।। षष्ठ आवश्यक कर्म: दान ।।

विषैले अजगर के मुख में हाथ डालने से एक बार ही प्राणों का नाश होता है किंतु जिस दान से हमारी आत्मा अनन्त संसार की भागी हो, भव-भव में दुखों की पात्र हो,ऐसा दान सचमुच भयंकर दुख का कारणर है। अंधे कुंए में धन को डालकर सुख से रहना उत्तम है, परंतु कुदान देकर अनन्त संसार को बढ़ाना अच्छा नहीं है। अगर हमारा दिया हुआ दान सन्मार्ग के लोप करने में काम आ रहा है तो उस दान के कुफल से अनन्त संसारी अवश्य बनना पड़ेगा। यदि वेश्या को दान दिया जायेगा तो वह उस दान के द्रव्य से शराब का पान करेगी और व्याभिचार फैलायेगी। उसी प्रकार धर्म से च्युत तथा सम्यग्ज्ञान से रहित जीवों को दान दिया जायेगा तो उसे लेकर वह मिथ्यामार्ग का प्रचार करेंगे और उस दोष के भागी हम ही तो होंगे।

प्राप्ति और संसार का नाश अवश्य होना चाहिए। अनेक के कल्याण हुए भी हैं। शास्त्रों में ऐसे अनेक उदाहरण आते हैं, उनमें से कुछ उदाहरण प्रसंग आने पर आगे बताये जायेंगे। इसलिए वास्तविक दान वही है कि जिससे हमारी आत्मा का कल्याण हो।

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दान का तीसरा उद्देश्य पात्र की आत्मा का कल्याण करना है। पात्र वह है जो लगा हो मोक्षमार्ग पर, करता हो आचरण आगमानुसार। यदि दान से पात्र की आत्मा अविचल रूप से, निर्बाध, निराकुल और परम शांति से मोक्षमार्ग को सिद्ध कर लेवे तो समझना चाहिये कि उस दान के प्रभाव से पात्र ने मोक्षमार्ग प्राप्त कर सर्वांग रूप से आत्म-कल्याण किया। ऐसे दान के देने वालों को भी मोक्षमार्ग के प्रकट करने का उत्तम फल प्राप्त होता है।

जो पात्र मोक्षमार्ग के साध हैं वे तो दान से मोक्षमार्ग की वृद्धि, सदाचार की प्रवृत्ति, मिथ्यात्व और अन्याय का नाश करते हैं। किंतु जीवों जिन पात्रों के विचार और आचरण मोक्षमार्ग के साधन नहीं हैं किंतु बाधक हैं ऐसे पात्र दान का दुरूपयोग कर अपनी आत्मा का अलक्याण-अहित करते हैं।

मोक्षमार्ग का नाश और मोक्षमार्ग का उभ्ययुत्थान पात्र का निर्भर है। यदि पात्र स्वंय मोक्षमार्ग का नाश करने वाला है, मलिन और स्वार्थ विचारों से संसार को अपने स्वार्थ में फंसाकर अन्याय ओर हिंसादि पापों मेें लगाने वाला है तो उस पात्र को दान देकर अपे हाथ से ही मोक्षमार्ग का नाश करना हैं हम अपने हाथ से ही ऐसे कुपात्रों को दान देकर मोक्षमार्ग का नाश करते हैं और वह अपात्र, दान के फल से अपना मतलब बनाता हुआ केवल पापकार्यों में अपनी आत्मा को डुबा देता है।

दान का लक्षण एवं समुद्देश्य जिनागम में यही माना है कि जिस दान के प्रदान करने से दाता और पात्र की आत्मा का कल्याण होता हो और जिस दान से मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति निरंतर वृद्धिंगत होती रहे, वही दान वास्तव में दान है। यह द्रव्यदान-अपनी धनादिक वस्तुओं को सत्पात्र को मोक्षमार्ग की सिद्धि के लिए दिया जाता है।

द्रव्यदान देने का मुख्य अभिप्राय परम्परारूप से अथवा साक्षातरूप से मोक्षामार्ग की सिद्धि प्राप्त करना, मोक्षमार्ग की वृद्धि करना, मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करना तथा मोक्षमार्ग की प्रभावना व्यक्त करना है। जिस दान के प्रभाव से मोक्षमार्ग या जिनशासन यथार्थरूप से वृद्धिंगत हो, सुरक्षित हो, पवित्र और निर्दोष रूप से जगत के जीवों को अपनी महिमा के द्वारा कल्याण का सर्वोत्कृष्ट मार्ग बताकर, बहुत से जीवों को सन्मार्ग में लगाकर जो अनन्त सुख का खजाना बना देवे, वे है द्रव्यदान। वह दान कृत, कारित और अनुमोदना से तीन प्रकार से दिया जाता है।

भावदान का स्वरूप
द्रव्य साथ में भाव हो, तो भवनाशक दान।
त्याग भाव ही सुख है, निश्चय मोक्ष निदान।।89।।

आत्मा के भावों से राग-द्वेष का परित्याग आत्मा से हो अथवा राग-द्वेष की प्रवृत्ति जिन भावों से क्षीण होती हो तो वह भावदान है। भावदान को धारण करने वाले विशुद्ध आत्मा को सब प्रकार के पापों का परित्याग करना पड़ता है। राग-द्वेष में प्रवृत्त् िकराने वाली इन्द्रिय और मन की प्रवृत्ति को विषय कषायों से हटाकर संयम की तरफ संयोजित करनी पड़ती है। इसलिए भावदान करने वाले विशुद्ध आत्मा को हटाकर सर्व प्रकार का आरम्भ, समस्त प्रकार के विषय और समस्त प्रकार के पाप रूप कार्यक्रम समष्टि या व्यक्ति रूप में छोड़ने पड़ते हैं। इसलिये यह दान सर्वोत्कृष्ट है, साक्षत मोक्ष को सिद्ध करने वाला है।

ये दोनों प्राकर के दान मोक्ष के साधक और निवृत्ति रूप हैं। दोनों प्रकार के दान, दाता और पात्र की आत्मा का कल्याण करने वाले हैं। इसलिये दान की महिमा अपरम्पार है।

धर्मतीर्थ के आदि प्रवर्तक परमेश्वर परमात्मा भगवान श्री ऋषभदेव हैं। युग के प्रारम्भ में धर्मतीर्थ कीदेशना वास्तव में दान की सबसे प्रथम प्रवृत्ति आपने ही जग के कल्याणार्थ प्रारम्भ की थी। इन्द्रदेव ने गर्भ में आने के पहले ही प्रभु की महान महिमा प्रकट की थी और जन्म कल्याण के समय महान स्तुतियों के द्वारा भगवान को जगत का उद्धारक, मोक्षमार्ग प्रवर्तक धर्मतीर्थ का संस्थापक आदि महान नामों से सम्बोधित किया था। यह सब द्वादशांग के वेत्ता इन्द्रदेव का स्तवन तत्काल उत्पन्न हुए बालक का केवल एक ही भावना यह थी कि हे भगवान! त्रिलोक के समस्त प्राणियों में से आपमें ही अचिन्त्य शक्ति है, आप ही प्रवृत्ति लोकोत्तर है, जिससे आप धर्म तीर्थ की स्थापना करेंगे। धर्मतीर्थ की स्थापना करने के ही कारण भगवान श्री ऋषभदेव को आदिब्रह्म माना है, जगत उपकारी अर्थात समस्त भव्यजीवों का कल्याणकर्ता माना है।

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धर्मतीर्थ के स्थापनकर्ता का माहात्म्य जिस प्रकार देव, इन्द्र, नरेन्द्रों ने अनन्त वाड्मय में गाया है उसी प्रकार दानतीर्थ की स्थापना करने वाले महान पुण्यशाली महाराज श्रेयांस का माहात्म्य देव, इन्द्र और भरत चक्रवर्ती ने प्रशस्त वाड्मय में सर्वोत्कृष्ट बताया है। धर्मतीर्थ की वृद्धि और उत्पत्ति दानतीर्थ से ही होती है। इसलिये दानतीर्थ सर्वोत्कृष्ट तीर्थ है। दान करने वाला दाता, पात्र, और जगत के जीवों का कल्याण करने वाला है। आदिपुराण में भी इसी प्रकार से लिखा हुआ है-

श्रद्धादिगुण-सम्पन्नः पुण्यैर्नवभिरन्वितः।
प्रादात् भगवते दानं श्रेयान् दानादि-तीर्थकृत्।।

भावार्थ- श्रद्धादि गुणों से सुशोभित और नव प्रकार की पुण्य-विधि से महाराज श्रेयांस ने भी भगवान आदिनाथ को सर्वप्रथम आहार दिया, इसलिए महाराज श्रेयांस दान के आदि तीर्थकृत हुए।

‘जिनसेनाचार्य’ ने दानतीर्थ के प्रवर्तक श्रेयांस महाराज को दान का तीर्थकृत माना है। तब दाता की आत्मा का दान से कल्याण होना सहज बात है। अनेक जीव दान के माहात्म्य से उसी भव में सम्यग्दर्शन आदि को प्राप्त होरक मोक्ष के अधिकारी परमात्मा हुए हैं और दान के पात्र स्वंय तीर्थंकरदेव व अनन्त मुनीश्वर दान के प्रभाव से रत्नत्रय की साधना कर मोक्ष के अधिकारी परमात्मा हुए हैं।

जिस दान की महिमा ‘अहो दानमहो दानं’ ने भक्ति से गाई है उस दान से ही मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति चली आ रही है।

भक्ति द्वारा सम्यक् दान के प्रदान करनेसे मोक्ष मार्ग की प्रवृत्ति होती है। जिससे असंख्य जीव मोक्षमार्ग में संलग्न हो जाते हैं और सन्मार्गगामी हो जाते है। बस इसलिये दान की महिमा ‘‘अहो दानमहो दानं’’ इन शब्दों में की जा सकती हैं अैर देवगण इसलिये पंचाश्चर्य प्रकट करते हैं।

धर्मकारणपात्राय धर्मार्थं येन दीयते।
युद्द्रव्यं दानमित्युक्तं तद्धर्मार्जन-पण्डितैः।।4।।

धर्ममूर्ति और धर्म के कारणभूत ऐसे धार्मिक पात्र को धर्म की वृद्धि के लिए धार्मिक दाता जो स्वपरोकारार्थ द्रव्य का उत्सर्जन (त्याग) करता है, गणधरादि देव दान कहते हैं।

दान के किन्ही ने चार भेद बताये हैं, किंही ने पांच और किन्हीं आचार्यों ने आठ भेद कहे हैं। वे सब दान उन पहले बताये हुए चार प्रकार के पात्रदान में ही आ जाते हैं। अब यहां दान का कथन करने से पूर्व यह बताया जयेगा कि दान देने के लिए पात्र कौन हैं और उनके कितने भेद हैं।

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