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श्री भक्तामर विधान
श्री भक्तामर विधान - जयमाला
भक्तामर के अधिपति जिनवर की, पूजन से शिवद्वार मिले।
पुरुदेव युगादिपुरुष के अर्चन, से सुख का भंडार मिले।।
गर्भागम के छह मास पूर्व, रत्नों की वृष्टि हुई नभ से।
माता मरुदेवी नाभिराय भी, अपना जन्म धन्य समझे।।
जनता ने जयजयकार किया, साकेतपुरी के भाग्य खिले।
भक्तामर के अधिपति जिनवर की, पूजन से शिवद्वार मिले।।१।।
प्रभु गर्भ-जन्म-दीक्षा व ज्ञान, निर्वाण पंचकल्याणपती।
इक बार मेरा कल्याण करो, मेरी सम्यक् हो जाय मती।।
प्रभु ने जो मार्ग प्रवाह किया, उससे जन-जन के भाग्य खिले।
भक्तामर के अधिपति जिनवर की, पूजन से शिवद्वार मिले।।२।।
इस कलियुग में यति मानतुंग ने, उन्हीं प्रथम परमेश्वर की।
भक्तामर की रचना करके, संस्तुति कर ली वृषभेश्वर की।।
उस भक्तामर के माध्यम से, सब जन के हृदय विकार धुले।
भक्तामर के अधिपति जिनवर की, पूजन से शिवद्वार मिले।।३।।
इकबार भोज नृप ने मुनिवर श्री, मानतुंग को बुलवाया।
उपसर्ग समझ यति मौन हुए, तब कवि ने नृप को समझाया।।
हे राजन्! यह अपमान तेरा, करता मुनि इसे प्रहार मिले।
भक्तामर के अधिपति जिनवर की, पूजन से शिवद्वार मिले।।४।।
क्रोधित राजा ने मुनिवर को, बन्दीगृह का मुख दिखा दिया।
अड़तालिस तालों के भीतर, ले जाकर उनको बिठा दिया।।
बन्दीगृह महल समान जिन्हें, उनको क्या कारावास मिले।
भक्तामर के अधिपति जिनवर की, पूजन से शिवद्वार मिले।।५।।
भक्तामर स्तुति रचते ही, अड़तालिस ताले टूट गए।
मुनि को बन्दीगृह से बाहर, लख नृप के छक्के छूट गए।।
मुनिवर का अतिशय देख नृपति सह, जनता के अरमान खिले।
भक्तामर के अधिपति जिनवर की, पूजन से शिवद्वार मिले।।६।।
भक्तामर की पूजा करने, हम द्वार तिहारे आए हैं।
आदीश्वर! तेरे चरणों में, यह इच्छा लेकर आए हैं।।
मेरा मन तुममें लीन रहे, मुझको ऐसा वरदान मिले।
भक्तामर के अधिपति जिनवर की, पूजन से शिवद्वार मिले।।७।।
बीजाक्षर क्लीं सहित भक्तामर, यंत्र बनाया जाता है।
अड़तालिस कोठों से संयुत, मंडल रचवाया जाता है।।
आठों द्रव्यों से पूजा कर, भक्तों को सौख्य अपार मिले।
भक्तामर के अधिपति जिनवर की, पूजन से शिवद्वार मिले।।८।।
भक्तामर का स्तोत्र आज भी, श्रद्धा से जो पढ़ते हैं।
बन्दीगृह के ताले ही क्या, कर्मों के ताले खुलते हैं।।
प्रभु भक्ती से ‘‘चन्दनामती’’, हमको भी सुख का सार मिले।
भक्तामर के अधिपति जिनवर की, पूजन से शिवद्वार मिले।।९।।
ॐ ह्रीं भक्तामरस्वामिने श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन भक्तामर का, आराधन करते रहते हैं।
अड़तालिस मंत्रों से युत जिनवर का अर्चन करते हैं।।
वे जग के सुख भोग अनुक्रम से शिवपद को लभते हैं।
कहे ‘‘चन्दनामती’’ उन्हों के, सर्वमनोरथ फलते हैं।।
।। इत्याशीर्वाद:पुष्पांजलि:।।