डॉ० नरेन्द्र भानावत, जयपुर
प्रायः यह कहा जाता है कि महावीर के सिद्धान्त बड़े कठोर और जटिल हैं । उनको समझना और समझकर उनके अनुरूप अपना जीवन चलाना वर्तमान परिस्थितियों में अत्यन्त कठिन है, पर जरा गहराई से चिन्तन करें तो यह स्पष्ट प्रतिभासित होगा कि वास्तव में स्थिति ऐसी नहीं है । यह हमारे समझ की ही कमी है कि हम उनके सिद्धांतों को व्यावहारिक जीवन सन्दर्भो में नहीं देखकर दार्शनिक समस्याओं और मान्यताओं के सन्दर्भ में देखते और उनका मूल्यांकन करते हैं।
भगवान् महावीर ने बारह वर्षों से अधिक समय तक कठोर साधना और तपस्या कर जीवन और प्रकृति के सत्य को अनुभूति के स्तर पर समझा था। उन्होंने यह महसूस किया कि सभी प्राणियों में आत्म-चेतना का तत्व व्याप्त है, सबमें अपनी-अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार सुख-दुःख को अनुभव करने की क्षमता है, सबमें अपनी सुषुप्त शक्तियों को जागृत कर चेतना का चरम विकास करने का सामर्थ्य और स्वाधीन भाव हैं। सभी प्राणियों में मानव श्रेष्ठ है । उसमें संयम और धर्माराधना का विशिष्ट गुण है । राग-द्वेषरूप कर्म बीजों को नष्ट कर वह समता भाव में रमण करने की साधना में प्रवृत्त हो सकता है। उसमें श्रद्धा और साधना में प्रवृत्त होने की अद्भुत शक्ति है । महावीर ने मानव की इस शक्ति को धर्माराधना के केन्द्र में प्रतिष्ठापित किया और विभिन्न प्रकार के देवी-देवताओं के प्रति रही हुई दीन भावना को मिटाया। उन्होंने मनुष्य के अन्तर्मानस में रही हुई कर्म शक्ति और पुरुषार्थ साधना को सर्वोपरि माना।
पर यह बड़ी विचित्र स्थिति है कि महावीर को हुए ढाई हजार वर्षों से अधिक समय हो गया है, फिर भी हम मानवीय शक्ति और उसकी पुरुषार्थ साधना को अपनी गतिविधियों के केन्द्र में प्रतिष्ठापित नहीं कर पाये हैं। विविध अन्धविश्वासों, भाग्य प्रेरित विधि-विधानों जादू-टोनों, मनौतियों आदि में हमारा विश्वास है। अज्ञात लोक के रहस्यों व भीति प्रसंगों से हम आक्रान्त और भयभीत हैं । लगता है महावीर के मन, वचन और कर्म संस्कार से हमारी चेतना के तार नहीं जुड़े हैं। हम जुड़े हैं उन संस्कारों और प्रसंगों से जिनको आत्मचेतना के साक्षात्कार में बाधक समझकर, महावीर ने ठकरा दिया था । लगता है हमने अपने जीवन पथ को ही गलत दिशा की ओर मोड़ दिया है । इसलिए निरन्तर चलते रहने पर भी हम अपने गंतव्य को प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं ।
महावीर का जीवन समुद्र की अनन्त गहराई और प्रशान्तता का जोवन था, जिसमें आत्मगुणों के अनेक मोती अवस्थित थे । हमारा जीवन समुद्र की ऊपरी सतह पर उछल कूद मचाने वाली लहरों का जीवन है, जिसमें हलचल, उथल-पुथल और उत्तेजना ही उत्तेजना है। महावीर का जीवन शाश्वत जीवन मूल्यों के लिए समर्पित था, जिसमें त्याग, प्रेम, दया, करुणा, मैत्री और सत्य का आलोक व्याप्त था पर हमारा जीवन सम-सामयिक बाजार मूल्यों का जीवन है, जिसमें सांसारिक विषय-भोगों की प्राप्ति की प्रतिस्पर्धा में मन्डी के भावों की तरह उतारचढ़ाव आते रहते हैं। महावीर का जीवन हार्दिकता से संचालित था। हमारा जीवन यांत्रिकता से संचालित है। महावीर ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग में विचरण किया करते थे। हम इन्द्रिय भोग और मनोरोग में विचरण करते रहते हैं। यही कारण है कि महावीर के सिद्धान्तों को हम बौद्धिक स्तर पर समर्थन देते हैं, वाणी से उनका गुणानुवाद करते हैं, पर कर्म से उसे आचरण में नहीं ला पाते, जीवन में नहीं उतार पाते । सिद्धान्त और आचरण का यह गतिरोध और द्वैत भाव वर्तमान सभ्यता की सबसे बड़ी दुःखान्तिका है ।
महावीर ने बौद्धिक स्तर पर सिद्धांत का प्रतिपादन नहीं किया। अपनी अनुभूति के क्षणों में सदाचरण के आधार पर जो कुछ जीया, वही उन का धर्म सिद्धान्त बन गया । आज हम उनकी अनुभूतियों को आसानी से अपने जीवन के लिए प्रेरणा स्रोत के रूप में स्वीकार कर सकते हैं, पर इसमें बाधक है-हमारा इन्द्रिय-विषयों के प्रति आकर्षण, क्रोध, मान, माया, लोभादि विकारों के प्रति आसक्ति, दूसरों को हीन समझने की वृत्ति और चत्तवृत्ति की वक्रता। इन बाधाओं को दूर कर महावीर के चरित्र को अपने लिए अनुकरणीय बनाने के लिए जीवन में शुद्धता और मन में सरलता का भाव आवश्यक है । चेतना की शुद्धता और सरलता होने पर ही धर्म अर्थात् सदाचरण स्थित रह पाता है । आज । चारों ओर अशुद्धता ही अशुद्धता है । यह अशुद्धता खाद्य पदार्थों से लेकर जीवन-व्यवहार के सभी क्षेत्रों में व्याप्त है । विडम्बना तो यह है कि प्रकृति ने जिन तत्वों को अशुद्धता-निवारक माना है, वे भूमि, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि तत्व भी अशुद्ध होते जा रहे हैं। इसका कारण है-अत्यन्त भोगलिप्सा और उसकी पूर्ति के लिए प्रकृति का निर्मम शोषण ! यदि हम अपनी वृत्तियों पर संयम कर आवश्यकता से अधिक संग्रह न करें, अपने क्षणिक सुख के लिए दूसरों का शोषण न करें तो हमारी चेतना शुद्ध रह सकती है। शुद्धता की स्थिति ही स्वस्थता और स्वाधीनता की स्थिति है । जो शुद्ध नहीं है, वह स्वस्थ नहीं है और जो स्वस्थ नहीं है, वह तनाव-मुक्त नहीं है । वह कुण्ठाग्रस्त है, हताश, निराश, दीन-हीन और शरीर रहते हुए भी मृत-मूच्छित और जड़ है । महावीर ने इस जड़ता के खिलाफ क्रांति की और सदा जाग्रत रहने का रास्ता बताया। उठते-बैठते, चलते-फिरते खाते-पीते जो सजग और सावधान है, वह कभी अशुद्ध नहीं होता, अस्वस्थ नहीं होता।
इस जागरण के लिए उन्होंने जो मार्ग का संकेत किया वह मार्ग है-अहिंसा, संयम और तपरूप मार्ग । अहिंसा अर्थात् किसी भी प्राणी को मनवचन और कर्म से दुःखी नहीं करना; जो दुःखी हैं, उनके दुःख को दूर करने में सदा सहयोगी बनना, प्रेम, करुणा और मैत्री के भावों से उनके हृदय के तारों के साथ अपने हृदय के तार जोड़ना, संकट के समय उनकी रक्षा करना, उनकी स्वतन्त्रता में बाधक कारणों को दूर करना । संयम का अर्थ है अपने मन वचन और कर्म की पवित्रता, अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति में न्यायपूर्वक, विवेकपूर्वक सामग्री का उपयोग, अपने अर्जन का समाजहित और लोकहित के लिए विसर्जन, अपनी वृत्तियों का संयमन और आत्मानुशासन । तप का अर्थ है अपने मानसिक विकारों को नष्ट करने के लिए सदाचरण की आग में तपना, पकना, कठिनाइयों और मुसीबतों में धैर्य धारण करने का अभ्यास अनुकूल, परिस्थितियों में रोगासक्त न होना, कष्टसहिष्णुता और सहनशीलता का भाव विकसित करना, बिना स्वार्थ के लोकहित के लिए अपने को खपाना और शरीर तथा आत्मा के भेद को समझकर समताभाव में रमण करते हुए चिन्मयता से साक्षात्कार करना।
अहिंसा, संयम और तप रूप इस धर्माराधना में प्रवेश करने के लिए महावीर ने चार द्वारों की ओर संकेत किया है । वे हैं-धर्म, निर्लोभता, सरलता और नम्रता । हम अपने दैनिक जीवन में यदि इन द्वारों में होकर निकलने की कला सीख जायें तो हमारे रागद्वेष, लड़ाई-झगड़े, कलह-क्लेश शान्त हो सकते हैं । जब भी कोई परिस्थिति आये हम उसे अनेकान्त दृष्टि से देखें, विविध कोणों से उस पर विचार करें, विभिन्न अपेक्षाओं से उसे तोलें। फिर धीरे-धीरे आप अनुभव करेंगे कि आपका क्रोध कम होता जा रहा है और क्रोधी व्यक्ति पर आपके मन में दया और क्षमा का भाव प्रकट होता जा रहा है। जब भी टेढ़ेपन अथवा वक्रता की बात आए आप अपने मन को हल्का कर लें, सरल बना लें। मन में निर्लोभता, तटस्थता का भाव ले आयें और यह सोचें कि जो क्षण वर्तमान में है, वह रहने वाला, टिकने वाला नहीं है। पर्याय नित्य बदलती है ।
शरीर से सम्बन्ध रखने वाले जितने भी संयोग सम्बन्ध हैं, वे आज जैसे हैं, वैसे सदा रहने वाले नहीं हैं । फिर उन पर क्यों आसक्ति ? उनके लिए क्यों संघर्ष ? उनमें क्यों भोग-बुद्धि? यों सोचतेसोचते जब आपकी विवेकवती बुद्धि प्रज्ञावती बुद्धि जागृत होगी, तब आप तनाव में नहीं रहेंगे, कषाय कलुषित नहीं रहेंगे, समतायुक्त बनेंगे, समतादर्शी बनेंगे । आपका दैनिक जीवन दैविक जीवन में बदल जायेगा।
आज हमारी बुद्धि भोगबुद्धि और वृत्ति उपभोगवृत्ति बनती जा रही है। यही कारण है कि हम दिन को भी रात बनाकर जीते हैं। हम महावीरता को अपनी चेतना के स्तर पर नहीं उतार कर, जो अपने से परे जीव जगत है, उसे शासित करने में, उन पर अधिकार जमाने में, उनकी स्वाधीनता छीनने में, उसके सुख-दुःख पर अपना नियंत्रण करने में अपनी वीरता-महावीरता का प्रदर्शन करते हैं। पर यह महावीरता, महावीरता नहीं है, यह तो पाशविकता है, बर्बरता है, क्रूरता है, कठोरता है । जब हम अपने मन को आस्थावान, सबल, उज्ज्वल, निर्मल, वीतराग बनायेंगे तब कहीं सच्ची महावीरता प्रकट होगी। महावीर की जीवनसाधना का यही सन्देश है । काश ! हम इस संदेश को चेतना की गहराई में उतारें।
कामे पत्थेमाणा अकामा जंति दुग्गई ।
कामना, नामना तथा कामभोगों की अति लालसा वाले मानवों की वे इच्छाएँ, आकांक्षाएँ तो तृप्त हो नहीं पातीं, अतृप्त होकर भी उनकी दुर्गति होती है।