महत्तरिका गुरुणिजी श्री ललित श्रीजी की शिष्या साध्वी मणिप्रभा श्री
अद्भुत वीतराग भाव में मग्न अति निस्पृह तीर्थंकर परमात्मा के पुण्य से आकृष्ट चारों निकाय के देव मिलकर विश्व में अलौकिक एवं आश्चर्यकारी अष्ट प्रातिहार्य की रचना करते हैं। ये प्रातिहार्य सामान्य नहीं है अपितु गर्भित रूप से जगत् के लिए अनेक प्रकार की प्रेरणा के श्रोत रूप हैं।
अशोक वृक्ष प्रातिहार्य : कल्याणमंदिर स्तोत्र में सिद्धसेन दिवाकर सूरि म. ने आठों प्रातिहार्य के संदेश तथा तीन गढ़ का स्वरूप बताया है। परमात्मा के पीछे स्वदेह से १२ गुना ऊंचा अशोक नामक वृक्ष है। यह विश्व के लोगों को संबोधित कर कह रहा है, कि हे मनुष्या ! तुम परमात्मा के प्रभाव को जानो, जिस प्रकार मैं भगवान् के नजदीक होने से शोकरहित हूँ। उसी प्रकार अगर आप भी भगवान् के सानिध्य में रहेंगे तो शोक रहित हो जायेंगे। अर्थात् संसारी जीवों के दुःख-संताप टल जाएंगे। जैसे सूर्य के उदय से मात्र मनुष्य ही नहीं, वृक्ष एवं फूल आदि भी पत्रसंकोच आदि रूप निद्रा का त्याग कर विकसित होते हैं। उसी प्रकार हे चेतनावान् मनुष्यो परमात्मा के प्रभाव से जैसे अव्यक्त चेतनावाला मैं (वृक्ष) शोक रहित बना हूं उसी प्रकार चेतनावान् आप सभी तो नितरां शोक रहित बन जाओगे अतः परमात्मा की शरण को स्वीकार करो।
सुरपुष्पवृष्टि प्रातिहार्य : परमात्मा के समवसरण में देवों के द्वारा चारों तरफ की गई पुष्पवृष्टि में सभी पुष्पों को सीधा गिरते देखकर किसी ने आश्चर्यचकित होकर पुष्पों से पूछा कि 'वृक्ष से गिरने वाले आप सब सीधे कैसे पड़ रहे हो?' तब पुष्पों ने कहा कि - 'यह तो परमात्मा का प्रभाव है कि इनके सानिध्य को प्राप्त करने पर जिन डंठलों ने हमें वृक्ष में जकड़ रखा था वे डंठल रूपी बंधन वृक्ष से टूट कर नीचे की तरफ ही गिरे, इससे हम उर्ध्वमुखी बने हैं, इसी प्रकार आप भी प्रभु के सानिध्य में रहेगें तो आपके भी कर्म रूपी बंधन अथवा संसार के कोई भी बंधन टूट कर नीचे गिर पड़ेगें एवं आत्मा मोक्ष की तरफ ऊर्ध्वगमन करेगी।
दिव्यध्वनि : कवियों ने दिव्यध्वनि को अमृत की उपमा दी। दिव्यध्वनि का कहना है मुझे दी गई उपमा को मैं बराबर सार्थक कर रही हूँ। जैसे अमृत समुद्र में उत्पन्न होता है, एवं जगत् के जीवों को अमर बनाता है उसी प्रकार मैं परमात्मा के हृदय रूपी गम्भीर समुद्र से उत्पन्न हुई हूँ और मेरा (प्रभुवाणी का) पान करने वालों को मैं अतिशीघ्र अजरामर (मोक्ष) पद को प्राप्त कराती हूँ।
चामर प्रातिहार्य : देवता भगवान के चारों तरफ ८ जोड़ी चामर वीजते है। वीजते समय पहले चामरों को नीचे ले जाया जाता है फिर वे ऊपर उठते हैं, इनका संदेश है कि जो वीतराग प्रभु के चरणों में भक्तिभाव से शीश झुकाते हैं वे आत्माएँ शुद्ध भाव वाली होकर उर्ध्वगति को प्राप्त करती हैं।
सिंहासन प्रातिहार्य : उज्जवल देदीप्यमान सुवर्णमिश्रित रत्न के बने हुए सिंहासन पर बैठे हुए,श्याम वर्ण वाले गम्भीर मेघगर्जना के समान देशना को देते हुए पार्श्वनाथ भगवान को देखकर भव्य प्राणी रूपी मोर खुश होते है। अर्थात् जिस प्रकार मेरुपर्वत पर गर्जना करते काले बादल को मोर उत्सुकता पूर्वक देखते हैं। उसी प्रकार सिंहासन कह रहा है कि मेरे ऊपर स्थित प्रभुको भव्य जीव उत्सुकता पूर्वक देखते हैं।
भामंडल प्रातिहार्य : परमात्मा के मुख का तेज सैंकड़ों सूर्य से भी अधिक होने की वजह से कोई भगवान के मुख को नहीं देख सकता। इसलिए देवता प्रभु के तेज का भामंडल में संहार करते हैं, जिससे प्रभु का मुख सुखपूर्वक देखा जाता है। ऊपर की ओर प्रसरित प्रभु की कांति से अशोक वृक्ष के पत्तों की कांति आच्छादित हो जाने पर वह राग रहित दिखने लगा। इस भामंडल का संदेश है कि हे वीतराग! आपके सानिध्य को. प्राप्त करने पर अशोक वृक्ष तो क्या, कोई भी सचेतन रागरहित बने बिना नहीं रहता।
देवदुंदुभि प्रातिहार्य : भगवान के समवसरण में बजने वाली देवदुंदुभि तीन जगत् के जीवों को संदेश दे रही है कि अरे! अरे! भव्य जीवो! तुम प्रमाद का त्याग कर मोक्षपुरी में जाने के लिए सार्थवाह के समान प्रभु के पास आकर इनकी सेवा करो।
छत्र प्रातिहार्य : चंद्र कह रहा है कि जब साक्षात् प्रभु तीन लोक को प्रकाशित कर रहे हैं, तो मेरा तो आकाश में रहकर प्रकाश करने का कोई अधिकार ही नहीं रहा। इसलिए तारामंडल सहित मैंने आकर मुक्ताफल की मोती के समूह से उल्लसित तीन छत्रों के बहाने से अपने शरीर को त्रिधा बनाया है। अर्थात् भगवान का जगत् में इतना प्रभाव है कि चंद्रादि भी अधिकार - रहित बन भगवान की सेवा में जुट गए हैं।
प्रभु के तीन गढ़ : परमात्मा की कांति,प्रताप एवं यश । से तीनों लोक भर गये तो भी कांति, प्रताप और यश जगत में समा न पाये इसलिए ये तीनों माणिक्य, सुवर्ण एवं रजत के रूप में प्रभु के तीन गढ़ बन गए।
इस प्रकार आंख बन्द कर अष्टप्रातिहार्य-युक्त प्रभु का ध्यान करने पर एवं उनके संदेश को हृदय में धारण करने पर आत्मा परमात्मा के साथ अभेद रूप को प्राप्त करती है।