।। सर्वज्ञ की आज्ञा.... संतों का आदेश ।।
jain temple129

...वीतरागभाव ही भवनाशक धर्म है

सम्यक्तवी की दृष्टि शुद्ध चैतन्यस्वभाव की ओर ढल गयी है; राग के एक अंश का भी उसकी दृष्टि में स्वीकार नहीं है - ऐसी दृष्टि के बलपूर्वक् सम्यक्त्वी को शास्त्र स्वाध्यायादि शुभ प्रसंग के समय, अशुभ की निर्जरा होती है, इस अपेक्षा से सम्यक्त्वी को स्वाध्यायादि शुभ से भी निर्जरा होना कहा है और उपचार से उसे धर्म भी कहा जाता है किंतु जिसकी दृष्टि ही राग पर है, जो राग को ही धर्म या संवर-निर्जरा का कारण मानता है, उसे तो शुभराग के समय भी एकांत अधर्म है; धर्म का अंश भी उसे नहीं है।

देखो! सम्यक्त्वी को भी जो राग है, वह कहीं धर्म नहीं है। राग के समय उसे जो अरागी दृष्टि, अरागी ज्ञान तथा अरागी चरित्र है, वही धर्म है। यदि शुभराग, धर्म हो अथवा उससे धर्म होता हो तो उस राग को छोड़ना रहता ही नहीं; इसलिए श्रद्धा में राग की उपादेयता होने से मिथ्याश्रद्धा हो जाती है और मिथ्याश्रद्धा ही महान् अधर्म और अनन्त संसार का मूल है। उस मिथ्याश्रद्धा का अभाव होकर वास्तविक धर्म कैसे हो? - वह यहां बतलाते हैं। शुभराग तो विकार है, औदयिकभाव है, आस्रव-बंध का कारण है; इसलिए संसार का कारण है।

चिदानन्दस्वभाव में एकाग्र होने से रागरहित सम्यक्श्रद्धा, ज्ञान तथा आनन्द के अनुभवरूप जो शुद्ध वीतरागभाव प्रगट हुआ, वह धर्म है; उस धर्म से कर्मबंध नहीं होती, किंतु पूर्वकाल में बंधे हुए कर्म खिर जाते हैं; इस प्रकार शुद्धपरिणामरूप धर्म से आस्रव-बंध रुकता है, संवर-निर्जरा होती है और उसी से सर्व कर्मों का अभाव होकर परमानन्दरूप मोक्षदशा प्रगट होती है, इसका नाम जैनधर्म है। ऐसे जैनधर्म को जानकर भव-विनाश के लिए उसकी आराधना करो - ऐसा उपदेश है।

हे जीव! तू एक बार विचार तो कर...

हे जीव! अपने चिदानन्दतत्व के भान बिना तू शुभभाव भी अनन्त बार कर चुका है किंतु अंशमात्र धर्म नहीं हुआ, तेरा संसार तो ज्यों का त्यों बना ही रहा। तूने शुभराग को धर्म माना, किंतु शुभभाव करने पर भी उस शुभभाव से तू संसार में भटका; इसलिए जैनधर्म का उपदेश है कि रागरहित शुद्धभाव को ही तुम धर्म जानो! राग, धर्म नहीं है - ऐसा समझो! जिनेन्द्र भगवन्तों ने जिनशासन में ऐसा उपदेश किया है, संत भी ऐसा ही कहते हैं और शास्त्रों में भी यही आशय भरा है। जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्धभाव को नहीं जानता और पुण्य को ही धर्म मानकर, उसका सेवन करता है, वह जीव, भोग के हेतु रूप धर्म का ही अर्थात् संसार के कारण का ही सेवन करता है किंतु मोक्ष के कारणरूप वीतरागीधर्म का सेवन नहीं करता -ऐसा आचार्यदेव अगली गाथा में कहेंगे।

राग मैं धर्म का उपचार कब?

ज्ञानी के शुभराग को उपचार से धर्म कहा हो, वहां अज्ञानी उसी को पकड़ लेता है, किंतु यह नहीं समझता कि वह उपचार किस प्रकार से है? मुख्य के अभाव में, किसी अन्य में उसका उपचार करना, वह व्यवहार है। पूर्ण वीतरागता, वह धर्म है, वह मुख्य है; पूर्ण वीतरागता के अभाव में धर्मी को आंशिक वीतरागभाव तो होता ही है, साथ में शुभराग भी होता है, तब अशुभराग दूर होने की अपेक्षा से एक देश वीतरागता मानकर, उसे (शुभराग को) उपचार से धर्म कहा है किंतु उसके तो उसी समय अनुपचार अर्थात् निश्चयधर्म का अंश वर्तता ही है। पूर्ण वीतरागता की दृष्टिपूर्वक एकदेश वीतरागता वर्तती है, वही भूतार्थ धर्म है।

ज्ञानी के शुभभाव को उपचार से धर्म बतलाने के लिए यह कहा है कि वहां उस सयम अनुपचाररूप यथार्थधर्म (सम्यग्दर्शनादि) वर्त रहा है। जो उस यथार्थधर्म को जानता नहीं है और शुभराग को ही सचमुच धर्म मानकर उसी में संतुष्ट है, उसे धर्म की प्राप्ति नहीं होती। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्धभाव ही सच्चा धर्म है और उसी की प्राप्ति का जिनशासन में उपदेश है। ऐसा धर्म, भव का नाशक और मोक्ष का दाता है; इसलिए हे भव्यों! तुम आदरपूर्वक ऐसे जैनधर्म का सेवन करो।

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