।। संवरभावना ।।
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जब भेदविज्ञान की कला प्रगट होती है, तब जीव अपना शुद्धस्वभाव प्राप्त करता है और तभी सभी राग-द्धेश-मोह गल6 जाते हैं और दुष्कर्म आने से रूक जाते हैं; उज्ज्वल ज्ञान का प्रकाश होता है और शुद्धात्मा में परमसंतोष प्राप्त होता है। इसप्रकार मुनिराज उत्तम विधि को धारण कर केवलज्ञान को प्राप्त करते हैं और अनन्तसुखी होकर मोक्ष में चले जाते हैं।’’

शाश्वत अतीन्द्रिय आनन्द की उपलब्धि में भेदविज्ञान के योगदान की चर्चा करते हुए कविवर पण्डित बरारसीदासजी लिखते हैं -

’’प्रगटि भेदविज्ञान, आपगुन परगुन जाने।
पर परनति परित्याग, शुद्ध अनुभौ थिति ठानै।
करि अनुभौ अभ्यास, सहज संवर परगासै।
आस्त्रव द्वार निरोधि, करमघन-तिमिर विनासै।।
छय करि विभाव समभाव भजि, निरविकलप निज पद गहै।
निर्मल विसुद्धि सासुत सुथिर, परम अतीन्द्रिय सुख लहै।।1

भेदविज्ञान प्रगट होने पर अपने और पराये की पहिचान हो जाती है; अतः वह भेदविज्ञानी जीव पर परपरणति का परित्याग करके शुद्धात्मा के अनुभव में स्थिरता करता है, अभ्यास करता है। अभ्यास के द्वारा आस्त्रव के द्वारों का निरोध कर संवर को प्रकाशित करता है। कर्मजन्य घने अंधकार का नाश करता है; विभावों का नाश कर समभाव को भजकर निर्विकल्प निजपद को प्राप्त कर निर्मल, विशु;, शाश्वत, स्थिर, अतीन्द्रिय परमानन्द को प्राप्त करता है।’’

धर्म का अरंभ संवर से ही होता है; क्योंकि मिथ्यात्व नामक महापाप का निरोधक, मिथ्याज्ञानांधकार का नाशक एवं अनन्तानुबन्धी कषाय का विनाशक संवर ही है।

जब भी किसी जीव को धर्म का आरंभ होता है, तब सबसे प्रथम मिथ्यात्व, अज्ञान और अनन्तानुबंधी कषाय सम्बंधी असंयम के अभाव-पर्वूक ही होता है। मिथ्यात्व, अज्ञान और असंयम आस्त्रवभाव हैं - इन्हें दिय एक नाम से कहना हो तो रागभाव नाम से कहा जाता है।

इसप्रकार रागभाव आस्त्रव हैं और इनके अभाव में होनेवाला वीतरागभाव संवर है। यह संवर ही मुक्तिमार्ग का अरंभिक प्रवेश-द्वार है। इस संवर की उत्पत्ति भेदविज्ञानपूर्वक हुई आत्मानुभूति के काल में ही होती है। अतः संवरभावना में भेदविज्ञान और आत्मानुभूति की भावना ही प्रधान है।

भेदविज्ञान मात्र दो वस्तुओं के बीच भेद जानने का नाम नहीं है। षट्द्रव्यमयी सम्पूर्ण लोक को स्व और पर - इन दो भागों में विभक्त कर, पर से भिन्न स्व में एकत्व स्थापित करना ही स्चचा भेदविज्ञान है।

अनितिय, अशरण और अशुचि जड़ शरीर तो पर है ही; अपनी ही आत्मा में उत्पन्न मोह-राग-द्वेषरूप अशुचि आस्त्रवभाव भी पर ही हैं। जड़ शरीर एवं पुण्य-पापरूप शुभाशुभभाव तो दूर, गहराई में जाकर विचार करें तो आत्मा के आश्रय से आत्मा में ही उत्पन्न होनेवाले संवर, निर्जरा, मोक्षरूप वीतरागभाव (शुद्धभाव) भी पर्याय होन से पर की सीमा में ही आते हें; स्व तो पर और पर्याय से भिन्न एकमात्र ज्ञानानन्दस्वाभावी ध्रुव आत्मत्व ही है।

सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के मोक्षमार्गरूप निर्मल भाव भी ध्यये नहीं है, श्रद्धेय नहीं हैं, परमज्ञेय भी नहीं है; आराध्य भी नहीं है। आराध्य तो अनन्तगुणों का अखण्ड पिण्ड एक चैतन्यस्वभावी निजात्मत्व ही है।

यद्यपि सभी आत्मा ज्ञानानन्दस्वभावी हैं, समान हैंद्ध तथापि स्वयं को छोड़कर कोई अन्य आत्मा आराध्य नहीं है, श्रद्धेय नहीं है, परमज्ञेय भी नहीं हैं; क्योंकि वे सब पर हैं, प्रत्येक व्यक्ति क स्व तो निजशुद्धात्मतत्व ही है।

एक ओर पर और निजपर्याय से भी रहित ज्ञानानन्दस्वभावी निजशुद्धात्मत्व ’स्व’ है और दूसरी ओर सम्पूर्ण परपदार्थ, जिनमें परजीव भी सम्मिलित हैं तथा पर के लक्ष्य से निजात्मा में ही उत्पन्न होनेवाले मोह-राग-द्वेषरूप शुभाशुभाभाव एवं निजात्मा के आश्रय से निजात्मा में ही उत्पन्न होनेवाले सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप वीतरागभाव है; ये सभी ’पर’ हैं।

इसप्रकार सम्पूर्ण जगत को स्व और पर में विभाजित करके पर से विमुख होकर स्वसन्मुख होना ही भेदविज्ञान है, आत्मानुभूति है, संवर है, संवरभावना है, संवरभावना का फल है।

श्रद्धागुण की जो निर्मलपर्याय उक्त ’स्व’ में स्थापित करती है, अहं स्थापित करती है, ममत्व स्थापित करती है, अहंकारी करती है, ममकार करती है, एकाकार होती है; उसी निर्मलपर्याय का नाम सम्यग्दर्शन है। इसीप्रकार ज्ञानगुण की जो निर्मलपर्याय उक्त ’स्व’ को निज जानती है, वह सम्यग्ज्ञान है। उसी का ध्यान करनेवाली, उसी में लीन हो जानेवाली, जम जानेवाली, रम जानेवाली, समा जानेवाली चरित्रगुण की निर्मलपर्याय सम्यक्चारित्र है।

-यही सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मुक्ति का मार्ग है, शुभाशुभाभावरूप आस्त्रवभावों के निरोधरूप होने से संवर है, संवरभावना है। अतीन्द्रिय आनन्दमय होने से यही रत्नत्रय संवरभावना का सुमधुर फल भी है

धर्म का आरंभ संवर से ही होता है। संवर स्वयं प्रकट पर्यायरूप धर्म है। पर्याय के बिन्दु का स्वभाव के सिन्धु में सजा जाना ही वास्तविक धर्म है। बिन्दु की सुरक्षा भी सिन्धु में समा जाने में ही है; क्योंकि सिन्धु से बिछुड़ने पर बिन्दु का विनाश निश्चित ही है।

आनन्द की जननी संवरभावना ज्ञान की गंगा है, सुबु;रूपी छैनी है, मुक्ति की नसैनी है।

ध्यान रहे गंगाजल को भी तबतक स्थिरता प्राप्त नहीं होती, जबतक कि वह सागर में न समा जावे। संवरभावना संबंधी चिन्तनधारा को भी तब तक स्थिरता प्राप्त नहीं होती, जबतक वह ज्ञानसागर आत्मा में न समा जावे।

जिसप्रकार गंगा की जलधारा जब अपना अस्तित्व खोकर सागर में सम्पूर्णतः समर्पित हो जाती है, उससे एकमेक हे जाती है; त बवह स्वयं भी सागर हो जाती है। उसी प्रकार संवर संबंधी चिन्तनधारा (संवरानुप्रेक्षा - संवरभावना) भी जब अपना अस्तित्व खोकर ज्ञानसागर (ज्ञानानन्दस्वभावी त्रिकाली ध्रुव आत्मा) में सम्पूर्णतः समर्पित हो जाती है, उसी में विलीन हो जाती है; तब वह धर्म बन जाती है, आत्मा बन जाती है, धर्मात्मा बन जाती है।

आत्मा का धर्मरूप परिणमित हो जाना ही धर्मात्मा बन जाना है। धर्मपरिणत आत्मा को ही धर्मात्मा कहा जाता है। धर्मपरिणति को प्राप्त आत्मा ही मुक्ति करता है; अतः यह भावना मुक्ति की नसैनी ही है। अतीन्द्रिय-आनन्द की उत्पादक होन से आनन्द की जननी भी है। भेदविज्ञानमय होने से सुबुद्धिरूपी छैनी तो है ही।

कविवर पण्डित दौलतरामजी कहते हैं -

’’जिन परमपैनी सुबुधि छैनी डारि अन्तर भेदिया।,
वरणादि अरू रागादि तैं निजभाव को न्यारा किया।।
निजमांहि निज के हेतु निज कर आपको आपै गह्यो।
गुण-गुणी ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय मँझार कछु भेद न रह्यो।।1’’

यहां उनकी ही प्रशंसा, उनकी ही स्तुति, उनको ही वंदना की गई है, जिन्होंने परमपैनी सुबुद्धिरूपी छैनी को अंतर में डालकर, स्व-पर का भेदविज्ञान कर, वर्णादि परपदाएं और रागदिभावों से निजभावों को न्यारा कर लिया है और अपने लिए ही, अपने द्वारा ही, अपने में ही, अपने को ग्रहण कर लिया है। अतः अब गुण-गुणी, ज्ञान-ज्ञेय एवं ज्ञाता के बीच कोई भेद नहीं रह गया है। सब अभेद अनुभूति में एकमेक हो समाहित हो गये हैं।

वर्णादि माने पुद्गलादि परपदार्थ और रागादि माने अपनी ही आत्मा में उत्पन्न होनेवाले चिद्विकार। निजभाव माने ज्ञानानन्दस्वभावी त्रिकाली धु्रव निजशुद्धात्मतत्व।

पुद्गलादि परपदार्थों एवं चिद्विकारों से भिन्न अपने आत्मा को जानना, पहिचानना और पृथक् अनुभव करना ही वर्णादि और रागादि से निजभाव को न्यारा करना है। यह सब सुबुद्धिरूपी परमपैनी छेनी से ही संभव है।

इसप्रकार भेदविज्ञान है मूल जिसका और आत्मानुभूति है सर्वस्व जिसका - ऐसी यह संवरभावना अतीन्द्रिय-आनन्दरूप एवं परमवैरागय की जननी है।

संवरभावना संबंधी उक्त समग्र चिनतन का सार पर और पर्याय से भिन्न निज भगवान आत्मा के सन्मुख होना है, स्वयं को सही रूप में जानना, पहिचानना है एवं स्वयं में ही समा जाना है।

अतः सम्पूर्ण जगत इस संवरभावनारूपी ज्ञानगंगा में आकण्ठ निमग्न होकर स्वभावसन्मुख हो, अपने में ही जम जावे, अपने में ही रम जावे और अनन्त अतीन्द्रिय-आनन्द को प्रापत करे - इस पावन भावना के साथ विराम लेता हूँ।

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