।। समयसार गाथा 15 पर प्रवचन ।।

आत्मानुभूति ही जिनशासन

जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णमविसेसं।
अपदेससंतमज्झ पस्सदि जिणसासणं सव्वं ।।
यः पश्चति आत्मान् अबद्धस्पृष्टमनन्यमविशेषम्।
अपदेशसान्तमध्यं पश्चति जिनशासनं सर्वम्।।
अनबद्धस्पृष्ट, अनन्य, जो अविशेष देखे आत्मा को।
वो द्रव्य और जू भाव, जिनशासन सकल देखे अहो।।

अर्थात् जो पुरुष, आत्मा को अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, अविशेष तथा उपलक्षण से नियत और असंयुक्त देखता है वह सर्व जिनशासन को देखता है, जो जिनशासन बाह्य द्रव्यश्रुत और अभ्यन्तर ज्ञानरूप भावश्रुतवाला है।

टीका: जो यह अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त - ऐसे पांच भावस्वरूप आत्मा की अनुभूति है, वह निश्चय से समस्त जिनशासन की अनुभूति है क्योंकि श्रुतज्ञान स्वयं आत्मा ही है; इसलिए ज्ञान की अनुभूति ही आत्मा की अनुभूति है। परंतु अब वहां, सामान्यज्ञान के आविर्भाव (प्रगटपना) और विशेष ज्ञेयाकारज्ञान के तिरोभाव (अच्छादन) से जब ज्ञानमात्र का अनुभव किया जाता है, तब ज्ञान प्रगट अनुभव में आता है, तथापि जो अज्ञानी हैं, ज्ञेयों में आसक्त हैं उन्हें, वह स्वाद में नहीं हाता। यह प्रगट दृष्टांत से बतलाते हैं -

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जैसे, अनेक प्रकार के शाकादि भोजनों के संबंध में उत्पन्न सामान्य लवण के तिरोभाव और विशेष लवण के आविर्भाव से अनुभव में आनेवाला जो (सामान्य के तिरोभावरूप और शाकादि के स्वाद भेद से भेदरूप - विशेषरूप) लवण है, उसका स्वाद अज्ञानी, शाकलोलुप मनुष्यों को आता है किंतु अन्य की संबंधरहितता से उत्पन्न सामान्य के आविर्भाव और विशेष के तिरोभाव से अनुभव में आने वाला जो एकाकार अभेदरूप लवण है, उसका स्वाद नहीं आता और परमार्थ से देखा जाए तो विशेष के आविर्भाव से अनुभव मंे आने वाला (क्षाररसरूप) लवाण ही सामान्य के आविर्भाव से अनुभव में आने वाला (क्षाररसरूप) लवण है।

इस प्रकार अनेक प्रकार के ज्ञेयों के आकारों के साथ मिश्ररूपता से उत्पन्न सामान्य के तिरोभाव और विशेष के आविर्भाव से अनुभव में आने वाला (विशेषभाव रूप; भेदरूप; अनेकाकाररूप) ज्ञान व अज्ञानी, ज्ञेयलुब्ध जीवों के स्वाद में आता है किंतु अन्य ज्ञेयाकार की संयोगरहितता से उत्पन्न सामान्य के आविर्भाव और विशेष के तिरोभाव से अनुभव में आनेवाला एकाकार अभेदरूप ज्ञान, स्वाद में नहीं आता और परमार्थ से विचार किया जाए तो, जो ज्ञानविशेष के आविर्भाव से अनुभव में आता है, वही ज्ञान सामान्य के आविर्भाव से अनुभव में आता है।

अलुब्ध ज्ञानियों को तो, जैसे सैंधव की डली अन्य द्रव्य के संयोग का व्यवच्छेद करके केवल सैंधव का ही अनुभव किए जाने पर सर्वतः एक क्षाररसत्स के कारण क्षाररूप में स्वाद में आती है; उसी प्रकार आत्मा भी, परद्रव्य के संयोग का व्यवच्छेद करके केवल आत्मा का ही अनुभव किए जाने पर, सर्वतः एक विज्ञानघनता के कारण ज्ञानरूप में स्वाद में आता है।

भावार्थः यहां आत्मा की अनुभूति को ही ज्ञान की अनुभूति कहा गया है। अज्ञानीजन, ज्ञेयों में ही/इंद्रियज्ञान के विष्यों में ही लुब्ध हो रहे हैं; वे इंद्रियज्ञान के विषयों से अनेकाकार हुए ज्ञान को ही ज्ञेयमात्र आस्वादन करते हैं परंतु ज्ञयों में आसक्त नहीं हैं, वे ज्ञेयों से भिन्न एकाकार ज्ञान का ही आस्वाद लेते हैं; जैसे, शाकों से भिन्न नमक की डली का क्षारमात्र स्वाद आता है; उसी प्रकार आस्वाद लेते हैं क्योंकि जो ज्ञान है, सेा आत्मा है और जो आत्मा है, सो ज्ञान है। इस प्रकार गुण-गुणी की अभेददृष्टि में आनेवाला सर्व परद्रव्यों से भिन्न, अपनी पर्यायों में एकरूप निश्चल, अपने गुणों में एकरूप, परनिमित्त से उत्पन्न हुए भावों से भिन्न, अपने स्वरूप का अनुभव, ज्ञान का अनुभव है और यह अनुभवन भावश्रुतज्ञानरूप जिनशासन का अनुभवन है। शुद्धनय से इसमें कोई भेद नहीं है।

यह गाथा समस्त जिनशासन के रहस्य की गाथा है। सर्वज्ञ परमेश्वर का जो मार्ग है, यही जैनशासन का का मोक्ष मार्ग है।

जो पुरुष, शुद्ध आनन्दघन चैतन्यस्वरूप आत्मा को अबद्धस्पृष्ट अर्थात् कर्म के साथ बंध व स्पर्शरहित; अनन्य अर्थात् मनुष्य, नगर आदि अन्य-अन्य गति से रहित; अविशेष अर्थात् ज्ञान, दर्शन, गुणभेदरहित सामान्य एकरूप तथा उपलक्षण के नियत अर्थात् वृद्धि-हानिरूप अवस्था से रहित और असंयुक्त अर्थात् पुण्य-पाप और सुख-दुःख की कल्पनाओं से रहित देखता है अर्थात् अंतर में अनुभव करता है, वह सर्व जिनशासन को देखता है। समस्त जिनशासन के रहस्य को उस आत्मा ने जान लिया है।

भगवान आत्मा, नित्य मुक्तस्वरूप शुभाशुभभावरहित त्रिकाल शुद्ध चैतन्यवस्तु है। ऐसे आत्मा का अभ्यन्तरज्ञान से अर्थात् भावश्रुतज्ञान से अनुभव करना, शुद्धोपयोग है, यह वीतरागीपर्याय है और यही जैनधर्म है। वीतरागीदशा, जैनशासन है और यह जैनधर्म का रहस्य है।

आत्मा जो त्रिकाली वस्तु है, वह निस्वरूप ही है। जिनवर में और आत्मा में कोई अंतर नहीं है। कहा है -

जिन सो ही है आतमा, अन्य सो ही है कर्म।
इसी वचन से समझ ले, जिन-प्रवचन का मर्म।।

प्रत्येक आत्मा का द्रव्यस्वभाव तो त्रिकाल ऐसा ही एकरूप है। जो भी आत तक भगवान हुए, वे ऐसे आत्मा का पूर्ण आश्रय करके, पूर्ण निर्मलपर्याय प्रगट करके हुए हैं। शुद्धोपयोग द्वारा जिनस्वरूप भगवान आत्मा में रमणता करना, जानना, अनुभवा - इसे भगवान जैनशासन कहते हैं। यह जैनशासन पर्याय में हैं, द्रव्य में नहीं। यह पूर्ण जिनस्वरूप आत्मा को ग्रहण करनेवाला शुद्धोपयोग ही जैनशासन है, परमेश्वर का मार्ग है। जिसने ऐसे आत्मा को नहीं जाना, उसने कुछ भी नहीं जाना। पर्यायदृष्टि में आत्मा को बद्धस्पृष्ट; अन्य-अन्य अवस्थारूप; अनियत, भेदरूप और रागरूप देखते हैं, यह जैनशासन नहीं है। ये सेठ लोग करोड़ों का दान करें, कोई भक्ति-पूजा करे, दया, व्रतपालें, वह कोई जैनशासन नहीं है। वीतराग की वाणी स्याद्वादरूप है; इसलिए कहीं किसी स्थान पर राग को भी धर्म कहा है किंतु ऐसा नहीं है अर्थात् वीतरागता से भी धर्म और राग से भी धर्म - ऐसा स्याद्वाद का स्वरूप नहीं है। धर्मधुरन्धर, धर्म के स्तंभ, जिन्हें मंगलाचरण में तीसरे स्थान पर स्मरण किया जाता है, उन आचार्य कुन्दकुन्द ने आगम में जैसा कहा है, उसे पूर्वाग्रह छोड़कर एक बार सुन तो सही! अंतर में एकरूप परमात्मतत्व की प्रतीति व रमणता करना ही शुद्धोपयोग है, यही जिनशासन है। यह जैनशासन ‘अपदेशसान्तमध्यं’ अर्थात् बाह्य द्रव्यश्रुत और अभ्यंतर ज्ञानरूप भावश्रुतवाला है। श्री जयसेनाचार्य की टीका में आता है कि बाह्य द्रव्यश्रुत में ऐसा ही कहा है कि अबद्धस्पृष्ट आत्मा का अनुभव करना ही जैनशासन है। बारह अंगरूप वीतरागवाणी का यही सार हैै कि शुद्धात्मा का अनुभव कर। द्रव्यश्रुत वाचक है और अंदर भावश्रुतज्ञान उसका वाच्य है। द्रव्यश्रुत, अबद्धस्पृष्ट आत्मा के स्वरूप का निरूपण करता है और भावश्रुत अबद्धस्पृष्ट आत्मा का अनुभव करता है।

पंडित श्री राजमल जी पाण्डे ने कलश 13 में इसका बहुत सुन्दर स्पष्टीकरण किया है। ‘शिष्य ने पूछा - इस प्रसंग में दूसरी यह भी शंका होती है कि कोई जानेगा कि द्वादशंग ज्ञान कोई अपूर्व लब्धि है।

उसका समाधान - द्वादशांग ज्ञान विकल्प है। उसमें भी ऐसा ही कहा है कि शुद्धात्मानुभूति मोक्षमार्ग है, वीतरागी शुद्धात्मा का अनुसरण करने पर जो अनुभव होता है, वह अनुभूति मोक्षमार्ग है। ऐसी वस्तु को जानने के बाद विकल्प आवें तो शास्त्र बांचे, किंतु ऐसे जीवों को शास्त्र पढ़ने की कोई अटक नहीं है अर्थात् शास्त्र पढ़े बिना चले नहीं - ऐसा नहीं है’

ऐसा मार्ग हे भाई ! अरे! (स्थानकवासी) सम्प्रदाय में लोगों ने भगवान के मार्ग को नष्ट कर दिया है। अरे! भगवान का विरह पड़ा और लोग बड़े झगड़े में पड़ गए। कोई कहता है कि शुभराग से धर्म होता है तथा कोई कहता है कि शुभभाव करते-करते धर्म होगा। भारी विपरीतता आ पड़ी है किंतु इससे क्या हो? सर्वज्ञता तो प्रगट हुई नहीं है और सर्वज्ञ स्वभाव का अनुभव नहीं है यहां कहते हैं कि सर्वज्ञस्वभाव का अनुभवरूप शुद्धउपयोग जैनशासन है, जैनधर्म है। जैनधर्म कोई सम्प्रदाय नहीं है; यह तो वस्तु का स्वरूप है।

प्रवचनचार में 47 नयों में शुद्धनय और अशुद्धनय की बात आती है; उसमें मिट्टी के बर्तन-घटादि से देखें तो अशुद्धनय है तथा अकेली मिट्टी...मिट्टी....मिट्टी सामान्य से देखें तो शुद्धनय है। उसी प्रकार भगवान आत्मा को ज्ञान, दर्शन, चारित्र की पर्याय से देखें तो अशुद्धनय है और त्रिकाली एकरूप चैतन्यसामान्यपने देखें तो शुद्धनय है। ऐसे शुद्धनय के विषयभूत चैतन्यसामान्य त्रिकाली द्रव्य का अनुभव करने को ही यहां जैनदर्शन कहा है।