।। अरिहंत का तत्व बोध ।।

अरिहंत

अरिहंत अर्थात आर्हन्त्य की अभिव्यक्ति। अरिहंत का अभिप्राय है आर्हन्त्य की अनुभूति। अरिहंत का अर्थ है आर्हन्त्य की उपलब्धि। जो सर्व में विद्यमान है उस आर्हन्त्यअर्हता को जो प्रकट कर सकते हैं वे अरिहंत हैं। आर्हन्त्य अरिहंत की अभिव्यक्ति है। आर्हन्त्य प्रकट कर हम सब अरिहंत बन सकते हैं। यह अरिहंत की हमें चुनौती है। अरिहंत बनकर ही अरिहंत को जाना जाता है, पाया जाता है और पूजा जाता है।

“अरिहंत बनना ही अरिहंत की पूजा का परिणाम है।"

इसका सम्बन्ध किसी व्यक्तिविशेष से बँधा हुआ नहीं है। यह निबंध तत्व है। समस्त अस्तित्व से इसका अनुबंध है। यह स्वयं में पूर्ण है और अन्य अपूर्ण के पूर्ण की अभिव्यक्ति का उद्घाटक है।

आर्हन्त्र्य अगम्य है परंतु अरिहंत से अवश्य ही जाना जाता है। अनिर्वचनीय है परंतु परावाणी.के स्रोत में प्रकट भी होता है। अव्यक्त है पर अनुभूति में यह व्यक्त अवश्य होता है। आर्हन्त्य अर्हता है, योग्यता है, क्षमता और समर्थता है। महावीर की वाणी में यह “संधि" है, अवसर है जब इसे खोला जाय, प्रकट किया जाय।

आर्हन्त्य की अनुभूति और अभिव्यक्ति को प्रकट करता है-अरिहंत का तादात्म्य। तादात्म्य अर्थात् अरिहंत के साथ एकरूप बन जाना।

आचारांग सूत्र में कहा है-
उनकी दृष्टि
उनका स्वरूप-ज्ञान
उनका आगमन
उनकी चेतसिक अनुभूति और
उनका सान्निध्य।

इन पाँच प्रकारों से अरिहंत के साथ तादात्म्य होता है। तादात्म्य तत्रूप और तत्स्वरूप बनाकर पूर्ण आर्हन्त्य प्रकट करता है। इसीलिये आनन्दघन जी ने कहा है-

"जिनस्वरूप थई जिन आराधे ते सही जिनवर होवे रे"

अरिहंत-दर्शन

अरिहंत-दर्शन अर्थात् अपने आपका अवलोकन। “दृश्यते अनेन इति दर्शनम्'जिसके द्वारा देखा जाय वह दर्शन है। यह व्याख्या हमें इस प्रश्न की ओर ले जाती हैकिसके द्वारा देखना और क्या देखना ?

आगम हमें इस प्रश्न के उत्तर की ओर ले जाता है-“एगमप्पाणं संपेहाए"१ एक मात्र आत्मा को देखना है। मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? यह समाधान भी प्रश्नपरक हो गया। आत्मा को देखना है; पर वह कैसे ? उसकी कोई विधि और मार्ग तो निश्चित हो। इसका समाधान प्रस्तुत गाथा में है-

जो जाणादि अरिहंत दव्वह-गुण-पज्जत्तेहिं ।
सो जाणादि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्सलयं ॥

जो द्रव्य-गुण और पर्याय से अरिहंत को जानता है वह स्वयं के स्वरूप को जानता है।

हमारी अपनी आत्मा जिसे हम स्वयं नहीं जानते हैं। जो निरंतर अनुभवयुक्त होने पर भी अगम्य है। अपना निज रूप होने पर भी जिसे हम देख नहीं सकते हैं। उसको जानने, देखने या समझने के लिये हमें उसके पास जाना होगा जो इसे जानता, देखता और समझता है। जिससे देखा जाता है वह दर्शन है।

किसने ऐसे दर्शन को प्राप्त किया और किसने संसार के जिज्ञासु जीवों को दर्शन प्राप्त करवाया। इसका उत्तर अरिहंत की अभिव्यक्ति है। परमात्मा के दर्शन-प्राप्त स्वरूप का निर्देशन शास्त्र में इस प्रकार है।

“एगत्तिगते पिहितच्चे से अभिण्णाय दंसणे संते"२

एकत्व भावना से जिनका अन्तःकरण भावित हो चुका है, राग-द्वेष रूप अग्नि का जिन्होंने शमन कर दिया है अथवा “अर्चा"अर्थात् काया को जिन्होंने संगोपित कर लिया है. वे दर्शन को प्राप्त हो चके हैं: वे स्वयं साक्षात दर्शन हैं। क्योंकि वे "ओए समियदसणे"३ वे सम्यकदर्शन में ओतप्रोत हैं।

हम उनके दर्शन में निज-दर्शन करें। या उनकी दृष्टि से हम अपने आपको देखें। अरिहंत का दर्शन अर्थात् अरिहंत का पथ, मार्ग। इसीलिये कहा है-"मेधावी पुरुष को क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेषादि का वमन करना चाहिये, उनसे निवृत्त होना चाहिये-यही परमात्मा का दर्शन है, पथ है, मार्ग है।

अरिहंत का समस्त दर्शन-शब्द दर्शन; संबंध दर्शन एवं स्वरूप दर्शन द्वारा अरिहंत दर्शन को पूर्ण अभिव्यक्ति प्रदान करता है।

अरिहंत से क्या अभिप्राय ?

अरिहंत शब्द: एक समीक्षा

अरिहंत" शब्द हमारी स्वरूप चेतना के हस्ताक्षर हैं। साथ ही यह जैन पंरपरा में मान्य “नमो अरिहंताणं' मंत्र के परम आराध्य के लिए प्रयुक्त एवं प्रसिद्ध शब्द है। यह शब्द जैन-जैनेतर साहित्य एवं परंपरा में अनेक अर्थों में विश्रुत रहा है।

किसी भी शब्द की विश्रुति मान्यताओं में रूपान्तरित होती है। मान्यताएँ ही कभी विविध परंपराओं का रूप ले लेती हैं। परंपरा, व्याकरण, नियुक्ति और व्याख्याओं के आधार पर किये जाने वाले अर्थ-विन्यास किसी भी एक अर्थ की सर्वोपरिता से अनछुए-से रहते हैं। विशेषार्थ के कारण विश्रुत शब्द किसी विशेष व्यक्ति का परिचय शब्द न रहकर भाववाचक संज्ञा बन जाता है। अरिहंत शब्द भाववाचक संज्ञा बनकर, भावों से जुड़कर पूज्य अर्थ का द्योतक बन गया। इस प्रकार इस शब्द की विश्रुति अनश्रुति बनकर शास्त्रों से लेकर साहित्य एवं संस्कृति में अनुस्यूत हो गई एवं परंपरा में प्रश्रुत हो गई।

अरिहंत को आराध्य के रूप में मान लेने पर यह शब्द प्रस्तुत विश्रुति और प्रश्रुति से भी ऊपर उठ जाता है। शब्द मंत्र बनकर भावों के द्वारा प्राणों में तरंगित होता है और आगे कभी तरंगातीत निर्विकल्प अवस्था विशेष की परिणति बन जाता है।

आगम और आगमेतर साहित्य में तीर्थंकर शब्द के अनेक पारिभाषिक शब्द हैं,जैसे-अरिहंत, अरहंत, अरहा, अरिहा, जिन, केवली, भगवन, वीतराग, पुरुषोत्तम, · अणंतनाणी, अणंतदंसी आदि।

इनमें से जिन, केवली, वीतराग आदि शब्द सामान्य केवलियों के भी वाचक रहे हैं। तीर्थंकरों में भी वे गुण प्रतिपादित होने से वे भी जिन आदि कहलाते हैं परंतु प्रत्येक जिन आदि तीर्थंकर नहीं कहलाते हैं, क्योंकि तीर्थंकर वह पद है जो तीर्थंकर नाम कर्म रूप विशेष प्रकृति से जुड़ा हुआ है। जिनकी तीर्थ स्थापनादि रूप विशेष प्रवृत्तियाँ उनका अपना परिचय हैं।

अरिहंत शब्द अनेक अर्थों में व्यापक रहा है। कई जगह वह तीर्थंकर शब्द का पर्यायवाची शब्द रहा, कई स्थलों पर वह सामान्य केवलियों का वाचक रहा तो कई स्थलों पर वह पूज्य अर्थ का अभिभावक बना। विशेष तौर पर आगम-प्रमाण से वह तीर्थकर शब्द का पर्यायवाची रहा है। इसी कारण यही शब्द मंत्र बनकर "नमो अथवा अरिहंताणं" द्वारा अरिहंत अर्थात् तीर्थंकर अर्थ में गूढ़ होता गया।

शब्दों का उद्भव धातु निष्पन्न माना गया है। धातु निष्पन्न शब्द को सत्यार्थ और अकाट्य प्रमाणरूप मान लेने पर “अरिहंत" शब्द को “अर्ह" धातु से निष्पन्न माना जाता है जिसका अर्थ योग्य होना और पूजित होना है। "अर्ह" धातु के ये दो मुख्यार्थ हैं। इन दोनों अर्थों के अधिकारी स्वामी ये “अरिहंत" हैं। इस धात्वर्थ से अरिहंत शब्द के वाच्य स्वामी अष्टमहाप्रातिहार्य के योग्य और पंचकल्याणक पूजा के स्वामी"तीर्थकर" अरिहंत होते हैं। इस अर्थ के अनसार तीर्थंकर और अरिहंत के अर्थ में कोई फर्क नहीं पड़ता है। ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। एक का अर्थ है-तीर्थ की स्थापना करने वाले और दूसरे का अर्थ है-योग्य होना, पूजित होना। मात्र किसी भी . प्रवृत्ति को प्रधान मानकर उन-उन आवश्यक शब्दों के यथोचित प्रयोग से शब्द वैविध्य माना जाता है। अतः “प्रत्येक तीर्थकर अरिहंत हो सकते हैं, परन्तु प्रत्येक अरिहंत तीर्थकर नहीं हो सकते"-ऐसा मानना यह एक बहुत बड़ा भ्रम है।

अरिहंत शब्द का मुख्यार्थ तीर्थंकर मान लेने पर इस शब्द की सिद्ध व्याख्याएँ आगम, नियुक्ति, चूर्णि एवं वृत्ति के द्वारा परंपरा में प्रसिद्ध बन गईं। आगम के कुछ पाठ, इसकी प्रामाणिकता के साक्षी हैं। जिसको प्रत्यक्ष बनाने से इस शब्द के बारे में रहीं कुछ वैकल्पिक धारणाओं का अपने आप समाधान हो जाता है।

आगम के अनुसार अरिहंत शब्द के अर्थ की प्रामाणिकता

कथानुयोग में और खासकर भगवान महावीर और परमात्मा मल्लिनाथ के चरित्र में उल्लेख मिलता है कि उन्हें जन्म से अवधिज्ञान था और दीक्षित होने पर मनः पर्यव ज्ञान उत्पन्न हुआ।२ तीर्थंकरों का जन्म से अवधिज्ञानी रहना और दीक्षित होते ही मनःपर्यवज्ञानी होना नियम है। तीर्थंकर के इस विशेष गुणधर्म को अरिहंत शब्द से उल्लेखित करता हुआ एक पाठ स्थानांग सूत्र में इस प्रकार है-

तओ अरहा पन्नत्ता तं जहाओहिनाण अरहा, मणपज्जवनाण अरहा, केवलनाण अरहा

अरिहंत के मुख्य तीन प्रकार हैं-अवधिज्ञानी अरिहंत, मनःपर्यवज्ञानी अरिहंत और केवलज्ञानी अरिहंत। अरिहंत के गमनागमन से लेकर निर्वाण तक के मुख्य पाँच अवसर होते हैं, जिन्हें कल्याणक कहा जाता है। अरिहंत अवस्था के ये पाँचों अवसर उपरोक्त तीन प्रकारों में इस प्रकार विभाजित होते हैं-

अवधिज्ञानी अरिहंत - च्यवन कल्याणक एवं जन्म कल्याणक
मनःपर्यवज्ञानी अरिहंत –प्रवज्या कल्याणक
केवलज्ञानी अरिहंत -केवलज्ञान कल्याणक एवं निर्वाण कल्याणक

अरिहंत का उपरोक्त विभाजन-उनकी पूर्वनियोजित रूपरेखा है। सिर्फ केवलज्ञान के बाद ही उनका आर्हन्त्य प्रकट नहीं होता, परन्तु जन्म के पूर्व ही यह निर्धारित रहता है। इसी कारण सामान्य केवली और अरिहंत में अन्तर है। मोक्ष पाने की योग्यता वाले अर्थ से तो सामान्य केवली अर्थ भी बैठ सकता है परन्तु योग्यता के साथ पूज्यप्ता वाला अर्थ यहाँ अन्तर स्पष्ट करता है।

सामान्य केवली और तीर्थंकर केवली में वीतरागता की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है, परन्तु बाह्य दृष्टि से बहुत अन्तर है। यह अन्तर अरिहंत के पूजित होने के अर्थ से सिद्ध होता है।

दूसरा आगम प्रमाण इस अर्थ की और पुष्टि करता है कि- अरिहंत के व्युच्छिन्नं (मुक्त) होने पर, अरिहंत प्रज्ञप्त धर्म के व्युच्छिन्न होने पर और पूर्वगत (चतुर्दशपूर्वो) के व्युच्छिन्न होने पर। इन तीन कारणों से मनुष्यलोक और देवलोक में अंधकार होता है।

इसी प्रकार अरिहंतों के जन्म होने पर, अरिहंतों के प्रव्रजित होने के अवसर पर और अरिहंतों के केवलज्ञान उत्पन्न होने के उपलक्ष्य में किए जाने वाले महोत्सव पर मनुष्यलोक और देवलोक में उद्योत होता है। देव समुदाय मनुष्य लोक में आता है, देवों में कलकल ध्वनि होती हैं; देवों के इन्द्र, सामानिक देव, त्रायत्रिंशक देव, लोकपाल देव, लोकान्तिक देव, अग्रमहिषी देवियाँ, सभासद, सेनापति तथा आत्मरक्षक देव तत्क्षण मनुष्यलोक में आते हैं।'

इस सूत्र में अरिहंत धर्म-कथन के साथ चार कल्याणकों का कथन प्रस्तुत किया गया है।

जन्म, प्रव्रज्या और केवलज्ञान में उद्योतादि होना और निर्वाण के समय अंधकार होने का उल्लेख है।

कल्पसूत्र में इसका स्पष्ट उल्लेख इस प्रकार है-

चइस्सामि त्ति जाणइ, चइमाणे न जाणइ, चुए मि ति जाणइ।"

भगवान महावीर के चरित्र में अवधिज्ञान के कारण गर्भ में माता के भावों को समझने कारे और “जब तक मेरे माता-पिता जीवित रहेंगे तब तक मैं मुण्डित होकर गृहवास का त्याग कर प्रव्रज्या स्वीकार नहीं करूँगा" ऐसा अभिग्रह-संकल्प करने का . उल्लेख भी मिलता है।

स्थानांग सूत्र, ज्ञातासूत्र और कल्पसूत्र में कथित उपरोक्त उल्लेखों में प्रति स्थान पर तीर्थंकर की जगह अरहा, अरहंत और अरिहंत शब्द का प्रयोग हुआ है। दूसरी एक यह भी बात है कि देवागमनादि उद्योत, अंधकार आदि अरिहंत के अतिरिक्त अन्य किसी पूज्य पुरुष के किसी प्रसंगों में होने का कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है।

पूजा के अर्थ में सिर्फ देवों द्वारा पूजे जाने के बल पर इस व्याख्या को महत्व नहीं दिया गया है परन्तु अरिहंत सम्पूर्ण सष्टि के मंगलमय पूज्य तत्व हैं। इनसे धर्म की उत्पत्ति, परमार्थ की परिणति और मोक्ष की निष्पत्ति उद्घाटित होती है।

किसी भी स्थिति को प्राप्त कर लेना निजस्थिति से सम्बन्धित है, परन्तु स्वयं प्राप्त करके साथ में प्राप्त करने योग्य आत्मा में योग्यता प्रकट कर परमार्थ का निमित्त बन जाना एक विशेष अवस्था मानी जाती है।

कर्मबन्ध या कर्मक्षय रूप मोक्ष प्राप्ति में प्रत्येक जीव स्वतंत्र है। निमित्त कारण उपादान कारण के आगे गौण इसलिये है कि जहाँ उपादान विशुद्ध नहीं होता वहाँ निमित्तजन्य अभिव्यक्ति सफल नहीं हो पाती है। उपादान की विशुद्धि के लिये कर्मबन्ध के कारण और निवारण रूप उपाय जानने आवश्यक हैं अन्यथा वह जन्म-मृत्यु के चक्र से छूट नहीं सकता।

परमाराध्य अरिहंत मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। यह मार्गदर्शन इनकी सर्वोपरि विशिष्टता है। इसी कारण वे तीर्थ की स्थापना करते हैं, प्रवचन करते हैं और पूजे जाते हैं।

प्राकृत भाषा में मूलतः दो शब्द हैं अरह और अरहंत। इसका विस्तार रूप. है अरह, अरिह, अरुह और अरहंत, अरिहंत, अरुहंत। कोशकार के अनुसार इनके विभिन्न अर्थ इस प्रकार हैं-

अरह । -अर्हत्-पूजा के योग्य, पूज्य
अरह -अरहस् प्रकट-जिनसे कुछ भी न छिपा हो।
अरह -अरथ-परिग्रह से रहित।
अरिह -योग्य होना, पूजा करना।
अरुह -जन्म रहित, मुक्त आत्मा।
अरुह -पूजा के योग्य, पूज्य।
अरहंत -अरहोन्तर-सर्वज्ञ-सब कुछ जानने वाला।
अरहंत -अरथान्त-निस्पृह, निर्मम।
अरहंत -अरहयत्-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ने वाला।
अरिहंत -रिपु-विनाशकं।
अरुहंत -अरोहत्-नहीं उगता हुआ, जन्म नहीं लेता हुआ।

संस्कृत भाषा के अनुसार अरिहंत शब्द की व्युत्पत्ति

अर्ह धातु ‘स्तुस्यकर्ता और योग्य होना दो अर्थ में प्रयुक्त होती है। इस धातु को "सुगद्विषार्ह सत्रि-शत्रु-स्तुत्ये" सूत्र से अतृश् प्रत्यय, अनुबन्ध लोप हुआ और व्यञ्जनाद-दन्ते से "न्त" का आदेश हुआ "उच्चार्हति" सूत्र से संयुक्त व्यंजन "ई" के पूर्व में स्थित हलन्त व्यंजन "र" में क्रमशः विकल्प से "उ-अ और इ" का आगम होता है और अरुहंत, अरहंत और अरिहंत ये तीन रूप बनते हैं।

इन तीनों रूपों में कुछ विभिन्नता दर्शित होती है किन्तु वस्तुतः इनके मौलिक अर्थ . में कोई अन्तर नहीं है। केवल नियुक्ति पद्धति के अनुसार जो अर्थ-वैविध्य होता है वह इस प्रकार है-

अरिहंत शब्द के तीन रूप

अरहंत- अरहंत-अर्थ वैविध्य की दृष्टि से शब्द वैषम्य में अन्तर पाया जाता है परन्तु स्वरूप से सब कुछ समान है। धात्वर्थ की दृष्टि से शब्द प्रयोग में अरहंत शब्द उपयुक्त रहा है।

कल्पसूत्र में अरह शब्द की व्याख्या में रह शब्द को महत्व देते हुए रह का अर्थ रहस्य करके प्रकट अप्रकट सर्व रहस्यों के ज्ञाता अरहंत ऐसा अर्थ किया गया है। अर्थात् परमात्मा से कोई भी रहस्य अज्ञात नहीं है। अरहंत शब्द की प्रस्तुत व्याख्या में सर्वज्ञत्व की विशेष विलक्षणता बताई गई है।

आवश्यक नियुक्ति में योग्य होने के अर्थ में “अरहंति" शब्द दिया है। यहाँ योग्यता के तीन अर्थ अभीष्ट हैं

१-वन्दन नमस्कार के योग्य

२-पूजा-सत्कार के योग्य और

३-सिद्धिगमन के योग्य।

इसमें अर्ह धातु के योग्यता अर्थ को प्रधानता देकर इन तीनों प्रकार की योग्यता से समर्थ अरहंत ऐसा अर्थ किया है।

इन्हीं अर्थों को विशेष रूप में विज्ञापित करते हुए “मूलाचार में नमस्कार के योग्य, लोक में उत्तम, देवों द्वारा पूजा के योग्य और तीसरा कर्मरूप रज एवं शत्रु का हनन करने वाले अरिहंत ऐसा अर्थ किया है।

वृत्तिकार ने “रजहंता" शब्द से ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय रूप कर्मरज का नाश करने वाले और “अरिहंति" शब्द का मोह और अंतराय रूप शत्रु का हनन करने वाले अरहंत कहलाते हैं, ऐसा अर्थ किया है।

स्थानांग सूत्र की टीका में भी योग्यता अर्थ को ही प्रधानता दी है और योग्यता में भी अष्ट महाप्रतिहार्य विशिष्टता को महत्त्व देते हुए कहा है-“उत्कृष्ट भक्ति के लिए तत्पर, सुरों और असुरों के समूह द्वारा विशेष रूप से रचित, जन्मांतर रूप महा आलवाल (क्यारी) में उपार्जित और निर्दोष वासना-भावनारूप जल द्वारा सिंचित पुण्यरूप महावृक्ष के कल्याण फल सदृश अशोकवृक्षादि अष्ट महाप्रतिहार्य रूप. पूजा के योग्य और सर्व रागादि शत्रुओं के सर्वथा क्षय से मुक्ति मंदिर के शिखर परं आरूढ़ होने के योग्य को अरहंत कहा जाता है।

भगवती सूत्र में वृत्तिकार इसके तीन अर्थ इस प्रकार करते हैं-

“अरहोन्तर" से अरहन्त-रहः याने एकान्तरूप गुप्त प्रदेश और अन्तर याने पर्वत की गुफा आदि का मध्यभाग। जगत् में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जो सर्वज्ञ भगवान् से गुप्त हो अर्थात् रहस्य तथा अन्तर न होने से अरहोन्तर अरहंत हैं।

दूसरा अर्थ “अरथान्त' से अरहंत कहा है-रथ शब्दं का यहाँ उपलक्षण से “सर्व प्रकार का परिग्रह" ऐसा अर्थ समझना। अंत अर्थात् विनाश तथा उपलक्षण से जन्म-जरादि समझना। रथ अर्थात् सर्व प्रकार के परिग्रह का अंत करने वाले और जन्म-जरा-मृत्यु यह सब जिन्हें नहीं हैं वे अरथान्त-अरहंत हैं।

तीसरा अर्थ करते हुए कहा है-रह् धातु देने के (त्याग के) अर्थ से सम्बन्धित है। प्रकृष्ट राग तथा द्वेष के कारणभूत अनुक्रम से मनोहर और अमनोहर विषयों का संपर्क होने पर भी वीतरागत्व को, जो स्वयं का स्वभाव है, त्याग नहीं करने वाले अरहंत।

उपरोक्त अर्थ प्रतिपादन में दर्शित विभिन्नता-शब्द-सादृश्य या अर्थ-वैषम्य के कारण है।

अरिहन्त

अष्ट प्रकार के कर्मरूप शत्रु को मथित कर देने से, नाश करने से, दलने से, पीलने से, भगाने से अथवा पराजित करने से परमात्मा अरिहंत कहलाते हैं, अर्थात् अष्ट प्रकार के कर्मरूप शत्रुओं का नाश करने वाले अरिहंत होते हैं।

दूसरा अर्थ करते हुए नियुक्तिकार ने शत्रु अर्थ में न केवल कर्मों को ही प्रधानता दी है, परन्तु उपलक्षण से इन्द्रियविषय, कषाय, परीषह, वेदना, उपसर्गादि सर्व आभ्यतंर शत्रु भी ग्रहण किये हैं और उनका नाश करने वाले अरिहंत ऐसा अर्थ किया है। कर्मों का नाश करने से इन्द्रियविषयादि का नाश तो सहज ही समझा जा सकता है, उसके स्वतंत्र निर्देशन की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि जिनके कर्मों का नाश हुआ माना जाता है उनमें इन्द्रियविषयादि कैसे पाये जा सकते हैं ? परन्तु नियुक्तिकार अपनी पद्धति के अनुसार अरिहंत शब्द की व्याख्या में इतना विशेष कहते हैं।

इससे आगे की गाथा में नियुक्तिकार “अरिहंत" शब्द की व्याख्या में तीनों स्वरूपों को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं-सुर, असुर, मनुष्यादि द्वारा की जाने वाली पूजा के अरिहा-योग्य, शत्रुओं का नाश करने वाले तथा कर्मरूप रज अर्थात् मैल का नाश करने वाले अरिहंत होते हैं।

उपरोक्त तीनों व्याख्याओं में अरिहा-योग्यता अर्थ को प्रस्तुत करने वाली व्याख्या ही अधिक अर्थसंगत प्रतीत होती है, क्योंकि अष्ट प्रकार के कर्मों का क्षय तो सिद्धों के होता है, अरिहंत तो. चार घातिकर्मों का क्षय किये हुए होते हैं। इन्द्रियविषय में, शातावेदनीय का उदय होने से वेदनादि का नाश भी उपयुक्त नहीं है। षट्खंडागम के मंगलाचरण में “णमो अरिहंताणं" शब्द की वृत्ति में धवला टीकाकार “अरिहंत" शब्द के चार अर्थ प्रस्तुत करते हैं।

अरिहननादरिहन्ता-“अरि" अर्थात् शत्रुओं के "हननाद्" अर्थात् नाश करने वाले। यहाँ पर “अरि" शब्द का विश्लेषण करते हुए मोह को शत्रु माना है। केवल मोह को शत्रु मान लेने पर शेष कर्मों के व्यापार की निष्फलता मानने की शंका का समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा है-

समस्त कर्म मोह के अधीन हैं। मोह के बिना शेष कर्म अपने-अपने कार्य की उत्पत्ति में व्यापार करते हुए नहीं पाये जाते हैं। जिससे कि वे भी अपने कार्य में स्वतन्त्र समझे जायँ। इसलिये सच्चा अरि मोह ही है और शेष कर्म उसके अधीन हैं। मोह का नाश हो जाने पर भी कितने ही काल तक शेष कर्मों की सत्ता रहती है इसलिए उनको मोह के अधीन कैसे माना जाय?

इस शंका का समाधान करते हुए कहा है मोह-रूप अरि के नष्ट हो जाने पर. जन्म-मरण की परंपरा रूप संसार के उत्पादन का सामर्थ्य शेष कर्मों में नहीं रहने से. उन कर्मों का सत्त्व असत्त्व के समान हो जाता है; तथा केवलज्ञानादि संपूर्ण आत्म-गुणों के आविर्भाव को रोकने में समर्थ कारण होने से भी मोह प्रधान शत्रु है। इस प्रकार । यहाँ अरि से शत्रु और शत्रु का नाश करने वाले अरिहंत कहलाते हैं,ऐसा अर्थ हुआ।

दूसरे अर्थ में "रजोहननाद्वा अरिहंता" ऐसा अर्थ किया है। रज का अर्थ यहाँ आवरण कर्म रूप ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण किया है। ये कर्म रज अर्थात् धूलि की तरह बाह्य और अंतरंग समस्त त्रिकाल के विषयभूत अनन्त अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय वस्तुओं को विषय करने वाले बोध और 'दर्शन के प्रतिबन्धक होने से रज कहलाते हैं। मोह को भी रज कहते हैं।

मोहनीय, ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म के ही विनाश का उपदेश देने का कारण समझाते हुए कहा है-शेष सभी कर्मों का विनाश इन तीन कर्मों के विनाश का अविनाभावी है। अर्थात् इन तीन कर्मों का नाश हो जाने पर शेष कर्मों का नाश अवश्य हो जाता है। तीसरा अर्थ करते हुए कहा है-रहस्याभावाद्वा अरिहन्ता। रहस्यमन्तरायः-रह से रहस्य और रहस्य से अन्तराय अर्थ को यहाँ अभीष्ट माना है। वस्तुतः यह व्याख्या 'अरहंत" शब्द की हो सकती है "रहस्याभावात्" से "अरहत" ऐसा शब्दसमायोजन ठीक है; परन्तु यहाँ पर रहस्य का अभाव है जिनको वे 'अरिहंत" ऐसी व्युत्पत्ति दी है। अन्तराय कर्म का नाश शेष तीन घाति-कर्मों के नाश का अविनाभावी है। अन्तराय कर्म का नाश होने पर अघाति कर्म भ्रष्ट बीज के समान निःशक्त हो जाते हैं। इस प्रकार यहाँ अन्तराय कर्म का नाश करने वाले अरिहंत ऐसा अर्थ होता है।

अरिहंत शब्द का चौथा अर्थ करते हुए कहा है- अतिशयपूजार्हत्वाद्वार्हन्तः ।। स्वर्गावतरण-जन्माभिषेक-परिनिष्कमण-केवलज्ञानोत्पत्ति-परिनिर्वाणेषु देवकृतानां पूजानां देवासुरमानवप्राप्तपूजाभ्योऽधिकत्वादतिशयानामर्हत्वाद्योग्यत्वादहन्तः।। यहाँ पर स्थानांग सूत्र की तरह पाँचों कल्याणक पर्वो पर देव, दानव एवं मानव द्वारा पूजा रूप अतिशय के योग्य अरिहंत ऐसा अर्थ कर योग्यत्ना अर्थ की प्रधानता प्रस्तुत की गई है।

इन अर्थों का सम्पूर्ण तारतम्य “अरहंत" "अरिहंत" दोनों अर्थ का तात्पर्य प्रस्तुत करना है। रह से रहस्य, रज आदि से अरहंत और अरि से अरिहंत शब्द, शब्द का अर्थ-विन्यास प्रस्तुत किया गया है। उपचार से बीज-नाश की बात कर अरुहंत शब्द का अर्थ भी गर्भित हो जाता है।

अरुहंत

अरुहंत शब्द का विन्यास “अ + रुहंत" और "अरु + हंत" ऐसे दो प्रकार से होता है। प्रथम विन्यास "अ" अभाव अर्थ का द्योतक है और “अरुहंत" शब्द "रुह्" धातु "रुह" शब्द से बना है।

रुह् जन्यवाचक धातु है, क्योंकि जनक कारण-वाचक शब्द योनि, ज, रुह्, जन्मन, भ, सति आदि शब्दों को “अन" प्रत्यय लगाने से वे जन्यवाचक शब्द बनते हैं। अतः पुनः जो जन्म धारण नहीं करते हैं, पुनः उत्पन्न नहीं होते हैं, और संसार के कारणरूप कर्मों का निर्मूल नाश करते हैं वे “अरुहंत" कहलाते हैं। महनिशीथ सूत्र में प्रस्तुत शब्द विन्यास को भावार्थ के साथ घटाते हुए कहा है-असेस कम्मक्खएणं निद्दड्ढभवांकुरत्ताओ न पुणहे भवंति जम्मति उववज्जंति वा अरुहंता-समग्र कर्मरूप अंकुर के जल जाने से, क्षय हो जाने से जो संसार में पुनः उत्पन्न नहीं होते हैं ये अरुहंत कहलाते हैं। तत्त्वार्थ कारिका में कहा है-

दग्धे बीजे यथात्यन्तं, प्रादुर्भवति नांकुरः।
कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवांकुरः ॥

जिस प्रकार बीज के जल जाने से अंकुर उत्पन्न नहीं होता है, उसी प्रकार कर्म रूपी बीज के जल जाने से भव (जन्म-जन्मांतर) रूप अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकते हैं।

दूसरा विन्यास है-अरु + हंत। अरुष-स् शब्द घाव अर्थ में प्रयुक्त होता है। यहाँ • उपलक्षण से पीड़ादि के हेतुभूत रोग और उनके कारणभूत कर्मादि का नाश करने वाले "अरुहंत ऐसा अर्थ होता है। “अरुहंताणं" का एक संस्कृतरूप "अरुन्धदभ्यः" भी किया गया है। अरुन्धद्भ्यः शब्द से आवरण के अभाव के कारण उनका अवरोध नहीं होता है, अतः वे अरुन्धद् (अरुहंत) कहलाते हैं।

अरहंत शब्द की प्राचीनता –

अरहंत, अरिहंत और अरुहंत-इन तीनों शब्दों के स्वरूप में अन्तर है परन्तु तात्पर्यार्थ तीनों का एक है। “अरहंत" शब्द सर्वाधिक प्राचीन रहा है।

आगम

आचारांगसूत्र में श्रमण भगवान् महावीर के लिये प्रयुक्त विशेषणों में “अरहं" शब्द मिलता है। सूत्रकृतांग सूत्र में जिनधर्म हेतु “धम्मं अरहंताभासिय२ शब्द का प्रयोग किया है। स्थानांग सूत्र में देवोद्योत, लोकोद्योत, लोकान्धकार आदि प्रसंगों में तीर्थंकर के विशेष कल्याणपर्यों के अतिशय वर्णन में “अरहंत" शब्द का ही प्रयोग हुआ है। समवायांग सूत्र में अरहतो, अरहा, अरहओ, और अरहंता शब्दों का उपयोग हुआ है। भगवती सूत्र के मंगलाचरण में नमस्कार महामंत्र है और इसके प्रथम पद में “णमो अरहंताणं" दिया गया है। नायाधम्मकहा में तीर्थकरत्व प्राप्ति के उपायों का कथन करते हुए प्रथम उपाय में “अरहंत सिद्ध" शब्द का प्रयोग हुआ है। राजप्रश्नीय सूत्र में महावीर स्तुति के प्रकरण में अरहंताणं शब्द का प्रयोग हुआ है। कल्पसूत्र में भगवान् महावीर के विशद वर्णन के बाद पार्श्वनाथादि जिनेश्वरों के लिए ' अरहा शब्द का प्रयोग किया गया है।

जैन शिलालेखों में अरहंत

कलिंग के चेदी राजवंश के महामेघवाहन मूल के तृतीय सम्राट खारवेल ( ईसा पूर्व प्रथम शती; एक अन्य मत, जिसकी शुद्धता की संभावना कम है, के अनुसार ईसा-पूर्व दूसरी शती) के हाथी-गुफा (भुवनेश्वर के निकट उदयगिरि पहाड़ी की गुफाओं में से एक) के शिलालेख में मौर्यकाल के १६५वें वर्ष के शिलालेख में “नमो अरहंतान" लिखा है।

उदयगिरि : वैकुंठ-गुफा, मौर्यकालीन प्रायः १६५३ वर्षीय एक प्राप्त शिलालेख में 'अरहन्तपसादनं' शब्द का प्रयोग किया है।

प्रथम या द्वितीय ईसवी पूर्व (क्यूरर) पभोसा (इलाहाबाद के पास) में सम्राट आसादसेन द्वारा अंकित शिलालेख में ‘वश्शपीयानं अरहं' शब्द का प्रयोग हुआ है।

महाक्षत्रप शोडाश के ४२वें वर्ष के आर्यावर्त स्थापना की स्मृति हेतु अंकित मथुरा के शिलालेख में “नमो अरहतो वर्धमानस' लिखा है।

मथुरा लैणशोमिका नाम्नी एक उपासिका द्वारा मथुरा में अंकित एक प्राकृत शिलालेख में 'नमो अरहतो वर्धमानस" लिखा है, आगे जैन मंदिर हेतु "अरहतायतन" और "अरहतपूजाये" लिखा है।

लगभग १४-१३ ई. स. पूर्व के गौतीपुत्र की पत्नी कौशिक कुलोद्भूत शिवमिज्ञा द्वारा मथुरा में अंकित शिलालेख में "(न) मो अरहतो वर्धमानस्य" लिखा है। . मथुरा १४-१३ ई. स. पूर्व के गौतीपुत्र इन्द्रपाल द्वारा अंकित एक शिलालेख में “अरहतपूजा" शब्द का प्रयोग हुआ है। हस्तलिखित पत्र (बलहस्तिनी) श्रमणोपासिका द्वारा मथुरा में अंकित शिलालेख में “अरहंतानं" लिखा है।

फगुयश की पत्नी शिघयशा द्वारा जिन-पूजा हेतु निर्मित आयागपट्ट पर अंकित मथुरा के शिलालेख में “नमो अरहंतानं" लिखा है।

मथुरा निवासी लवाड पत्नी द्वारा अंकित मथुरा के शिलालेख में "नमो अरहतो" लिखा है।

मथुरा में हैरण्यक देवकी पुत्री हेतु निर्मित महावीर की प्रतिमा के नीचे “नमो अर्हतो महावीरस्य सं. ९० ३(व) "इस प्रकार अंकित किया है।

मथुरा में वासुदेव.सं. ९८ से आर्यक्षेम के नाम से निर्मित शिलालेख में "नमो अरहतो महावीरस्य" लिखा है।

सिंहनादिक द्वारा मथुरा में अंकित शिलालेख में “नमो अरहंतान" लिखा है। • शिवघोष की भार्या द्वारा अंकित शिलालेख में “नमो अरहतानां" लिखा है।

भद्रनंदी (भद्रनन्दिन्) की पत्नी अचला द्वारा स्थापित मथुरा आयागपट्ट पर अंकित लेख में “नमो अरहंतानं" लिखा है।

सिनविषु (विष्णुषेण) की बहन के दान-स्मृति रूप मथुरा के एक शिलालेख. में "अरहतानं" लिखा है।

मथुरा के १५ भग्न शिलालेख में "(सि) द्ध नमो अरहताणं" लिखा है। मथुरा में सं. २९९ के अंकित शिलालेख में “अरहन्तांना" लिखा है।

देवगिरि (जिला धारवाड) के संस्कृत के लेख में अरिहंत स्तुति रूप एक सुन्दर श्लोक दिया है :

जयत्यहस्त्रिलोकेशः सर्वभूतहिते रतः।
रागाधरिहरोनन्तोनन्तज्ञानदृगीश्वरः॥

शक. ४११ ई. ४८८ में अल्तेम (जिला कोल्हापुर) की संस्कृत पत्रावली में ज्ययत्यनन्तसंसार पारावारैकसेतवः । महावीरार्हतः पूताश्चरणाम्बुजरेणवः ॥

इस प्रकार का श्लोक उपलब्ध होता है।

आगमेतर साहित्य

आगमेतर जैन साहित्य में यत्र-तत्र कई स्थलों पर अरहंत शब्द का विशेषाधिक प्रयोग हुआ है-

ललितविस्तरा में परमात्मस्तुति पाठ की व्याख्या में “अरहंत" शब्द का प्रयोग हुआ है।

प्रोकृतकाव्य कुवलयमाला में परमात्मा की स्तुति में कहते हैं-

एस करेमि पणामं अरहताणं विशुद्ध-कम्माणं ।
सव्वातिसय-समग्गा अरहंता मंगलं मज्ज ॥

अरहंत-णमोकारो जई कीरइ भावओ इह जणेणं ।
तो होइ सिद्धिमग्गो भवे-भवे बोहि-लाभाए ॥

अरहंतणमोकारो तम्हा चिंतेमि सव्वभावेण ।
दुक्ख-सहस्स-विमोक्खं अह मोक्ख जेण पावेमि ॥

"चउपन्नमहापुरिसचरियं" में जैन मंदिर के लिए "अरहंतासणव"१ शब्द का प्रयोग किया गया है।

इस प्रकार "अरहंत" शब्द का प्रयोग आगम एवं अन्य साहित्यों में प्रचुर रूप से प्रयुक्त हुआ है। यह “अरिहंत" शब्द कब, कैसे और किस प्रकार विश्रुत हुआ इसका कोई अता-पता नहीं है।

अर्हत् शब्द पर से ही आर्हत धर्म नाम प्रसिद्ध है। जैनेतर साहित्य-ऋग्वेद में, उपनिषद् में, बौद्ध-साहित्य में भी अर्हन् शब्द का प्रयोग हुआ है।

अरिहंत को आराध्य मानकर भी उन्हें विशेषण मानना असंगत एवं निरर्थक है। संपूर्ण जैन साहित्य में देववंदन भाष्य के अतिरिक्त अन्य स्थलों पर अरिहंत को विशेष्य ही माने गये हैं –

१. अर्हतामेव विशेष्यत्वान्त दोषः । आवश्यक हरिभद्रीय टीका आगमोदय समिति सूरत-पत्र-५०१
२. अर्हतामेव विशेष्यत्वान्त दोषः। ललितविस्तरा-रतलाम-पू. ४४
३. लोगस्सुज्जेयगरा, एवं तु विसेसणंतेसिं चेइयवंदण महाभास-गा. ५५१, पृ. ९२ आत्मानंद जैन सभा- भावनगर
४. अरिहंते इति विशेष्यपदम् योगशास्त्र स्वोपज्ञ विवरण-पत्र २२४ जैन धर्म प्रचारक सभा, भावनगर
५. अरिहंते इति विशेष्यपदम् वंदारु वृत्ति-पृ. ४0 ऋषभदेव केशरीमल श्वे. संस्था, रतलाम।
६. अर्हतः कीर्तयिस्ये, कथंभूतानर्हतः आचार दिनकर-भाग-२ पत्र-२६७ - खरतर ग्रंथमाला
७. अरहते इति विशेष्यपदम् धर्म संग्रह-भा. १, पत्र-१५५ देवचंदलालभाई जैन, पुस्तक-संस्था सूरत

विशेष्य से यहाँ मतलब है-इन विविध विशेषताओं के योग्य, पंचपरमेष्ठी पद के प्रथम अधिष्ठाता और नमस्कार महामंत्र में प्रथम “नमो अरिहंताणं" पद के वाच्याधिकारी परमाराध्य।

भारतीय दर्शन में अरिहंत शब्द की दार्शनिकता

ईश्वर शब्द की व्याख्या एवं व्यापकता

शब्द की ऐतिहासिक धारणा पर विचार करने से ज्ञात होता है कि वैदिक दर्शन के यौवनकाल में ईश्वर शब्द एक विशेष अर्थ में रूढ़ था। उस समय जगत् कर्तृत्व आदि विविध शक्तियों की धारक महाशक्ति को ही ईश्वर के नाम से व्यवहृत किया जाता था, किन्तु अन्तिम कुछ शताब्दियों से ईश्वर का उच्चारण करते ही मनुष्य को सामान्य रूप से परमात्मा का बोध होता है। आज ईश्वर शब्द का उच्चारण करने पर जगनिर्माता, भाग्यविधाता, कर्मफलदाता तथा अवतार-रूप शक्ति-विशेष का बोध नहीं होता है। ईश्वर एक है, सर्वव्यापक है, नित्य है आदि बातों का भी आज ईश्वर शब्द परिचायक नहीं रहा है। आज तो ईश्वर शब्द सीधा परमात्मा का निर्देश करता है, फिर चाहे कोई इसे किसी भी रूप में स्वीकार करता हो। ईश्वर शब्द सामान्य रूप से ङ्केपरमात्मा का निर्देशक होने से आज सप्रिय बन गया है। आत्मवादी सभी दर्शन ईश्वर को आदरास्पद स्वीकार करते हैं।

आज ईश्वर, परमात्मा, सिद्ध, बुद्ध, खुदा आदि सभी शब्द समानार्थक समझे जाते हैं। सैद्धान्तिक और साम्प्रदायिक दृष्टि से इन शब्दों के पीछे किसी का कोई भी पारिभाषिक अभिमत रहा हो, किन्तु जन साधारण इन समस्त शब्दों से परमात्मा का ही बोध प्राप्त करते हैं।