शनिग्रहारिष्ट निवारक श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्र पूजा
स्थापना-शंभु छंद

मुनिसुव्रतेश जिनेन्द्र की, हमस ब करें आराधना।
शनिग्रह अरिष्ट विनाश हेतू, भक्ति से हो साधना।।
शनिवार को प्रभु निकट में, विधिवत् करें अर्चना।
तो सत्य ही दुख दूर होकर, पूर्ण होगी प्रार्थना।।1।।

-दोहा-


पूजा के प्रारंभ में, आह्वानन इत्यादि।
स्थापन सन्निधिकरण, की विधि कही अनादि।।2।।

ऊँ ह्रीं शनिग्रहारिष्टनिवारक श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट आह्वाहननं।
ऊँ ह्रीं शनिग्रहारिष्टनिवारक श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थपनं।
ऊँ ह्रीं शनिग्रहारिष्टनिवारक श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।

अष्टक-सोरठा

जल ले अमल सुस्वादु, धार करूं जिनपदकमल।
शनिग्रह शान्ती हेतु, मुनिसुव्रत प्रभु को जजूं।।1।।
ऊँ ह्रीं शनिग्रहारिष्टनिवारक श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

चंदन केशर लेय, चर्चूं श्री जिनपदकमल।
शनिग्रह शान्ती हेतु, मुनिसुव्रत प्रभु को जजूं।।2।।
ऊँ ह्रीं शनिग्रहारिष्टनिवारक श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।

तन्दुल धवल अखण्ड, अर्पूं जिनवर पद निकट।
शनिग्रह शान्ती हेतु, मुनिसुव्रत प्रभु को जजूं।।3।।
ऊँ ह्रीं शनिग्रहारिष्टनिवारक श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

बेला कुंद गुलाब, पुष्प चढ़ाऊं प्रभु चरण।
शनिग्रह शान्ती हेतु, मुनिसुव्रत प्रभु को जजूं।।4।।
ऊँ ह्रीं शनिग्रहारिष्टनिवारक श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

लड़ू मोतीचूर, अर्पूं थाल भराय के।
शनिग्रह शान्ती हेतु, मुनिसुव्रत प्रभु को जजूं।।5।।
ऊँ ह्रीं शनिग्रहारिष्टनिवारक श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

घृतदीपक की ज्योति, मोहतिमिर को क्षय करे।
शनिग्रह शान्ती हेतु, मुनिसुव्रत प्रभु को जजूं।।6।।
ऊँ ह्रीं शनिग्रहारिष्टनिवारक श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

अगर तगर की धूप, खेऊं मैं जिनवर निकट।
शनिग्रह शान्ती हेतु, मुनिसुव्रत प्रभु को जजूं।।7।।
ऊँ ह्रीं शनिग्रहारिष्टनिवारक श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय फलं निर्वपामीति स्वाहा।

वसुविधि अघ्र्य बनाय चरण चढ़ाऊं चंदना।
शनिग्रह शान्ती हेतु, मुनिसुव्रत प्रभु को जजूं।।9।।
ऊँ ह्रीं शनिग्रहारिष्टनिवारक श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यम् निर्वपामीति स्वाहा।

-दोहा-

त्रयरोगों की शांति हित, धारा तीन करंत।
तीन रत्न यदि प्राप्त हों, भवदध् शीघ्र तरंत।।
शांतये शांतिधारा।

चंप चमेली केवड़ा, सुरभित पुष्प मंगाय।
जिनगुणसुरभि मिले मुझे, निवर चरण चढ़ाय।।
दिव्य पुष्पांजलिः।

(अब मण्डल के ऊपर शनिग्रह के स्थान पर श्रीफल सहित अघ्र्य चढ़ावें)

तर्ज-हे वीर तुम्हारे....................................
भगवान् तुम्हारी भक्ती से, भव के बन्धन खुल जाते हैं।
मुनिसुव्रत प्रभु की भक्ती से, शनि के क्रन्दन धुल जाते हैं।।

इस ग्रह के कारण हे स्वामी! तन धन की हानि सही मैंने।
सहने में हो असमर्थ नाथ, अब तुमसे व्यथा कही मैंने।।
यह सुना बहुत तुम चिन्तन से, अवरूद्ध मार्ग खुल जाते हैं।
मुनिसुव्रत प्रभु की भक्ती से, शनि के क्रन्दन धुल जाते हैं।।1।।

नवग्रह में सबसे क्रूर शनी, इसको कर शान्त सुखी कीजे।
निजनाममंत्र की एक मणी, स्वामी अब मुझको दे दीजे।।
’’चन्दनामती’’ इस युक्ती से, शिव के पथ भी खुल जाते हैं।
मुनिसुव्रत प्रभु की भक्ती से, शनि के क्रन्दन धुल जाते हैं।।2।।
ऊँ ह्रीं शनिग्रहारिष्टनिवारक श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।

जाप्य मंत्र- ऊँ ह्रीं शनिग्रहारिष्टनिवारक श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय नमः।

जयमाला

तर्ज-हम लाए है तूफान से.........................
हम आए हैं प्रभु पास में, पूजा रचाने को।
जयमाला के माध्यम से, निज व्यथा सुनाने को।।टेक.।।

केवल जनम मरण में ही, पर्याय बिताई।
कुछ पुण्ययोग से ही, त्रसपर्याय अब पाइ।।
शक्ती मिले चिन्तन करें, आतम जगाने को।
जयमाला के माध्यम से, निज व्यथा सुनाने को।।1।।

स्वर्गों के सुख भोगे पशू की, योनि भी पाई।
नरकों में रो रोकर वहां की, आयु बिताई।।
नरतन प्रभो सार्थक करूं, निज शान्ति पाने को।
जयमाला के माध्यम से, निज व्यथा सुनाने को।।2।।

सम्यक्त्व की महिमा से, आतम शुद्ध बनाऊं।
शुभ देव शास्त्रगुरू के प्रति, कर्तव्य निभाऊं।।
फिर ’’चन्दनामती’’ क्रम से, स्वर्ग मोक्ष पाने को।
जयमाला के माध्यम से, निज व्यथा सुनाने को।।3।।

शनिग्रह से मेरी मानसिक, व्यथाएं बढ़ी हैं।
परिवार में कलह व कष्ट, की ये घड़ी हैं।।
बस इसलिए तुमसे कहा, संकट मिटाने को।
जयमाला के माध्यम से, निज व्यथा सुनाने को।।4।।
ऊँ ह्रीं शनिग्रहारिष्टनिवारक श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।

आष्टक-सोरठा

स्वर्गमोक्षदातार, तीर्थंकर की भक्ति है।
सिद्ध सौख्यसाकार, करती आतमशक्ति है।। इत्याशीर्वादः