संस्कृत-भाषा में जैन सिद्धान्तोंको गद्य-सूत्रों में निबद्ध करने वाले प्रथम आचार्य गद्धपिच्छ है। इन्हें उमास्वामी और उमास्वाति भी कहा जाता है । पुरातनाचार्य बोरसेन और आचार्य विद्यानन्दने 'गृद्धपिच्छाचार्य' नामसे ही इनका उल्लेख किया है । इन्होंने अपने किसी भी ग्रन्थमें उनके उमास्वामी और उमास्वतिनामोंका उल्लेख नहीं किया । अभय चन्द्रने भी उनका गृद्धपिच्छके नामसे हो उल्लेख किया है।
निर्विवादरूपमें इनकी एक ही कृति मानी जाती है। वह है 'तत्त्वार्थसूत्र'। यह जैन परम्पराका विश्रुत और अधिक मान्य ग्रन्थ-रत्न है। यह समग्र श्रुतका आलोडन कर निकाला गया श्रुतामृत है। जैन साहित्य और शिलालेखोंमें इसका उल्लेख तत्त्वार्थ, तत्त्वार्थशास्त्र, मोक्षशास्त्र, निःश्रेयसशास्त्र, तत्त्वार्थाधिगम जैसे नामोंसे किया गया है।
इसके सूत्र नपे-तुले, अर्थगर्भ, गम्भीर और विशद हैं। इस पर दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओंके आचार्योंने टीकाएं, व्याख्याएँ, टिप्पण, भाष्य, वातिक आदि लिखे हैं और इसे बहु मान दिया है । इन टीकादिमें कई तो इतनी विशाल और गम्भीर हैं कि वे स्वतंत्र ग्रन्थकी योग्यता रखती है। इनमें आचार्य अकलंकदेवका तत्त्वार्थवातिक और वार्तिकोंपर लिखा उनका भाष्य तथा आचार्य विद्यानन्दका तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक और उसपर लिखा गया उन्हींका स्वोषज्ञ भाष्य ऐसी टीकाएं हैं, जिनमें अनेकों विषयोंका विशद एवं विस्तृत विवेचन है ।
आचार्य गद्धपिच्छको उनके अकेले इस तत्त्वार्थसूत्रने अमर एवं यशस्वी बना दिया है । तत्त्वार्थसूत्रके सक्ष्म और गहरे अध्ययनसे उनके व्यक्तित्वका उसके अध्येतापर अमिट प्रभाव पड़ता है। वे सिद्धान्तनिरूपणमें तो कुशल हैं ही, दर्शन और तर्कशास्त्रके भो महापण्डित हैं । तत्त्वार्थसूत्रका आठवां, नवां और दशवां ये तीन अध्याय सिद्धान्तके निरूपक हैं। शेष अध्यायों में सिद्धान्त, दर्शन और न्यायशास्त्रका मिश्रित विवेचन है । यद्यपि दर्शन और न्यायका विवेचन इन अध्यायों में भी कम ही है किन्तु जहाँ जितना उनका प्रतिपादन आवश्यक समझा, उन्होंने वह विशदताके साथ किया है। वह युग मुख्यतया सिद्धान्तोंके प्रतिपादनका था । उनके समर्थन के लिए दर्शन और न्यायकी जितनी आवश्यकता प्रतीत हुई उतना उनका आलम्बन लिया गया है। उदाहरण के लिए कणादका वैशेषिकसूत्र और जैमिनिका भीमांसासूत्र ले सकते हैं। इनमें अपने सिद्धान्तोंका मुख्यतया प्रतिपादन है और दर्शन एवं न्यायका निरूपण आवश्यकतानुसार हुआ है। आचार्य गृद्धपिच्छने इस तत्त्वार्थसूत्रमें भी वही शैली अपनायी है।
तत्वार्थसूत्रके पहले अध्यायके ५, ७, ब ८ संख्यक सूत्रोंमें आगमानुसार सिद्धान्तका और इसी अध्यायके ६, १०, ११, १२ संख्यक सूत्रोंमें दर्शनका तथा इसी अध्यायके ३१ व ३२ सूत्रों एवं दशवें अध्यायके ५, ६, ७, ८ सूत्रोंमें न्याय (तर्क) का विवेचन इस बातको बतलाता है कि तत्त्वार्थसूत्र में सिद्धान्तोंके प्रतिपादनके साथ दर्शन और न्यायका भी प्रतिपादन उपलब्ध है, जो अध्येताओंके लिए समयानुसार आवश्यक रहा है।
तत्त्वार्थसूत्रकार को इस संस्कृत गद्य-सूत्ररचनाके समय अनेक स्थितियोंका सामना करना पड़ा होगा, क्योंकि उनके पूर्व श्रमणपरम्परामें प्राकृत-भाषामें ही गद्य या पद्य ग्रन्योंके रचनेकी अपनी परम्परा थी । सम्भव है उनके इस प्रयत्नका आरम्भमें विरोध भी किया गया हो और इसीसे इस गद्यसूत्र संस्कृतग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्रको कई शताब्दियों तक किसी आचार्यने छुआ नहीं-उस पर किसीने कोई वृत्ति, टोका, वार्तिक, भाष्य आदिके रूपमें कुछ नहीं लिखा । देवनन्दि-पूज्यपाद (छठी शताब्दी) हो एक ऐसे आचार्य हैं, जिन्होंने उसपर तत्त्वार्थवृत्ति-सर्वार्थसिद्धि लिखी और उसके छिपे महत्त्वको प्रकट किया । फिर तो आगे अकलंकदेव, विद्यानन्द, सिद्धसेन गणी आदिके लिए मार्ग प्रशस्त हो गया।
इस सूत्र-ग्रन्थमें वैशेषिकसूत्रकी तरह १० अध्याय हैं और आदि तथा अन्तमें एक-एक पद्य है । आदिका पद्य मङ्गलाचरणके रूप में है और अन्तका पद्य ग्रन्थसमाप्ति एवं लघुता सूचक है । वे ये हैं-
आदि पद्य-
मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥
अन्तिम पद्य-
अक्षर-मात्र-पद-स्वरहीनं व्यंजन-संधि-विवर्जितरेफम् । साधुभिरत्र मम क्षमितव्यं को न विमुह्यति शास्त्र-समुद्रे ॥
वस्तुतः आचार्य गृद्धपिच्छ और उनके तत्वार्थसत्रका समग्र जैन वाङ्मयमें सम्मानपूर्ण एवं विशिष्ट स्थान है।