श्री भक्तामर विधान पूजा
-स्थापना-
अर्चन करो रे,
श्री आदिनाथ के चरण कमल का, अर्चन करो रे।
अर्चन करो, पूजन करो, वंदन करो रे,
श्री ऋषभदेव के चरण कमल मेंं, वन्दन करो रे।।
भक्त अमर भी जिन चरणों में, आकर शीश झुकाते हैं।
निज मुकुटों की मणियों से, अद्भुत प्रकाश पैâलाते हैं।।
युग के प्रथम जिनेश्वर की वे, पूजा करने आते हैं।
हम भी आह्वानन स्थापन, सन्निधिकरण रचाते हैं।
सन्निधिकरण रचाते हैं।
अर्चन करो रे,
श्री आदिनाथ के चरण कमल का, अर्चन करो रे।

ॐ ह्रीं भक्तामरस्वामिन् श्रीआदिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं भक्तामरस्वामिन् श्रीआदिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं भक्तामरस्वामिन् श्रीआदिनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।


-अथ अष्टक-
तर्ज-नाम तिहारा तारनहारा........
युग के प्रथम जिनेश्वर को हम, शत-शत वन्दन करते हैं।
भक्तामर के अधिनायक, प्रभु का हम अर्चन करते हैं।।
प्रभु के जन्म कल्याणक में, इन्द्रों ने न्हवन रचाया था।
क्षीरोदधि का पावन जल, जन्माभिषेक में आया था।।
पूजक के जन्मादि रोग भी, नाश प्रभू वे करते हैं।
भक्तामर के अधिनायक प्रभु, का हम अर्चन करते हैं।।१।।

ॐ ह्रीं भक्तामरस्वामिने श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।


दिव्य सुगंधित द्रव्यों से, शचि ने प्रभु को महकाया था।
उनकी अतुलित काया ने तो, सारा जग महकाया था।।
भव आताप शमन हेतू हम, गन्ध विलेपन करते हैं।
भक्तामर के अधिनायक प्रभु, का हम अर्चन करते हैं।।२।।

ॐ ह्रीं भक्तामरस्वामिने श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।


जग में रहकर जग के वैभव, में भव को नहिं बिता दिया।
नीलांजना का नृत्य देखते, ही मन में वैराग्य हुआ।।
अक्षय पद को प्राप्त प्रभू को, हम अक्षत से जजते हैं।
भक्तामर के अधिनायक प्रभु, का हम अर्चन करते हैं।।३।।

ॐ ह्रीं भक्तामरस्वामिने श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु के पद तल स्वर्णकमल की, रचना इन्द्र रचाते हैं।
लेकिन कमल पुष्प के ऊपर, प्रभु के चरण न आते हैं।।
विषयवासना शमन हेतु हम, पुष्प समर्पण करते हैं।
भक्तामर के अधिनायक प्रभु, का हम अर्चन करते हैं।।४।।

ॐ ह्रीं भक्तामरस्वामिने श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।


दिव्य भोज्य सामग्री प्रभु की, स्वर्गलोक से आती है।
दीक्षा के पश्चात् प्रभू की, जिनचर्या कहलाती है।।
प्रभु सम भोजन प्राप्ति हेतु, नैवेद्य समर्पण करते हैं।
भक्तामर के अधिनायक प्रभु, का हम अर्चन करते हैं।।५।।

ॐ ह्रीं भक्तामरस्वामिने श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु की केवलज्ञान ज्योति से, जले असंख्यों दीप जहाँ।
मेरा इक छोटा सा दीपक, कर न सके सामीप्य वहाँ।।
फिर भी भक्त पुजारी दीपक, ले तव आरति करते हैं।
भक्तामर के अधिनायक प्रभु, का हम अर्चन करते हैं।।६।।

ॐ ह्रीं भक्तामरस्वामिने श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।


विषय भोग में धूप जलाने, से कर्मों का बंध कहा।
प्रभु के सम्मुख धूप जलाते, जल जाते हैं कर्म महा।।
अग्निघटों में धूप जलाकर, प्रभु का पूजन करते हैं।
भक्तामर के अधिनायक प्रभु, का हम अर्चन करते हैं।।७।।

ॐ ह्रीं भक्तामरस्वामिने श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।


कई भवों की पुण्य प्रकृतियों, से तीर्थंकर पद पाया।
आदिपुरुष आदीश रूप में, जग ने तुमको अपनाया।।
भक्त इसी फल की आशा ले, फल से पूजन करते हैं।
भक्तामर के अधिनायक प्रभु, का हम अर्चन करते हैं।।८।।

ॐ ह्रीं भक्तामरस्वामिने श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।


अष्टम वसुधा सिद्धशिला पर, जा प्रभु ने विश्राम किया।
अष्टकर्म को नष्ट किया, अष्टापद से निर्वाण लिया।।
अष्टद्रव्य युत स्वर्णथाल प्रभु, पद में अर्पण करते हैं।
भक्तामर के अधिनायक प्रभु, का हम अर्चन करते हैं।।९।।

ॐ ह्रीं भक्तामरस्वामिने श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


तर्ज-हे दीनबंधु...........
प्रभु तेरे ज्ञान की अजस्र धार जो बही।
उससे पवित्र हो गई युगादि में मही।।
उस ज्ञान की इच्छा से ही जलधार मैं करूँ।
भक्तामराधिपति का दिव्यज्ञान मैं भरूँ।।१।।

शांतये शांतिधारा।


प्रभु पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य से सहित हुए।
उस दिव्य पुष्पवृष्टि से प्रभु जगप्रथित हुए।।
सुरपुष्पवृष्टिप्रातिहार्य को भी मैं वरूँ।
पुष्पों की अंजली से पुष्पवृष्टि मैं करूँ।।२।।

दिव्य पुष्पांजलि:।

(मण्डल के ऊपर पुष्पांजलि करें।)