-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती

चार गतियों में से देवगति का एक भेद हैं-ज्योतिर्वासीदेव। ये ज्योतिषी देव मध्यलोक क आकाश्ज्ञमण्डल में स्थित अपने-अपने विमानों में रहकर धरती के प्राणियों पर भी अपना प्रभाव डालते हैं। मनुष्य जिस समय मां के गर्भ से उत्पन्न होता है, उसी समय सकी जन्मतिथ के साथ-साथ समय, ग्रह, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, योग आदि को ध्यान में रखते हुए माता-पिता ज्योतिषी से संतान की जन्मकुंडली बनवाकर पूछते हैं कि इसका भविष्य शुभ हैं अथवा अशुभ?

कुंडली में स्थित ग्रहचक्रों के अनुसार ज्योतिषी की भविष्यवाणी उसके शुभाशुभ की घेषण करती है और तभी से परिवार के लोग अपनी चिन्तानिवारा हेतु तरह-तरह के उपक्रम में लाग जाते हैं। कहते हैं कि बालक या बालिका आदि मूल नक्षत्र में उत्पन्न हुए हैं तो पिता पर संकट आता है अतः उसकी शांति का पुरूषार्थ तुरंत करना चाहिए। इसी प्रकार सूर्य, चन्द्रमा एवं ग्रहों का संचार भी देखा जाता है कि चन्द्रमा किस राशि में था? सूर्य किस महादशा अथवा निम्न दशा में था...............इत्यादि।

यद्यपि जैन सिद्धान्त में कर्मव्यवस्था को ही सर्वाधिक बलवान् मानकर उनसे लड़क का मार्ग हमारे तीर्थंकर ने बतलाया है, फिर भी व्यवहारिक बाह्य निमित्तों में ग्रह आदि का भी महतवपूर्ण स्थान माना है। ये ग्रह नव माने गये हैं - सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरू, शुक्र, शनि, राहु और केतु। इन नव ग्रहों के अधिपति देवता पूर्व जन्म के वैर या मित्रतावश अथवा इस जन्म में मात्र क्रीड़ा आदि के निमित्त से लोगों को सुख--दुःख पहुंचाते रहते हैं अर्थात् उच्च स्थान वाले ग्रह प्राणियों को उच्चपद, यश, धन, आरोग्यता की प्राप्ति कराते हैं एवं निम्नस्थान में पड़े ग्रह उपयश, आर्थिक हानि, शारीरिक-मानसिक व्याधियां उत्पन्न कराते हैं इसीलिए संसारी मानव इनकी शांति के उपाय करते हैं।

नवग्रह अरिष्टनिवारक पूजा, विधान एवं स्तोत्र की परम्परा काफी दिनों से हमारे समाज में चल रही है, जिसके माध्यम से भक्तगण चैबीसों तीर्थंकरों की आराधना करते हैं। पहले की जो कवि ’’मनसुख’ द्वारा रचित नवग्रह की समुच्च्यपूजन हैं उसमें भी चैबीसों तीर्थंकर के नाम लिए हैं तथा विधान में जब अलग-अलग प्रत्येक ग्रह की पूजा करते हैं तो क्रम से सूर्यग्रह अरिष्ट निवारण हेतु पद्प्रभु जिनेन्द्र की पूजा चन्द्रग्रह में चन्द्रप्रभ, मंगलग्रह में वासुपूज्य, बुधगह में विमल, अनन्त, धर्म, शांति, कुंथु, अरह, नमि और वर्धमान इन आठ भगवन्तों की, गुरूग्रह में ऋषभ, अजित, संभव, अभिनन्ंदन, सुमति, सुपारस, शीतल और श्रेयांस इन आठ जिनेन्द्रों की, शुक्रग्रह में पुष्पदन्त भगवान, शनिग्रह में मुनिसुव्रत जिनेन्द्र, राहुग्रह में नेमिनाथ भगवान तथा केतुग्रह में मल्लिनाथ एवं पाश्र्वनाथ भगवान की पूजा होती है। इसी प्रकार अलग-अलग ग्रहों की जाप्य में उपर्युक्त क्रमानुसार चोबीसों तीर्थंकर समाविष्ट किये गये हैं किन्तु इस ’’नवग्रहशांति विधान’’ में नवग्रह के अरिष्ट निवारण करने वाले मात्र नौ तीर्थंकरों की ही पूजन है। इसमें प्रमुख कारण यह है कि 6-7 वर्ष पूर्व पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने एक प्राचीन जिनवाणी संग्रह में नवग्रह शांतिकारक नव तीर्थंकरों के नाम प्राप्त किये सो उसी प्रमाणानुसार उन्होंने एक नवग्रहशांति यंत्र बनवाया जिसमें नव भगवनतं के चरणचिन्ह हैं। पूज्य माताजी ने मुझे भी इसी प्रमाणानुसार नवग्रह का लघु विधान लिखने की प्रेरणा प्रदान की अतः यह नूतन कृति मैंने अपनी अल्पबुद्धि से रचकर गुरू के करकमलों में समर्पित की है।

प्राचीन काल से ही जैन आगम में नवग्रहों की शांति हेतु नवग्रहशांति स्तोत्र-पाठ, पूजन, विधान इत्यादि करने की परम्परा रही ळें इस युग के अंतिम श्रुतकेवली मुनिराज भद्रबाहु के द्वारा रचित नवग्रहशांति स्तोत्र में नौ ग्रहों की शांति हेतमु चैबीसों तीर्थंकरों का क्रम बताया है, स्तोत्र का मैंने हिन्दी पद्यानुवाद किया है जो कि पृष्ठ नम्बर 61-62 पर प्रकाशित है तथा जिनसागरसूरि रचित नवगह स्तोत्र एवं दक्षिण भारत से प्राप्त प्रमाण एवं प्राचीन अन्य पुस्तकों के आधार पर नवग्रहों की शांति करने वाले नौ तीर्थंकरों के नाम प्राप्त होते हैं। इन नवतीर्थंकरों के क्रम से भी एक स्तोत्र की मैंने रचना की है जो कि पृष्ठ नम्बर 63-64 पर प्रकाशित है तथा इन नवग्रहों से संबंधित नवतीर्थंकर भगवन्तों की जाप्य इस प्रकार है-

1. ऊँ ह्रीं सूर्यग्रहारिष्टशांतिकराय श्रीचन्द्रप्रभजिनेंद्राय नमः।

2. ऊँ ह्रीं सोमग्रहारिष्टशांतिकराय श्रीचन्द्रप्रभजिनेंद्राय नमः।

3. ऊँ ह्रीं सोमग्रहारिष्टशांतिकराय श्रीवासु्मप्रभजिनेंद्राय नमः।

4. ऊँ ह्रीं मंगलग्रहारिष्टशांतिकराय श्रीमल्लिनाथजिनेंद्राय नमः।

5. ऊँ ह्रीं बुधग्रहारिष्टशांतिकराय श्रीमहावीरजिनेंद्राय नमः।

6. ऊँ ह्रीं गुरूग्रहारिष्टशांतिकराय श्रीपुष्पदंतनाथजिनेंद्राय नमः।

7. ऊँ ह्रीं शुक्रग्रहारिष्टशांतिकराय श्रीसुव्रतनाथजिनेंद्राय नमः।

8. ऊँ ह्रीं निग्रहारिष्टशांतिकराय श्रीनेमिनाथजिनेंद्राय नमः।

9. ऊँ ह्रीं रार्हुग्रहारिष्टशांतिकराय श्रीपाश्र्वनाथजिनेंद्राय नमः।

परमपूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर (नालंदा-बिहार) में अत्यंत सुन्दर ’’नवग्रहशांति जिनमंदिर’’ का निर्माण हुआ है जिसमें 9 कमलों पर नवग्रहों को शांत करने वाले वाले 9 तीर्थंकर 2004 को वेदी प्रतिष्ठा एवं कलशारोहण के पश्चात् से ही अनेकानेक श्रद्धालु अपने ग्रहों की शांति हेतु-पूजा-अर्चना करने यहां पधार रहे हैं। भारतवर्ष में दिगम्बर जैन आगम परम्परा का वह मंदिर अपने आप में अनोखा है, जिसकी कीर्ति सभी ओर व्याप्त हो रही है। आप भी उस सुंदर मंदिर के दर्शन करके अपने सौभाग्य की सराहना करें।

इस विधान में प्रथम नवग्रह समुच्चय पूजन में भी नव तीर्थंकरों की अर्चना है तथा पृथक-पृथक् ग्रहों की शांति हेतु पृथक-पृथक् एक-एक तीर्थंकर की ही पूजा है, जिनका क्रम निम्न प्रकार है-

1. रविग्रह की शांति हेतु पद्मप्रभ जिनेन्द्र

2. चन्द्रग्रह में चन्द्रप्रभ

3. मंगल ग्रह में वासुपूज्य

4. बुधग्रह में मल्लिनाथ

5. गुरूग्रह में महावीर भगवान

6. शुक्रग्रह में पुष्पदंत

7. शनिग्रह में मुनिसुव्रत

8. राहुग्रह में नेमिनाथ और

9. केतुग्रह में पाश्र्वनाथ भगवान की पूजा है।

इसप्रकार इस पूजन विधान में कुल 10 पूजन हैं, 9 पूर्णाघ्र्य हैं, 10 जयमाला महाघ्र्य एवं एक अंतिम समुच्च जयमाला का महाघ्र्य है अतः कुल 20 अघ्र्य मण्डल पर चढ़ाने का निर्देष है। एक दिन में म 2-3 घंटे के अंदर यह विधान सम्पन्न करके भक्तजन अपने ग्रहों की शांति कर सकते हैं। इस पूजन विधान के द्वारा आप सभी व्यवहारिक एवं आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति करें, यही मंगल भावना है।