विश्व के लिए वही आदर्श मान्य हो सकता है, जिसमें किसी सम्प्रदाय-विश्ेष की छाप न हो। अथवा जो आदर्श प्राणीमात्र के लिए उपादय हो, वही विश्व को प्रभावित कर सकता है। णमोकार महामन्त्र का आदर्श किसी सम्प्रदाय विशेष का आदर्श नहीं है। इसमें नमस्कार की गयी आत्माएँ अहिंसा की विशुद्ध मूर्ति हैं। अहिंसा ऐसा धर्म है, जिसका पालन प्राणी मात्र कर सकता है अैर इस आदर्श द्वारा सबको सुखी बनाया जा सकता है। जब व्यक्ति में अहिंसा धर्म पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हो जाता है तब उसके दर्शन और स्मरण से सभी का सर्वत्र कल्यण होता है। कहा भी गया है कि-‘‘अहिंसा-प्रतिष्ठायां तत्संनिधौ वैरत्याग‘’’ अर्थात् अहिंसा की प्रतिष्ठा हो जाने पर व्यक्ति के समक्ष क्रूर ओर दुष्ट जीव भी अपनी वैर भावना का त्याग कर देते हैं। जहाँ अहिंसक रहता है,वहाँ दुष्काल, महामारी, आकस्मिक विपतियाँ एवं अन्य प्रकार के दुःख पापी मात्र को व्याप्त नहीं होते। अहिंसक व्यक्ति के सन्निधान से समस्त प्राणियों को सुख-शान्ति मिलती है। अहिंसक की आत्मा में इतनी शक्ति उत्पन्न हो जाती है, जिससे उसके निकटवर्ती वातावरण में पूर्ण शन्ति व्याप्त हो जाती है।
जो प्रभाव अहिंसक के प्रत्यक्ष रहने से होता है, वही प्रभाव उसके नाम और गुणों के स्मरण से भी होता है। विशिष्ट व्यक्तियों के गुणों के चिन्तन से समान्य व्यक्तियें के हृदय में अपूर्व उल्लास, आनन्द, तृप्ति एवं तद्रूप बनने की प्रवृत्ति उत्पन्न होती हैं णमोकार मन्त्र में प्रतिपादित विभूमियों में विश्वकल्याण की भावना विशेष रूपसे अन्तर्निहित है। स्वयं शुद्ध हो जाने के कारण ये आत्माएँ संसार के जीवो को सत्यमार्ग का प्ररूपण करने में समर्थ हैं तथा विश्व का प्रणीवर्ग उस कल्याणकारी पक्ष का अनुसरण कर अपना हित साधन कर सकता है।
विश्व में कीट-पतंग से लेकर मानव तक जितने प्राणी है, सब सुख और आनन्द चाहते हैं। वे इस आनन्द की प्राप्ति में पर-वस्तुओं को अपना समझते हैं। तृष्णा, मोह, राग, क्ष्ेष आदि मनोवेगों के कारण नानाप्रकार के कुआचरण कर भी सुख प्राप्त करने की इच्छा करते हैं। परन्तु विश्व के प्राण्यिों को सुख प्राप्त नहीं हो पाता है। अहिंसक स्व पर कल्याणकारक आत्माओं का आदर्श ऐसा ही है जिसके द्वारा सभी अपना विश्वास ओर कल्याण कर सकते हैं। जिन पर वस्तुओं के भ्रमवश अपना समझने के कारण अशान्ति का अनुभव करना पड़ रहा है, उन सभी वस्तुओं से मोह बुद्धि दूर हो सकती है। अनात्मिक भावनाएँ निकल जाती है ओर आत्मिक प्रवृत्ति होने लगती है। जब तक व्यक्ति भौतिकवाद की ओर झुका रहता है, असत्य को सत्य सममझता है, तब तक वह संसार-परिभ्रमण को दूर नहीं कर सकता। णमोकार मन्त्र की भावना व्यक्ति में समृद्धि जाग्रत करती है, उसमें आत्मा के प्रति अटूट आस्था उत्पन्न करती है, तत्त्वज्ञान को उत्पन्न कर आत्मिक विकास के लिए प्रेरित करती है अैर बनाती है व्यक्ति को आत्मवादी।
यह मानी हुई बात है कि विश्वकल्याण उसी व्यक्ति से हो सकता है,जो पहले अपनी भालाई कर चुका हो। जिसमें स्वयं दोष, गलती, बुराई एवं दुर्गुण होंगे, वह अन्य के दोषों का परिर्माजन कभी नहीं कर सकता है और न उनका आदर्श समाज के लिए कल्याण प्रद हो सकता हैं कल्याणमयी प्रवृत्तियाँ तभी सम्भव हैं, जब आत्मा स्वच्छ और निर्मल हो जाए। अशुद्ध प्रवृत्तियों के रहने पर कल्याणमयी प्रवृत्ति नहीं हो सकती ओर उस व्यक्ति त्यागमय जीवन को अपना सकता है। व्यक्ति, राष्ट्र, देश, समाज, परिवार ओर स्वयं अपनी उन्नति स्वार्थ, मोह और अहंकार के रहते हुए कभी नहीं हो सकती है। अतएव णमोकार मन्त्र का आदर्श विश्व के समस्त प्राणियों के लिए उपादेश दिये है। इस आदर्श के अपनाने से सभी अपना हित साधन कर सकते है।
इस महामन्त्र में किसी दैवी शक्ति को नमस्कार नहीं किया गया है, किन्तु उन शुद्ध प्रवृत्ति वाले मानव को नमस्कार किया है, जिनके समस्त क्रिया-व्यापार मानव समाज के लिए किसी भी पकार का पीड़ादायक नहीं होते हैं। दूसरे शब्दों में, यों कहना चाहिए कि इस मन्त्र में विकार रहित-सांसारिक प्रपंच से दूर रहने वाले मानव को नमस्कार किया गया है। इन विशुद्ध मानवों ने अपने पुरूषार्थ द्वारा काम, क्रोध, लोभ, मोहादि विकारों को जीत लिया है, जिससे इनमें स्वाभाविक गुण प्रकट हो गये हैं। प्रायः देखा जाता है कि साधारण मनुष्य अज्ञान और राग-द्वेष के कारण स्वयं गलती करता है तथा गलत उपदेश देता है। जब मनुष्य की उक्त दोनों कमजोरियाँ निकल जाती हैं तब व्यक्ति यथार्थ ज्ञाता द्रष्टा हो जाता है और अन्य लोगों को भी यथार्थ बातें बतलाते है। पंचपरमेष्ठी इसी प्रकार के शुद्धात्मा हैं। उनमें रत्नत्रय गुण प्रकट हो गया है, अतः वे परमात्मा भी कहलाते हैं। इनका नैसर्गिक वेष वीतरागता का सूचक होता है। ये निर्विकारी आत्मा विश्व के समस्त प्राणियों का हित-साधन कर सकते हैं। यदि विश्व मे इस महामन्त्र के आदर्श का प्रचार हो जाए तो आज जो भौतिक संघर्ष हो रहा है, एक राष्ट्र का मानव-समुदाय अपनी परिग्रह-पिपासा को शान्त करने के लिए दूसरे देश के मानव-समूह को परमाणु बम का निशाना बना रहा है, शीघ्र दूर हो जाए। मैत्री भावना का प्रचार, अहंकार और ममता का त्याग इस मन्त्र द्वारा ही हो सकता है, अतः विश्व के प्राणियों के लिए बना किसी भेद भाव के यह महामन्त्र शान्ति और सुखदाय है। इसमें किसी मत, सम्प्रदय या धर्म की बात नहीं है। जो भी आत्मवादी हैं, उन सबके लिए यह मन्त्र उपादेय है।