वैदिक धर्मानुयायियों में जो ख्यति और प्रचार गायत्री मन्त्र का है, बौद्धों में त्रिसरण-त्रिशरण मन्त्र का है, जैनों में वही ख्याति और प्रचार णमोकार मन्त्र का है। समस्त धार्मिक और सामाजिक कृत्यों के आरम्भ में इस महामन्त्र का उच्चारण किया जाता हैं। जैन-सम्प्रदाय का यह दैनिक जाप-मन्त्र है। इस मन्त्र का प्रचार तीनों सम्प्रदायों-दिगम्बर, श्वेताम्बर और स्थानकवासियों में समान रूप से पाया जाता है। तीनों सम्प्रदाय के प्राचीनतम साहित्य में भी इसका उल्लेख मिलता है। इस मन्त्र में पाँच पद अट्ठावन मात्रा और पैंतीस अक्षर हैं। मन्त्र निम्न प्रकार ह़ै:
अर्थ- अरिहन्तों या अर्हन्तों को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, आचार्यों को नमसकार हो, उपाध्यायों को नमस्कार हो और लोक के सर्व-साधुओं को नमस्कार हो।
‘णमो अरिहंताणं’ अरिहननादरिहन्ता नरकतिर्यक्कुमानष्यप्रेतवासगताशेष-दुःखप्राप्तिनिमित्तवादरिर्मोहः। तथा च शेषकर्मव्यापारो वैफल्यमुपेयादिति चेन्न, शेषकर्मणां मोहतन्त्रत्वात्। न हि मोहमन्तरण शेषक्र्माणि स्वकार्यनिष्पत्तै व्यापृतान्युपलभ्यन्ते येन तेषां स्वातऩ्यं जायते। मोहे वेनष्टेऽपि कियन्तमपि कालं शेषकर्मणां सत्त्वोपलम्भान्न तेषां तत्तन्त्रत्वमिति चेन्न, विनष्टेऽरौ जन्ममरण-प्रबन्धलक्षणसंसारोत्पादनसामथ्र्यमन्तरेण तत्सत्त्वसमानत्वात् केवल-ज्ञानाद्यशेषत्मगुणाविर्भावप्रतिबन्धनप्रत्ययसमर्थत्वाच्च। तस्यारेर्हननादरिहन्ता।
रजोहननाद्वा अरिहन्ता। ज्ञानदृगावरणानि रजांसीव बहिरंगान्तरगाशेष-त्रिकालगोचरानन्तार्थव्यंजनपरिणामात्मकवस्तुविषयबोधानुीावप्रतिबधकत्वाद्-रजांसि। मोहोऽपि रजःभस्मरजसा पूरिताननानामिव भूयो मोहावरूद्धात्मनां जिह्मभावोपलम्भात्। किमिति त्रितयस्यैव विनाश उपदिश्यत इति चेन्न, एतद्विनाशस्य शेषकर्मविनाशाविनाभावित्वात् तेषां हनानादरिहन्ता।
रहस्याभावाद्वा अरिहन्ता। रहस्यमन्तरायः तस्य शेषघातित्रितयविनाशा-विनाभाविनों भ्रष्टबीजवन्निः शक्तिकृताघातिकर्मणो हननादरिहन्ता।
अतिशयपूजार्हत्वाद्वार्हन्तः। स्वर्गावतरणजन्माभिषेकपरिनिष्क्रमणकेवल-ज्ञानोत्पत्तिपरिनिर्वाणेषु देवकृतानां पूजानां देवासुरमानवप्राप्तपूजाभ्योऽधिकत्वा-दतिशयानामर्हत्त्वाद्योग्यत्वादर्हन्त1।
णमो अरिहंताणं-णमो-नमस्कारः। केभ्यः। केभ्यः? अर्हद्भ्यः शत्र्कादिकृतां पूजां सिद्धिगतिं चार्हन्तस्तेभ्यः। अरीन्-रागद्वेषदीन् ध्नन्तीति अरिहन्तारः तेभ्योऽरिहन्तृभ्यः, न रोहन्ति-नोत्पद्यन्ते अरिहन्तरः तेभ्योऽरिहन्तृभ्यः न रोहन्ति-नोत्पद्यन्ते दग्धकर्मबीजत्वात्-पुनः संसारे न जायन्ते इत्यरूहन्तः तेभ्योऽरूहद्भ्यो नमो नमस्कारोऽस्तु2।
अरिहननाद् रजोहनन{स्या}भावाच्च परिप्राप्तानन्तचतुष्टयस्वरूपः सन् इन्द्रनिर्मितामतिशयवर्ती पूजामर्हतीति अर्हन्। घातिक्षयजमनन्तज्ञानदिचतुष्टयं विभूत्याद्यं यस्येति वार्हन्3।
अर्थात्-‘णमो अरिहंताणं’ इस पद में अरिहन्तों को नमस्कार किया गया है। अरि-शत्रुओं के नाश करनेसे ‘अरिहन्त’ यह संज्ञा प्राप्त होती है। नरक, तिर्यंच, कुमानुष और प्रेत इन पर्यायों में निवास करने से होनेवाले समस्त दुःखों की प्राप्ति का निमित्त कारण होने से मोह को अरि-शत्रु कहा गया है।
शंका-केवल मोह को ही अरि मानलेने पर शेष कर्मों का व्यापार-कार्य निष्फल हो जाएगा?
1 धवला टीका प्रथम पुस्तक, पृ. 42-44।
2 सप्तस्मरणानि, पृ. 2।
3 अमरकीर्ति विरचित नाममाला का भाष्य, पृ. 58-59।
4 मंगलमन्त्र मणेकार: अनुचिन्तन
समाधान-यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि अवशेष सभी कर्म मोह के अधीन हैं। मोह के अभाव में अवशेष कर्म अपना कार्य उत्पन्न करने में असमर्थ हैं। अतः मोह की ही प्रधानता है।
शंकाकार-मोह के नष्ट हो जानेपर भी कितने ही काल तक शेष कर्मों की सत्ता रहती है, इसलिए उनको मोह के अधीन मानना उचित नहीं?
समाधान-ऐसा नही समझना चाहिए; क्योंकि मोहरूप अरि के नष्ट हो जाने पर जन्म, मरण की परम्पररूप संसार के उत्पादन की शक्ति शेष कर्मों में नहीं रहने से उन कर्मों का सत्त्व असत्त्व के समान हो जाता है। तथा केवलज्ञानादि समस्त आत्मगुणों के अविर्भाव के रोकने में समर्थ कारण होने से भी मोह को प्रधान शुत्र कहा जाता है। अतः उसके नाश करने से ‘अरिहन्त’ संज्ञा प्राप्त होती है।
अथवा रज-आवरण कर्मों के नाश करने से ‘अरिहन्त’ यह संज्ञा प्राप्त होती है। ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मधूलि की तरह बाहृ और अन्तरंग समस्त त्रिकाल के विषयभूत अनन्त अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय रूप वस्तुओं को विषय करनेवाले बोध और अनुभव के प्रतिबन्धक होने से रज कहलाते हैं। मोह को भी रज कहा जाता है,क्योंकि जिस प्रकार जिनका मुख भस्म से व्याप्त होता है, उनमें कार्य की मन्दता देखी जाती है, उसी प्रकार मोह से जिनकी आत्मा व्याप्त रहती है, उनकी स्वानुभूति में कालुष्य, मन्दता पायी जाती है।
अथवा, ‘रहस्य’ के अभाव से भी अरिहन्त संज्ञा प्राप्त होती है। रहस्य अन्तराय कर्म को कहते हैं। अन्तराय का नाश शेष घातिया कर्मों के नाश का अविनाभावाी है और अन्तराय कर्म के नाश होने पर अघातिया कर्म भ्रष्ट बीज के समान निःशक्त हो जाते हैं। इस प्रकार अन्तराय कर्म के नाश से अरिहन्त संज्ञा प्राप्त होती है।
अथवा सातिशय पूजा के योग्य होने से अर्हन् संज्ञा प्राप्त होती है; क्योंकि गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवल और निर्वाण इन पाँचों कल्याणकों में देवों द्वारा की गयी पूजाएँ, देव, असुर, मनुष्यों की प्राप्त पूजाओं से अधिक हैं। अतः अतिशयों के योग्य होने से अर्हन् संज्ञा प्राप्त होती है।
इन्द्रादि के द्वारा पूज्य, सिद्धगति को प्राप्त होनेवाले अर्हन्त या राग-द्वेष रूप शत्रुओं के नाश करनेवाले अरिहन्त अथवा जिस प्रकार जला हुआ बीज उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार कर्म नष्ट हो जाने के कारण पुनर्जन्म से रहित अर्हन्तों को नमस्कार किया है।
कर्मरूपी शत्रुओं के नाश करनेसे तथा कर्मरूपी रज न होने से अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यरूप अनन्तचतुष्टय के प्राप्त होने पर इन्द्रादि के द्वारा निर्मित पूजा को प्राप्त होनेवाले अर्हन् अथवा घातिया-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चारों कर्मों के नाश होने से अनन्तचतुष्टय विभूति जिनको प्राप्त हो गयी है, उन अर्हन्तों को नमस्कार किया गया है।
जो संसार से विरक्त होकर घर छोड़ मुनिधर्म स्वीकार कर लेते हैं तथा अपनी आत्मा का स्वभाव साधन कर चार घातिया कर्मों के नाश द्वारा अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तमुख और अनन्तवीर्य इस अनन्त चतुष्टय को प्राप्त कर लेते हैं, वे अर्हन्त हैं। ये अर्हन्त अपने दिव्य ज्ञान द्वारा संसार के समस्त पदार्थों की समस्त अवस्थाओं को प्रत्येक रूप से जानते हैं, अपने दिव्यदर्शन द्वारा समस्त पदार्थों का सामान्य अवलोकन करते हैं। ये आकुलतारहित परम आनन्द का अनुभव करते हैं। क्षुधा, तृषा, भय, राग, द्वेष, मोह, चिन्ता, बुढ़ापा, रोग, मरण, पसीना, खेद, अभिमान, रति, आश्चर्य, जन्म, नींद और शोक इन अठारह दोषों से रहित होने के कारण परम शान्त होते हैं, अतः वे देव कहलाते हैं। इनका परमौदारिक शरीर उन सभी शास्त्र, वस्त्रादि अथवा अंगविकारादि से रहित होता है, जो काम, क्रोधादि निन्द्य भावों के चिन्ह हैं। इनके वचनों से लोक में धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति होती है, जिनसे समस्त प्राणी इनके उपदेश का अनुसरण कर अपना कल्याण करते हैं। अरहन्त परमेष्ठी में 46 मूल गुण होते हैं-इस अतिशय जन्म समय के, दस अतिशय केवलज्ञान के, चैदह अतिशय देवों के द्वारा निर्मित, आठ प्रातिहार्य और चार अनन्तचतुष्टय। इनमें प्रभुता के अनेक चिन्ह वर्तमान रहते हैं तथा ऐसे अनेक अतिशय और नाना प्रकार के वैभवों का संयोग पाया जाता है, जिनसे लौकिक जीव आश्चर्यान्वित हो जाते हैं। अर्हन्तों के मूल दो भेद हैं-सामान्य अर्हन्त और तीर्थंकर अर्हन्त। अतिशय और धर्मतीर्थ का प्रवर्तन तीर्थंकर अर्हन्त में ही पाया जाता है। अन्य विशेषताएं दोनों की समान होती हैं। कोई भी आत्मा तपश्चरण द्वारा घातिया कर्मों को नष्ट करने पर अर्हन्त पद को प्राप्त कर सकता है।
प्रत्येक अर्हन्त भगवान में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य, क्षायिकसम्यक्व, क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग और क्षायिक उपभोग आदि गुणों के प्रकट हो जानेसे सिद्ध स्वरूप की झलक आ जाती है।, राग-द्वेष और मोहरूप-त्रिपुर को नष्ट करने के कारण त्रिपुरारी, संसार में शान्ति करने के कारण शंकर, तीनों नेत्रों-नेत्रद्वय और केवलज्ञान से संसार के समस्त पदाथो्रं को देखने के कारणत्रिनेत्र एवं कामविकार को जीतने के कारण कामारि कहलाते हैं1।
अर्हन्त भगवान् दिव्य औदारिक2 शरीर के धारी होते हैं, घातियाकर्ममल से रहित होने के कारण उनका आत्मा महान् पवित्र होता है, अनन्त चतुष्टयरूपी लक्ष्मी उनको प्राप्त हो जाती है, अतः वे परमात्मा, स्वयम्भू, जगत्पति, धर्मचक्री, दयाध्वज, त्रिकालदर्शी, लोकधाता, दृढ़व्रत, पुराणपुरूष, युगमुख्य, कलाधर, जगन्नाथ, जगद्विभु, सर्वज्ञ, प्रशास्ता, बृहस्पति, ज्ञानगर्भ, दयागर्भ, हेमगर्भ, सुदर्शन, शंकर, पुण्डरीकाक्ष, सवयंवेद्य, पितामह, ब्रह्मनिष्ठ, यज्ञपति, सुयज्वा, वृषभध्वज, हिरण्यगर्भ, स्वयंप्रभु, भूतनाथ, सर्वकेश, निरंजन, प्रजापति, श्रीगर्भ आदि नामों से पुकारे जाते हैं।
अर्थ- जो पूर्णरूप से अपने स्वरूप में स्थित हैं, कृतकृत्य हैं, जिन्होंने अपने साध्य को सिद्ध कर लिया है और जिनके ज्ञानावरणादि आठ कर्म नष्ट हो चुके हैं, उन्हें सिद्ध कहते हैं। इन सिद्धों को नमस्कार है।
जिन्होंने सुदूर भूतकाल से बाँधे हुए आठ प्रकार के कर्मो को शुक्लध्यानरूपी अग्नि के द्वारा नष्ट कर दिया है,उन सिद्धों को, अथवा सिद्ध नाम की गति जिन्होंने प्राप्त कर ली है और पुनर्जन्म से छूटकर जिन्होंने अपने पूर्णस्वरूप को प्राप्त कर लिया है, उन सिद्धों को नमस्कार है।2
तात्पर्य यह है कि जो गृहस्थावस्था को त्यागकर मुनि हो चार घातिया कर्मों का नाश कर अनन्तचतुष्टय भव को प्राप्त कर लेते हैं। पश्चात योग निरोध कर अवशेष चार अघातिया कर्मों को भी नष्ट कर एवं परम औदारिक शरीर को छोड़ अपने ऊध्र्वगमन स्वभाव से लोक से अग्रभाव में जाकर विराजमान हो जाते हैं, वे सिद्ध हैं। समस्त परतन्त्रताओं से छूट जाने के कारण उनको मुक्त कहा जाता है।
आत्मा में सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरूलघुत्व और अव्याबाधत्व ये आठ गुण होते हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये कर्म इन गुणों के बाधक हैं। आत्मा पर इन आवरण पड़ जाने से ये गुण आच्छादित हो जाते हैं; किन्तु जब आत्मा अपने पुरूषार्थ से इन कर्मों को क्षय कर देता है, तब सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर लेता है और उपर्युक्त आठों गुणों का आविर्भाव हो जाता है। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से अनन्तज्ञान, दर्शनवरणीय कर्म के क्षय से अनन्तदर्शन, बेदनीय के क्षय से अव्याबाधत्व, मोहनीय के क्षय से सम्यक्त्व, आयु के क्षय से अवगाहनत्व, नामकर्म के क्ष्य से सूक्ष्मत्व, गोत्र-कर्म के क्षय से अगुरूलघुत्व और अन्तराय के क्षय से वीर्यगुण का आविर्भाव होता है।
जिन्होंने नाना भेदरूप आठ कर्मों का नाश कर दिया है, जो तीन लोक के मस्तक के शेखर-स्वरूप हैं, दुःखों से रहित हैं, सुखरूपी सागर में निमग्न हैं, निरंजन हैं, नित्य हैं, आठ गुणों से युक्त हैं, निर्दोष हैं, कृतकृत्य हैं, जिन्होंने समस्त पर्यायों सहित सम्पूर्ण पदार्थों को जान लिया है, वज्रशिला निर्मित अभग्न प्रतिभा के समान अभेद्य आकार से युक्त है, जो पुरूषाकार होने पर भी गुणों से पुरूष के समान नहीं है; क्योंकि पुरूष सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को भिन्न-भिन्न देशों में जानता है, परन्तु जो प्रत्येक देश में सब विषयों को जानते हैं, वे सिद्ध हैं। आत्मा का वास्तविक स्वरूप सिद्ध पर्याय में ही प्रकट होता है, सिद्ध ही पूर्ण स्वतन्त्र और शुद्ध हैं। इस प्रकार पूर्ण शुद्ध कृतकृत्य, अचल, अनन्त सुख-ज्ञानमय और स्वतन्त्र सिद्ध आत्माओं को ्णमो सिद्धाणं् पद में नमस्कार किया गया है:
अर्थ- आचार्य परमेष्ठी को नमस्कार है। जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य इन पाँच आचारों का स्वयं आचरण करते हैं और दूसरे साधुओं से आचरण कराते हैं, उन्हें आचार्य कहते हैं। जो चैदह विद्या-स्थानों के पारंगत हों, ग्यारह अंग के धारी हों अथवा आचारांगमात्र के धारी हों अथवा तत्कालीन स्वसमय और पर समय में पारंगत हों, मेरू के समान निश्चत हों, पृथ्वी के समान सहनशील हों, जिन्होंने समुद्र के समान मल अर्थात् दोषों को बाहर फेंक दिया हो और जो सात प्रकार के भय से रहित हों; उन्हें आचार्य कहते हैं।
आचार्य परमेष्ठी के 36 मूल गुण होते हैं-12 तप, 10 धर्म, 5 अचार, 6 आवश्यक और 3 गुप्तिं इन 36 मूल गुणों का आचार्य परमेष्ठी सावधानीपूर्वक पालन करते हैं।
तात्पर्य यह है कि जो मुनि सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की अधिकता के कारण प्रधान पद को प्राप्त कर संघ के नायक बनते हैं तथा मुख्य रूप से तो निर्विकल्पस्वरूपाचरण चारित्र में ही मगन रहते हैं; किन्तु कभी-कभी धर्मपिपासु जीवों को रागांशका उदय होने के कारण करूणाबुद्धि में उपदेश भी देते हैं।दीक्षा लेनेवालों को दीक्षा देते हैं तथा अपने दोष निवेदन करने वालों को प्रायश्चित देकर शुद्ध करते हैं, वे आचार्य कहलाते हैं।
‘‘परमागम के परिपूर्ण अभ्यास और अनुभव से जिनकी बुद्धि निर्मल हो गयी है, जो निर्दोष रीति से छह आवश्यकों का पालन करते हैं, जो मेरू पर्वत के समान निष्कम्प हैं, शूरवीर हैं, सिंह के समान निर्भीक हैं, श्रेष्ठ हैं, देश, कुल और जाति से शुद्ध हैं, सौम्य मूर्ति हैं, अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित हैं, आकाश के समान निर्लेप हैं, ऐसे आचार्य परमेष्ठी होते हैं। ये दीक्षा और प्रायश्चित्त देते हैं, परमागम अर्थ के पूर्ण-ज्ञाता और अपने मूलगुणों में निष्ठ रहते हैं।’’ इस रत्नत्रय के धारी आचार्य परमेष्ठी को नमस्कार किया है।
‘णमो उवज्झायाणं’ - चतुर्दशविद्यास्थानव्याख्यातारः उपाध्यायाः तात्कालिकप्रवचनव्याख्यातारो वा आचार्यस्योक्ताशेषलक्षणसमन्विताः संग्रहानुग्रहादिहीनाः।
नमो-नमस्कारः। केीयः? उपाध्यायेभ्यः उप एत्य समीपमागत्य येभ्यः सकाशादधीयन्त इत्युपाध्यायास्तेभ्यः, इति। अथवा उप-समीपे अध्यायो-द्वादशांगयाः पठनं सूत्रतोऽर्थतश्च येषां ते उपाध्यायाः तेीयः उपाध्यायेभ्यः नमः।
इक् स्मरणे इति वचनात् वा स्मर्यते सूत्रतो जिनप्रवचनं येभ्यस्ते उपाध्यायाः। अथवा उपाधानमुपाधिः-संनिधिस्तेनोपाधिनाउपाधौ वा आयो-लाभः श्रुतस्य येषाम् उपधीनां वा विशेषणानां प्रक्रमाच्छोभनानामायो-लाभो येभ्यः अथवा उपाधिरेव-संनिधिरेव आयम्-इष्टफलं इैवजनितत्वेन आयानाम् - इष्टफलानां समूहस्तदेकहेतुत्वाद् येषाम्; अथवा आधीनां-मनःपीडानामायो-लाभः आध्यायः अधियां वा ‘नढ़ः कुत्सार्थत्वात्’ कुबुद्धि-नामायोऽध्यायः, ‘ध्यै चिन्तायाम्’ इत्यस्य धातोः प्रयोगान्नढ़ः कुत्सार्थत्वादेव च दुध्र्यानं वाध्यायः। उपहत आध्यायः अध्यायो वा यैस्ते उपाध्यायाः। नमस्यता चैषां सुसंप्रदायायातजिनवचनाध्यापनतो विनयेन भव्यानामुपकारकत्वादिति।
अर्थात चैदह विद्यास्थान के व्याख्यान करनेवाले उपाध्याय परमेष्ठी को नमस्कार है। अथवा तत्कालीन परमागम के व्याख्यान करनेवाले उपाध्याय होते हैं। ये संग्रह, अनुग्रह आदि गुणों को छोड़कर पूवोक्त आचार्य के सभी गुणों से युक्त होते हैं।
उन उपाध्याय परमेष्ठी के लिए नमस्कार है, जिनके पास अन्य मुनिगण अध्ययन करते हैं, अथवा जिनके निकट द्वादशांग सूत्र और अर्थों का मुनिगण अध्ययन करते हैं।
इक् धातु का अर्थ स्मरण करना होता है, अतः जो सूत्रों के क्रमानुसार जिनागम का स्मरण करते हैं, वे उपाध्याय कहलाते हैं। अथवा उपाध्याय इस उपाधि से जो विभूषित हों वे उपाध्याय कहालते हैं।
जो मुनि परमागम का अभ्यास करके मोक्षमार्ग में स्थित हैं तथा मोक्ष के इच्छुक मुनियों को उपदेश देते हैं, उन मुनीश्वरों को उपाध्याय परमेष्ठी कहते हैं। उपाध्याय ही जैनागम के ज्ञात होने के कारण मुनिसंघ में पठन-पाठन के अधिकारी होते हैं। शास्त्रों के समस्त शब्दार्थ को ज्ञात कर आत्मध्यान में लीन रहते हैं। मुनियों के अतिरिक्त श्रावकों को भी अध्ययन कराते हैं। उपाध्याय पद पर वे ही मुनिराज आसीन होते हैं, जो जैनागम के अपूर्व ज्ञाता होते हैं। ग्यारह अंग और चैदह पूर्व के पाठी, ज्ञान-ध्यान में लीन, परम निग्र्रन्थ श्री उपाध्याय परमेष्ठी को हमारा नमस्कार हो। यहाँ ‘णमो उवज्झायाणं’ पद में उक्त स्वरूपवाले उपाध्याय को नमस्कार किया गया है।
अर्थात-ढाई द्वीपवर्ती सभी साधुओं को नमस्कार हो। जो अनन्त ज्ञानादिरूप शुद्ध आत्मा के स्वरूप् की साधना करते हैं, तीन गुप्तियों से सुरक्षित हैं, अठारह हज़ार शील के भेदों को धारण करते हैं और चैरासी लाख उत्तर गुणों का पालन करते हैं, वे साधु परमेष्ठी होते हैं।
मनुष्लोक के समस्त साधुओं को नमस्कार है। जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के द्वारामोक्षमार्ग की साधना करते हैं तथा सभी प्राणियों में समान बुद्धि रखते हैं; वे स्थविरकल्पि और जिनकल्पि आदि भेदों से युक्त साधु हैं। अथवा ढाई द्वीप-पैंतालीस लाख योजन के विस्तारवाले मनुष्यलोक में रत्नत्रयधारी, पंचमहाव्रतों से युक्त, दिगम्बर, वीतरागी साधु परमेष्ठी को नमस्कार किया गया है।
‘‘सिंह के समान पराक्रमी, गज के समान स्वाभिमानी या उन्मत्त, बैल के समान भद्र प्रकृति, मृग के समान सरल, पशु, पशु के समान निरीह, गोचरी वृत्ति करनेवाले, पवन के समान निस्संग या सर्वत्र बिना रूकावट के विचरण करनेवाले, सूर्य के समान तेजस्वी या समस्त तत्वों के प्रकाशक, समुद्र के समान गम्भीर, सुमेरू के समान परीषह और उपसर्गों के आने पर अकम्प और अडोल रहनेवाले, चन्द्रमा के समान शान्तिदायक, मणि के समान शान्तिदायक, मणि के समान प्रभापुंजयुक्त, पृथ्वी के समान सभी प्रकार की बाधाओं को सहनेवाले, सर्प के समान दूसरे के बनवाये हुए अनियत आश्रय में रहनेवाले, आकाश के समान निरालम्बी या निर्भीक एवं सर्वदा मोक्ष का अन्वेषण करनेवाले साधु परमेष्ठी होती हैं।’’
अभिप्राय यहहै कि जो विरक्त होकर समस्त परिग्रह को त्याग शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म को स्वीकार करते हैं तथा शुद्धोपयोग के द्वारा अपनी आत्मा का अनुभव करते हैं, पर-पदार्थों में ममत्वबुद्धि नहीं करते तथा ज्ञानादि स्वभाव को अपना मानते हैं, वे मुनि हैं। यद्यपि ज्ञान का स्वभाव जाननेवाला होने से अपनेक्षयोपशम द्वारा प्राभृत को जानते हैं, पर उनसे राग-बुद्धि नहीं करते। शरीर में रोग, बुढ़ापा आदि के होने पर तथा बाह्य निमित्तों का संयोग होने पर सुख-दुःख नहीं करते हैं। अपने योग्य समस्त क्रियाओं को करते हैं, पर रागभाव नहीं करते। यद्यपि इनका प्रयास सर्वदा शुद्धोपयोग को प्राप्त करने का ही रहता है, पर कदाचित प्रबल रागांश का उदय आने से शुभोपयोग की ओर भी प्रवृृत्ति करनी पड़ती है। शरीर को सजाना, श्रृंगार करना आदि से सर्वदा पृथक् रहते हैं। इनके मूल गुण 28 हैं। इनके अन्तरंग में अहिंसा भावना सदा वर्तमान रहती है तथा बहिरंग में सौम्य दिगम्बर मुद्रा। ये ज्ञान, ध्यान और स्वाध्याय में सर्वदा लीन रहते हैं। बाईस परीषहों को निश्चल हो सहन करते हैं। शरीर की स्थिति के लिए आवश्यक आहार-विहार की क्रियाएं सावधानीपूर्वक करते हैं। इस प्रकार के साधुओं को ‘णमो लोए सव्वसाहूणं’ पद द्वारा नमस्कार किया गया है।
पंचपरमेष्ठी के उपुर्यक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आत्मिक विकास की अपेक्षा से ही अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु को देव माना गया है। ये पाँचों ही वीतरागी हैं, अतः स्तुति के योग्य हैं। तत्त्वदृष्टि से सभी जीव समान हैं, किन्तु रागादि विकारों की अधिकता और ज्ञान की हीनता से जीव निन्दायोग्य तथा रागादि की हीनता और ज्ञान की अधिकता से स्तुतियोग्य होते हैं। अरिहन्त और सिद्धों में रागभाव की पूर्ण हीनता और ज्ञान की विशेषता होने के कारण वीतराग विज्ञानभाव वर्तमान है तथा आचार्य, उपाध्याय और साधुओं में एकदेश रागादि की हीनता और क्षयोपशमजन्य ज्ञान की विशेषता होने से एकदेश वीतराग विज्ञान भाव है, अतएव पाँचों ही परमेष्ठी वीतराग होने के कारण वन्दनीय हैं। धवला टीका में पंचपरमेष्ठी के देवत्व का समर्थन निम्न प्रकार किया गया है:
शंका-आत्मस्वरूप को प्राप्त अरिहन्त और सिद्धों को देव मानकर नमस्कार करना ठीक है, किन्तु जिन्होंने आत्मस्वरूप को प्राप्त नहीं किया है, ऐसे आचार्य, उपाध्याय और साधु को देव मानकर कैसे नमस्कार किया जाए?
समाधान-यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि अपने अनन्त भेदों सहित सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का नाम देव है; अतः इन तीनों गुणों से विशिष्ट जो जीव है, वह भी देव कहलाता है। यदि रत्नत्रय को देव नहीं माना जाएगा तो सभी जीव देव हो जाएंगे। अतएव आचार्य, उपाध्याय और मुनियों को भी देव मानना चाहिए; क्योंकि रत्नत्रय का अस्तित्व अरहन्तों की तरह इनमें भी पाया जाता है।
सिद्ध परमेष्ठी के रत्नत्रय की अपेक्षा आचार्य आदि परमेष्ठियों का रत्नत्रय भिन्न नहीं है। यदि इनके रत्नत्रय में भेद मान लिया जाए, तो आचार्यादि में रत्नत्रय का अभवा हो जाएगा।
शंका-जिन्होंने रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की पूर्णता को प्राप्त कर लिया है, उन्हीं को देव मानना चाहिए; रत्नत्रय की अपूर्णता जिनमें रहती है, उनको देव मानना असंगत है।
समाधान-यह शंका ठीक नहीं है। यदि एकदेश रत्नत्रय में देवत्व नहीं माना जाएगा तो सम्पूर्ण रत्नत्रय में देवत्व नहीं बन सकेगा, अतः आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु भी देव हैं। जैनाम्नाय में अलौकिक सत्ताधारी किसी परोक्षशक्ति को सच्चादेव नहीं माना है, पर रत्नत्रय के विकास की अपेक्षा वीतरागी, ज्ञानी और शुद्धोपयोगी आत्माओं को देव कहा है।
इस णमोकार मन्त्र में सव्व-सर्व और लोए-लोक पद अन्त्य दीपक हैं। जिस प्रकार दीपक और भीतर रख देने से भीतर के समस्त पदार्थों का प्रकाशन करता है, उसी प्रकार उक्त दोनों पद भी अन्य समस्त पदों के ऊपर प्रकाश डालते हैं। अतः सम्पूर्ण क्षेत्र में रहनेवाले त्रिकालवर्ती अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को नमस्कार समझना चाहिए।