है और एक गुण स्निग्धता तथा दो-तीन या उससे अधिक गुण रूक्षता वाले परमाणुओं का भी स्कन्ध बनता है।
उक्त नियमों में अपवाद केवल इतना ही है कि एक गुण स्निग्धता और एक गुण रूक्षता नहीं होना चाहिए। अर्थात् जघन्य गुण वाले परमाणु का कभी बंध नहीं होता है।
किसी भी स्कन्ध निर्माण की प्रक्रिया में उक्त नियम लागू पड़ते हों, तो वहां उन परमाणुओं के स्कन्ध बनते ही हैं। इस प्रकार दो, तीन, चार यावत असंख्य, अनन्त परमाणुओं का भी एक स्कन्ध बन सकता है । लेकिन ऐसा कोई नियम नहीं है कि परमाणुओं से बने स्कन्ध में विद्यमान रूक्षता और स्निग्धता के अंशों में परिवर्तन न हो तब तक उस स्कन्ध में संयोजित परमाणु उस स्कन्ध से अलग नहीं हो । क्योंकि स्कन्ध से परमाणु के पृथक् होने का यही एकमात्र कारण नहीं है । अन्य दूसरे भी कारण हैं। उनमें से कोई भी कारण उपस्थित हो जाये तो परमाणु उस स्कन्ध से अलग हो सकता है । वे कारण इस प्रकार हैं-
१. कोई भी स्कन्ध अधिक से अधिक असंख्य काल तक रह सकता है । अर्थात् उतने काल के पूर्ण होने पर परमाणु स्कन्ध से अलग हो सकता है । २. अन्य द्रव्य का विघटन होने पर भी स्कन्ध का विघटन होता है। ३. बंध योग्य स्निग्धता और रूक्षता के गुणों में परिवर्तन आने से भी स्कन्ध का विघटन होता है। ४. स्कन्ध में स्वाभाविक रीति से उत्पन्न होने वाली गति से भी स्कन्ध का विघटन होता है।
स्कन्ध निर्माण व विघटन की उक्त प्रक्रिया का संक्षेप में निष्कर्ष यह है कि विघटन होना भी पुद्गल का स्वभाव है । अतः स्कन्धगत परमाणु पृथक् भी होते रहते हैं लेकिन संश्लिष्ट होने के बारे में नियम हैं कि जघन्य गुणांशों वाले परमाणुओं का न तो सदृश और न विसदृश संश्लेष होता है। किन्तु जघन्य-एकाधिक जघन्येतरसमजघन्येतर, जघन्येतर-एकाधिकजघन्येतर गुणांशों वाले परमाणुओं का सदृश बंध तो नहीं होता है, विसदृश बंध हो सकता है। जघन्य-द्वयाधिक, जघन्य-त्र्यादिअधिक, जघन्येतर-द्वयाधिकजघन्येतर, जघन्येतर-त्र्यादिअधिक जघन्येतर परमाणुओं का सदृश व विसदृश बंध होता है।
स्कन्ध के लक्षण, निर्माण प्रक्रिया आदि के बारे में ऊपर सामान्य जानकारी दी गई है। उसके अतिरिक्त कुछ विशेष ज्ञातव्य इस प्रकार है कि पुद्गल द्रव्य होते हुए अजीव, रूपी तथा बहुप्रदेशी होने से अस्तिकाय द्रव्य है । स्कन्ध की निष्पत्ति परमाणुओं के परस्पर मिलने से होती है । स्कन्ध सूक्ष्म परिणाम वाले भी होते हैं और बादर परिणाम वाले भी होते हैं। दोनों अनन्त प्रदेशी भी हो सकते हैं । स्कन्ध पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा सप्रदेशी है, अप्रदेशी नहीं है । क्षेत्र की अपेक्षा अप्रदेशी भी होता है और सप्रदेशी भी । अर्थात् एक आकाश प्रदेश में अवगाहन करने वाला भी होता है और अनेक आकाश प्रदेशों में भी रह सकता है। काल की अपेक्षा सप्रदेशी भी होता है और अप्रदेशी भी । अर्थात् एक समय की स्थिति वाला भी होता है और अनेक समय की स्थिति वाला भी। भाव की अपेक्षा भी सप्रदेशी और अप्रदेशी है । यानी एक अंश गुण वाला भी होता है और अनेक अंश गुण वाला भी । समपरमाणु वाले स्कन्ध सार्थ, अमध्य और सप्रदेशी हैं तथा विषम परमाणु वाले स्कन्ध अनर्ध, समध्य और सप्रदेशी हैं । द्विप्रदेशी स्कन्ध से लेकर असंख्यात व कतिपय अनन्त प्रदेशी स्कन्ध इतने सूक्ष्म हैं कि छद्मस्थ तथा अवधिज्ञानी तो नहीं देखते हैं, किन्तु केवलज्ञानी तथा परम अवधिज्ञानी देख सकते हैं । स्कन्धों की गति आकाश प्रदेशों की पंक्ति के अनुरूप होती है। इनमें सादि पारिणामिक भाव है, अनादि पारिणामिक : भाव नहीं है तथा संतति प्रवाह की अपेक्षा अनादि अनन्त और स्थिति की अपेक्षा सादि सान्त हैं।
सामान्य रूप से पुद्गल और उसके भेद स्कन्ध व परमाणु के बारे में विचार करने के अनन्तर अब परमाणु विषयक विशेष स्पष्टीकरण करते हैं।
परमाणु का लाक्षणिक स्वरूप ऊपर बताया गया है । उसका संक्षिप्त आशय यह है कि सब द्रव्यों में जिसकी अपेक्षा अन्य कोई अनुत्तर न हो, परम अत्यन्त अणुत्व हो उसे परमाणु कहते हैं।
परमाणु दो प्रकार का है-कार्य परमाणु और कारण परमाणु । स्कन्ध के विघटन से उत्पन्न होने वाला कार्य परमाणु है और जिन परमाणओं के मिलने से कोई स्कन्ध का निर्माण हो, बने उन्हें कारण परमाण कहते हैं अथवा परमाण के चार प्रकार हैं-द्रव्य परमाण, क्षेत्र परमाण, काल परमाण, भाव परमाण । जिन्हें आधनिक विज्ञान की भाषा में क्रमशः पदार्थ, स्थान, काल (समय) और शक्ति या गुणवत्ता की इकाई के नाम से कहा जा सकता है ।
भाव परमाणु के चार भेद हैं-वर्ण गुण, गन्ध गुण, रस गुण, स्पर्श गुण । इनके उपभेद सोलह हैं । जो इस प्रकार है (१-५) एक गुण वर्ण क्रमशः कृष्ण, नील, लाल, पीत, श्वेत (६-७) एक गुण दुर्गन्ध एक गुण सुगन्ध, (८-१२) एक गुण रस क्रमश: तिक्त, मधुर, कटुक, कषाय और अम्ल, (१३-१६) एक गुण उष्ण, एक गुण शीत, एक गुण रूक्ष, एक गुण स्निग्ध । तात्पर्य यह है कि परमाणु वर्ण गन्ध रस स्पर्शवान है और ऐसा होना पुद्गल का स्वभाव है।
परमाणु में वर्ण, गन्ध आदि होने की व्यवस्था इस प्रकार है-
पूर्वोक्त पाँच प्रकार के वर्गों में से कोई एक वर्ण दो गंधों में से कोई एक गंध, पांच रसों में से कोई एक रस और चार स्पर्शों में दो स्पर्श होते हैं.-स्निग्ध-रूक्ष में से एक और शीत या उष्ण में से एक । परमाणु की परिभाषा टीकाकारों ने इस प्रकार की है—
कारणमेव तवन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एक रस-गंध-वो-द्वि-स्पर्शः कार्यलिंगश्च ।।
अर्थात् परमाणु स्कन्ध पुद्गलों के निर्माण का अन्त्य कारण है । यानी वह स्कन्ध मात्र में उपादान है । वह सूक्ष्मतम है । अतः र्तमान और अनागत काल में था, है और रहेगा वह एक रस, एक गन्ध, एक वर्ण और दो स्पर्श यक्त है और कालिंग है। कार्यलिंग का तात्पर्य यह है कि वह परमाण नेत्रों या अन्य किसी वैज्ञानिक उपकरणों साधनोंसूक्ष्म-वीक्षण यन्त्र आदि से दीखता नहीं है किन्तु सामूहिक क्रिया-कलाप एवं तज्जन्य कार्य से उसका अस्तित्व माना जाता है। उसके स्वरूप को केवलज्ञानी या परम अवधिज्ञानी ही जानते और देखते हैं।
परमाणु-परमाणु के बीच ऐसी कोई भेद-रेखा नहीं है कि एक परमाणु दूसरे परमाणु रूप न हो सके । कोई भी परमाणु कालान्तर में किसी भी परमाणु के सदृश-विसदृश हो सकता है । आधुनिक विज्ञान की भी यही मान्यता हो गई है । वर्ण, गन्ध आदि गुणों से सब परमाणु सदृश नहीं रहते हैं। उनके गुणों में परिवर्तन होते रहने अथवा गुणों की तरतमता से परमाणु के अनन्त भेद हो जाते हैं । जैसे कि विश्व में जितने कृष्ण वर्ण परमाणु हैं, वे सब समान अंशों में काले नहीं हैं । एक परमाणु एक गुणांश वाला है तो दूसरा दो गुणांश वाला । गन्ध, रस, स्पर्श आदि को लेकर भी इसी प्रकार एक से अनन्त गुणांश पर्यन्त अन्तर रहता है और यह गुणांशान्तर शाश्वत नहीं है, उसमें परिवर्तन होता रहता है । यहाँ तक कि एक गुण रूक्ष परमाणु कालान्तर में अनन्त गुण रूक्ष हो सकता है तथा अनन्त गुण रूक्ष परमाणु एक गुण वाला। परमाणु की इस परिणमनशीलता के लिए शास्त्रों में षड्गुणी-हानिवृद्धि शब्द का उपयोग किया है और यह हानि-वृद्धि स्वाभाविक होती है ।
परमाणु जड़, अचेतन होता हुआ भी गतिधर्म वाला है । उसकी गति अन्य पुद्गल प्रेरित भी होती है और अप्रेरित भी। वह सर्वदा गतिमान रहता हो, गति करता रहता हो, ऐसी भी बात नहीं है, किन्तु कमी करता है और कभी नहीं करता है । यह अगतिमान निष्क्रिय परमाणु कब गति करेगा, यह अनिश्चित है, इसी प्रकार सक्रिय परमाणु कब गति और क्रिया बन्द कर देगा, यह भी अनियत है। वह एक समय से लेकर आवली के असंख्यातवें भाग समय में किसी समय भी गति व क्रिया बन्द कर सकता है किन्तु आवली के असंख्यात भाग उपरान्त वह निश्चित ही गति व क्रिया प्रारम्भ करेगा।
परमाणु की स्वाभाविक गति सरल रेखा में होती है। गति में वक्रता तभी आती है, जब अन्य पुद्गल का सहकार होता है । परमाणु अपनी तीव्रतम उत्कृष्ट गति से एक समय में चौदह राजू प्रमाण ऊँचे लोक के पूर्व चरमान्त से पश्चिम चरमान्त, उत्तर चरमान्त से दक्षिण चरमान्त तथा अधोचरमान्त से ऊर्ध्व-चरमान्त तक पहुँच सकता है । इसी प्रकार परमाण की तीव्रतम गति के समान अल्पतम गति के लिए शास्त्रों में बताया है कि वह कम से कम गति करता हआ एक समय में आकाश के एक प्रदेश से अपने निकटवर्ती दूसरे प्रदेश में जा सकता है। यह प्रदेश भी उतना ही छोटा है, जितना कि एक परमाणु । अर्थात् प्रदेश उसे कहते हैं जितने स्थान को एक परमाणु अपने अवस्थान द्वारा रोकता है।
उक्त कथन में समय ओर राज का अर्थ ज्ञातव्य है। यह दोनों जैन पारिभाषिक शब्द हैं। उनमें से समय काल का चरम अंश है। स्थूल रूप से हम उसे इस प्रकार समझ सकते हैं कि हमारी आँखों के पलक को एक बार उठने और गिरने मात्र में असंख्य समय व्यतीत हो जाते हैं। उन असंख्य समयों में से एक अंश में परमाणु लोक के अधोचरमान्त से ऊर्ध्वचरमान्त तक चला जाता है। राज के बारे में बताया गया है कि कोई देव हजार मन के लोहे के गोले को हाथ में उठाकर अनन्त आकाश में छोड़ दे और वह गोला छह महीने तक अध:पतित होता जाये तो उस अवधि में जितने आकाश देश का अवगाहन करता है, वह एक राजू है । ऐसे चौदह राजुओं की ऊँचाई वाला यह लोक है । अतः एक समय में लोक के इस छोर से उस छोर तक पहुंचने वाले परमाणु की तीव्रतम गति का इससे अनुमान लगाया जा सकता है।
परमाणु में जीव निमित्तक कोई क्रिया, गति नहीं हो सकती है। इसका कारण यह है कि परमाणु जीव द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता है तथा पुद्गल को ग्रहण किये बिना पुद्गल में परिणमन कराने की जीव में शक्ति नहीं है।
परमाणु अप्रतिघाती है । अर्थात् वह अपने अवस्थान से न तो किसी को रोकता है और न स्वयं रुकता है । उसकी अव्याहत, प्रतिघात रहित गति होती है । पर्वत, वज्र आदि कोई भी उसकी गति में रुकावट नहीं डाल सकते हैं । परमाणु में सूक्ष्मपरिणामावगाहन की विलक्षण शक्ति है। अतएव जिस आकाश प्रदेश में एक परमाणु स्थित है, उसी आकाश प्रदेश में दूसरा परमाणु भी स्वतन्त्रतापूर्वक रह सकता है और उसी आकाश प्रदेश में अनन्त प्रदेशी स्कन्ध भी ठहर जाता है । यह सब सूक्ष्मपरिणामावगाहन शक्ति के कारण सम्भव होता है।
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा परमाणु की सप्रदेशिता और अप्रदेशिता का विचार किया जाये तो परमाणु द्रव्य की अपेक्षा अप्रदेशी है और क्षेत्र की अपेक्षा तो नियमतः अप्रदेशी है अर्थात् एक आकाश प्रदेश का ही अवगाहन करता है, काल की अपेक्षा कदाचित् अप्रदेशी और कदाचित् सप्रदेशी है। यानी एक समय की स्थिति वाला होने से अप्रदेशी और अनेक समय की स्थिति वाला भी होने से सप्रदेशी है। भाव की अपेक्षा कदाचित अप्रदेशी और कदाचित सप्रदेशी है, यानी एक अंश गुण वाला भी होता है और अनेक अंश गुण वाला भी । परमाणु की सूक्ष्मता, अभेदता आदि को इस प्रकार समझा जा सकता है कि परमाणु तलवार आदि की धार पर रह सकता है और वहाँ अवस्थित उस परमाणु का खेदन-भेदन नहीं होता है, अग्नि के मध्य में प्रविष्ट होकर भी जलता नहीं है। पुष्कर संवर्तक नामक महामेघ के मध्य भी प्रविष्ट होकर गीला नहीं होता है तथा गंगा नदी के प्रतिस्रोत प्रवाह में प्रविष्ट होकर भी प्रतिस्खलित नहीं होता है और उदगार्वत या उदक् (पानी) बिन्दु में प्रविष्ट होकर भी नष्ट नहीं होता है।
पुद्गल के सम्बन्ध में जैन दार्शनिक पक्ष की संक्षेप में मीमांसा करने के पश्चात् अब वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं।
अनादिकाल से विश्व को पहचानने के प्रयत्न हो रहे हैं। मानव मस्तिष्क में जिज्ञासा हुई कि यह जगत किन तत्त्वों से निर्मित होता है ? इन तत्त्वों का प्रारम्भ और प्रलय कैसे होता है ? इसी जिज्ञासा के आधार से अनेक दर्शनों का जन्म हुआ । विज्ञान की धारा भी इसी ओर गतिशील है । दर्शनों ने अपनी जिज्ञासा के समाधान के लिए जड़ और चेतन इन दो पदार्थों को केन्द्रबिन्दु बनाया लेकिन विज्ञान के विकास का आधार भौतिक पदार्थ हैं। पहले जिज्ञासा हुई कि इस दृश्यमान जगत में असंख्य प्रकार के पार्थिव पदार्थ भरे पड़े हैं, उन पदार्थों का उपादान कारण क्या है ? और इसके समाधान के लिए पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पाँच भूतों की कल्पना उठी और अपने-अपने दृष्टिकोण से वैज्ञानिकों ने उनमें से प्रत्येक को अलग कारण बताया । लेकिन अन्त में इस निष्कर्ष पर प तत्त्व तो इन पंच भूतों से अतिरिक्त और कोई दूसरा पदार्थ है। ये भूत तो उसके संमिश्रण का परिणाम हैं।
इसी चिन्तन के फलस्वरूप विज्ञान के क्षेत्र में परमाणु का प्रवेश हुआ और यह माना जाता है कि परमाणुवाद यूनान की देन है। डेमोक्रेट्स पहला व्यक्ति था, जिसने कहा था-यह संसार शून्य आकाश और अदृश्य, अविभाज्य अनन्त परमाणुओं की एक इकाई है । दृश्य और अदृश्य सभी संगठन परमाणुओं के संयोग और वियोग के ही परिणाम हैं । परमाणु सम्बन्धी उसकी धारणा इस प्रकार है-
(१) पदार्थ (Matter) संसार में एकाकार नहीं किन्तु विभक्त व्याप्त है। (२) संसारव्यापी समस्त पदार्थपिंड ठोस परमाणुओं से निर्मित हैं। वे परमाणु विस्तृत आकाशन्तर से पृथक् हैं। प्रत्येक परमाणु एक स्वतन्त्र इकाई है। (३) परमाणु अच्छेद्य, अभेद्य और अविनाशी हैं । वे पूर्ण और सदैव शुद्ध, नवीन और निर्मल हैं जैसे कि संसार की शुरुआत में थे। (४) प्रत्येक परमाण में आकार, लम्बाई, चौड़ाई और वजन को लेकर पृथकता होती है। (५) परमाणुओं के प्रकार संख्यात हैं, किन्तु उनमें से प्रत्येक प्रकार के परमाणु अनन्त हैं। (६) पदार्थों के गुण परमाणुओं के स्वभाव , संविधान अर्थात् कौन से परमाणु किस प्रकार से संयुक्त हुए हैं, पर निर्भर हैं। (७) परमाणु निरन्तर गतिशील हैं।
डेमोक्रेट्स के समय से लेकर वर्तमान समय तक परमाणु के बारे में अन्वेषण का क्रम चालू है और इससे नये तथ्य भी सामने आये हैं, जिनका उल्लेख आगे किया जा रहा है, लेकिन वैज्ञानिकों की दृष्टि में अब तक वह परमाणु अच्छेद्य, अभेद्य और न्यूनतम ही बना रहा है । उसके चरम अंश की प्राप्ति नहीं की जा सकी है जैसा जैनदर्शन में बताया गया है।
जैनदर्शन में तो परमाणु को सूक्ष्मतम बताया है और विज्ञान भी उसे सूक्ष्म मानता है और उसके परमाणु की सूक्ष्मता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि पचास शंख परमाणुओं का वजन केवल ढाई तोले के लगभग होता है और व्यास एक इंच का दस करोड़वाँ हिस्सा है। सिगरेट लपेटने के पतले कागज अथवा पतंगी कागज की मोटाई में एक से एक सटाकर परमाणुओं को रखा जाये तो एक लाख परमाणु आ जायेंगे। सोडा वाटर को गिलास में डालने पर जो छोटी-छोटी बूंदें निकलती हैं, उनमें से एक के परमाणुओं को गिनने के लिए संसार के तीन अरब व्यक्तियों को लगाया जाये और वे निरन्तर बिना खाये, पीये, सोये लगातार प्रति मिनट तीन सौ की चाल से गिनते जायें तो उस लघुतम बूंद के परमाणुओं की समस्त संख्या को गिनने में चार माह लग जायेंगे।
जैसा कि ऊपर बताया गया है कि वैज्ञानिकों ने पहले तो पृथ्वी आदि पंच भूतों को सृष्टि का मूल कारण माना और उसके बाद वे उक्त निर्णय में भी परिवर्तन करने के लिए विवश हुए। इसका कारण यह था कि जब रसायन के क्षेत्र में लोहे या तांबे को सोना बनाने की होड़ लगी तो निश्चय हुआ कि पंचभूत मूल तत्त्व ही नहीं हैं। मूल तत्त्व तो इनसे अतिरिक्त और पदार्थ हैं। फिर भी मूल तत्त्व की शोध के आधार पंचभूत ही रहे।
पंचभूतों में वायु भी एक तत्त्व था, लेकिन उसमें भार नहीं माना जाता था। वोयल ने अपने अनुसन्धान से पहले पहल बताया कि उसमें भार है । उस समय तक विभिन्न स्वभाववाली गैसों का आविष्कार हो चुका था, किन्तु वे वायु का ही प्रकार मानी जाती थीं। कार्बनडाई आक्साइड का पता पहले पहल इंगलैंड निवासी ब्लैक ने सन् १७५५ में लगाया और इसका नाम स्थिरवायु रखा। अनन्तर आक्सीजन (प्राण वायु) की खोज बीस्टली ने की और कहा कि आग को जलाने एवं प्राणधारियों को श्वास लेने के लिये इसकी आवश्यकता होती है। हेन्डीक वेडिन्स ने पानी पर अन्वेषण करके उसे आक्सीजन और हाइड्रोजन के मिश्रण का परिणाम सिद्ध किया कि पानी का स्कन्ध (सूक्ष्मातिसूक्ष्म कण) हाइड्रोजन के दो परमाणु और आक्सीजन के एक परमाणु से मिलकर बना है। इससे पानी को मूल द्रव्य मानने की धारणा का अंत हुआ।
इन अन्वेषणों में हाइड्रोजन के परमाणु को सबसे छोटा देखकर पहले समझा गया कि यह सब तत्त्वों का मूल है। लेकिन हाइड्रोजन के परमाणु को भी जब बारीकी से तौल गया तो स्पष्ट हो गया कि वह भी सभी पदार्थों का मूल तत्त्व नहीं हो सकता है । वह भी मिश्रित है और मौलिक द्रव्य की परिभाषा यह मानी गई थी कि वह किसी भी संमिश्रण का परिणाम न हो। इस प्रकार पांच भूतों से प्रारम्भ हुई मौलिक तत्त्वों की संख्या पहले उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक ३० हो गई और आज तो बढ़ते-बढ़ते १०३ तक पहुंच गई है।
सन् १८११ तक अणु ही सबसे सूक्ष्म तत्त्व समझा जाता रहा । इसके बाद वैज्ञानिक अवोगद्रा ने खोजकर अणु से परमाणु को अलग किया और वह सूक्ष्म अवयव माना जाता रहा। इसके बाद सन् १८९७ में सर जे. जे. टामसन ने परमाणु के अन्वेषण के समय एक और टुकड़ा पाया जो छोटे से हाइड्रोजन परमाणु से भी अत्यन्त छोटा था जिसे इलेक्ट्रोन कहा जाता है। उसने अणु के बारे में अभी तक की सभी मान्यताओं को बदल दिया तथा. आदि मूलभूत तत्त्व एक नये रूप में ही पहचाने जाने लगे।
टामसन के शिष्य सदरफोर्ड ने परमाणु के भीतरी ढांचे के बारे में बहुत-सी महत्वपूर्ण शोधे की। जिनसे ज्ञात हुआ कि परमाणु के नाम से ज्ञात छोटे से छोटे अणु के अन्दर सौर परिवार का एक नया संसार ही बसा हआ है।
प्रत्येक परमाण के अनेक कण हैं। उनमें से कुछ केन्द्र में स्थित हैं और कुछ उस केन्द्र की नाना कक्षाओं में निरन्तर अत्यन्त तीव्र गति से परिभ्रमण करते रहते हैं जैसे कि सूर्य के चारों ओर मंगल आदि ग्रह । केन्द्रस्थ कणों में धन विद्य त है और परिभ्रमणशील कणों में ऋण विद्युत और उन समस्त परमाणुओं को १०३ मौलिक भेदों में इसलिये बांटा गया कि उनकी संघटना में ऋणाणुओं और धनाणुओं का क्रमिक अन्तर रहता है।
ऊपर के उल्लेख से यह स्पष्ट होता है कि वैज्ञानिक मान्य मौलिक तत्त्वों में पहला तत्त्व हाइड्रोजन है । इसमें एक धनाणु (Proton प्रोटोन) और एक ऋणाणु (Electron इलेक्ट्रोन) होता है। धन बिजली का कार्य किसी पदार्थ को अपनी ओर खींचना है और ऋण बिजली पदार्थ को दूर फैकती है । इन दोनों विरोधी कणों का परिणाम हाइड्रोजन अणु है । किन्तु दोनों प्रकार की विद्यु त समान होने पर हाइड्रोजन का परमाणु न ऋणात्मक है और न धनात्मक है अपितु तटस्थ स्वभाव वाला है।
हाइड्रोजन के बाद दूसरे नम्बर के तत्व का नाम हेलियम है। उसके केन्द्र में दो प्रोटोन और दो इलेक्ट्रोन होते हैं । जो निरन्तर अपने नाभिकण की परिक्रमा करते हैं। इसी प्रकार तीसरे-चौथे, लिकियम, बेरिलियम आदि में क्रमशः एक-एक बढ़ते हुए अणु केन्द्र और कक्षागत हैं। सबसे अन्तिम तत्त्व यूरेनियम में ९२ प्रोटोन नाभिकण में और उतने ही इलेक्ट्रोन विभिन्न कक्षाओं में अपने केन्द्र की परिक्रमा करते हैं। लेकिन हाइड्रोजन परमाणु में एक ही इलेक्ट्रोन है, जिससे कक्षा भी एक है । अन्य परमाणुओं में सभी प्रोट्रोन एकीभूत होकर नाभिकण का रूप ले लेते हैं और इलेक्ट्रोन अनेक टोलियों में सुनिश्चित कक्षायें बनाकर घूमते रहते हैं।
प्रोटोन (धनाणु) भी स्वयं अपने आप में स्वतन्त्र कण न होकर न्यूट्रोन और पोजीट्रोन का सांयोगिक परिणाम है, न्यूट्रोन यानी जिसमें न तो इलेक्ट्रोन की ऋणात्मक बिजली है और न प्रोट्रोन की धनात्मक । अर्थात् यह तटस्थ है । पोजीट्रोन में बिजली की मात्रा तो प्रोटोन के समान ही रहती है, भूतमात्रा इलेक्ट्रोन के बराबर ।
इस प्रकार आधुनिक पदार्थ विज्ञान ब्रह्माण्ड के उपादान की खोज में अणु अणुगुच्छकों, परमाणु में भटका और अब उसकी यात्रा इलेक्ट्रोन, न्यूट्रोन, पोजीट्रोन की ओर हो रही है। लेकिन इस अन्वेषण का परिणाम अब यह आया कि वैज्ञानिक यह कहने का साहस नहीं कर पा रहे हैं कि हम सूक्ष्मतम उपादान तक पहुँच गये हैं । उनका विश्वास बार-बार बदल रहा है कि कहीं इलेक्ट्रोन आदि सूक्ष्म कणों के अन्दर कोई दूसरा सौर परिवार न निकल आये।
जैन दर्शन मान्य परमाणु की अधिकतम और न्यूनतम गति का पूर्व उल्लेख किया गया है कि वह एक समय में कम से कम आकाश के एक प्रदेश से प्रदेशान्तर में गमन, अवगाहन कर सकता है और अधिक से अधिक चतुर्दश रज्ज्वात्मक लोक में। इस न्यूनतम और अधिकतम दो गतियों का उल्लेख कर देने से मध्य की सारी गतियां वह यथाप्रसंग करता रहता है । आधुनिक विज्ञान ने भी अणु परमाणु की ऐसी गतियों को पकड़ लिया है जो साधारण मनुष्य की कल्पना से परे हैं। विज्ञान कहता है कि प्रत्येक इलेक्ट्रोन अपनी कक्षा पर प्रति सेकिण्ड १३०० मील की रफ्तार से गति करता है। गैस और उसी प्रकार के पदार्थों को अणुओं का कंपन इतना शीघ्र होता है कि प्रति सेकिण्ड छह अरब बार टकरा जाता है, जबकि दो अणुओं के बीच का स्थान एक इंच का तीस लाखवाँ हिस्सा है। प्रकाश की गति प्रति सेकिण्ड १,८६,००० मील है। हीरे आदि ठोस पदार्थों में अणओं की गति ९६० मील है।
इस प्रकार जैनदर्शन और विज्ञान, अणु-परमाणु को. गतिशील मानने तक तो एक मत है कि परमाणु गति करता है। लेकिन गति के बारे में दोनों में जहाँ साधर्म्य है वहाँ वैधयं भी है । विज्ञान के अनुसार इलेक्ट्रोन सबसे छोटा कण है और उसकी गति गोलाकार में है और जैनदर्शन के अनुसार परमाणु की स्वाभाविक गति आकाश प्रदेशों के अनुसार सरल रेखा में है और वैभाविक गति वक्र रेखा में।
जैनदर्शन में बताया है कि परमाणु में सूक्ष्म परिणामावगाहन शक्ति है । जिससे थोड़े से परमाणु एक विस्तृत आकाश खण्ड को घेर लेते हैं और कभी-कभी वे परमाणु घनीभूत होकर बहुत छोटे आकाश देश में समा जाते हैं और वे अनन्तानन्त परमाणु निर्विरोध रूप से उस एक आकाश प्रदेश में रह सकते हैं । पदार्थ की इस सूक्ष्मपरिणति के संबंध में यद्यपि वैज्ञानिकों की पहुँच अभी इस पराकाष्ठा तक नहीं हो सकी है, फिर भी परमाणु की सूक्ष्मपरिणति के बारे में होने वाले वैज्ञानिक प्रयोग जैनदर्शन के विचारों की पुष्टि कर रहे हैं । साधारणतया सोना, पारा, शीशा, प्लेटिनम आदि आदि भारी वजनदार पदार्थ माने जाते हैं । एक इंच के काष्ठ टुकड़े में और उतने ही बड़े लोहे के टुकड़े के भार में कितना अन्तर है ? यह स्पष्ट है । जिसका कारण परमाणुओं की सघनता, निविडता है। जितने आकाश खंड को उस काष्ठ के छोटे से परमाणुओं ने घेरा, उतने ही आकाश खंड में अधिकाधिक परमाणु एकत्रित होकर खनिज पदार्थों, सोना, चाँदी आदि के रूप में रह सकते हैं। इसी तरह अन्य सधन ठोस पदार्थों के बारे में जाना जा सकता है जो अपनी सघनता से एक छोटे से आकाश खंड में रहते हैं और उनके भार को उठाने के लिये बड़े-बड़े क्रेन भी असफल, अक्षम हो जायें तथा एक छोटा-सा ढेला ऊपर से गिरकर बड़े-बड़े भवनों को भी तोड़ सकता है।
जैनदर्शन के अनुसार एक छोटा-सा बालुकण अनन्त परमाणुओं का पिंड है, जिसे स्कन्ध कहते हैं, छोटे से छोटा स्कन्ध दो परमाणुओं का होता है । आँखों से दिखने वाले पदार्थ तो अनन्त प्रदेशात्मक हैं और स्कन्ध के तोड़ने से भी स्कन्ध बनते जाते हैं। लेकिन परमाण के बारे में यह नियम स्थिति लागू नहीं होती है। क्योंकि परमाण अनुत्तर परम अणु है जिसे अलग नहीं किया जा सकता है यानी परमाणु को कभी भी परमाणु से पृथक् नहीं किया जा सकता है। वह स्वयं अपना आदि, मध्य और अन्त है। यही धारणा अब विज्ञान की भी बनती जा रही है। विज्ञान के क्षेत्र में भी अब यही चर्चा होने लगी है। प्रो. अन्ड्रेड ने कहा है कि एक औंस पानी में इतने स्कन्ध हैं जिनको गिनने के लिये संसार के सभी मनुष्य लग जायें और प्रति सेकिन्ड पांच की गति से दिन-रात गिनते जायें तो उनका यह गिनती का कार्य चालीस लाख वर्षों में पूरा हो सकेगा। यही अनुमान हबा के बारे में लगाया गया है कि एक इंच लम्बी, एक इंच चौड़ी और एक इंच ऊँची डिबिया में समा जाने वाली हवा में ४४२४ के ऊपर १७ शून्य रखे जायें तो उस संख्या के बराबर स्कन्ध उसमें हैं। जब इनमें (पानी और हवा में) इतने स्कन्ध हैं तो परमाणुओं की संख्या का तो अनुमान ही नहीं लगाया जा सकता है । इस प्रकार पुद्गल व पदार्थ की सूक्ष्मता और सघनता के दोनों पक्षों (दर्शन व विज्ञान) में और भी अनेक उदाहरण मिलते हैं । परमाणु की जनदर्शन मान्य सूक्ष्मता और सघनता का तो पूर्व में स्पष्ट उल्लेख किया जा चुका है।
जैन शास्त्रों में परमाणु के दो भेद बतलाये हैं--परमाणु और व्यवहार परमाणु । अविभाज्य सूक्ष्मतम अणु परमाणु है और सूक्ष्म स्कन्ध जो इन्द्रिय व्यवहार में सूक्ष्मतम लगते हैं, वे व्यवहार परमाणु हैं जिनको ऊर्ध्वरेणु, त्रसरेणु, रथ-रेण आदि शब्दों से कहा गया है। विज्ञान के क्षेत्र में भी अब ऐसे व्यवहार प्रचलित हो गये हैं कि जिसे परमाणु माना गया है, वह तो परम अणु नहीं है किन्तु व्यवहार से उस अणु की पहिचान परमाणु शब्द से होती है। जैनदर्शन की दृष्टि में इलेक्ट्रोन आदि अन्य कण भी व्यवहार परमाणु हैं, यथार्थ परमाणु नहीं हैं। जैनदर्शन में पुद्गल के स्थूल-स्थूल (अति स्थूल) आदि छह भेद बताये हैं। जिनकी व्याख्या का पू र्व में संकेत किया गया है। विज्ञान ने भी पदार्थ को ठोस, तरल और वाष्प इन तीन भेदों में बाँटा है। ये तीनों भेद जैनदर्शन के छह भदों में से क्रमशः प्रथम अतिस्थूल, द्वितीय स्थूल और चतुर्थ सूक्ष्म-स्थूल भेद में समाविष्ट हो जाते हैं। दार्शनिकों की दृष्टि में ठोस (अति स्थूल) आदि तीन भेदों के अतिरिक्त और भी पदार्थ थे, इसीलिये उन्होंने पदार्थ के छह भेद किये । अणु विखण्डन के पश्चात् जो विभिन्न प्रकार के पदार्थ कण सामने आये तो वैज्ञानिकों के तीन भेद भी अब केवल कहने मात्र के लिये रह गये हैं । वैज्ञानिक इस बात को स्वीकार करते हैं और उनको किस नाम से कहा जाये ? विचारणीय है।
डेमोक्रेट्रस की परमाणु सम्बन्धी मान्यताओं में बताया गया है कि प्रत्येक परमाणु स्वतन्त्र इकाई है। जबकि जनदर्शन का मत है कि प्रत्येक परमाणु अपने गुण, पर्यायों को रूपान्तरित कर सकता है। अब यही बात वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार करली है । सन् १९४१ में वैज्ञानिक बेंजामिन ने पारे को सोने के रूप में परिवर्तित किया । पारे के अणु का भार दो सौ अंश होता है । उसे एक अंश भार वाले विद्युत प्रोटोन से विस्फोटित किया गया जिससे प्रोटोन पारे में घुलमिल गया तब उसका भार २०१ अंश हो जाना चाहिये था। लेकिन उस मिले हुए अणु की मूल धूलि में से एक अल्फा बिंदु जिसका भार चार अंश था, स्वतः निकल भागा। परिणामतः पारे का भार २०१ अंश से घटकर १६७ अंश का हो गया। इस १६७ अंश भार का ही तो सोना होता है। इसी तरह सन् १९५३ में प्लेटिनम को सोने में परिवर्तित करने में सफलता मिली। इन प्रयोगों से यह सिद्ध हो जाता है कि विज्ञान मान्य मूल द्रव्यों में परिवर्तन न होने की बात उड़ान रह गई है। विज्ञान जनदर्शन के मत की ओर अग्रसर हो रहा है कि परमाणु अपने गुण-पर्यायों को रूपान्तरित कर सकता है, उसके गुण-पर्यायों में परिवर्तन होता है।
ऊपर दर्शन और विज्ञान के परमाणु को संक्षिप्त जानकारी दी है। जिसकी समीक्षा का सारांश नीचे लिखे अनुसार है
जैनदर्शन में परमाणु की व्याख्या करते हुए अनेक बातों विशेषताओं का विश्लेषण करते हुए कहा है कि परमाणु पुद्गल अविभाज्य, अच्छेद्य, अभेद्य, अदाह्य और अग्राह्य है । उसकी गति अप्रतिहत है । वह अनर्घ, अमध्य, अप्रदेशी है आदि और डेमोक्रेट्स ने भी परमाणु की जो परिभाषा बताई है उसमें कहा गया है-परमाणु अच्छेद्य, अभेद्य और अविनाशी है । वे पूर्ण हैं और ताजे (नये) हैं, जैसे कि संसार की आदि में थे।
उक्त दोनों व्याख्याओं में कुछ समानता है और भावाभिव्यक्ति के लिये शाब्दिक प्रयोग भी समान हैं लेकिन डेमोक्रेट्स का माना गया अच्छेद्य, अभेद्य परमाणु आज खंडित हो चुका है। उसमें पहले इलेक्ट्रोन और प्रोटोन का पता चला और विकास विश्लेषण के साथ अब प्रोटोन भी एक शाश्वत इकाई नहीं रहा । उसमें से न्यूट्रोन और पोजीट्रोन जैसे कण एक इकाई के रूप में निकल पड़े हैं। इसी तरह की प्रक्रिया आगे भी चालू है, जिससे यह दावा नहीं किया जा सकता है कि वास्तव में परमाणु किसे कहा जाये ? चरम परम कौन है ?
विज्ञान मान्य परमाणु के अन्दर जितने भी कण हैं, वे जैनदर्शन की परिभाषा के अनुसार परमाणु कहलाने की क्षमता वाले नहीं है, उन्हें परमाणु नहीं कहा जा सकता है । क्योंकि उसके अनुसार तो वे आज तक खोजे गये सूक्ष्म कण असंख्य और अनन्त प्रदेशात्मक हैं। जिससे उन्हें परमाणु की बजाय स्कन्ध कहना चाहिये। यह केवल एक कल्पना की बात है कि अब इलेक्ट्रोन आदि कणों के विखंडित होने की संभावना नहीं है । यही बात पहले अणु को लेकर भी कही जाती थी, लेकिन उसे भी स्वयं वैज्ञानिकों ने खंडित करके अपने निर्णय को बदल दिया। इस प्रक्रिया का परिणाम, यह अवश्य हुआ कि प्रकृति ने अपने रहस्य को मनुष्य के समक्ष आंशिक रूप में उद्घाटित किया है, लेकिन भविष्य में क्या रूप बनेगा ? प्रकृति अपने अन्तर में न जाने कैसे-कैसे रहस्य छिपाये हुए है ? यह अभी नहीं कहा जा सकता है। अतीन्द्रिय प्रेक्षकों ने जिस परमाणु का दर्शन कराया है, वहाँ तक मनुष्य अपनी क्षमता से पहुँच सकेगा, यह संभव नहीं है।
जैनदर्शन मान्य स्कन्ध की परिभाषा को पूर्व में बताया गया है कि दो से लेकर यावत् अनन्त परमाणुओं का एकीभाव स्कन्ध है। यह स्कन्ध विभिन्न परमाणुओं के एक, संघातित होने से बनता है, वैसे ही विविध स्कन्धों का एक होना व एक स्कन्ध का एक से अधिक खंडों में परमाणु रूप इकाई न आने तक टूटने का परिणाम भी एक स्वतन्त्र स्कन्ध है।
दर्शन की तरह विज्ञान में भी स्कंध की चर्चा है। वहां बताया गया है कि पदार्थ स्कन्धों से निर्मित है । वे स्कन्ध गैस आदि पदार्थों में बहुत तीव्रता से सभी दिशाओं में गति करते हैं। सिद्धान्ततः स्कन्ध वह है कि एक चाक का टुकड़ा जिसके दो टुकड़े किये जायें और फिर दो के चार, इसी क्रम से असंख्य तक करते जायें जब तक कि वह चाक चाक के रूप में रहे तो उसका वह सूक्ष्मतम विभाग स्कन्ध कहलायेगा। इसका कारण यह है कि किसी भी पदार्थ के हम टुकड़े करते जायेंगे तो एक रेखा ऐसी आ जायेगी, जहां से वह पदार्थ अपनी मौलिकता खोये बिना नहीं टूट सकेगा अतः उस पदार्थ का मूल रूप स्थिर रखते हुए उसका जो अन्तिम टुकड़ा है, वह एक स्कन्ध है ।
जैनदर्शन और विज्ञान कृत स्कन्ध की व्याख्या में कुछ समानता है तो कुछ असमानता भी है। जनदर्शन ने पदार्थ की एक इकाई को एक स्कन्ध माना है । जैसे घड़ा, मेज, कुर्सी आदि । घड़े के दो टुकड़े हो गये तो दो स्कन्ध, इसी तरह दस, बीस आदि हजार टुकड़े हो जायें तो वे सब स्कन्ध ही हैं। यदि उसको पीसकर चूर्ण कर लिया तो एक एक कण एक-एक स्कन्ध है। जबकि विज्ञान में पदार्थ का मूल रूप स्थिर रखते हुए उसका अन्तिम टुकड़ा यानी एक अणु ही स्कन्ध है, जिसे यदि फिर तोड़ा जाये तो वह अपने रूप को खोकर अन्य पदार्थ जाति में परिणत हो जायेगा। जनदर्शन की दृष्टि से वह अन्तिम अणु स्कन्ध तो है ही किन्तु पदार्थ स्वरूप के बदलने की अपेक्षा न रखते हुए वह जब तक तोड़ा जा सकता है अर्थात् जब तक परमाणु के रूप में परिणत नहीं हो जाता तब तक वह स्कन्ध है और उसके सह धर्मी जितने भी टुकड़े हैं, वे भी स्कन्ध हैं । परमाणु रूप अवस्था को प्राप्त होने के पूर्व तक पदार्थ के सभी अंश स्कन्ध कहलायेंगे ।
जैनदर्शन में स्कन्ध निर्माण की प्रक्रिया का एक ही सिद्धांत कि अनेक परमाणु परस्पर मिलकर जो एक इकाई बनते हैं, उसका हेतु उन परमाणुओं का स्निग्धत्व व रूक्षत्व स्वभाव है । जघन्य गुण यानी एक अंश वाले स्निग्ध व रूक्ष परमाणु तो अवश्य ही संश्लिष्ट होकर स्कन्ध नहीं बनते हैं, लेकिन इसके अतिरिक्त दो आदि यावत् अनन्त गुणांशों वाले समान या असमान परमाणु संश्लिष्ट होने से स्कन्ध रूप हो जाते हैं । इस प्रकार जैसे जैनदर्शन में स्निग्धत्व और रूक्षत्व को बन्धन का कारण माना है, वैसे ही वैज्ञानिकों ने पदार्थ के धन विद्युत और ऋण विद्य त इन दो स्वभावों को बन्धन का कारण कहा है। जैनदर्शन के अनुसार स्निग्धत्व और रूक्षत्व परमाणु मात्र में मिलता है और विज्ञान के अनुसार धन व ऋण विद्य त पदार्थ मात्र में पाई जाती है। इससे प्रतीत होता है कि जैनदर्शन और विज्ञान में शाब्दिक भेद से एक ही बात कही गई है। जैनदर्शन ने रूक्षत्व और स्निग्धत्व के नाम से तथा वैज्ञानिकों ने धन विद्युत और ऋण विधु त के नाम से पदार्थों में दो धर्मों को कहा है। सर्वार्थसिद्धि अध्याय ५ सूत्र ३४ में विद्य त के विषय में बताया है कि 'स्निग्धरूक्षगुणनिमित्तो विद्युतः' अर्थात् आकाश में चमकने वाली विद्य त परमाणुओं के स्निग्ध और रूक्ष गुणों का परिणाम है, तन्निमित्त क है। इसका स्पष्ट आशय यह हुआ कि स्निग्धत्व और रूक्षत्व इन दो गुणों से धन और ऋण विद्युत उत्पन्न होती है। यानी स्निग्धत्व और रूक्षत्व आणविक बन्धनों के कारण हैं या धन और ऋण दो प्रकार के विद्य त स्वभाव के।
इसी प्रकार जब हम विज्ञान के बन्धनों के प्रकारों का अध्ययन करते हैं तब वहाँ भी जैनदर्शन के विचारों से समानता मिलती है । विज्ञान ने भी भारी ऋणाणु की भविष्य वाणी की है जो साधारण ऋणाणुओं से पचास गुना भारी होता है और वह ऋणाणुओं के समुदाय का परिणाम ही होता है । इसलिये उसे नेगेट्रोन कहते हैं । क्योंकि उसमें केवल निषेध विद्युत ही पाई जाती है । इस प्रकार के परमाणु जब पूर्णरूपेण प्रगट हो जायेंगे तो आशा है कि वे रूक्ष के साथ रूक्ष के बन्ध को भी चरितार्थ कर देंगे जैसा कि जैनदर्शन में माना गया है । इस नियम से प्रोटोन स्निग्ध के साथ स्निग्ध के, तथा न्यूट्रोन रूक्ष और रूक्ष के बन्ध के उदाहरण बन सकते हैं । आधुनिक परमाणु का बीजाणु भी जो ऋणाणुओं तथा धनाणुओं का समुदाय मात्र है, स्निग्ध और रूक्ष बन्ध का उदाहरण बनता है । डा० बी. एल. शील ने अपनी पुस्तक 'पोजिटिव साइन्स आफ एन्सिएन्ट हिन्दूज' में स्पष्ट लिखा है कि जैनदर्शनकार इस बात से भलीभाँति परिचित थे कि पोजिटिव और निगेटिव विद्य त कणों के मेल से विद्युत की उत्पत्ति होती है।
जैनदर्शन में जैसे शब्द, अंधकार, छाया, प्रकाश, आतप, उद्योत आदि की पोद्गलिकता सिद्ध की गई है, वैसे ही विज्ञान भी इनके बारे में अधिकांशतया समान मत रखता है। यदि उनमें कहीं अंतर है तो उसका कारण वैज्ञानिक प्रयोगों की सीमा है। पदार्थ की उत्पत्ति, विनाश और स्थिति के बारे में विज्ञान का मत बनता जा रहा है कि शक्ति अविनाशी एवं शाश्वत है, वह नष्ट न होकर दूसरा रूप ले लेती है, किन्तु उस परिवर्तन में शक्ति मात्रा ज्यों की त्यों स्थिर रहती है । विज्ञान की इसी बात को दर्शन के क्षेत्र में शक्ति (ध्रौव्य) परिवर्तन (उत्पत्ति, विनाश) इन तीन शब्दों में व्यक्त किया गया है।
जैनदर्शन और विज्ञान के पदार्थ विषयक विचार से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जैनदर्शन का परमाणु-विज्ञान और पदार्थदर्शन निश्चल और समग्र निरूपण है। आध्यात्मिक विषयों की तरह पदार्थ विज्ञान के बारे में भी इतने अनुपम अकाट्य विचार दिये हैं जिनका अनुसरण करके आधुनिक विज्ञान अपने ऋमिक आरोहण की स्थिति में एक के बाद दूसरे सोपान पर बढ़ रहा है। आज वैज्ञानिक मानने लगे हैं कि दार्शनिकों की परमाण सम्बन्धी धारणा के समक्ष विज्ञान की धारणा नगण्य है। जो सन् १९५६ में लंदन से प्रकाशित 'परमाणु और विश्व' नामक पुस्तक के लेखक पदार्थ विज्ञान के अधिकारी विद्वान वैज्ञानिक जी. ओ. जोन्स, जे. रोटबेल्ट और जे. जे. विटरो के विचारों से स्पष्ट हो जाता है । वे पुस्तक के पृष्ठ ४६ पर परमाणु के अंतर्गत मौलिक तत्वों की चर्चा करते हुए लिखते हैं-
"बहुत दिनों तक तीन ही तत्त्व-इलेक्ट्रोन, न्यूट्रोन और प्रोटोन-विश्व संघटना के मूलभूत आधार माने जाते थे। किन्तु वर्तमान में उनकी संख्या कम से कम १६ तक पहुंच गई है एवं तथाप्रकार के अन्य दूसरे तत्त्वों का अस्तित्व और भी सम्मिलित हो गया है।" मौलिक तत्त्वों का यह अप्रत्याशित बढ़ावा बहुत ही असंतोष का कारण है और सहज ही यह प्रश्न उठता है कि मौलिक तत्त्वों का हम सही अर्थ क्या लें? पहले अग्नि, पृथ्वी, हवा और पानी इन चार पदार्थों को मौलिक तत्त्वों की संज्ञा दी, इसके बाद सोचा गया कि प्रत्येक रासायनिक पदार्थ का मूलभूत अणु ही परमाणु है, उसके अनन्तर प्रोटोन, न्यूट्रोन और इलेक्ट्रोन इन तीन मूलभूत अणुओं की संख्या बीस तक पहुंच गई है। यह संख्या और भी आगे बढ़ सकती है । क्या वास्तव में ही पदार्थ के इतने टुकड़ों की आवश्यकता है या मूलभूत अणुओं का यह बढ़ावा पदार्थ मूल सम्बन्धी हमारे अज्ञान का ही सूचक है ?''सही बात तो यह है कि मौलिक अणु क्या है ? यह पहेली अभी तक सुलझ नहीं पाई है।"
उक्त उद्धरण से यह स्पष्ट हो गया है कि आज के यांत्रिक युग में परमाणु एक पहेली बना हुआ है । दर्शन और विज्ञान जगत के मूल उपादानों के अन्वेषण की ओर उन्मुख रहे हैं। प्रयोगशालाओं के बिना भी दार्शनिकों ने जो चिन्तन किया और उसके निष्कर्ष रूप में जो सिद्धान्त स्थापित किये, वे आज के उन विद्वान माने जाने वाले व्यक्तियों को चुनौती दे रहे हैं जो यह मानते थे कि अणुविज्ञान आधुनिक विज्ञान की देन है । दार्शनिक जगत के अणु का कल्पनाओं से प्रादुर्भाव हुआ था।
जैनदर्शन में आध्यात्मिक चिन्तन जिस सीमा तक पहुँचा हुआ है, उसी तरह पदार्थ चिन्तन भी। जिसका पूर्ण विश्लेषण समय और श्रम साध्य है । पृष्ठ मर्यादा के कारण प्रस्तुत निबन्ध में पुद्गल, स्कन्ध, परमाणु का सूचना रूप में ऊपरी तौर पर विहंगावलोकन किया है। प्रतिपाद्य विषय के बहुत से आयामों का स्पर्श भी नहीं किया गया है। लेकिन इसे महासागर में से एक बूंद को ग्रहण करने के लिए किये गये चंचुपात की तरह मानकर विशेष जानकारी की ओर जिज्ञासुजन अग्रसर होंगे, यही आकांक्षा है।