आपने पढ़ा होगा और सुना होगा---'आचारः परमो धर्मः ।' अर्थात् आचरण को पूर्ण विशुद्ध रम्बना सबसे बड़ा धर्म है।
मानव के जीवन में आचार को प्रधानता दी गई है । जिसका आचरण पवित्र होता है, उस व्यक्ति का संसार में सम्मान होता है और वह अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है । यद्यपि इस जगत में अनेक व्यक्ति रूपसम्पन्न होते हैं, अनेक धनसम्पन्न होते हैं और अनेक सत्तासम्पन्न पाये जाते हैं। किन्तु अगर वे आचार सम्पन्न नहीं होते तो उनकी अन्य सम्पन्नताएं व्यर्थ मानी जाती हैं। उस तिजोरी के समान जो आकार में बड़ी है, सुन्दर है और फौलाद के समान मजवुत है, किन्तु अन्दर मे खाली है, एक पाई भी उसमें नहीं है। जिस प्रकार ऐसी तिजोरी का होना न होना बराबर है, ठीक इसी प्रकार अन्य अनेक विशेषतायें होते भी आचरणहीन व्यक्ति का होना, न होना समान है। मी तिजोरी के ममान ही उस मनुष्य का कोई महत्व नहीं है।
आचार का अर्थ है-मर्यादित जीवन बिताना। अगर व्यक्ति अपने जीवन को मर्यादा में नहीं अर्थात् अपनी इन्द्रिया पर एवं मन पर संयम नहीं रखता तो उगका आचरण भी कदापि शुद्ध नहीं रह पाता।
तीन प्रकार के योग माने गये हैं। वे हैं..—मनोयोग, बचनयोग एवं काययोग।
मनोयोग का काम है--चिन्तन करना या विचार करना। आप चाहे उत्तम कार्य करें या अधम कार्य करें, दोनों के लिए ही पहले मनोयोग द्वारा विचार किया जायेगा कि कार्य किस प्रकार और किम विधि से करना है। इन सब बातों का निश्चय करना ही मनोयोग का काम है।
मनोयोग के पश्चात बचनयोग का कार्य प्रारम्भ होता है। मन के द्वारा किसी भी कार्य के करने का निश्चय हो जाने पर वे विचार जबान पर आते हैं। वापी मन में उमड़ने वाले विचारों की हो प्रतिध्वनि होती है। अगर मन में विचार न आयें तो वे वाणी में भी नहीं उतर सकते। क्योंकि बाणी में विचार करने की शक्ति नहीं है। केवल उच्चारण करने की मामथ्र्य होती है। इसलिए विचार न होने पर उच्चारण भी नहीं हो सकता है ।
विचार, उच्चार और आचार, इन तीनों में चर धातु का प्रयोग होता है, जिसका अर्थ है 'चलना' ! मन में विचार आया कि ऐसा करना है तो बचन के द्वारा शब्द उठते हैं कि हमको ऐसा करना है। विचार चाहे सामाजिक विषय से सम्बन्ध रखता हो अथवा राजनीति से। वे मन में उठते हैं और तव वचनों से जाहिर होते हैं। कहने का अर्थ यह है कि किसी भी कार्य की नींव मन के विचारों से देखी जाती है, अतः मन में शुद्ध विचार आने चाहिए । जिन व्यक्तियों के पल्ले में पूण्य होता है, उनके मन में शुभ विचार आते हैं और उसके विपरीत जो पूण्यहीन हैं, उनके मन में अशुभ विचारों का उदय होता है।
पहले मन में विचार आते हैं, उसके पश्चात वे वाणी द्वारा उच्चरित होते हैं और उसके बाद आचरण में व्यबहन होते हैं । जब तक विचार कार्य रूप में नहीं आते अर्थात् आचरण में नहीं लाये जाते तब तक उनका कोई महत्व नहीं माना जाता। इसीलिए शास्त्रकारों ने आचार को महत्व दिया है। यद्यपि रत्नत्रय में पहले सम्यग्दर्गन, फिर सम्यक्ज्ञान और उसके बाद सम्यक चारित्र का नम्बर है। सम्यग्दर्शन से ज्ञान पवित्र होता है और ज्ञान के साथ विवेक मिलकर आचरण को शुद्ध और सम्यक बनाते हैं । तो पहाल मम्यगदर्शन यानी श्रद्धा होती है और उसके बाद सम्यक ज्ञान । किन्तु इन दोनों के होने पर भी अगर चारित्र न रहा तो दोनों की कोई कीमत नहीं है ।
आप कहेंगे ऐसा क्यों ? वह इसलिए कि जिस तरह आप मकान बनवाते समय कम्पाउण्ड, दरवाजा बम्भ और दीवाले सभी कुछ बनवा लेते हैं, किन्तु छत नहीं बनाई गई तो वह मकान क्या आपको सर्दी, गर्मी और बरसात से बना सकेगा ? नहीं, छत के अभाव में आपके मकान की दीवारें, खिड़कियाँ और रास्ते किसी काम नहीं आयेंगे ।
इसी प्रकार मन से विचार कर लिया, वाणी से उसको प्रकट भी किया किन्तु जब तक उसे आचरण के द्वारा जीवन में नहीं उतारा तो विचार और उच्चार से क्या लाभ हआ? कुछ भी नहीं। आत्म-कल्याण के लिए आचरण आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है।
पाक गाथा आपके मामने रखता है, जिसे बड़ी गम्भीरता से समझने की आवश्यकता है। गाथा इस प्रकार है-
अंगाणं कि सारो, आधारो तस्स कि सारो। अंग्रहो मत्थो सारो, तस्मवि परूषणा शुद्धी ।।
व्यावहारिक भाषा में अंग शरीर को कहते हैं। पारमाथिक दृष्टि से यहाँ अंग का अर्थ द्वादशांग रूप वाणी से है । तो यहाँ गाथा में प्रश्नोत्तर के द्वारा अंग और उसकी उत्तरवर्ती बातों का सार पुछा गया है। प्रश्नकता ने पहला प्रश्न पूछा है कि 'अंगाणं किसारो' अर्थात् द्वादशांग वाणी का क्या सार है ? उत्तर दिया गया है—'आयागे' इनका सार आचरण है । अंगों का सार आचरण करना बताया है।
फिर प्रश्न पूछा गया है उसका भी क्या सार है ? तो उसका उत्तर दिया गया है-—भगवान के फरमाय हए जिन आदेशों को पढ़ा, श्रवण किया, धर्म शास्त्रों से जाना, उम पर चिन्तन करते हुए उसके पीछे-पीछे चलना यानी अनुसरण करना । फिर प्रश्न पूछा गया है--- उमका भी सार क्या है ? तो उत्तर मिला-प्ररूपणा अर्थात् परोपदेश देना । क्योंकि हम भगवान की आज्ञानुसार ले तो अपने लिए ही कुछ किया किन्तु उससे जनता को क्या लाभ मिला? अतः भगवान की आज्ञाओं को औरों के हृदय में बिटाना तथा उन्हें सरल ढंग से समझने के लिए उपदेश देना । अगर एक व्यक्ति स्वयं सन्मार्ग पर चलता । है, तो वह अच्छा ही है पर कुमार्ग पर जाने वाल अन्य व्यक्ति को भी मन्मार्ग पर ले आता है तो वह बड़े पुण्य का कार्य है।
आप देखते हैं कि मन्त मुनिराज सदा एक गांव से दूसरे गाँव में जाते हैं। वह क्या? क्या उन्हें लोगों से पैमा की वसूली करनी है, अथवा सेठ साहकारों से कोई जागीर लेनी है ? नहीं, वे केवल इसलिए विचरण करते हैं कि जो व्यक्ति धर्म क्या है यह नहीं जानते और शास्त्र या उसकी वाणी क्या होती है, यह नहीं समझते तो उन्हें इन बातों की जानकारी दी जा सके | ऐसा किये बिना धर्म का प्रचार और प्रसार नहीं हो सकता । तो आचरण का मार प्ररूपणा अर्थात् अज्ञानियों को सदृपदेश देकर सन्मार्ग पर लाने में है।
इस गाधा के बाद आगे की गाथा में और कहा गया है—
सारो परुवणाए चरणं तस्स विय होड निवाणं । निव्वाणस्स उ सारो अब्बावाहं जिणा हंति ॥
गाथा में पुनः प्रश्न किया गया है कि-प्ररूपाणा का मार क्या है ? उत्तर दिया गया है-चरण । अर्थात् आचरण करना । उत्तर यथार्थ है कि हम जिस बात की प्ररूपणा करें यानी जिम कार्य को करने का औरों को उपदेश दें, पहले स्वयं भी उसका पालन करे। क्योंकि-
'परोपदेश पांडित्यं सर्वधाम् सुकर नृणाम् ।
दूसरों को उपदेश देना और उनके समक्ष अपने पांडित्य का प्रदर्शन करना सरल है, पर उसके अनुसार हमारा स्वयं का आचरण भी पहले होना चाहिए, तभी लोगों पर हमारी वात का प्रभाव पड़ सकता है।
मुल्त मुनिराजों की शिक्षाओं का प्रभाव लोगों पर जल्दी क्यों पड़ता है ? इसलिए कि वे जिस कार्य को जनता से कराना चाहते हैं, पहले स्वयं करते हैं। अगर वे ऐसा न करें तो लोग उनके आदेशों को नहीं मान सकते।
आप स्वयं भी यह महसूस करते होगे कि अगर हम रात्रि को भोजन करें और आपको रात्रिभोजन करने का त्याग करायें तो आप मानेंगे क्या? इसी प्रकार अगर हम बीड़ी, सिगरेट या मदिरा का सेवन करते रहें और आपसे उसे छोड़ने को कहें तो आप उन्हें छोड़ेंगे क्या? नहीं। तो बन्धुओ । प्ररूपणा करने के लिए पहले स्वयं किया करनी पड़ेगी । इसीलिए शास्त्रकारों ने कहा है- प्ररूपणा का मार स्वयं आचरण करना है।
धर्म के तीन अंग है-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । जीवन में दर्शन अर्थात् श्रद्धा का होना आवश्यक है, ज्ञान का होना भी अनिवार्य है, किन्तु उन दोनों को क्रियात्मक रूप देने के लिए चारित्र या आचरण का होना तो श्रद्धा व ज्ञान की अपेक्षा भी अधिक महत्वपूर्ण है। केवल श्रद्धा और ज्ञान में क्या हो सकता है, जबकि उनका कोई उपयोग ही न किया जाये ।
संत तुकाराम महाराज ने कहा है—
'बोलालाच भात बोलाचीच कढ़ी, खानियां तप्त कोण झाला ?'
तात्पर्य यह है कि आपने लोगों को भोजन के लिए आमंत्रित किया । ममय पर पंगत खाने के लिए बैठ भी गई। किन्तु आपके पास खाद्य वस्तु कोई भी तैयार नहीं है और आप उन व्यक्तियों के सामने घूम-घूम कर कहते हैं- 'लीजिये साहब ! चावल लीजिए, कढी लीजिए।
लेकिन बर्तन आपका खाली है और आप केवल जबान से ही कढ़ी और चावल परोस रहे हैं तो बतइये आपके बोलते रहने मात्र से ही क्या भोजन करने वाले तृप्त हो जायेंगे ? नहीं। तो जिस प्रकार कढ़ी और भात के उच्चारण मात्र से भोजन करने वालों के पेट नहीं भर सकते, उसी प्रकार हृदय में श्रद्धा और मस्तिष्क में ज्ञान होने मात्र से ही उनका लाभ आत्मकल्याण के रूप में हासिल नहीं हो सकता, जब तक कि उन्हें आचरण में न लाया जाये ।
गाथा में आगे पूछा है. उसका भी सार क्या है ? आचरण का सार क्या है ? तो उत्तर में कहा है"निवाणं ।' निवाणं यानी निर्वाण । अगर व्यक्ति शुद्ध चारित्र का पालन करता है तो निर्वाण की प्राप्ति होती है । कहा भी है—
'भिक्खाए या निहत्थे वा सुब्बए कम्मई दिवं ।'
भिक्षु हो चाहे गृहस्थ हो, जो सुबती सदाचारी है, वह दिव्य गति को प्राप्त होता है ।
तो पूर्वोक्त कथन का सार संक्षेप में इस प्रकार है...
द्वादशांग का सार है आचार। आचार का सार अंगहो यानी आज्ञा के पीछे चलना । उसका भी मार--प्रमपणा यानी परोपदेश । प्ररूपणा का सार--चारित्र का पालन करना । चारित्र का सार-निधिः तथा निर्वाण का मार---अव्वावाहं जिणाहुत्ति यानी जिनेश्वर भगवान ने फरमाया है कि अगर निर्वाण प्राप्त करना है तो पहले आचार को ग्रहण करो, फिर भगवान की आज्ञा के पीछे चलो, बाद में प्ररूपणा से औरों को सन्मार्ग पर लाओ, फिर चारित्र का पालन करो जिससे निर्वाण प्राप्त हो । निर्वाण याने अक्षय शान्ति । आत्मा उस स्थान पर पहुँच जाती है जहाँ किसी भी प्रकार की बाधा या पीड़ा नहीं होती। बाधा इसलिए नहीं होती कि शरीर नहीं होता और पीड़ा इसलिए नहीं होती, क्योंकि कर्म नहीं होता ।
तो बन्धुओ समस्त पीड़ाओं एवं बाधाओं से रहित, अक्षय शांति और सुख प्रदान करने वाले ऐसे अपूर्व स्थान पर पहुँचने के लिए उत्कृष्ट चारित्र ही एकमात्र साधन है । अगर हम शुद्ध चारित्र का पालन करते हैं तो हमारे दर्शन और ज्ञान का भी सम्यक उपयोग हो सकता है। श्रद्धा का कार्य आपको धर्म पर विश्वास रखना तथा ज्ञान का कार्य आपको मुक्ति के मार्ग की पहचान कराना है, किन्तु चारित्र का काम है आपको उस मार्ग पर चलाना । आप जानते हैं कि कहीं भी जाने वाले मार्ग पर विश्वास रखना और उस मार्ग की पहचान हो जाना ही काफी नहीं होता। सबसे जरूरी होता है उस मार्ग पर चलना। यही हाल मोक्ष मार्ग का है। इस पर श्रद्धा रखना और इसका ज्ञान होना ही मुमुक्षु के लिए काफी नहीं है, उसके लिए मबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है उस मार्ग पर चलना । और चलने का दूसरा नाम ही चारित्र है।
आशा है चारित्र के महत्व को पूर्णतया हृदयंगम करते हुए आप अपने जीवन को दृढ़ एवं शुद्ध चारित्र से अलंकृत करेंगे तथा अपनी मंजिल के समीप पहुँचने का प्रयत्न करेंगे।
मरिता का मधुर जल भी संग्रहशील सागर के पास पहुँचकर मारा बन जाता है। क्यों ? और फिर पूनः सरिता में आते ही वह मधुर बन जाता है। क्यों? सरिता-देती है, सागर-लेता है। देने वाला सदा मधुर रहता है, लेने वाला कडुवा बन जाता है ।
सरल बाण सोधा अपने लक्ष्य तक पहुंचता है, किन्तु वक्र धनुष वहीं का वहीं पड़ा रहता है । सरलता लक्ष्य पर पहुंचा देती है वक्रता मटकाती है ।